केन्द्र, जहाँ से पाया संस्कृति−संवेदना ने विश्व विस्तार

June 2002

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ऋषियों द्वारा स्थापित विश्वविद्यालय प्राचीन भारत में देव संस्कृति का केन्द्र रहे हैं। यहीं से संस्कृति संवेदना ने अपना विश्व विस्तार पाया है। प्राचीन ग्रन्थों में, इतिहास और पुराणों में इन विश्वविद्यालयों का उल्लेख मिलता है। तब आचार्य एवं शिष्य दोनों ही अपनी संस्कृति एवं जीवन मूल्यों के प्रति समर्पित जीवन जीते थे। ‘सह नौ यशः सह ब्रह्मवर्चसम्’ उनका आदर्श सूत्र था। इस सूत्र के अर्थ के अनुसार वे ऐसे तपोनिष्ठ जीवन को अपनाते थे जो उन दोनों के ब्रह्मतेज एवं यश को बढ़ाने में सहायक हो। ऋषियों की मान्यता थी कि तपस्वी जीवन पद्धति को अपनाकर किया गया अध्ययन विद्या को जन्म देता है। उससे ज्ञान की उपलब्धि होती है। तप के अभाव में किया हुआ अध्ययन शिक्षा बनकर रह जाता है। उससे केवल जानकारियाँ भर मिलती हैं। प्राचीन भारत के विश्वविद्यालय तप और विद्या के केन्द्र थे। इसी की ऊर्जा से संस्कृति को जीवन मिलता था। देवत्व विकसित होता था।

जिन ऋषिगणों ने अपने युग में विश्वविद्यालयों की स्थापना की, उनमें अगस्त्य, कण्व, जाबालि, परशुराम, वाल्मीकि, भरद्वाज, वसिष्ठ, वामदेव, विश्वामित्र, व्यास, शौनक एवं सान्दीपनि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनमें से महर्षि अगस्त्य का नाम देव संस्कृति के प्रचारक के रूप में बहुत प्रसिद्ध है। वाल्मीकि रामायण के अरण्यकाण्ड एवं महाभारत के वनपर्व के विवरण के अनुसार वे विन्ध्य पर्वत की ऊँचाइयों को पार करके दक्षिण भारत गए। वहाँ उन्होंने देव संस्कृति के सत्यों एवं सूत्रों का प्रचार किया। इसके लिए वे दक्षिण पूर्व के द्वीप-द्वीपान्तरों में भी गए। प्राचीन साहित्य में महर्षि अगस्त्य के द्वारा स्थापित विश्वविद्यालय से सम्बद्ध केन्द्रों की स्थिति भारत वर्ष के अनेक स्थानों पर बतायी गयी है। ये केन्द्र हिमालय से लेकर दक्षिणी समुद्र तट तक फैले हुए थे।

महर्षि कण्व द्वारा स्थापित विश्वविद्यालय समूचे भारत देश का गौरव था। इसकी पवित्रता के कारण महाभारत, स्कन्दपुराण एवं अग्निपुराण में इसे तीर्थ, धर्मारण्य एवं तपोभूमि भी कहा गया है। यह अपने समय का सुविख्यात विद्या केन्द्र था। अभिज्ञान−शाकुंतलम् में कण्व के विश्वविद्यालय को मालिनी नदी के तट पर स्थित बताया गया है। आजकल यह स्थान कोटद्वार-हरिद्वार मार्ग पर कोटद्वार से छः मील दूर पश्चिम में समझा जाता है। इतिहासवेत्ता डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी के अनुसार महर्षि कण्व के विश्वविद्यालय में ‘चार वेद, वेदाँग, कर्मकाण्ड, यज्ञ, कल्पसूत्र, शिक्षा, ध्वनि विज्ञान, शब्द विज्ञान, छन्द, व्याकरण, निरुक्त, आत्म विज्ञान, ब्रह्मोपासना, न्याय, भौतिक विज्ञान, कलाएँ, गणित, द्रव्यगुण, जीव विज्ञान, वनस्पति विज्ञान आदि विषय पढ़ाए जाते थे।’

प्राचीन साहित्य में महर्षि जाबालि का नाम बहुत प्रसिद्ध है। संस्कृत काव्यकारों ने उनके विश्वविद्यालय का विस्तार से वर्णन किया है। बाण ने कादम्बरी कथा में इसकी स्थिति विन्ध्यारण्य में बतायी है। यहाँ हजारों छात्र विद्याध्ययन करते थे। विज्जिका ने कौमुदी महोत्सव नाटक में इसका उल्लेख किया है। उसके अनुसार दूर देशों के राजकुमारों के लिए यह विश्वविद्यालय आकर्षण का केन्द्र था। भगवान के अवतार के रूप में लोक विख्यात महर्षि परशुराम ने भी विश्वविद्यालय स्थापित किया। संस्कृत कवि राजशेखर के अनुसार उन्होंने महेन्द्र पर्वत पर यह विश्वविद्यालय बनाया। अनेक विद्वान् महेन्द्र पर्वत की स्थिति उड़ीसा में मानते हैं।

प्राचीन भारत देश में विश्वविद्यालय की स्थापना करने वालों में महर्षि वाल्मीकि का नाम बड़ी श्रद्धा से लिया जाता है। वे रामायण के रचयिता एवं आदि कवि माने जाते हैं। प्राचीन साहित्य के अनुसार महर्षि वाल्मीकि का विशेष सम्बन्ध तमसा एवं गंगा नदियों के साथ रहा है। इसलिए उनके विश्वविद्यालय की स्थिति इन दोनों नदियों के तट पर कहीं होनी चाहिए। स्थान के बारे में इतिहासकारों की मतभिन्नता के बावजूद यह सर्वसम्मत सत्य है कि यह विश्वविद्यालय अपने समय में विद्या का महान् केन्द्र था। महाकवि भवभूति के अनुसार यहाँ छात्राएँ भी अध्ययन करती थीं।

गंगा-यमुना के संगम पर महर्षि भरद्वाज ने भी एक विख्यात विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। रामायण के अनुसार यह अपने समय का अति प्रसिद्ध विद्या संस्थान था। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी- ‘भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा’ कहकर उनका स्मरण किया है। संस्कृत साहित्य में इससे सम्बद्ध एक केन्द्र का उल्लेख हरिद्वार के समीप भी मिलता है। इस केन्द्र का भार अग्निवेश नाम के आचार्य सम्हालते थे। बाद के समय में इन्होंने ही द्रोण एवं द्रुपद को धनुर्वेद की विद्या सिखायी थी।

इक्ष्वाकुओं के कुलगुरु महर्षि वसिष्ठ का प्रायः सभी वैदिक एवं पौराणिक साहित्य में उल्लेख किया गया है। संस्कृत साहित्य के विवरण के अनुसार इन्होंने दो विश्वविद्यालयों की स्थापना की। इनमें से एक अयोध्या में था। इसका उल्लेख वाल्मीकि रामायण में हुआ है। महर्षि वसिष्ठ के इन विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ का भी विधान था। महर्षि वाल्मीकि ने इन्हें ‘मेखलीनाँ महासंघाः’ कहकर उल्लेख किया है। इन संघों का राजसभा में भी प्रभाव था। महर्षि वसिष्ठ द्वारा स्थापित दूसरा विश्वविद्यालय हिमालय की तलहटियों में था। महाकवि कालिदास ने अपने ‘रघुवंश’ नामक महाकाव्य में इसका वर्णन किया है।

विश्वविद्यालय की स्थापना करने वालों में महर्षि वामदेव का नाम बहुत प्रसिद्ध है। वामदेव का यह विश्वविद्यालय विन्ध्य पर्वत की मेखलाओं में नर्मदा नदी के उद्गम स्थान पर समीप में ही था। महाकवि दण्डी के दशकुमार चरित के अनुसार राजवाहन आदि कुमारों ने इसी विश्वविद्यालय में शिक्षा पायी थी।

वैदिक परम्परा के ऋषियों में ब्रह्मर्षि विश्वामित्र का नाम अग्रगण्य है। ऋग्वेद के तीसरे मण्डल के ऋषि विश्वामित्र ही हैं। शास्त्रों के विवरण के अनुसार इनका विश्वविद्यालय गंगा-सरयू के संगम पर था। वर्तमान समय में यह स्थान बक्सर कहलाता है। यह पटना से काफी दूर पूर्व में है। पुरातत्त्ववेत्ताओं को यहाँ ऐसे अनेक अवशेष प्राप्त हुए हैं जो महर्षि विश्वामित्र के विश्वविद्यालय की गवाही देते हैं।

वेदों के सम्पादक, महाभारत के रचयिता तथा अठारह पुराणों के संग्रहकर्त्ता महर्षि व्यास ने हस्तिनापुर के निकट विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। इनके विश्वविद्यालय से सम्बद्ध केन्द्र भारत देश में कई स्थानों पर थे। इनकी शिष्य परम्परा में महर्षि शौनक ने नैमिषारण्य में विश्वविद्यालय स्थापित किया था। यहाँ होने वाली अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियाँ बहुत प्रसिद्ध थीं। इनमें धार्मिक, राजनैतिक एवं वैज्ञानिक विचारों पर संवाद होते थे। इस विश्वविद्यालय की विद्या परम्परा ग्यारहवीं शताब्दी तक चलती रही। पश्चिमी विद्वान् बेवर ने अपने शोध-अनुसंधान में इसकी सराहना की है।

प्राचीन विश्वविद्यालयों के संस्थापकों में महर्षि सान्दीपनि का नाम अत्यन्त गरिमापूर्ण है। इन्होंने उज्जयिनी में विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। भगवान् कृष्ण ने यहीं विद्याध्ययन किया था। इन सभी महर्षियों ने प्राक् ऐतिहासिक काल में विश्वविद्यालयों की जो स्थापना की- वह परम्परा ऐतिहासिक काल में भी गतिमान रही। विद्या के ये विश्वविख्यात केन्द्र देव संस्कृति को प्राण ऊर्जा का अनुदान देते रहे।

ऐतिहासिक विश्वविद्यालयों में तक्षशिला विश्वविद्यालय कभी इस देश का महान् विद्या केन्द्र था। वर्तमान में यह स्थान पाकिस्तान के रावलपिण्डी शहर से 30 किलोमीटर दूर स्थित है। पुरातत्त्ववेत्ता सर जान मार्शल ने पुरातात्त्विक उत्खनन से इसके ऐतिहासिक तथ्यों का संकलन किया। ऐतिहासिक परम्परा के अनुसार भगवान श्रीराम ने अपने भाई भरत के पुत्र तक्ष को इस स्थल का शासक नियुक्त किया था। उन्हीं के नाम से यह नगर तक्षशील नाम से विख्यात हुआ। तक्ष ने अपने समय में ही यहाँ तक्षशील नाम के विश्वविद्यालय की स्थापना की। महाभारत काल में भी तक्षशील विश्वविद्यालय प्रसिद्ध था। महाभारत के आदिपर्व के अनुसार जन्मेजय ने इस स्थान पर यज्ञ किया था। बाद में यह नगर एवं विश्वविद्यालय तक्षशिला नाम से विख्यात हुए। तक्षशिला गन्धार जनपद की राजधानी भी रही। ई. पू. सातवीं शताब्दी में इस विश्वविद्यालय की कीर्ति विश्वव्यापी हो गयी। व्याकरण शास्त्र के प्रणेता आचार्य पाणिनि, राजनीति के महापण्डित चाणक्य, महान् आयुर्वेदाचार्य जीवक यहीं के विद्यार्थी थे।

ऐतिहासिक काल में नालन्दा विश्वविद्यालय का भी महत्त्वपूर्ण स्थान था। इसकी स्थापना सम्राट अशोक ने की थी। इस विश्वविद्यालय की स्थिति पटना से चालीस मील दक्षिण-पश्चिम में थी। चौथी-पांचवीं शताब्दी में गुप्त सम्राटों के समय इसका बहुत अधिक विकास हुआ। ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार चौथी शताब्दी में चीनी यात्री फाहियान ने यहाँ की यात्रा की। उसके तीन शताब्दी बाद ह्वनत्साँग ने अपने विवरण में नालन्दा विश्वविद्यालय की कीर्ति का वर्णन किया। उसने स्वयं भी यहाँ पाँच साल रहकर बौद्धधर्म का अध्ययन किया। इत्सिंग के समय (सातवीं शताब्दी के उत्तरार्ध) नालन्दा एक महान् कीर्तिशाली विश्वविद्यालय था। यहाँ विदेशी छात्रों की संख्या बहुत अधिक होती थी।

विद्या केन्द्रों के रूप में वाराणसी का नाम प्रारम्भ से ही श्रद्धा का केन्द्र रहा है। आज भी परम्परागत ब्राह्मण परिवार में यज्ञोपवीत के समय ब्रह्मचारी विद्याध्ययन के लिए काशी जाने की बात कहता है। देव संस्कृति के विस्तार में इस शिव नगरी काशी का स्थान एवं महत्त्व सदा ही अविस्मरणीय एवं प्रातःस्मरणीय है। विद्या केन्द्र के रूप में इतिहासकारों ने विक्रमशील (विक्रमशिला) विश्वविद्यालय की सराहना की है। इसकी स्थापना बंगाल के पालवंशी राजा धर्मपाल ने 8 वीं शताब्दी में की थी। यह विश्वविद्यालय गंगा के तट पर वर्तमान भागलपुर से 24 मील दूर पर स्थित था। पुरातत्त्व विज्ञानी कनिंघम ने उत्तरी मगध के बड़गाँव के निकट इसकी पहचान की है। सभी इतिहासवेत्ता इस बारे में एक मत हैं कि यह विश्वविद्यालय अपने समय में देव संस्कृति का उज्ज्वल दीप था। इसे 1203 ई. में बर्बर आक्रान्ता मुहम्मद-बिन-बख्तियार-खिलजी ने अपने नृशंस करतूत से बुझा दिया। इतिहासवेत्ताओं के अनुसार पालवंश के शासकों ने विक्रमशिला की ही भाँति उड्डयन्तपुर विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। इस विश्वविद्यालय को आदर्श मानकर कई विदेशी शासकों ने भी अपने यहाँ विश्वविद्यालय स्थापित किए। पर बख्तियार खिलजी की नृशंसता ने इसे भी नष्ट कर दिया।

भारत देश के प्राचीन विश्वविद्यालयों में वलभी का नाम बहुत प्रसिद्ध है। इस विश्वविद्यालय की स्थिति भारत वर्ष के पश्चिमी भाग सौराष्ट्र में थी। चीनी यात्री ह्वनत्साँग एवं इत्सिंग ने अपने विवरणों में इस विश्वविद्यालय के बारे में कहा है कि भारत की संस्कृति के सभी आयाम यहाँ प्रकाशित हैं। यहाँ के स्नातक होना ही योग्यता का पर्याय है। इतिहासवेत्ता अलतेकर महोदय ने भी अपने अध्ययन में वलभी को देव संस्कृति का कीर्ति स्तम्भ माना है। बंगाल के पालवंशी राजा रामपाल ने ग्यारहवीं शताब्दी में गंगा और करतोया नदियों के संगम पर जगद्दल विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। इस विश्वविद्यालय ने अपने एक शतक के जीवन में भारत देश को सहस्रों अनुदान दिए।

देश के अन्य कुछ स्थान भी विद्या के केन्द्र के रूप में सम्मानित हुए। इनमें मिथिला, बंगाल का नवद्वीप, मैसूर का बेलगाँव, मालवा की धारा नगरी राष्ट्रवासियों की श्रद्धा से अभिसिंचित हुई। यहाँ के विद्या केन्द्रों एवं यहाँ अध्ययन करने वाले छात्रों ने देव संस्कृति एवं देवभूमि भारत को ऊर्जावान बनाया। इन स्थानों के विद्वानों एवं आचार्यों ने, शिष्यों एवं साधकों ने प्राचीन ऋषियों के शाश्वत ज्ञान को सामयिक दृष्टि दी। अपनी विद्या साधना से अनुभूत सत्य के द्वारा राष्ट्रीय जीवन में नव प्राण भरे। विश्वमानवता को अपने ज्ञान से कृतकार्य किया। प्राक् ऐतिहासिक काल के ऋषियों एवं उनके विश्वविद्यालयों तथा ऐतिहासिक काल के विश्वविद्यालयों ने जिस जीवन दृष्टि की खोज की, उसके द्वारा आज भी शिक्षा जगत् में नयी क्राँति सम्भव है। शान्तिकुञ्ज द्वारा ऋषियों की उज्ज्वल परम्परा में स्थापित देव संस्कृति विश्वविद्यालय शिक्षा जगत् में इसी नयी क्रान्ति के लिए कृत संकल्पित है।


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