ज्ञान की उपलब्धियों का संगोष्टी द्वारा पारस्परिक वितरण

June 2002

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सेमीनार या संगोष्ठी विश्वविद्यालय की विद्या साधना का महिमामय आयाम है। यह देव संस्कृति के प्रणेता ऋषियों की विरासत है। जिसे यहाँ पर युगानुकूल रीति से अपनाया गया है। इस रीति से ज्ञान में समग्रता आती है। उसकी एकाँगिता का विलोप होता है। प्राचीन महर्षियों ने ज्ञान के अर्जन के साथ, उसके आपसी विमर्श को भी आवश्यक बताया है। मानवीय क्षमताएँ और उपलब्धियाँ कितनी भी क्यों न हों, फिर भी उनमें कहीं कुछ कमी, अधूरापन रह ही जाता है। इस अधूरेपन को पूर्णता पारस्परिक विमर्श से मिलती है। संगोष्ठी ज्ञान की यही साझेदारी है। इसे अर्जित ज्ञान की उपलब्धियों का पारस्परिक वितरण भी कहा जा सकता है।

संगोष्ठी या सेमीनार शब्द नए हो सकते हैं, पर इसकी अवधारणा अति प्राचीन है। यह भारत देश की सबसे पुरानी साँस्कृतिक विरासत है। वैदिक साहित्य में ऐसे कई शब्द, ऋचाएँ और आख्यायिकाएँ मिलती हैं, जो इस सत्य को प्रमाणित करती हैं। यह साँस्कृतिक परम्परा ऋषियों द्वारा स्थापित विश्वविद्यालयों में विद्या साधना के लिए तो अनिवार्य थी ही, इसका सामाजिक महत्त्व भी था। समस्याएँ ज्ञान अर्जन के क्षेत्र की हो या फिर समाज की उलझनों को सुलझाने के सवाल हो? इनके समाधान संगोष्ठियों में ढूंढ़े जाने की रीति रही है। वैदिक काल की सभा, समिति, विदथ इसी सत्य को तथ्य के रूप में स्पष्ट करती है। इन सभी का उद्देश्य एक ही था कि सभी मननशील मुनि एवं विचारशील ऋषि मिलकर उपलब्ध ज्ञान की त्रुटियों का निवारण-निराकरण करें। उसे जीवनोपयोगी सार्थकता प्रदान करें।

प्राचीन ऋषियों के विश्वविद्यालयों में होने वाली इन संगोष्ठियों का अनेक स्थानों पर उल्लेख मिलता है। उन दिनों कुलपति महर्षि इसका आयोजन करते थे। संस्कृत ग्रन्थों में ब्रह्मर्षि विश्वामित्र द्वारा अपने विश्वविद्यालय में भव्य संगोष्ठी कराए जाने का उल्लेख किया गया है। यह आयोजन कौशिकी नदी के तट पर हुआ। इसके आयोजक कुलपति ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के व्यक्तित्व का उल्लेख करते हुए ग्रन्थकार का कथन है- ‘वे मानो चतुर्थ अग्नि, पंचम वेद, गतिशील धर्म और सभी विद्याओं का निदान हैं। उनसे वार्ता करने पर तमोगुण का विनाश होकर अन्तःकरण को शान्ति मिलती है। प्रसन्नचित्त होकर वे जो कुछ करते हैं, वह सत्य हो जाता है। ऐसे परम तेजस्वी ब्रह्मर्षि ने अपने विश्वविद्यालय में विद्या संगोष्ठी का आयोजन किया है, सुनकर समूची धरा के महर्षिगण बरबस पधारे। देवलोकों के देवगण भी आए।’

इस अवसर पर बह्मर्षि ने संगोष्ठी के अर्थ, उद्देश्य एवं स्वरूप को भी सभी ऋषियों के समक्ष स्पष्ट किया। उन्होंने कहा- संगोष्ठी का अर्थ विद्या और ज्ञान का परस्पर विमर्श है। इसके उद्देश्य कई हैं- 1. ज्ञान को समग्र, सार्थक, त्रुटिहीन बनाना, 2. एक ऋषि का दूसरे ऋषि के शोध-अनुसन्धान से लाभान्वित होना, 3. ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में भावी अनुसन्धान की आवश्यकता को समझना एवं दिशा तय करना, 4. ज्ञान की सही व उपयुक्त वितरण प्रणाली को सुनिश्चित करना। इसमें ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने विद्या संगोष्ठी के स्वरूप को निश्चित करने वाले कुछ बिन्दुओं का भी उल्लेख किया- 1. विद्या संगोष्ठी का उच्चतम स्वरूप विश्वविद्यालय में होने वाली शोध संगोष्ठियाँ हैं। इनमें तत्त्वद्रष्टा ऋषि एवं उनके शोध छात्र-छात्राएँ भागीदार होंगे। 2. जन सामान्य के लिए विद्या संगोष्ठियाँ यज्ञों, मेलों, तीर्थ स्थानों में आयोजित होनी चाहिए। 3. इनके लिए कुछ पुण्य तिथियाँ सुनिश्चित रहे, ताकि सभी नागरिक आसानी से इनमें भागीदारी निभा सकें। और विश्वविद्यालयों में होने वाले शोध कार्य से लाभान्वित हो सकें।

ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के इन निर्धारणों को सभी ऋषियों ने अपनाया। तीर्थराज प्रयाग में स्थित विश्वविद्यालय के कुलपति महर्षि भरद्वाज ने इसके लिए माघ मास को उपयुक्त माना। उन्होंने यह पूरा महीना विद्या संगोष्ठी के विभिन्न सत्रों के लिए निश्चित किया। गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने इसका बड़ा ही कवित्वपूर्ण वर्णन किया है-

माघ मकरगत रवि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥

गोस्वामी जी आगे कहते हैं-

भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिवर मन भावन॥ तहाँ होई मुनि रिषिय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथराजा॥ मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। कहहिं परस्पर हरि गुन गाहा॥

तुलसी बाबा आगे इस विद्या संगोष्ठी के विषयों को स्पष्ट करते हुए बताते हैं-

ब्रह्म निरुपन धरम बिधि, बरनहिं तत्त्व विभाग। कहहिं भगति भगवन्त कै, संजुत ग्यान विराग॥

यह क्रम प्रति वर्ष के प्रत्येक माघ के सम्पूर्ण महीने चलता रहता-

एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। पुनि सब निज-निज आश्रम जाहीं॥ प्रति संवत अति होई अनन्दा। मकर मज्जि गवनहिं मुनिवृन्दा॥

गोस्वामी जी महाराज के कथन का सार इतना ही है, कि माघ महीने में जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता, तब महर्षि भरद्वाज जी के आश्रम में विद्या संगोष्ठी आयोजित होती है। सभी ऋषि-मुनियों का समाज इसमें भागीदार होता। इसमें ब्रह्मज्ञान की दार्शनिक एवं धर्मनीति की सामाजिक शोध चर्चाएँ होती। पूरे महीने यह क्रम चलता रहता। प्रति वर्ष आनन्द का यह अवसर आता था।

सेमीनार-संगोष्ठी की यह साँस्कृतिक परम्परा ऐतिहासिक युग के तक्षशिला, नालन्दा, विक्रमशील आदि विश्वविद्यालयों में बनी रही। भारतीय इतिहास व संस्कृति के मर्मज्ञ विद्वान् प्रो. ए. एल. बाशम, पी. गार्डनर आदि कई विद्वानों ने अपने शोध कार्यों में इसका उल्लेख किया है। इस सम्बन्ध में एक तिब्बती छात्र रिंछोपा का संस्मरण उल्लेखनीय है। वह सातवीं शताब्दी ई. में नालन्दा विश्वविद्यालय का छात्र था। उसने लिखा है कि बसन्त ऋतु में विश्वविद्यालय में विश्व संगीति (यह विश्व संगीति, विश्व संगोष्ठी का पर्याय है।) आयोजित की गयी। इसके अंतर्गत होने वाली शोध परिचर्चाएँ विभिन्न संकायों एवं विभिन्न विभागों में एक साथ चलीं। इसमें जावा, सुमात्रा, मलयद्वीप, चीन आदि अनेक देशों के 9 हजार आचार्यों एवं 14 हजार छात्रों ने भाग लिया। इसमें से त्रिपिटक संगीति की अध्यक्षता आचार्य मोक्षकर गुप्त ने की। आचार्यों एवं छात्रों सभी के लिए इसके परिणाम अति सुखद रहे। धम्मज्ञान एवं शोध-कार्य के लिए सभी को नयी दिशाएँ मिली।

यही साँस्कृतिक आदर्श देव संस्कृति विश्वविद्यालय में अपनाया गया है। यहाँ नियमित अन्तराल में सेमीनार-संगोष्ठियाँ आयोजित की जाएगी। विभागीय संगोष्ठी, संकाय संगोष्ठी, विश्वविद्यालय संगोष्ठी, राष्ट्रीय संगोष्ठी एवं अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी आदि इसके विभिन्न स्तर होंगे। इनका आयोजन भी इनके स्तर के अनुरूप साप्ताहिक, मासिक, त्रैमासिक, वार्षिक एवं द्विवार्षिक किया जाएगा। इनमें से विभागीय संगोष्ठियाँ प्रति सप्ताह होगी। संकाय संगोष्ठी एक महीने में एक बार होगी। विश्वविद्यालय संगोष्ठी का समय अन्तराल त्रैमासिक रहेगा। राष्ट्रीय संगोष्ठी प्रति वर्ष एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की संगोष्ठी-सेमीनार दो सालों में एक बार आयोजित की जाएगी।

इन सभी संगोष्ठियों में विश्वविद्यालय के अध्ययन विषयों, शोध परियोजनाओं, अनुसन्धान प्रयोगों, शिक्षण प्रक्रियाओं आदि से सम्बन्धित विभिन्न बिन्दुओं पर गहन विचार किया जाएगा। इसके माध्यम से नए शोध पत्र एवं नए अनुसन्धान सूत्रों पर प्रकाश पड़ेगा। संगोष्ठियों में प्रस्तुत होने वाली सभी सामग्री को कुशल एवं वैदुष्यपूर्ण सम्पादन के बाद प्रकाशित किया जाएगा। इससे आगे भी आचार्यगण एवं छात्र-छात्राएँ लाभान्वित होते रहेंगे। देव संस्कृति की लोग हितकारी नीतियों के अनुरूप इन संगोष्ठियों के माध्यम से उन प्रक्रियाओं को भी विकसित किया जाएगा, जिनके द्वारा सामान्य जन भी विश्वविद्यालय की ज्ञान उपलब्धियों का समुचित लाभ उठा सकें। आचार्यगण एवं छात्र-छात्राएँ सब मिलकर यह लोक कल्याणकारी कार्य करेंगे। इन संगोष्ठियों के माध्यम से शिक्षण प्रक्रियाओं के उत्तरोत्तर विकास के साथ विद्यार्थियों के मौलिक मूल्याँकन की रीति-नीति भी विकसित होगी। ताकि ज्ञान अर्जन की सार्थकता एवं समग्रता को जाँचा-परखा जा सके।


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