सद्गुणों का समुचित प्रबंधन सिखाएगा स्वावलंबन संकाय

June 2002

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स्वावलम्बन संकाय के पाठ्यक्रम विद्यार्थियों में स्वावलंबन वृत्ति के जागरण एवं विकास के लिए है। देव संस्कृति के युग प्रवर्तक परम पूज्य गुरुदेव कहते थे कि स्वावलम्बन या परावलम्बन मनुष्य की आन्तरिक वृत्तियाँ हैं। जिसमें स्वावलम्बन की वृत्ति पनप चुकी है, वह जीवन के हर क्षेत्र में कुछ कर गुजरने की हिम्मत और हैसियत रखता है। जिन्दगी के कोई काम छोटे हों या बड़े, उन्हें वह खुद करना चाहता है। समुचित सहायता या उपयुक्त मार्गदर्शन न मिलने पर भी वह हाथ पर हाथ धरे बैठा नहीं रहता। अपनी मेहनत और हिम्मत के बल पर ऐसा व्यक्ति अपने लिए राहें बना ही लेता है। स्वावलम्बन की यह वृत्ति सोयी या निष्क्रिय पड़ी रहे तो परावलम्बन ही जीवन की परिभाषा बन जाती है।

हर काम, हर बात में औरों का मुँह तकना परावलम्बन है। अपनी असफलताओं का दोष अपनी अकर्मण्यता को नहीं, परिस्थितियों या किन्हीं व्यक्तियों के माथे मढ़ने का काम परावलम्बी व्यक्ति ही करते हैं। सहायता या मार्गदर्शन का अभाव इन्हीं को सालता है। सोयी हुई, निष्क्रिय पड़ी अन्तर्चेतना के कारण उनमें सही सोच-समझ, सूझ-बूझ, उद्यमिता, श्रमशीलता, साहस, संकल्प जैसे गुण विकसित नहीं हो पाते। और हो भी कैसे? ये सभी गुण तो स्वावलम्बन वृत्ति के परिचय और पर्याय हैं। साधारण तौर पर आम लोग रोजी-रोजगार की सीमा में स्वावलम्बन को कैद करने की कोशिश करते हैं। उनके अनुसार जो रोजगार में लगा हुआ है वह स्वावलम्बी है, और जो बेरोजगार है वह परावलम्बी है। कमोबेश यह बात सही है पर पूरी नहीं। इसमें सच केवल इतना है कि रोजगार में लगे लोगों को मन से या मजबूरी से श्रम एवं सूझ-बूझ का उपयोग करना ही पड़ता है। जबकि बेरोजगारों के लिए ऐसी कोई मजबूरी नहीं है।

लेकिन कभी-कभी अपने आस-पास के जीवन में यह देखने को मिल जाता है कि नौकरी-पेशा, रोजी-रोजगार में लगे हुए लोग भी पूरी तरह से परावलम्बन से पीछा नहीं छुड़ा पाते हैं। श्रम और उद्यमिता पर उनकी आन्तरिक आस्था विकसित नहीं हो पाती। जिन्दगी की कई और अनेक बातों में वे सदा औरों का मुँह ताकते रहते हैं। आलस्य का तमस् उन्हें प्रायः घेरे रहता है। अपनी कमियों-कमजोरियों को अनदेखा करके दूसरों पर सभी छोटे-बड़े दोष मढ़ने की दूषित प्रवृत्ति उन्हें जकड़े रहती है। ऐसे व्यक्ति कहीं भी और कोई भी क्यों न हों, उन्हें पूरी तरह से स्वावलम्बी नहीं कहा जा सकता है।

स्वावलम्बन तो जीवन की शक्तियों एवं सद्गुणों का विकास है। साथ ही विकसित गुणों एवं शक्तियों का उद्देश्य पूर्ण नियोजन है। स्वावलम्बन संकाय के पाठ्यक्रमों के निर्माण में यही सत्य अपनाया जा रहा है। इन पाठ्यक्रमों के उद्देश्य को बताने वाले कतिपय महत्त्वपूर्ण बिन्दु इस तरह समझे या जाने जा सकते हैं- 1. व्यक्तित्व के व्यावहारिक जीवन में उपयोगी सद्गुणों का जागरण एवं विकास। 2. जाग्रत् सद्गुणों का समुचित प्रबन्धन। 3. जीवन की शक्तियों एवं सद्गुणों का उद्देश्यपूर्ण नियोजन। 4. इस नियोजन में स्वहित, जनहित एवं राष्ट्रहित का समुचित समन्वय। यही वे चार मूल बिन्दु हैं, जो स्वावलम्बन संकाय के पाठ्यक्रम की रूपरेखा तय करते हैं।

इनमें से पहला बिन्दु पाठ्यक्रम की रूपरेखा का आधार है। व्यावहारिक जीवन में उपयोगी सद्गुण ही स्वावलम्बन की वृत्ति को जन्म देते हैं। उसे जाग्रत् और विकसित करते हैं। इन गुणों में चार मुख्य हैं- श्रम, संकल्प, साहस एवं सूझ-बूझ। इन गुणों से युक्त व्यक्ति कभी भी परमुखापेक्षी एवं परावलम्बी नहीं हो सकता। इन गुणों के सहयोगी दो अन्य गुण भी हैं, व्यावहारिक सामञ्जस्य एवं उद्यमिता। स्वावलम्बन संकाय के पाठ्यक्रम छात्रों में इन गुणों के जागरण एवं विकास का आधार बनेंगे। क्योंकि यही वे आधारभूत तत्त्व हैं, जिनसे स्वावलम्बन की परिभाषा जन्म लेती है।

दूसरा महत्त्वपूर्ण बिन्दु सद्गुणों का समुचित प्रबन्धन है। सही कहें तो स्वावलम्बन जीवन का प्रबन्ध है। जीवन की समुचित सुव्यवस्था है। गुणवान व्यक्ति भी अगर अपने आन्तरिक एवं बाह्य जीवन में अव्यवस्थित व अस्त-व्यस्त रहे तो उनका सफल और संतुष्ट होना मुश्किल है। स्वावलम्बन संकाय के पाठ्यक्रम के माध्यम से छात्रों और छात्राओं को जीवन प्रबन्धन की व्यावहारिक प्रक्रियाओं एवं प्रयोगों का ज्ञान दिया जाएगा। इस प्रबन्ध के बाद नियोजन की सही रीति-नीति जरूरी है। यही रूपरेखा तीसरा महत्त्वपूर्ण बिन्दु है। नियोजन के कौशल से ही व्यक्ति को सफलताएँ मिलती हैं। दुनिया भर में जो भी सफल व्यक्ति हुए हैं, उनमें यही कौशल प्रकट हुआ है।

चौथे बिन्दु में नियोजन की सार्थक दिशा का ज्ञान है। यह ज्ञान ही देव संस्कृति की विशेषता है। सफलताएँ अनेकों पाते हैं, पर सभी के व्यक्तित्व में आध्यात्मिक विस्तार की झलक नहीं मिलती। देव संस्कृति का दैवी तत्त्व अध्यात्म ही है। यही मनुष्य को देव बनाने वाला रसायन है। इसी को जानने से यह सच्चाई सामने आती है कि यदि जिन्दगी की दिशा सही है तो फिर छोटे कहे जाने वाले कामों की परिणति बड़ी और महान् होती है। जैसा कि रैदास और कबीर के जीवन में दिखाई दिया। चमड़े और कपड़े का साधारण काम करके भी ये दोनों महामानव बन गए। जबकि सिकन्दर दुनिया के अधिकाँश देश जीतकर, विश्वविजेता बनने का स्वाँग भरकर भी अन्त में पछताता हुआ मरा।

इसलिए स्वावलम्बन संकाय के पाठ्यक्रमों की विषय वस्तु इस ढंग से तैयार की जा रही है कि उसकी राष्ट्रीय और सामाजिक उपयोगिता भी हो। चिकित्सालय प्रबन्धन, देवालय प्रबन्धन, ग्राम प्रबन्धन, साँस्कृतिक प्रबन्धन, हैरिटेज मैनेजमेण्ट ऐसे ही कुछ पाठ्य विषयों की कल्पना की गयी है। जिन्हें पढ़कर न केवल स्वावलम्बी होने के अवसर उपलब्ध हो, बल्कि जीवन में कुछ सार्थक कर पाने की गौरवमयी अनुभूति भी हो। इन पाठ्यक्रमों के बारे में इतना ही कहा जा सकता है कि इनका स्वरूप कुछ ऐसा बनाया जाना है, जिसमें विद्यार्थियों के स्वहित के साथ राष्ट्रहित, मानवहित एवं विश्वहित भी निहित हो।

ऐसा करना कठिन जरूर है, पर असम्भव नहीं है। समाज और राष्ट्र के लिए अभी जो किया जा रहा है, वह उचित है। परन्तु इसके और भी अनेकों पहलू हैं, जिन पर अभी किसी का ध्यान नहीं गया, जिनके बारे में सोचा जाना, जिन्हें अविलम्ब किया जाना समय की अनिवार्य जरूरत है। ऐसे ही क्षेत्रों को तलाश कर नए विषय एवं नए पाठ्यक्रम तैयार किए जाने का काम प्रारम्भ हो चुका है। ये सभी पाठ्यक्रम कुछ इस प्रकार बनाए जा रहे हैं, जिन्हें पढ़ने वाले विद्यार्थियों का व्यक्तित्व तो विकसित हो ही, साथ ही उन्हें काम के लिए लम्बा इन्तजार करना न पड़े। पढ़ाई के साथ ही उन्हें कार्य के अवसर सुलभ हों। ये अवसर भी ऐसे हों, जिनमें निज का हित होने के साथ देश और समाज के लिए कुछ अच्छा और सार्थक किया जा सके।

स्वावलम्बन संकाय के पाठ्यक्रमों का निर्माण युग की एक चुनौती है। जिसे देव संस्कृति विश्वविद्यालय के संचालकों ने युग ऋषि परम पूज्य गुरुदेव की कृपा के भरोसे स्वीकार किया है। इसमें सभी कुछ नया गढ़ना और बनाना है। युवा पीढ़ी के लिए नयी राहें तैयार करनी है। इस सम्बन्ध में विचारशीलों के उपयोगी सुझाव एवं सहयोग आमंत्रित है। सहयोग देने के इच्छुक जन देव संस्कृति विश्वविद्यालय के स्वावलम्बन संकाय से संपर्क स्थापित कर सकते हैं। इसके सहित सभी संकायों में क्रियाशीलता गति पकड़ती जा रही है। इनके पाठ्यक्रमों के साथ इन सभी में होने वाले भावी शोध-अनुसन्धान के उद्देश्य एवं प्रक्रियाएँ भी तय की जा रही हैं। आखिर यही तो युग प्रश्न के हल की सार्थक पहल है।


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