ऋषित्व की प्रगाढ़ अनुभूति की परिचायक शोध साधना

June 2002

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ऋषियों के शोध अनुसन्धान के उद्देश्य एवं प्रक्रिया की मौलिकता ने देव संस्कृति के समस्त आयाम गढ़े हैं। इसमें संजोयी जीवन जीने की कला, मूल्य, आदर्श, सद्गुणों की दैवी सम्पत्ति को विकसित करने का सारा विज्ञान ऋषियों के शोध-अनुसन्धान का ही सुफल है। इस परम्परा और प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की डगर भी यही है। ऋषियों के काम करने के लिए हमें ऋषियों की राह पर चलना होगा। उनकी शोधप्रियता एवं अन्वेषण वृत्ति के साथ उन उद्देश्यों एवं प्रक्रियाओं को भी जानना होगा, जिसकी वजह से देव संस्कृति अस्तित्त्व में आयी। ज्ञान-विज्ञान की असंख्य कल्याणकारी धाराएँ प्रवाहित हुई। भारत देश को जगद्गुरु की गरिमा मिली।

इस सच को भी सभी जानते हैं कि विश्वभर का सारा ज्ञान शोध-अनुसन्धान का परिणाम है। लेकिन इस बात की अनुभूति कम ही लोग कर पाते हैं कि यह कभी कल्याणकारी और कभी विनाशकारी क्यों हो जाता है? इस प्रश्न का हल ज्ञान को जन्म देने वाले शोध अनुसन्धान के उद्देश्य एवं प्रक्रिया में छुपा है। यदि उद्देश्य एवं प्रक्रिया ऋषि संवेदना से युक्त है, तो उपलब्ध ज्ञान सुनिश्चित रूप से कल्याणकारी होगा। और यदि अनुसन्धान के उद्देश्यों व प्रक्रियाओं में ऋषि संवेदना का अभाव है, तो उपलब्ध ज्ञान से अनिष्ट एवं अनर्थ ही जन्म लेंगे। उससे विनाश लीलाएँ ही फैलेंगी। समूची दुनिया में हर रोज यह सच बार-बार जाना और परखा जाता है। इस बात के प्रामाणिक होने में अब कोई कोर-कसर नहीं रह गयी है कि शोध-अनुसन्धान के लिए प्रखर मेधा सम्पन्न मस्तिष्क के साथ उच्चस्तरीय संवेदनाओं से युक्त हृदय की भी जरूरत है।

इन दोनों के सुयोग-संयोग से शोध-अनुसंधान के क्षेत्र में उद्देश्यों व प्रक्रियाओं में उसी मौलिकता को पाया जा सकता है, जो ऋषियों के जीवन में थी। ये मेधावान ऋषि प्रखर तपस्वी थे। उच्चस्तरीय संवेदनाएँ उनमें स्पन्दित होती थी। युग की वेदना उन्हें विकल करती थी। मानव हित एवं विश्वहित की कामना से वे रूखा-सूखा खाकर साधारण जीवन जीते हुए अपनी शोध में तल्लीन रहते थे। उनकी शोध का स्वरूप कुछ भी हो, पर उद्देश्य एक ही था- मानव हित-विश्व हित। इसी के अनगिन प्रश्नों के हल के लिए उन्होंने उपयोगी प्रक्रियाएँ गढ़ी थीं। शोध-अनुसंधान के उद्देश्यों एवं प्रक्रियाओं का यही ऋषिकल्प संयोग देव संस्कृति विश्वविद्यालय में साकार हो रहा है।

ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के सहयोग से यहाँ के शोध कार्य का संयोजन एवं संचालन प्रत्येक संकाय के प्रत्येक विभाग में गठित की गयी शोध-उपाधि-समितियाँ या रिसर्च डिग्री कमेटी (आर.डी.सी) करेगी। प्रत्येक संकाय एवं विभाग में शोध कार्य के विविध स्तर होंगे। इन स्तरों के अनुरूप ही शोधार्थी एम.फिल., पी-एच.डी., डी.लिट् एवं डी.एस.सी. उपाधि के अधिकारी होंगे। इनमें से किसी भी उपाधि को पाने के लिए शोध छात्र एवं शोध छात्रा को अपने शोध उद्देश्य की कड़ी जाँच एवं प्रक्रिया की खरी परख के अनेक स्तरों से गुजरना होगा। उन्हें अपने शोध कार्य की उपयोगिता व उपादेयता को सिद्ध करना होगा।

विश्वविद्यालयों में शोध कार्य के गिरते स्तर से देव संस्कृति विश्वविद्यालय के संचालक परिचित ही नहीं चिन्तित भी हैं। इसीलिए समय की इस चुनौती का सामना करने के लिए यहाँ कई कड़े कदम उठाए गए हैं। शोध कार्य के संचालन हेतु कई विशिष्टताओं को अपनाया गया है। इनमें से सबसे बड़ी विशेषता शोध कार्य के उद्देश्य व शोध विषय के चुनाव के बारे में है। इस बारे में यह निश्चित किया गया है कि राष्ट्रीय व मानवीय जीवन की ज्वलन्त समस्याएँ यहाँ किए जाने वाले शोध अनुसन्धान के उद्देश्यों को निश्चित करेंगी। ऋषियों के ज्ञान एवं भारतीय विद्याओं के विविध पहलुओं के परिप्रेक्ष्य में इनके सार्थक समाधान ढूंढ़े जाएँगे। शोध-अनुसंधान का मकसद केवल बौद्धिक कलाबाजियों एवं कुलाँचों तक सीमित नहीं रहेगा। शोधार्थियों को मानव जीवन की शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, साँस्कृतिक, नैतिक, आर्थिक आदि विविध समस्याओं की स्पष्ट और सार्थक अनुभूति करनी होगी। मानवीय वेदना की टीस व कसक की इस अनुभूति से ही शोध के उद्देश्य तय होंगे, शोध के विषय तय होंगे। सार रूप में राष्ट्रीय व मानवीय समस्याओं की अनगिन चुनौतियों को स्वीकार करना और उनके सार्थक समाधान खोज निकालना ही यहाँ के शोध-अनुसंधान का उद्देश्य होगा।

शोध-अनुसन्धान की प्रक्रिया का स्वरूप भी शोध विषय व उद्देश्य के अनुरूप गढ़ा गया है। प्रक्रिया के पहले चरण में शोधार्थी को शोध विषय के चुनाव एवं शोध कार्य की रीति-नीति की जानकारी के लिए विश्वविद्यालय के सम्बद्ध विभाग में आवश्यक प्रशिक्षण प्राप्त करना होगा। प्रायः देखा यह गया है कि शोध तकनीक का समुचित प्रशिक्षण प्राप्त किए बगैर शोधार्थी अपना काम शुरू कर देते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि उनका समूचा शोध कार्य कुछ रद्दी पन्नों का छोटा या बड़ा ढेर बनकर रह जाता है। देव संस्कृति विश्वविद्यालय के किसी भी संकाय के किसी भी विभाग में शोध कार्य के इच्छुक छात्र या छात्रा के लिए शोध विषय के अनुरूप शोध तकनीक का आवश्यक प्रशिक्षण करना अनिवार्य होगा। शोध तकनीक एवं शोध विषय के महत्त्व को दर्शाने वाले कम से कम एक या दो शोध पत्र लिखने के बाद ही शोधार्थी का शोध उपाधि के लिए पंजीकरण हो सकेगा। इस शोध पत्र की जाँच डीन के निर्देशन में विभागाध्यक्ष के आधीन बनी एक विशेष समिति करेगी। इसके सन्तुष्ट होने पर ही शोधार्थी के शोध विषय का पंजीकरण सम्भव होगा।

विषय के पंजीकरण होने के बाद शोध छात्राएँ एवं छात्र अपने निर्देशक के आधीन शोध कार्य प्रारम्भ करेंगे। शोधार्थियों की विश्वविद्यालय के प्रत्येक कार्य दिवस में उपस्थिति अनिवार्य होगी। यहीं रहकर वे अपने प्रायोगिक एवं सैद्धान्तिक कार्य को पूरा करेंगे। निर्देशक की अनुमति से ये शोधार्थी अपने कार्य के लिए किसी विशेष स्थान के लिए जा सकते हैं। अपने शोध कार्य को पूरा करने से पहले शोधार्थी को अपने कार्य से सम्बन्धित कम से कम दो या तीन शोध पत्रों को प्रकाशित करना अनिवार्य होगा। ये शोध पत्र विषय से सम्बन्धित किसी प्रतिष्ठित शोध-पत्रिका में प्रकाशित होने चाहिए।

शोध कार्य पूरा हो चुका, यह शोध विषय के निर्देशक एवं सह निर्देशक प्रमाणित करेंगे। इसके बाद यह शोध प्रबन्ध विश्वविद्यालय के परीक्षा विभाग द्वारा विशेषज्ञों के अनुमोदन से देश या विदेश के किन्हीं दो प्रतिष्ठित विद्वानों के पास जाँच के लिए भेजा जाएगा। ये विद्वान् विषय के विशेषज्ञ होंगे। इनके सन्तुष्ट होने पर विश्वविद्यालय में शोधार्थी की परीक्षा होगी। इस परीक्षा का स्वरूप लिखित एवं मौखिक दोनों ही, शोध उपाधि समिति तय करेगी। परीक्षकों द्वारा शोध प्रबन्ध के प्रकाशन योग्य एवं समस्या के सार्थक समाधान के योग्य पाए जाने पर शोधार्थी अपनी शोध-उपाधि के अधिकारी होंगे।

शोध अनुसन्धान के उद्देश्य एवं प्रक्रिया का यह समूचा विधान शोध कार्य के स्वरूप का सार्थक एवं उत्कृष्ट बनाने के लिए बनाया गया है। इसका प्रत्येक पहलू छात्र को यह समझाएगा कि शोध किसी उपाधि का अलंकरण भर नहीं है। यह ऋषि जीवन की कठोर तप साधना है। शोध कार्य करने का अर्थ अपने जीवन में ऋषित्व को सिद्ध करना है। इस क्रम में शोध छात्र एवं छात्राओं के सम्मुख एक ही सत्य रखा जाएगा कि जिसने भी अपने शोध-अनुसंधान में ऋषित्व की जितनी प्रेरक एवं प्रगाढ़ अनुभूति की, उसी की उतनी शोध साधना सफल हुई। इस शोध साधना का केन्द्र विश्वविद्यालय का पुस्तकालय होगा। यही पर शोध सत्यों को प्रकट करने वाली उर्वर विचार भूमि एवं संवेदनशील भावभूमि तैयार होगी।


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