‘मेरा एक स्वप्न है। और मेरे स्वप्न, दिवा स्वप्न नहीं दिव्य स्वप्न होते हैं।’ यह वाक्य कहते-कहते परम पूज्य गुरुदेव भाव लोक की भावानुभूतियों में खोने लगे। उनके मुख पर एक अलग ढंग की तेजस्विता दप-दप दमकने लगी। मस्तक का चन्द्राकार निशान चमक उठा। गुरुदेव गम्भीर हो गए थे। ऐसा लग रहा था, जैसे वह विशेष सत्य बताना चाहते हों। भविष्य को एक नयी दृष्टि देना चाहते थे। उनकी भावमुद्रा कुछ ऐसी ही थी। सचमुच ही उन पलों में वे अपनी अनुभूतियों के सागर के कुछ अनमोल रत्न बाँटना चाहते थे।
उस दिन भी दोपहर थी। लेकिन यह दोपहर मई महीने की थी। सूर्य भगवान् सब ओर बड़ी उदारता से अपनी धूप लुटा रहे थे। इसकी ऊष्मा के प्रभाव से हवाएँ भी ऊष्ण हो गयी थीं। गर्मी का अहसास सभी को होने लगा था। मौसम के प्रभाव से पैदा हुई तपिश की तपन दोपहर में कुछ ज्यादा बढ़ जाती थी। लेकिन गुरुदेव की सामान्य दिनचर्या भी तपश्चर्या थी। इस पर मौसम का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। न कोई घट-बढ़ और न ही कोई हेर-फेर। सदा ही वह अपने तप में तपते थे।
उनके तप की तपन सूर्य की तपन से कुछ अलग थी। सूर्य की तपन से केवल देह तपती है। बाहरी परिस्थितियों में इसकी अनुभूति होती है। लेकिन गुरुदेव के तप की तपन की अनुभूति मन व प्राण करते थे। सम्पूर्ण अन्तःकरण एवं आन्तरिक प्रकृति व परिस्थिति में इसकी अनुभूति होती थी। उनके संग के कुछ पल भी जीवन में धन्यता लाने वाले थे। जो भी उनसे मिलता, अपनी पात्रता के अनुसार उनसे कुछ न कुछ अवश्य पा लेता। उनके देने का अन्दाज निराला था। वे रोग, शोक, कष्ट, कठिनाई आदि लौकिक समस्याओं का ही निवारण-निराकरण नहीं करते थे, आत्मा की क्यारी में भी बीज बोते थे। अपने तप की ऊर्जा-ऊष्मा से उन्हें उगाते-बढ़ाते थे।
ऐसे तपोमूर्ति गुरुदेव बोल रहे थे- बेटा, इस देश और धरती में जब भी नया जीवन अंकुरित हुआ, विश्वविद्यालयों में हुआ। जब भी नया युग आया, तो उसकी शुरुआत विश्वविद्यालयों से हुई। जब नए मनुष्य गढ़े गए, उन्हें नयी दिशा मिली तो विश्वविद्यालयों से मिली। पर ये विश्वविद्यालय आज के जैसे नहीं थे। उनमें शिक्षा रटाने और पैसा बटोरने की जगह विद्या के वरदान दिए जाते थे। महामानवों देवपुरुषों की पौध तैयार की जाती थी। नालन्दा, तक्षशिला के विश्वविद्यालय ऐसे ही थे।
यहाँ के ऊर्जावान आचार्य और प्राणवान विद्यार्थी मिलकर प्राणऊर्जा का ऐसा प्रवाह पैदा करते थे कि पूरे देश के प्राण लहलहा उठते थे। सारी धरती पर जीवन मूल्यों के वरदान बरस जाते। कहते-कहते गुरुदेव एक पल के लिए रुक गए। पल-क्षण की इस भाव समाधि में शायद वह किसी सत्य को मूर्त होता हुआ देख रहे थे। अपनी दृष्टि पथ में आए इस सत्य को प्रकट करते हुए वह कहने लगे- ऐसे ही एक विश्वविद्यालय की स्थापना मेरा भी स्वप्न है।
सुनने वाले अपने सद्गुरु की सामर्थ्य से परिचित थे। उन्हें मालूम था कि उनके गुरुदेव युगशक्ति गायत्री के सत्य और सिद्धि को पाने वाले युग के विश्वामित्र हैं। उनमें नवसृजन की नयी सृष्टि रचने की सामर्थ्य है। सुनने वाले की सोच की कड़ियाँ गुरुदेव की वाणी से प्रवाहित हो रहे प्राण प्रवाह में विलीन हो गयीं। अब केवल उनके शब्द ही ध्वनित हो रहे थे- यह विश्वविद्यालय ऐसा होगा, जहाँ से कौडिन्य और कुमारजीव जैसे विद्यार्थी निकलेंगे। जो देश की धरती और विश्व वसुन्धरा में देव संस्कृति की संवेदना का विस्तार करेंगे।
यह देव संस्कृति का ऐसा ध्रुव केन्द्र होगा, जहाँ देश के कोने-कोने से ही नहीं विश्व के हर भू-भाग से लोग आएँगे और जानेंगे कि भारतीय संस्कृति क्या है? यहाँ भारतीय संस्कृति और भारतीय विद्याओं के हर पहलू पर अध्ययन होगा, शिक्षण होगा, शोध होगी। अपना यह वाक्य पूरा करते-करते गुरुदेव फिर से चुप हो गए। लेकिन यह चुप्पी बस एक क्षण के लिए रही। दूसरे ही क्षण वह फिर से बोलने लगे-वैसे अभी ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान है। लेकिन यह काफी छोटा है। इसमें इतना बड़ा काम नहीं हो सकता। इतने बड़े काम के लिए तो एक विश्वविद्यालय चाहिए।
देव संस्कृति के व्यापक एवं बहुआयामी अध्ययन, शिक्षण एवं शोध के लिए बना विश्वविद्यालय। अपनी इस भविष्य रचना को जैसे उन्होंने एक पल अपनी दिव्य दृष्टि से निहारा। इसी के साथ उनके अधरों पर हल्की सी एक स्मित रेखा झलकी। उस मुस्कान के प्रकाश में सत्य मुखरित हो उठा। उन्होंने सुनने वालों को टोकते हुए कहा- ‘देव संस्कृति विश्वविद्यालय’ कैसा रहेगा यह नाम। फिर नाम के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए वह कहने लगे- नाम किसी व्यक्ति का हो या केन्द्र का उससे उसके गुण और कार्यों की अभिव्यक्ति हो जानी चाहिए। किसी की पहली झलक उसके नाम से ही मिलती है। हमारे विश्वविद्यालय का नाम कुछ ऐसा हो, जिसे सुनकर ही लोग इसके महत्त्वपूर्ण उद्देश्यों एवं कार्यों को जान सकें, उसके बारे में सोच सकें।
सुनने वाले गुरुदेव की वाणी को मुग्ध मन से सुन रहे थे। उन्हें यह बात समझ में आ रही थी- कि सद्गुरु की दिव्य दृष्टि भविष्य के जिस विश्वविद्यालय को देख रही है- उसका नाम देव संस्कृति विश्वविद्यालय होगा। और वह ब्रह्मवर्चस का बड़ा और व्यापक रूप होगा। गुरुदेव की योजना शायद अभी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हो पायी थी। वह अभी कुछ और कहना चाहते थे। उन्हें अभी कुछ और बताना था। अपने भावों को वाणी देते हुए उन्होंने कहा- बेटा, इस विश्वविद्यालय की स्थापना तक तो हम नहीं रहेंगे। पर तुम लोग इसे स्थापित होते हुए देखोगे। तुम सभी को यह जिम्मेदारी उठानी और निभानी पड़ेगी। इसके लिए तुम लोग अभी से अपनी योग्यता बढ़ाओ।
हम इस विश्वविद्यालय के लिए आचार्य चाहते हैं। जो अपने आचरण और जीवन से शिक्षा दे सकें, ऐसे आचार्य। हमें व्याख्यान देने वाले व्याख्याता नहीं चाहिए। बुद्धि और शब्दों से यदि कुछ बदला जा सकता है तो सारी दुनिया न जाने कब की बदल चुकी होती। जो शब्दों से खिलवाड़ करते हैं, जो नट, बाजीगर की तरह बुद्धि की कुलाँचों के चमत्कार दिखाते हैं। ऐसे आडम्बर करने वालों से हमारा काम चलने वाला नहीं है। हमें तो संकल्पवान आचार्य चाहिए। जो अपनी संस्कृति के लिए, मातृभूमि के लिए, विश्व-मानवता के लिए स्वयं को तिल-तिल करके मिटाने का साहस रखते हों।
देखो, चाणक्य क्या था? तक्षशिला विश्वविद्यालय का आचार्य था। वह कोरा विद्वान और व्याख्यानबाज नहीं था। उसके अन्दर आचरण की निष्ठ थी, संकल्प का बल था। अपने देश और धरती के प्रति अनुराग था। अपनी संस्कृति के लिए समर्पण था, मातृभूमि के लिए मर मिटने की निष्ठ थी। अपने इन्हीं गुणों की ताकत से उसने विदेशी यवनों को खदेड़ा, देश के अत्याचारी और अन्यायी शासकों को धूल-धूसरित करके मिट्टी में मिला दिया। चन्द्रगुप्त जैसे साधारण और गलियों में भटकने वाले बालक को पराक्रमी योद्धा, महानायक और नीतिकुशल सम्राट बना दिया। उसके प्रयासों से एक नए युग की शुरुआत हो गयी।
‘मेरा स्वप्न भी कुछ ऐसा ही है। मैं चाहता हूँ कि ऐसे विश्वविद्यालय की स्थापना हो जिसके आचार्य और विद्यार्थी मिलकर एक नए युग को जन्म दें। भगवान् ने मुझे वचन दिया है कि मेरे स्वप्न कभी अधूरे नहीं रहेंगे। मेरा यह स्वप्न भी पूरा होगा। लेकिन इसे तुम सब को मिलकर पूरा करना है। तुम सब लोग मिलकर कुछ ऐसा करना कि ऋषियों द्वारा स्थापित विश्वविद्यालय की महिमा इसमें प्रकट हो सके।’ गुरुदेव के वचन तो सदा ही मंत्र थे और हैं। आज जो कुछ भी हो रहा है, उसमें उन्हीं के द्वारा उच्चारित मंत्रों का मंत्रार्थ प्रकट हो रहा है।