ऋषि संस्कृति का बहुआयामी स्वरूप दर्शाएगा प्रशासन तंत्र

June 2002

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प्रकाशन विभाग देव संस्कृति विश्वविद्यालय की उज्ज्वल कीर्ति का प्रकाश है। विश्वविद्यालय की विविध हलचलें, क्रियाकलाप, गतिविधियाँ एवं उपलब्धियाँ इसी के द्वारा प्रकाश में आएँगी। ऋषि संस्कृति के बहुआयाम प्रकाशन विभाग से ही प्रकाशित होंगे। इसका कार्य क्षेत्र काफी व्यापक एवं विस्तृत है। इसके उद्देश्यों में यही उदार-विस्तार है। उपलब्धियाँ हो और उनके वितरण की व्यवस्था न बने तो उनका अर्जन अधूरा है। सबका हित और सबका सुख- यही संस्कृति संदेश है। इसी साँस्कृतिक संवेदना के प्रसार के लिए देव संस्कृति विश्वविद्यालय में प्रकाशन विभाग की स्थापना की गयी है। देव संस्कृति के सृजन अभियान को इससे और भी अधिक तीव्र संवेग प्राप्त होगा।

पुरातन काल में ऋषियों ने संस्कृति सूत्रों के अन्वेषण-अनुसन्धान के साथ इनके प्रकाशन और विस्तार की समुचित व्यवस्था की थी। यद्यपि उस समय यह व्यवस्था अपने युग के अनुरूप थी। कागज और छपाई के अभाव में बहुत बड़ी संख्या में पुस्तकों का प्रकाशन तो सम्भव न था। फिर भी संस्कृति के भाव विस्तार के लिए अनेकों कारगर उपाय ढूंढ़े गए थे। विश्वविद्यालयों के आचार्य अपने छात्रों-अन्तेवासियों के साथ भ्रमण के लिए देश के विभिन्न भागों में जाते थे। इस देशाटन से दोहरा लाभ होता है। पहले लाभ के रूप में विद्यार्थियों की ज्ञान वृद्धि होती थी। उन्हें क्षेत्र विशेष की रीति-नीति, वहाँ की भौगोलिक संरचना, ऐतिहासिक उपलब्धियाँ, वैज्ञानिक तथ्य आदि अनगिनत बातों का ज्ञान होता था। इसी के साथ दूसरा लाभ जन सामान्य को होता था। वे विशेष रूप से विश्वविद्यालयों के इन विशेषज्ञ आचार्यों के संपर्क में आते थे। और उनके ज्ञान से लाभान्वित होते थे। जनपद, नगर एवं ग्रामवासियों को इन आचार्यों और छात्रों से अनेक तरह का ज्ञान मिलता था।

वैदिक साहित्य में जल जातुकर्णी नाम के कृषक का उल्लेख मिलता है। जिसने महर्षि कौष्टक एवं उनके अन्तेवासियों से कृषिविद्या के लिए उपयोगी तकनीकी ज्ञान सीखा था। वभ्रु द्वारा महर्षि अत्यंहस से शिल्प एवं जीवनोपयोगी कौशल सीखे जाने का उल्लेख वेदों में मिलता है। इस व्यावहारिक ज्ञान के अलावा आध्यात्मिक ज्ञान तो इस धर्म प्राण देश का जीवन ही था। विश्वविद्यालयों के आचार्य व उनके अन्तेवासी अपने ज्ञान के प्रकाशन से विशेषज्ञों सहित सामान्य जनों को प्रभावकारी ढंग से लाभान्वित करते थे।

ज्ञान प्रकाशन की यह प्रभावशाली परम्परा ऐतिहासिक युग के तक्षशिला, नालन्दा, विक्रमशील एवं उदयन्तपुर आदि विश्वविद्यालयों में थी। प्रायः इन सभी विश्वविद्यालयों में प्रकाशन विभाग थे। तब छपाई की व्यवस्था न होने के कारण इस विभाग में विश्वविद्यालय के आचार्यों द्वारा लिखे गए ग्रन्थों की प्रतिलिपि लेखन का कार्य होता था। विश्वविद्यालय के विद्यार्थीगण इस प्रकाशन कार्य में सम्मिलित होते थे। इन प्रकाशित कृतियों को पहले अन्य विश्वविद्यालयों के प्रतिष्ठित आचार्यों के पास समीक्षा के लिए भेजा जाता था। बाद में उनकी समीक्षा टिप्पणी भी इन ग्रन्थों में जुड़ती थी। ऐसी टिप्पणी वाले ग्रन्थों को छात्रों एवं जिज्ञासुओं के बीच ज्यादा प्रामाणिक माना जाता था।

इतिहास में नालन्दा विश्वविद्यालय के आचार्य ज्ञानचन्द्र के द्वारा लिखे गए ज्योतिषदीप नाम के एक ग्रन्थ का उल्लेख मिलता है। ऐतिहासिक उल्लेख के अनुसार यह ग्रन्थ बड़े यत्न से प्रकाशित किया गया था। इस ग्रन्थ में अनेक प्रतिष्ठित आचार्यों की समीक्षा के साथ विक्रमशील विश्वविद्यालय के महास्थविर आचार्य दीपंकर की समीक्षा टिप्पणी भी प्रकाशित की गयी थी। आचार्य दीपंकर बौद्ध दर्शन के साथ ज्योतिष एवं तंत्र के भी महान् विद्वान् थे। ऐसे ही अन्य अनेक ग्रन्थों की प्रकाशन कथाएँ इतिहास के पन्नों में ढूंढ़ने से मिल जाती हैं। ये सभी कथाएँ प्राचीन विश्वविद्यालयों में प्रकाशन विभाग के विविध रूपों के बारे में बताती हैं।

देव संस्कृति विश्वविद्यालय का प्रकाशन विभाग भारत देश के प्राचीन गौरव की अभिनव स्थापना है। प्रकाशन विभाग के कार्यों का नियंत्रण विश्वविद्यालय की प्रकाशन समिति करेगी। इस समिति के दो उपविभाग होंगे। इनमें से पहले उपविभाग का संचालन विशेषज्ञ विद्वानों की एक टीम करेगी। दूसरा उपविभाग प्रकाशन की तकनीकी ज्ञान से जुड़े हुए लोगों का होगा। जो प्रकाशन कार्य और उसकी गुणवत्ता को जाँच-परखकर विश्वविद्यालय के संस्कृति-सृजन को प्रकाशित करेगा।

इस प्रकाशन विभाग पर ही विश्वविद्यालय के मुख पत्र को प्रकाशित करने की जिम्मेदारी होगी। इस मुख पत्र का सम्भावित नाम ‘देव संस्कृति’ है। इसमें विश्वविद्यालय की सामयिक गतिविधियों एवं नीति-निर्धारण की सम्पादकीय के साथ यहाँ के विभिन्न संकायों के आचार्यों एवं छात्रों के शोध आलेख प्रकाशित होंगे। इसमें प्रकाशित कृतियों की प्रामाणिकता अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की होगी। इसका प्रसार भी विश्व व्यापी किए जाने की योजना है। भारतीय संस्कृति एवं भारतीय विद्याओं पर शोध आलेख प्रकाशित करने वाला यह अपने ढंग का मौलिक पत्र होगा। इसका सम्पादन प्रकाशन विभाग के विशेषज्ञों-विद्वानों की समिति करेगी। इस कार्य में अन्य राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय मनीषियों व विचारशीलों का भी सहयोग लिया जाएगा।

इसके अलावा प्रकाशन विभाग द्वारा देव संस्कृति के ज्ञान-विज्ञान के विविध पहलुओं को प्रकट करने वाली अन्य मौलिक कृतियाँ प्रकाशित की जाएगी। इनका सृजन विश्वविद्यालय के आचार्यगण करेंगे। शिक्षण के साथ अपने विषय से सम्बन्धित साहित्य का सृजन एवं शोध पत्र लेखन भी आचार्यों का दायित्व होगा। देव संस्कृति में समाए ज्ञान-विज्ञान के सामयिक व वैज्ञानिक प्रस्तुतीकरण के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। यह भगीरथ तप यहाँ के आचार्यों को ही करना है। इसे बिना किए संस्कृति की देव सरिता जन-जन तक न पहुँच सकेगी। हमारे पूर्वजों की महान् आत्माओं को देव संस्कृति की सरिता के ज्ञान जल से ही तृप्ति मिलेगी। इसी से उनका सच्चा तर्पण एवं श्राद्ध होगा।

प्रकाशन विभाग का एक महत्त्वपूर्ण कार्य विश्वविद्यालय के शोध-छात्रों द्वारा लिखे गए शोध-प्रबन्धों का प्रकाशन है। यह पहले ही कहा जा चुका है कि शोध छात्रों को केवल प्रकाशन योग्य शोध प्रबन्धों पर ही शोध उपाधियाँ मिलेंगी। ऐसे उत्कृष्ट शोधकार्यों को विश्वविद्यालय के प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित किया जाएगा। हालाँकि ऐसा करने से पहले विशेषज्ञों की समिति इनकी गुणवत्ता को कई स्तरों पर परखेगी। इस गुणवत्ता के महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं में शोध प्रबन्ध के मौलिक सृजन के साथ विषय की सामयिक उपयोगिता भी है। इसके अलावा इस कृति से भारतीय संस्कृति एवं भारतीय विद्याओं के किसी पहलू पर इसके द्वारा सार्थक एवं उत्कृष्ट अभिव्यक्ति अनिवार्य है।

इन मौलिक शोध कृतियों का प्रकाशन देव संस्कृति की दिव्यता एवं जीवन्तता को सिद्ध करेगा। प्रकाशन विभाग की उपलब्धियाँ विश्व मानव को भारत देश की सनातन संस्कृति की एक नयी अनुभूति देंगी। सभी जान सकेंगे कि जिस महान् साँस्कृतिक वैभव को उन्होंने जीवाश्म समझ लिया था, दरअसल वह जीवन्त है। अभी भी उसमें प्राण और ऊर्जा है। दुनिया भर के राष्ट्रों एवं मनुष्यों को अभी भी इससे प्राण और जीवन के वरदान मिल सकते हैं। शोध पत्रिका ‘देव संस्कृति’ एवं विभिन्न शोध-प्रबन्धों के अलावा अन्य अनगिनत मौलिक रचनाएँ इस विभाग के द्वारा प्रकाशित की जाएँगी। उच्च स्तरीय विचारों के दिव्य निर्झर के रूप में यह विभाग सतत और अविराम क्रियाशील रहेगा। इस क्रियाशीलता के लिए इसे आवश्यक ज्ञान ऊर्जा विश्वविद्यालय के आचारवान आचार्यों से मिलेगी। उनका तप ही इस विभाग का जीवन होगा।


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