विद्या एवं सेवा का एक अद्भुत संगम

June 2002

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विद्या एवं सेवा का संगम देव संस्कृति का आदर्श है। ऋषि जीवन की गतिविधियों का आधार यही है। इन दोनों में से किसी को किसी से अलग नहीं किया जा सकता। विद्या और सेवा के ये दोनों ही तत्त्व एक दूसरे से गुँथे हैं, परस्पर घुले-मिले हैं। स्वार्थपरता और अहंता के विष से छुटकारा और भाव संवेदना के अमृतपान को विद्या कहा गया है। शास्त्रकारों ने इसी को ‘विद्यायामृतमश्नुते’ कहकर परिभाषित किया है। भाव संवेदना के अमृत तत्त्व का विकास ही विद्या है। भाव संवेदना के बिना सारी जानकारियाँ एवं समूची पढ़ाई-लिखाई बेकार है। क्योंकि इससे स्वार्थ व अहं की विष बेल ही उपजेगी और बढ़ेगी। अमृत तत्त्व तो विद्या की भाव संवेदना है, जो सेवा से बिछुड़कर रह नहीं सकता। संवेदना बढ़ते ही अनायास सेवा परायणता जीवन में आ जाती है। गिरे को उठाने, उठे को चलाने और पीड़ित को अपनाने के लिए अपने आप ही पाँव आगे बढ़ने लगते हैं।

प्राचीन वैदिक एवं पौराणिक साहित्य में जिन महर्षियों एवं उनके अन्तेवासी विद्यार्थियों की चर्चा पढ़ते हैं, उन्होंने अपने युग की पीड़ा और पतन के निवारण-निराकरण के लिए अपने सर्वस्व की आहुति दी थी। ऋषिगणों के द्वारा स्थापित विद्या केन्द्र उनके द्वारा संचालित विविध सेवा योजनाओं के केन्द्र भी थे। उनके विश्वविद्यालयों में विद्याध्ययन के साथ छात्र-छात्राओं की सेवा-संवेदना को भी विकसित किया जाता था। गुरु और शिष्य मिल-जुलकर परमार्थ के पुण्य कर्मों में अपनी भागीदारी निभाते थे। लोक जीवन में घुसपैठ बनाए पीड़ा और पतन से डटकर मुकाबला करते थे। उनके लिए यह सेवा कार्य कभी भी विद्याभ्यास से अलग नहीं था।

ऐसे अनेक महर्षियों में वामदेव का नाम बहुत प्रसिद्ध है। वैदिक परम्परा में इन्हें प्रख्यात् ऋषि माना जाता है। ये महर्षि वामदेव अपने द्वारा स्थापित विश्वविद्यालय के कुलपति भी थे। इनका विश्वविद्यालय विंध्य पर्वत की मेखलाओं में नर्मदा नदी के उद्गम स्थान के समीप ही था। महर्षि वामदेव का यह विद्या केन्द्र अपने युग का सुप्रसिद्ध सेवा केन्द्र भी था। यहाँ महर्षि अध्ययन-अध्यापन के साथ जन सेवा के कार्य भी करते थे। इस सेवा कार्य में उनके शिष्यगण जी-जान लगाकर जुटते थे। महर्षि वामदेव के इन सेवापरायण शिष्यों में अरिष्टनेमि, मधुक, प्रवाहण आदि की चर्चा पौराणिक साहित्य में हुई है।

प्राचीन साहित्य में विद्याभ्यास के साथ जुड़े हुए कई सेवा कार्यों की चर्चा आयी है। इन सेवा योजनाओं में जन चिकित्सा, स्वच्छता, नागरिकों को रोग निवारण के उपायों की जानकारी, ग्रामीणों को कृषि की वैज्ञानिक विधियों का ज्ञान, विविध शिल्प कलाओं की जानकारी आदि मुख्य थी। इनके अलावा महर्षियों का बहुप्रिय सेवा कार्य था, बिना किसी भेदभाव के सभी को जीवन जीने की कला का शिक्षण। यह कार्य वे अपने विद्या केन्द्रों में भी करते थे। और इसके लिए वे स्वयं चलकर नागरिक स्थानों में भी जाते थे। इन सभी कार्यों में सभी शिष्य गण अनिवार्य रूप से भागीदार होते थे।

विभिन्न धर्मसूत्रों, गृह्यसूत्रों व स्मृतियों में कुछ अनिवार्य अवकाश दिनों या अनध्याय की चर्चा हुई है। इनमें से प्रत्येक अवकाश के समय अपने कारण गिनाए गए हैं। इन सभी में प्राकृतिक विपदाओं में होने वाले अनध्याय के कारण को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि ऐसे अवसरों पर विद्याभ्यासी छात्रगण अपने आचार्यों के मार्गदर्शन में प्राकृतिक आपदाओं से पीड़ित जनों की सेवा करें। अनध्याय के इन दिनों की चर्चा करते हुए स्मृतिकारों का कथन है, दिन या रात में धूलि से भरे बवण्डर उत्पन्न होने पर, भूमि के कुहासा छाने पर, आकाश के अत्यधिक लाल होने पर, बिना ऋतु के आकाश में मेघों के छा जाने पर, इतनी अधिक वर्षा के होने पर कि छतें टपकने लगे, बृहस्पति, शुक्र, चन्द्र, सूर्य आदि नक्षत्रों के चारों ओर रंगीन प्रभा मण्डल के दिखाई देने पर, भूकम्प, सूखा-बाढ़ आदि के अवसरों पर विद्या परायण जनों को सेवा परायणता अनिवार्य रूप से अपनाना चाहिए।

वैदिक युग की ही भाँति ऐतिहासिक युग के प्राचीन विश्वविद्यालयों में भी देव संस्कृति का यही आदर्श सुप्रतिष्ठित था। चीनी छात्र इत्सिंग ने नालन्दा विश्वविद्यालय में होने वाले विद्याध्ययन के साथ यहाँ से संचालित होने वाले सेवा कार्यों के महत्त्व को भी दर्शाया है। उसका कहना है कि इस महान् विश्वविद्यालय के द्वारा जन सेवा की अनेकों योजनाएँ संचालित होती थी। इन सेवा योजनाओं को देश में ही नहीं विदेशों में भी क्रियान्वित किया जाता था। विश्वविद्यालय के इन सेवा कार्यों के लिए गुप्तवंश के उत्तरवर्ती राजा बुधगुप्त आदि के साथ बंगाल के पालवंश के राजा समय-समय पर भारी आर्थिक सहायता करते थे। कन्नौज के राजा हर्षवर्धन को नालन्दा विश्वविद्यालय की सेवा योजनाओं में विशेष रुचि थी। उसने अनेकों बार यहाँ की सेवा योजनाओं के लिए आर्थिक अनुदान दिए।

इस कार्य के लिए नालन्दा विश्वविद्यालय को विदेशों से भी सहायता प्राप्त होती थी। दक्षिण-पूर्वी द्वीपों- जावा, बालि, सुमात्रा, मलय आदि देशों के राजाओं ने यहाँ की सेवा योजनाओं के लिए प्रचुर धन अर्पित किया था। जावा, सुमात्रा के राजा बलपुत्रदेव ने यहाँ एक विहार बनवाया था, जहाँ चिकित्सा का कार्य होता था। उसने बंगाल के राजा देवपाल को भी प्रेरित किया कि वह नालन्दा विश्वविद्यालय के सेवा कार्यों के लिए पाँच ग्राम दान में दे। इत्सिंग का कहना है कि ये सारी सहायताएँ नालन्दा विश्वविद्यालय के आचार्यों एवं छात्रों के द्वारा की जाने वाली सेवा साधना की प्रमाणिकता का सुफल थीं। ये सभी सामान्य समय में किए जाने वाले सेवा कार्यों के अतिरिक्त किसी भी राष्ट्रीय या प्राकृतिक आपदा के समय अपनी जान-जोखिम में डालकर भी सेवा योजनाओं को संचालित करते थे। उनकी इन भावनाओं के कारण जन-जन में उनका भारी सम्मान था।

देव संस्कृति विश्वविद्यालय में भारत भूमि का यही साँस्कृतिक आदर्श सुप्रतिष्ठित होना है। यहाँ के आचार्यगण एवं छात्र-छात्राएँ विद्या साधना के साथ सेवा साधना भी करेंगे। इन सेवा कार्यों का निर्धारण प्रत्येक संकाय के अनुरूप किया जाएगा। चिकित्सा सेवा एवं स्वास्थ्य के प्रति जागरुकता के अलावा अन्य कई सामाजिक सेवा की योजनाएँ विश्वविद्यालय के द्वारा चलाई जाएगी। इन सभी में आचार्यों एवं छात्रगणों की भागीदारी अनिवार्य रूप से होगी। सभी सेवा योजनाओं का क्रियान्वयन व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण एवं समाज निर्माण के आदर्शों एवं उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किया जाएगा।

पीड़ा निवारण के साथ पतन निवारण के लिए भी प्रभावी कार्यक्रमों की रूपरेखा बनायी जाएगी। और इसका असरदार ढंग से क्रियान्वयन होगा। सामान्य समय के सेवा कार्यों के अतिरिक्त राष्ट्रीय व प्राकृतिक आपदाओं के समय यहाँ के आचार्य एवं छात्र बढ़-चढ़ कर अपनी भागीदारी निभाएँगे। इन सेवा कार्यों से विद्यार्थियों से निष्काम कर्म की साधना तो सधेगी ही साथ ही उन्हें अपने सामाजिक दायित्व का भी बोध होगा। वे अनुभव करेंगे कि जिस समाज के वे अंग-अवयव हैं, उसके प्रति उनका महत्त्वपूर्ण दायित्व भी है। सेवा-साधना से विकसित संवेदना उनमें एक अनूठी आत्म जागृति को जन्म देगी। जिससे उनमें सामाजिक कर्त्तव्यों के बोध के साथ देश व धरती से गहरे भावनात्मक लगाव, जुड़ाव की अनुभूति होगी। राष्ट्रीय भावनाएँ विकसित होगी। और यहाँ अध्ययन करने वाले सभी विद्यार्थी मिल-जुलकर विश्वविद्यालय के राष्ट्रीय धर्म को अपना सकेंगे।


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