नवयुग को जीवन देने वाले संस्कृति दूत यहाँ गढ़े जायेंगे

June 2002

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देव संस्कृति के देवदूत का जीवन, विश्वविद्यालय की विद्या साधना का सुफल है। यहाँ आकर अध्ययन करने वाले छात्र-छात्राओं की गुरु दक्षिणा है। यही उनसे अपेक्षा है। विद्यार्थीगण इस ऋषिभूमि में विद्याभ्यास करके यदि स्वयं को देव संस्कृति के देवदूत के रूप में गढ़ सकें, तो समझा जाएगा कि उनका विद्याध्ययन सफल हुआ। उन्होंने आचार्य कुल को, विश्वविद्यालय को अपनी भावभरी श्रद्धा अर्पित कर दी। इस युग के महानतम आचार्य युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव के दिव्य स्वप्न को सच्चे अर्थों में साकार किया। उस उद्देश्य को पूरा करने के लिए सहायक और सहयोगी हुए, जिसके लिए विश्वविद्यालय का समूचा तंत्र विकसित किया गया है।

ऋषियों की रीति-नीति यही है। ऋषि परम्परा का आदर्श, उद्देश्य एवं लक्ष्य यही है। विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के जीवन के भविष्यत् को सुस्पष्ट करने वाले ऋषि मंत्र के स्वर भी यही है-

विश्वविद्यालयाधीतस्य तपविद्याः सुसम्पन्नः। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षरेन् पृथ्व्याँ सर्वमानवः॥

अर्थात्- विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले, तप और विद्या से सुसम्पन्न व्यक्ति अपने-अपने चरित्र से पृथ्वी के सभी मनुष्यों को शिक्षा देंगे।

तप और विद्या से भरा-पूरा ऐसा उज्ज्वल चरित्र ही व्यक्ति को देव संस्कृति का देवदूत बनाता है। इन देवदूतों को संस्कृति के सत्य एवं सूत्र समझाने के लिए किसी वाणी विलास या बौद्धिक चमत्कारों की जरूरत नहीं पड़ती। उनका मौन जीवन ही मुखर होकर सब कुछ समझा देता है। उनकी जिन्दगी के उजाले से संपर्क में आने वालों के मन-बुद्धि ही नहीं, अन्तरात्मा तक सुप्रकाशित हो जाती है। इस विश्वविद्यालय से पढ़कर निकलने वाले छात्र-छात्राओं का जीवन कुछ ऐसा ही प्रकाशपूर्ण होगा, कुछ ऐसी ही आशाएँ और अपेक्षाएँ संजोयी गयी है। ऐसे ही संकल्प किए गए हैं।

देव संस्कृति विश्वविद्यालय की स्थापना के साथ ही कुछ सवाल उठे हैं, कुछ उठाए गए हैं और कुछ उठाए जा रहे हैं। इन सभी सवालों के धागे इस बात से लिपटे हैं कि यहाँ अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों की रोजी-रोटी का क्या होगा? उनके भविष्य का स्वरूप क्या बनेगा? इन सवालों के जवाब में यही कहना है कि इस विश्वविद्यालय का उद्देश्य ही भविष्य को गढ़ना है। यहाँ पढ़ने वाले छात्र-छात्राओं के जीवन एवं भविष्य को इतनी सुघड़ रीति से गढ़ा-संवारा जाएगा कि वे अपने और अपने परिवार के, देश, समाज व संसार के भविष्य को गढ़ और संवार सकें। अपनी परिष्कृत प्रतिभा से स्वयं दिशावान बनें और अपने आसपास के परिकर को भी सही एवं सार्थक दिशा दें।

इसके साथ ही इस प्रसंग में एक सच्चाई समझ लेना जरूरी है। यहाँ पर मल्टी नेशनल कम्पनियों में लाखों रुपये लेकर चाकरी करने वालों की कतार नहीं खड़ी की जाएगी। ऊँचे ओहदों पर जा बैठने वाले रिश्वतखोर अफसर भी यहाँ नहीं बनाए जाएँगे। केवल और केवल जिनका मकसद धन कमाना है, जो वैभव और विलास की जिन्दगी के सपने देखते हैं, ऐसे व्यक्ति यहाँ के लिए अपात्र है, कुपात्र है। किसी भी रूप में उनका यहाँ पर कोई स्थान नहीं है। यह विश्वविद्यालय महामानव बनाने की टकसाल है। यहाँ आदर्शनिष्ठ व्यक्ति ही अध्यापन करेंगे, और ऐसे ही आदर्श परायण देश-धर्म एवं संस्कृति के लिए जीने वाले यहाँ पर अध्ययन करेंगे।

जैसे भी बन पड़े, वैसे पैसा कमाने या किसी तिकड़म से ऊँचा ओहदा हथियाने वालों के लिए यहाँ कोई जगह नहीं है। जो स्वार्थलिप्सा और अहंकार के उन्माद को पूरा करने के लिए जब भी चाहे नीतियों व आदर्शों को भुला देते हैं, ऐसे लोगों के लिए यहाँ के कपाट बन्द हैं। यह तो ऋषियों की तपोभूमि है। यह तपस्थली उनके लिए है, जो देश, धर्म, संस्कृति व विश्वमानवता के लिए जीना चाहते हैं। इन पंक्तियों के माध्यम से उन्हें विश्वास दिलाया जा रहा है कि उनका भविष्य अति उज्ज्वल है। यहाँ पर सभी संकायों के सारे विषयों के पाठ्यक्रमों के माध्यम से जीवन के विविध क्षेत्रों के विशेषज्ञ तैयार किए जाएँगे। उन प्रतिभावानों को रोजगार की कमी न रहेगी। यहाँ के प्रतिभाशाली विद्यार्थी पत्रकार, साहित्यकार, आचार्य, चिकित्साशास्त्री, मनोवैज्ञानिक, वैज्ञानिक, विभिन्न प्रकार के प्रबन्धन में विशेषज्ञ, तकनीकी ज्ञान में कुशल, दार्शनिक, अध्यात्मवेत्ता, कवि व लेखक, मनीषी, समाजशास्त्री, शिक्षाविद् जैसी अनेकानेक ज्ञान धाराओं में वे निपुण होंगे। पर उनका जीवन व चरित्र देव संस्कृति के देवदूत का होगा। वे जहाँ भी रहेंगे, जो भी काम करेंगे, वहाँ पर देश, समाज व विश्व को अपनी विशेषज्ञता का लाभ देते हुए देव संस्कृति के देवदूत की भूमिका का निर्वाह करेंगे।

इस विश्वविद्यालय में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, महामना मदन मोहन मालवीय, देशबन्धु चितरंजन दास, स्वामी विवेकानन्द, महर्षि अरविन्द के आदर्शों पर चलने वालों की नयी पीढ़ी तैयार करनी है। ऐसे महामानवों को जन्म देना है, जो इक्कीसवीं सदी में नवयुग को जीवन दे सकें। अपने प्राणों के प्रकाश से उज्ज्वल भविष्य को प्रकाशित कर सकें। यहाँ नवयुग के सृजन शिल्पियों के साथ कौडिन्य, कुमारजीव, बोधिधर्म जैसे संस्कृति के प्रसार करने वाले संस्कृति दूतों को भी गढ़ा जाना है। जो देश व विदेश में अपने जीवन व चरित्र से देव संस्कृति का सन्देश प्रसारित कर सकें। प्राचीनकाल के ऋषियुग में धौम्य, शौनक, सूत आदि ऋषियों ने यही किया था। ऐतिहासिक युग के तक्षशिला, नालन्दा आदि विश्वविद्यालयों में यही पुण्य परम्परा थी।

प्राचीन भारतीय इतिहास के प्रख्यात् विद्वान् प्रो. ए.एस. अल्तेकर, प्रो. आर. सी. मजूमदार एवं विलियम जोन्स ने अपने शोध कार्यों में ऐसी कई घटनाओं का उल्लेख किया है। इन घटनाओं से ऐतिहासिक युग के प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों के छात्रों के उज्ज्वल जीवन का पता चलता है। यह सच्चाई उजागर होती है कि ये सभी छात्र अध्ययन काल के बाद इस बात की प्रतिज्ञा करते थे कि वे अपने जीवन व कार्यों से देव संस्कृति के देवदूत होने का दायित्व निभाएँगे। इस दायित्व में उनके सभी सामाजिक, साँस्कृतिक, राष्ट्रीय व मानवीय दायित्व शामिल होते थे।

इस बारे में विक्रमशिला विश्वविद्यालय में आने वाले एक तिब्बती भिक्षु नागात्शे का संस्मरण उपलब्ध हुआ है। उसको तिब्बत के राजा ने अपने यहाँ इस विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों को लाने के लिए भेजा था, जो राज्य में महत्त्वपूर्ण दायित्वों का निर्वाह कर सकें। साँस्कृतिक ज्ञान का विस्तार कर सकें। भिक्षु नागात्शे विश्वविद्यालय में दीक्षान्त के सुअवसर पर उपस्थित हुआ। उस समय कुलपति आचार्य अतिश केन्द्रीय सभागार में सभी छात्रों को सम्बोधित कर रहे थे। अपने सम्बोधन में वे बता रहे थे कि अध्ययन पूरा करके घर वापिस लौट रहे छात्रों से विश्वविद्यालय की क्या अपेक्षाएँ हैं। नागात्शे ने अपने संस्मरण में इस सम्बोधन के कुछ बिन्दुओं का उल्लेख किया है।

उसके अनुसार आचार्य अतिश ने विद्यार्थियों से कहा- 1. आप सब अपने जीवन पर्यन्त इस विश्वविद्यालय के तप और विद्या की गौरवपूर्ण परम्परा का निर्वाह करेंगे। विद्यार्थी जीवन के बाद भी तप से लगाव व विद्या के अनुराग को छोड़ेंगे नहीं। 2. राष्ट्र सबसे महत्त्वपूर्ण है। राष्ट्र के आह्वान पर बड़े से बड़ा बलिदान करने से हिचकेंगे नहीं। 3. अपने द्वारा अर्जित ज्ञान से राष्ट्र, समाज व विश्व मानवता की सतत् सेवा करेंगे। 4. इस तरह का जीवन जिएँगे कि उनके संपर्क में आने वाले लोग अपने आप ही विश्वविद्यालय के आदर्शों को सीख सकें। 5. प्रत्येक छात्र सारे जीवन भर विश्वविद्यालय के विशेष दूत होने का दायित्व निभाएगा। और इस अनुभूति को प्रगाढ़ बनाए रखेगा कि वह सदा ही इस विश्वविद्यालय का एक अविभाज्य अंग है।

देव संस्कृति विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं से भी यही साँस्कृतिक अपेक्षाएँ है। देव संस्कृति को सदा ही उन्हें अपने जीवन में रक्त व प्राण की तरह प्रवाहित बनाए रखना है। यहाँ अध्ययन करके घर वापस लौटने वाले छात्र व छात्रा को यह तथ्य कभी भी विस्मृत नहीं होने देना है कि वे ऋषि चेतना के संवाहक हैं। युग ऋषि परम पूज्य गुरुदेव के प्रतिनिधि हैं। उनके तपस्वी जीवन व साँस्कृतिक चेतना के उत्तराधिकारी हैं। दीक्षान्त समारोह के बाद अपने जीवन की सामाजिक चुनौतियों को स्वीकार करने वाला प्रत्येक विद्यार्थी इस विश्वविद्यालय का क्रियाशील कीर्तिस्तम्भ होगा। विद्यार्थियों के जीवन में आदर्श निष्ठ की सफलता पर ही विश्वविद्यालय के समूचे तंत्र की सफलता टिकी है। अपने देव परिवार के सारे परिजन इस पुण्य प्रयोजन में भागीदार होंगे।

देव संस्कृति विश्वविद्यालय के स्वरूप व उसकी विभिन्न गतिविधियों की चर्चा पिछले पृष्ठो पर की जा चुकी है। देव परिवार के परिजनों की इस पुण्य प्रयोजन में भागीदारी अनिवार्य है। राष्ट्र, समाज व विश्व के साँस्कृतिक नवोन्मेष के लिए यह समूचा तंत्र खड़ा किया गया है। इसके सभी संकायों एवं सारे पाठ्यक्रमों का लक्ष्य एक यही है। दरअसल ये सारे भगीरथ प्रयत्न युगान्तर प्रस्तुत करने वाली चेतना की ज्ञान गंगा का अवतरण करने के लिए किए जा रहे हैं। यह ज्ञान का महायज्ञ सतयुग की कल्पना को साकार करने वाले नवयुग को धरती पर उतारने के लिए है। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र द्वारा रची गयी नयी सृष्टि की ही भाँति युगऋषि की तप शक्ति के सहारे किया जा रहा नवयुग के नवसृजन का यह कार्य पूरा होकर ही रहेगा। युग शक्ति वेदमाता की समर्थ शक्ति एवं भगवान महाकाल के संकल्प की सफलता में कोई सन्देह नहीं है।

इस विद्या केन्द्र में अपने नाम के अनुरूप ही गुणवत्ता है। ‘देव संस्कृति’ इसलिए- क्योंकि इसमें ऋषियों की साधना से उपजे वे मूल्य और प्रक्रियाएँ हैं, जो मनुष्य को देव बनाने, सुसंस्कृत करने में समर्थ हैं। ‘विश्व’ इसलिए कि इसका लक्ष्य कोई सीमित वर्ग या क्षेत्र नहीं, वरन् समस्त विश्व वसुधा है। ‘विद्यालय’ इसलिए की शिक्षा की स्वल्प उपलब्धि केवल भौतिक प्रगति का द्वार खोलती है, व्यक्तित्व का परिष्कार तो विद्या साधना पर टिका है। यह केन्द्र विद्या की गरिमा को समझाने और जनमानस में उसकी प्राण प्रतिष्ठ करने में निरत रहेगा। इन प्रयत्नों के इस केन्द्र को सच्चे अर्थों में ‘आलय’ कहा जा सकेगा। विश्वविद्यालय के नाम से कितने ही परीक्षा संस्थान और कॉलेजों का समन्वय सम्बन्धित किया जाता है, पर शब्द के अर्थ को सार्थक करने वाले विद्यापीठ कहीं भी दिखाई नहीं देते।

देव संस्कृति को सुविकसित, सुविस्तृत बनाने वाली इस लुप्तप्राय पुण्य परम्परा के पुनर्जागरण का यह अभिनव प्रयास है। इसे युग को बदल देने वाली युगान्तर चेतना का समर्थ केन्द्र भी कहा जा सकता है। देश, समाज व विश्व मानवता को आज जैसी विपन्न स्थिति में भला कब तक पड़े रहने दिया जाय? यह विश्वविद्यालय उसे मानवी गरिमा के उच्च शिखर पर पहुँचा कर ही चैन लेगा। ‘करो या मरो’ यहाँ के प्रत्येक आचार्य, इससे जुड़े प्रबन्ध कर्मी व अध्ययन करने वाले छात्र-छात्राओं का निश्चय है। इस संकल्प को पूरा करने वाले कुछ कदम उठाए जा चुके हैं, कुछ उठाए जा रहे हैं और कुछ उठाए जाने हैं। जो हो रहा है वह शुभारम्भ श्री गणेश है, जो होने वाला है वह अति विस्तृत- अकल्पनीय है। आज के प्रयासों का प्रत्यक्ष स्वरूप नगण्य है, पर भावी सम्भावनाओं की यदि कोई कल्पना की जा सके तो वे हिमालय से भी ऊँची है और समुद्र से भी गहरी है। इस महासाहस को आज की परिस्थितियों में अद्भुत और अनुपम कहना थोड़ा सा भी गलत नहीं है।

देव संस्कृति विश्वविद्यालय की सभी गतिविधियों को द्रुतगति से अग्रगामी बनाया जाय, इसके लिए अपने परिजनों का समर्थ सहयोग अनिवार्य है। इसके प्रभावकारी परिणाम हो, इसे व्यापकता व विस्तार मिले, इसके लिए अन्यमनस्क मनःस्थिति व मन्थर गति से काम चलने वाला नहीं है। वरन् आपत्तिकालीन संकट का सामना करने के लिए जिस प्रकार युद्ध स्तरीय दुस्साहस किए जाते हैं, वैसे ही किए जाने हैं। विश्वविद्यालय का वर्तमान स्वरूप गायत्रीकुञ्ज के परिसर में सीमित है। पर भविष्य में उसके केन्द्रों का विस्तार देश और विदेशों में होना है। बालक आज खिलौना जैसा लगता जरूर है, पर भविष्य में उसके प्रौढ़-वयस्क और परिपुष्ट लौह पुरुष के रूप में विकसित होने की पूरी पक्की तैयारी है। यह संस्था इतने छोटे रूप में सीमित न रहेगी, जितनी कि अभी शुरुआत में है। इसके विद्या केन्द्र समस्त राष्ट्र व समूचे विश्व में फैलेंगे। इसका अन्तर्राष्ट्रीय विस्तार होगा।

इसे ऐसा महाविस्तार देने के लिए कोई एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों का समूह पर्याप्त नहीं है। इसके लिए तो अपने देव परिवार के प्रत्येक परिजन को तन-मन-धन से जुटना होगा। ज्ञानयज्ञ के लिए इस प्रज्वलित हो चुके हवन कुण्ड में अपने समय व सम्पदा की आहुति देनी होगी। प्रेरणाएँ व योजनाएँ भले ही शान्तिकुञ्ज में अवतरित होती रही हों, पर उन्हें मूर्तिमान, अग्रगामी व फलवती बनाने में सदा ही अपने इसी परिवार की श्रद्धा, भक्ति, श्रम एवं मनोयोग लगा है। साधनों की आवश्यकता जब-जब पड़ी है, तो उसकी सारी पूर्ति अपने ही परिवार के सदस्यों ने पेट काटकर की है।

कहा उन्हीं से जा रहा है, जो इस समय इन पंक्तियों को पढ़ रहे हैं। वे ही हमारे अपने हैं। उन्हीं पर इस विश्वविद्यालय का दारोमदार है। उन पर ही यहाँ की सारी योजनाओं को पूरा करने की जिम्मेदारी है। धन के बिना सारे काम ठप्प पड़े हों और भावनाशील चुप बैठे रहें, यह कैसे हो सकता है। सवाल विश्वविद्यालय की भविष्यत् योजनाओं को पूरा करने का है। इसके लिए धन चाहिए। अब उसके लिए मात्र सहयोग करके, स्वेच्छा सहयोग के लिए प्रतीक्षा करने में काम चलता दिखाई नहीं देता। अब इस स्तर के अनुदानों को अधिक त्याग और साहस का समावेश करने के लिए आग्रह करना पड़ेगा। क्योंकि साधनों के अभाव में काम की गति में अवरोध उत्पन्न हो रहा है। योजनाएँ बड़ी हैं, इन्हें पूरा करने के लिए बहुत कुछ करना बाकी है।

विश्वविद्यालय को अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान करना है। यहाँ देश व विदेश से जो छात्र-छात्राएँ पढ़ने आएँगे, उनके लिए भोजन-आवास की व्यवस्था करनी है। पढ़ाने वाले सुयोग्य आचार्यों के निवास व निर्वाह की व्यवस्था करनी पड़ेगी। इस भारी-भरकम व्यवस्था के लिए अनगिनत कर्मचारियों को जुटाना पड़ेगा। व्यक्तियों के लिए नियोजित किए जाने वाले साधन, सुविधाओं के अलावा अन्य कार्यों की भी अपनी जरूरतें हैं। अनुसन्धान के लिए हर विषय के अनुरूप प्रयोगशालाएँ चाहिए। इसके लिए आवश्यक उपकरण देश व विदेश से मंगाने पड़ेंगे। इन सभी आवश्यक उपकरणों की महंगाई की अलग से चर्चा करना आवश्यक नहीं है। समझदारों के लिए संकेत ही काफी होते हैं। शोध और अन्य कार्यों के लिए अनगिनत आधुनिकतम तकनीक वाले कंप्यूटरों के संजाल की आवश्यकता स्वयं सिद्ध है।

इस सबके अतिरिक्त पुस्तकालय के खर्चे काफी-बढ़े-चढ़े हैं। शोध के लिए संदर्भ ग्रन्थ, पाठ्य विषयों के लिए पुस्तकें कहीं से भी जुटायी जाए, जुटानी ही पड़ेगी। इन सबसे भी कहीं महंगी दरें हैं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की शोध पत्रिकाओं की। जिन्हें जिस किसी तरह पूरा किए बिना चलने वाला नहीं है। सभी विभागों, सभी विषयों में आवश्यकताएँ एक नहीं अनेक हैं। इन्हें कैसे भी पूरा किया जाय, पूरा करना ही पड़ेगा। साधनों के अभाव में अभी यह समूची प्रक्रिया अटक-अटक कर चल पाती है। एक आवश्यकता जैसे-तैसे पूरी होती है, तो दूसरी अटकी पड़ी रह जाती है। समझ में नहीं आता कि कैसे क्या किया जाए?

कार्य का विस्तार जिस भी दिशा में बढ़ता है- उसी दिशा में धन की, साधन की माँग भी उठ खड़ी होती है। ऊपर की पंक्तियों में तो थोड़े से संकेत किए गए हैं, जिनके लिए पैसा चाहिए। लक्ष्य इतना ही नहीं इससे भी कहीं बढ़ा-चढ़ा है। जिसे कार्य रूप में परिणत करने के लिए अनेकानेक शाखा-प्रशाखाएँ सामने आएँगी और वे न जाने क्या-क्या माँग खड़ी करेंगी। अभी तो हाथ में लिए काम ही असहाय स्थिति पड़े हुए, साधनों की माँग कर रहे हैं। भविष्य में यह माँग घटेगी नहीं, बढ़ेगी ही। इसकी पूर्ति के लिए अपने परिवार को ही सहयोग के लिए आना पड़ेगा।

अपने परिजन स्वयं तो सहयोग करें ही। पुण्यवान श्रीमन्त वर्ग को भी इस संस्कृति सेवा के लिए प्रेरित करें। महामना मदन मोहन मालवीय ने द्वार-द्वार जाकर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए धन जुटाया था। यही रीति अब हम सबको अपनाना पड़ेगा। अपने गुरु के कार्य के लिए इस पुरुषार्थ हेतु जुटना होगा। विश्वास किया जा रहा है कि पुण्यवान धनिकों के पास संस्कृति संवेदना भी होती है। भले ही आजकल यह थोड़ी सुप्त पड़ गयी हो। हम सबको मिलकर उनकी इस संवेदनशीलता को जगाना होगा। आशा की गयी है कि धनी-मानी लोगों में भामाशाह और जमनालाल बजाज निकलेंगे ही। धन के साथ संवेदना जाग्रत् हो तो देश, धरती, समाज, संस्कृति का दर्द भी होगा। मातृभूमि व धरती माता की छटपटाहट भरी पीड़ा मन को सताएगी, दिल को रुलाएगी। अपने परिवार के सदस्यों से स्वयं संवेदनशील होने और इस पुण्य प्रयोजन के लिए श्रीमन्त वर्ग की संवेदना को जाग्रत् करने की अपेक्षा की गई है। इसके लिए उनकी ओर टकटकी लगाकर देखा जा रहा है।

सरकार से एक नया पैसा सहयोग लेने की बात कभी सोची ही नहीं गयी। जो लोग इन दिनों सरकार का सूत्र संचालन कर रहे हैं, वे अपनी ही कठिनाइयों, परेशानियों से उबर लें यही बहुत है। आर्थिक, सुरक्षात्मक, अपराध नियंत्रण जैसी न जाने कितनी समस्याएँ उनके आगे अपना मुँह पसारे खड़ी है, वे उन्हीं से ठीक ढंग से निबट लें यही बहुत है। राज्याश्रय में रहना लोकसेवी ऋषियों को शोभा भी नहीं देता। ऋषियों के जीवन का भगवान पर ही निर्भर रहना ठीक है। देश व विश्व के सभी भावनाशील परिजनों व पुण्यवान श्रीमन्तों को उसी का स्वरूप माना गया है।

घुमा-फिरा कर आशा का केन्द्र अपने गायत्री परिवार के परिजनों के साथ ऐसे पुण्यात्मा जन ही हैं। अखण्ड ज्योति को इस समय थामे हुए हाथों से ही प्रकाश के दान की अपेक्षा की गई है। इन पंक्तियों के सभी पाठक चाहे वे कोई भी क्यों न हों, अपने अपनत्व के घेरे में हैं। सारी आशाएँ उन्हीं पर टिकी हैं। उन्हीं से अधिक त्याग करने की, ज्यादा उदारता बरतने की बात कही जा रही है। जिनमें कसक और टीस को समझ सकने लायक संवेदना है, उन्हीं को समझाया जा रहा है। निष्ठुरता ने तो भला कब किसकी सुनी है? संवेदनशील समझदारों से यह उम्मीद जतायी गयी है कि वे अपने आवश्यक कामों को कुछ समय के लिए रोककर भी इस पुण्य प्रयोजन में अनिवार्य रूप से भागीदार बनें।

जिनकी स्थिति गुजारे से आगे बढ़कर कुछ बचत करने लायक है, वे उस सौभाग्य का श्रेष्ठतम उपयोग करके अपने को सच्चे अर्थों में भाग्यवान् बना सकते हैं। चक्कवेण, बाजिश्रवा आदि के अगणित उदाहरण भारतीय संस्कृति के आकाश में उज्ज्वल नक्षत्र की भाँति चमक रहे हैं। वे अति आवश्यक खर्च में से जो कुछ बचाते थे, उसे समय-समय पर सर्वमेध यज्ञ के रूप में पूरी तरह से खाली कर देते थे। शिवि, हरिश्चन्द्र, मुद्गल के प्रसंग भी ऐसे ही हैं। ईश्वर चन्द्र विद्यासागर अपने अच्छे वेतन का एक चौथाई अंश ही खर्च में लाते थे और तीन चौथाई विद्यादान के लिए समर्पित करते थे। इन परम्पराओं को कथा वार्ता की रोचक चर्चा का विषय बनाकर हवा में नहीं उड़ा देना चाहिए, वरन् कोशिश यह होनी चाहिए कि उन्हें जीवित भी रखा जा सके। धर्म का बखान ही नहीं होना चाहिए, उसे कर्म में स्थान भी मिलना चाहिए।

कंजूसी-कृपणता की वृत्ति यदि उदारता में नहीं बदल सकी तो फिर अध्यात्म के आदर्शवाद का सारा ढाँचा मात्र विडम्बना बनकर रह जाएगा। देव संस्कृति विश्वविद्यालय के द्वारा जिस तत्त्वदर्शन को हम सब विश्वव्यापी बनाना चाहते हैं, उसके उदाहरण हमें अपनों में से ही प्रस्तुत करने पड़ेंगे। वस्तुतः वह कार्यरूप में परिणत हुई आदर्शवादिता ही विश्वविद्यालय की जीवन ऊर्जा बनेगी। परिजनों की प्राण चेतना ही यहाँ से प्रेरणा बनकर लोगों को प्रभावित कर सकेगी। उपदेशों में नहीं उदाहरणों में दूसरों को प्रभावित करने की शक्ति होती है। युग की नयी सृष्टि के लिए संकल्पित विश्वामित्र को आज फिर से हरिश्चंद्र चाहिए। जो विश्व के साँस्कृतिक नवोन्मेष के लिए अपने व अपने परिवार की साधन सम्पदा लुटा सके।

महान् आदर्शों की पूर्ति के लिए किया गया तप, त्याग, सर्वस्व दान व आत्म बलिदान ही वह आधार है, जिसके सहारे विश्वविद्यालय के आदर्श व उद्देश्य पूरे हो सकते हैं। इस विश्वविद्यालय की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपने परिवार के परिजनों की ओर बड़ी आशा भरी नजरों से निहारा जा रहा है। अब बारी उनके आगे बढ़ने की और कुछ कर गुजरने की है। जो अपने धन और साधन से इस महत्कार्य में भागीदार होंगे, भगवान् महाकाल उन्हें अपने सहायक होने का गौरव प्रदान करेंगे। देव संस्कृति के आकाश में उनकी उज्ज्वल आभा सदा-सदा प्रकाशित रहेगी।

गायत्री जयंती के इन पुण्य पलों में युग शक्ति के प्रेरक प्रवाह से जन-मन अभिसिंचित है। भावनाएँ उन भगीरथ को ढूंढ़ रही हैं, जिनके महातप से गायत्री की प्रकाश धाराएँ बहीं। महाशक्ति जिनके प्रचण्ड तप से प्रसन्न होकर इस युग में अवतरित हुई। वेदमाता के उन वरदपुत्र को भावनाएँ विकल हो खोज रहीं हैं। आज युग के उन तप सूर्य की यादें उन्हीं की सहस्र रश्मियों की तरह मन-अन्तःकरण को घेरे हैं। यादों के इस उजाले में वर्ष 1990 की गायत्री जयंती की भावानुभूति प्रकाशित हो उठी है। जब एक युग का पटाक्षेप हुआ था। प्रभु साकार से निराकार हो गए थे। भावमय भगवान अपने भक्तों की भावनाओं में विलीन हुए थे। उस दिन न जाने कितनी भावनाएँ उमगी थीं, तड़पी थीं, छलकी थीं, बिखरी थीं। इन्हें बटोरने वाले, संजोने वाले अन्तःकरण के स्वामी इन्हीं भावनाओं में ही कहीं अन्तर्ध्यान हो गए थे।

सब कुछ प्रभु की पूर्व नियोजित योजना थी। महीनों पहले उन्होंने इसके संकेत दे दिए थे। इसी वर्ष पिछली बसन्त में उन्होंने सब को बुलाकर अपने मन की बात कह दी थी। दूर-दूर से अनगिनत शिष्यों-भक्तों ने आकर उनके चरणों में अपनी व्याकुल भावनाएँ उड़ेली थी। सार्वजनिक भेंट और मिलन का यही अन्तिम उपक्रम था। तब से लेकर लगातार सभी के मनो में ऊहा-पोह थी। सब के सब व्याकुल और बेचैन थे। शान्तिकुञ्ज के परिसर में ही नहीं, शान्तिकुञ्ज से बाहर भी सबका यही हाल था। भारी असमंजस था, अनेकों मनों में प्रश्न उठते थे, क्या गुरुदेव सचमुच ही शरीर छोड़ देंगे? अंतर्मन की गहराइयों से जवाब उठता था- हाँ। पर ऊपर का मोहग्रस्त मन थोड़ा अकुलाकर सोचता, हो सकता है सर्वसमर्थ गुरुदेव अपने भक्तों पर कृपा कर ही दें और अपना देह वसन न छोड़ें।

लेकिन मोह के कमजोर तन्तुओं से भला भगवत्योजनाएँ कब बंधी हैं? विराट् भी भला कहीं छुद्र बंधनों में बंधा करता है। गायत्री जयंती से एक दिन पहले रात में, यानि कि 1 जून 1990 की रात में किसी ने स्वप्न देखा कि हिमाच्छादित हिमालय के श्वेत हिमशिखरों पर सूर्य उदय हो रहा है। प्रातः के इस सूर्य की स्वर्णिम किरणों से बरसते सुवर्ण से सारा हिमालय स्वर्णिम आभा से भर जाता है। तभी अचानक परम पूज्य गुरुदेव हिमालय पर नजर आते हैं, एकदम स्वस्थ प्रसन्न। उनकी तेजस्विता की प्रदीप्ति कुछ अधिक ही प्रखर दिखाई देती है। आकाश में चमक रहे सूर्यमण्डल में माता गायत्री की कमलासन पर बैठी दिव्य मूर्ति झलकने लगती है। एक अपूर्व मुस्कान है माँ के चेहरे पर। वह कोई संकेत करती हैं और परम पूज्य गुरुदेव सूर्य की किरणों के साथ ऊपर उठते हुए माता गायत्री के पास पहुँच जाते हैं। थोड़ी देर तक गुरुदेव की दिव्य छवि माता के हृदय में हल्की सी दिखती है। फिर वेदमाता गायत्री एवं गुरुदेव सूर्यमण्डल में समा जाते हैं। सूर्य किरणों से उनकी चेतना झरती रहती है।

देखने वाले का यह स्वप्न सुबह की दिनचर्या में विलीन हो गया। उसी दिन ब्रह्मवर्चस् के एक कार्यकर्त्ता कृष्णकान्त तिवारी के भाई अजय तिवारी की शादी थी। वन्दनीया माताजी ने दो-एक दिन पहले से ही निर्देश दिया था कि शादी सुबह-सुबह ही निबटा ली जाय। सामान्य क्रम में शान्तिकुञ्ज के यज्ञमण्डप में शादियाँ दस बजे प्रारम्भ होती हैं। लेकिन उस दिन के लिए माताजी का आदेश कुछ अलग था। गायत्री जयंती के दिन यह शादी काफी सुबह सम्पन्न हुई। अन्य कार्यक्रम भी यथावत सम्पन्न हो रहे थे। वन्दनीया माता जी प्रवचन करने के लिए प्रवचन मंच पर पधारी थी। प्रवचन से पहले संगीत प्रस्तुत करने वाले कार्यकर्त्ता जगन्माता गायत्री की महिमा का भक्ति गान कर रहे थे- ‘माँ तेरे चरणों में हम शीश झुकाते हैं’, गीत की कड़ियाँ समाप्त हुई। माता जी की भावमुद्रा में हल्के से परिवर्तन झलके। ऐसा लगा कि एक पल के लिए वह अपनी अन्तर्चेतना के किसी गहरे अहसास में खो गयीं। लेकिन दूसरे ही पल उनकी वाणी से जीवन सुधा छलकने लगी।

प्रवचन के बाद प्रणाम का क्रम चलना था। माँ अपने आसन पर अपने बच्चों को ढेर सारा प्यार और आशीष बाँटने के लिए बैठ गयीं। प्रणाम की पंक्ति चल रही थी, माता जी स्थिर बैठी थी। उनके समूचे अस्तित्त्व से वात्सल्य-संवेदना झर रही थी। प्रणाम की पंक्ति में प्रणाम करते हुए उन्होंने एक कार्यकर्त्ता से कहा- ‘बेटा! खाना खा लेना।’ उसके ‘जी माता जी!’ कहने पर वह बोलीं- ‘जी माताजी नहीं? तू खाना जल्दी अभी तुरन्त खा लेना, यह मेरा आदेश है।’ सुनने वाला फिर से ‘जी’ कहकर थोड़ा अचकचाया, वह सोच में पड़ गया कि आज माता जी जल्दी और तुरन्त खाने के लिए क्यों कह रही हैं। पर वह माँ के आदेश को शिरोधार्य कर नीचे उतर गया।

प्रणाम समाप्त होने के कुछ ही क्षणों बाद शान्तिकुञ्ज एवं ब्रह्मवर्चस का कण-कण, यहाँ निवास करने वाले सभी कार्यकर्त्ताओं का तन-मन-जीवन बिलख उठा। अब सभी को बता दिया गया था कि गुरुदेव ने देह छोड़ दी है। अनगिन शिष्य सन्तानों एवं भक्तों के प्रिय प्रभु अब देहातीत हो गए हैं। काल के अनुरोध पर भगवान् महाकाल ने अपनी लोक-लीला का संवरण कर लिया है। जिसने भी, जहाँ पर यह खबर सुनी, वह वहीं पर अवाक् खड़ा रह गया। एक पल के लिए हर कोई निःशब्द, निस्पन्द हो गया। सब का जीवन रस जैसे निचुड़ गया। थके पाँव उठते ही न थे। लेकिन उन्हें उठना तो था ही। असह्य वेदना से भीगे जन परम पूज्य गुरुदेव के अन्तिम दर्शनों के लिए चल पड़े।

शान्तिकुञ्ज के कम्प्यूटर कक्ष के ऊपर जो बड़ा हाल है, वहीं पर गुरुदेव का पार्थिव शरीर रखा गया था। महायोगी की महत् चेतना का दिव्य आवास रही, उनकी देह आज चेतना शून्य थी। पास बैठी हुई वन्दनीया माताजी एवं उनके परिवार के सभी स्वजन वेदना से विकल और व्याकुल थे। माताजी की अन्तर्चेतना को तो प्रातः प्रवचन में ही गुरुदेव के देह छोड़ने की बात पता थी। तब से लेकर अब तक वह अपने कर्त्तव्यों में लीन थीं। सजल श्रद्धा की सजलता जैसे हिमवत् हो गयी थी। पर अब वह महावियोग के ताप से पिघल रही थी। अन्तिम प्रणाम भी समाप्त हो गया। परन्तु कुछ लोग अभी हॉल में रुके थे। प्रणाम करके नीचे उतर रहे एक कार्यकर्त्ता को तो माता जी ने ही इशारे से रोक लिया था। परम पूज्य गुरुदेव की पार्थिव देह को उठाते समय माता जी ने उससे भीगे स्वरों में कहा- बेटा! तू भी कन्धा लगा ले। माँ के इन स्वरों को सुनकर उसका रोम-रोम कह उठा- धन्य हो माँ! वेदना के इस विकल घड़ी में भी तुम्हें अपने बच्चों की भावनाओं का ध्यान है।

सजल श्रद्धा एवं प्रखर प्रज्ञा के पास आज जहाँ चबूतरा बना है, तब वहाँ खाली जगह थी। वहीं चिता के महायज्ञ की वेदिका सजायी गयी थी। ठीक सामने स्वागत कक्ष के पास माता जी तख्त पर बिछाए गए आसन पर बैठी थीं। पास ही उनके परिवार के अन्य सभी सदस्य खड़े थे। आस-पास कार्यकर्त्ताओं की भारी भीड़ थी। सभी की वाणी मौन थी, पर हृदय मुखर थे। हर आँख अश्रु का निर्झर बनी हुई थी। आसमान पर भगवान् सूर्य इस दृश्य के साक्षी बने हुए थे। कण-कण में बिखरी माता गायत्री की समस्त चेतनता उस दिन उसी स्थल पर सघनित हो गयी थी। भगवान सविता देव एवं उनकी अभिन्न शक्ति माता गायत्री की उपस्थिति में गायत्री जयंती के दिन यज्ञ पुरुष गुरुदेव अपने जीवन की अन्तिम आहुति दे रहे थे। यह उनके जीवन यज्ञ की पूर्णाहुति थी।

आज वह अपने शरीर को भी इदं न मम् कहते हुए यज्ञवेदी में अर्पित कर चुके थे। यज्ञ ज्वालाएँ धधकी। अग्निदेव अपने समूचे तेज के साथ प्रकट हुए। वातावरण में अनेकों की अनेक सिसकियाँ एक साथ मन्द्र रव के साथ विलीन हुई। समूचे परिसर का कण-कण और भी अधिक करुणार्द्र हो गया, सभी विह्वल खड़े थे। परम तपस्वी गुरुदेव का तेज अग्नि और सूर्य से मिल रहा था। सूर्य की सहस्रों रश्मियों से उनकी चेतना के स्वर झर रहे थे। कुछ ऐसा लग रहा था कि जैसे वह स्वयं कह रहे हों- तुम सब परेशान न हो, मैं कहीं भी गया नहीं हूँ, यहीं पर हूँ और यहीं पर रहूँगा। मैंने तो केवल पुरानी पड़ गयी देह को छोड़ा है, मेरी चेतना तो यहीं पर है। वह युगों-युगों तक यहीं रहकर यहाँ रहने वालों को- यहाँ आने वालों को प्रेरणा व प्रकाश देती रहेगी। मैं तो बस साकार से निराकार हुआ हूँ, पहचान सको तो मुझे शान्तिकुञ्ज के क्रियाकलापों में पहचानो। ढूंढ़ सको तो मुझे अपने हृदय की भावनाओं में ढूंढ़ो। वर्ष 1990 की गायत्री जयंती में साकार से निराकार हुए प्रभु के इन स्वरों की सार्थकता इस गायत्री जयंती की पुण्य बेला में प्रकट हो रही है। हम सबको उन्हें शान्तिकुञ्ज की गतिविधियों में पाना है, और स्वयं को इनके विस्तार के लिए अर्पित करना है।

*समाप्त*


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