विद्या विस्तार की धुरी- पाठ्यक्रम निर्मात्री परिषद

June 2002

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विद्या परिषद एवं पाठ्यक्रम समितियाँ देव संस्कृति विश्वविद्यालय की विद्या विस्तार योजनाओं का आधार है। पाठ्यक्रमों के निर्माण का दायित्व इन्हीं पर है। इन्हीं के संचालकों द्वारा दी गयी दृष्टि एवं दिशा के अनुरूप पाठ्यक्रमों का स्वरूप तय करना है। यह जिम्मेदारी महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम अनेक साँचों की तरह है, जिनके अनुरूप विद्यार्थियों की मानसिकता ढलती है। ये साँचे ही उनकी योग्यता को संवारते हैं। इन्हीं के द्वारा उनके जीवन में निखार और सुधार आता है। छात्रों के व्यक्तित्व में बीज रूप में समायी अनेकों सम्भावनाओं को साकार कर पाना पाठ्यक्रमों को ठीक ढंग से पढ़ाकर ही सम्भव है। इसलिए विद्या परिषद एवं पाठ्यक्रम समितियों का स्थान विश्वविद्यालय में महत्त्वपूर्ण है।

पुरातन युग में भी विद्या परिषद का गठन किया जाता था। शास्त्रों एवं इतिहास के पन्नों में कई स्थान पर विद्या परिषद या इस जैसी किसी अन्य समिति का उल्लेख मिलता है। कुछ जगहों पर इसे विद्वत्सभा या विद्वत्परिषद भी कहा गया है। प्राचीन संस्कृत साहित्य में वर्णित ऋषि विमर्षिणी सभा या तत्त्व विचार परिषद इसी विद्या परिषद के ही पर्याय हैं। अनेक नामों वाली इस समिति का प्रधान गुण एक ही था- पाठ्यक्रमों का स्वरूप तय करना। महर्षि विश्वामित्र, महर्षि कण्व एवं महर्षि भरद्वाज जैसे प्रख्यात् ऋषियों द्वारा स्थापित किए गए विश्वविद्यालयों में पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रमों पर विचार एवं निर्णय का अधिकार ऋषि विमर्षिणी सभी का ही था। यही सभा तय करती थी कि किस विषय में क्या और कितना पढ़ाया जाय। इस सभा की अध्यक्षता इन विश्वविद्यालय के कुलपति महर्षि स्वयं करते थे।

ऋषि विमर्षिणी सभा या विद्या परिषद की अध्यक्षता करने वाले कुलपति के बारे में बताते हुए शास्त्र वचन है-

छात्राणाँ दश साहस्रं योऽन्नदानादिपोषणात्। अध्यापयति विप्रर्षिरसौ कुलपतिः स्मृतः॥

अर्थात्- जो दस हजार छात्रों के भोजन आदि द्वारा पोषण करके उनके अध्यापन की व्यवस्था करता है, उस विप्रर्षि को कुलपति कहते हैं।

इस शास्त्र कथन से उन दिनों एक विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या का पता चलता है। साथ ही यह भी पता चलता है कि पाठ्यक्रम निर्मात्री परिषद को कितने छात्रों के जीवन को संवारने की योजना तैयार करनी पड़ती थी।

ऐतिहासिक युग में भी तक्षशिला एवं नालन्दा विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम निर्माण करने वाली परिषद का उल्लेख मिलता है। प्राप्त विवरण के अनुसार आचार्य धर्मज्ञ इस सभा के अध्यक्ष थे। उनके अतिरिक्त आचार्य धृतिसेन, आचार्य शुभदर्शन आदि आचार्यों का इस सभा के सदस्य होने का जिक्र आता है। नालन्दा विश्वविद्यालय में आचार्य शीलभद्र इस विश्वविद्यालय के कुलपति होने के साथ पाठ्यक्रम निर्मात्री परिषद के अध्यक्ष भी थे। इस परिषद के सदस्यों में धर्मपाल, चन्द्रपाल, गुणमति, स्थिरमति, प्रभामित्र, जिनमित्र, ज्ञानचन्द्र और जिनभिक्षु आदि आचार्य मुख्य थे। उस समय के चीनी छात्र इत्सिंग के अनुसार यह परिषद गहन विचार-विमर्श करके पाठ्यक्रमों को तय करती थी। इत्सिंग का कथन है कि इस प्रधान परिषद के अंतर्गत समितियाँ भी थी, जो विषय-प्रवेश के पाठ्यक्रम पर विचार करती थी।

देव संस्कृति की यही प्रक्रिया और परम्परा देव संस्कृति विश्वविद्यालय में भी अपनायी जा रही है। यहाँ पढ़ाए जाने वाले सभी विषयों के चुने हुए विशेषज्ञ विद्वानों एवं जागरुक विचारशीलों का सम्मिलन विद्या परिषद में होगा। विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों का निर्धारण एवं निर्णय करने वाली यह सर्वोच्च परिषद होगी। इसके आधीन अलग-अलग विषयों के लिए पाठ्यक्रम समितियाँ कार्य करेगी। इनमें से प्रत्येक समिति में विषय से सम्बन्धित दो विशेषज्ञ विद्वानों सहित विभाग के विभागाध्यक्ष एवं उस विभाग के वरिष्ठ आचार्य होंगे। विशेष आमंत्रित सदस्य भी इस पाठ्यक्रम समिति के भागीदार होंगे। सभी विषयों की पाठ्यक्रम समितियाँ अपने कार्य का ब्यौरा विद्या परिषद को देंगी। विद्या परिषद इस पर विचार करके पाठ्यक्रमों को अन्तिम रूप देगी। बाद में विद्या परिषद के अध्यक्ष के रूप में कुलपति इस पर अन्तिम निर्णय के लिए इसे कुलाधिपति के पास ले जाएँगे। उनकी स्वीकृति एवं सहमति के बाद ही पाठ्यक्रम विश्वविद्यालय में पढ़ाया जा सकेगा।

विद्या परिषद एवं पाठ्यक्रम समितियों के लिए कुछ बिन्दुओं पर विचार करना और उन्हें अपनाना अनिवार्य होगा। 1. पाठ्यक्रम में विषय के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों के साथ उनके व्यावहारिक स्वरूप का होना जरूरी है। 2.पाठ्यक्रम की विषय वस्तु में जीवन के विभिन्न पहलुओं से जुड़ाव इतना स्पष्ट हो कि पढ़ने वाले छात्र को आसानी से इसकी अनुभूति हो सके। प्रत्येक पाठ्यक्रम में देव संस्कृति के तत्त्वों का समावेश अनिवार्य रूप से हो। 3.पाठ्यक्रम में पुरातन ज्ञान के महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं के साथ विषय विशेष के दायरे में हुई आधुनिक शोध अनुसंधान के निष्कर्षों को अनिवार्य रूप से जोड़ा जाएगा। 4. प्रत्येक विषय में स्नातक एवं स्नातकोत्तर कक्षाओं के अनुरूप प्रायोगिक योजनाएँ एवं शोध परियोजनाएँ जुड़ी होंगी। 5. पाठ्यक्रम में हर सत्र में आवश्यक फेर बदल की जाएगी, ताकि विषय से सम्बन्धित नवीन उपयोगी तथ्य जोड़े जा सकें और पुराने अनुपयोगी तत्त्वों को हटाया जा सके। इन कतिपय महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं के अतिरिक्त विश्वविद्यालय की प्रबन्ध परिषद कुलाधिपति एवं शासन परिषद की सहमति से विद्या परिषद एवं पाठ्यक्रम समितियों के लिए एक मार्गदर्शिका तैयार करेगी। ताकि विद्या परिषद एवं पाठ्यक्रम समितियों के सदस्यों के समक्ष देव संस्कृति विश्वविद्यालय की नीतियाँ एवं उद्देश्य और अधिक सुस्पष्ट हो सके।

इस सम्बन्ध में कहना इतना है कि कार्य बहुत अधिक है और समय बहुत कम है। कम समय में पाठ्यक्रमों की सुचारु व्यवस्था की जानी है। जो विचारशील, जागरुक एवं अनुभवी विद्वान् विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों के निर्माण में अपना सहयोग देना चाहें, वे इन पंक्तियों को ही अपने लिए आमंत्रण मानें। कुलाधिपति, देव संस्कृति विश्वविद्यालय, शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार। इस पते पर पत्र लिखकर ऐसे बड़भागी लोग अपने सहयोग की सूचना दे सकते हैं। इस सूचना में स्वयं की योग्यता एवं वर्तमान स्थिति का पूर्ण विवरण तथा पाठ्यक्रमों के निर्माण के क्षेत्र में अब तक के अनुभव का विवरण अनिवार्य है। यह पत्र मिलने पर सहयोग को स्वीकार करने की सूचना विश्वविद्यालय कार्यालय द्वारा भेजी जाएगी। पाठ्यक्रमों के निर्माण में अपना सहयोग देने वाले ऋषियों के कार्य एवं देव संस्कृति के विस्तार में भागीदार होकर पुण्य और यश दोनों ही प्राप्त करेंगे।

विद्या परिषद सहित सभी पाठ्यक्रम समितियाँ प्रत्येक वर्ष में कम से कम दो बार अवश्य मिलेंगी। उपयोगिता एवं आवश्यकता के अनुसार परिषद या किसी भी समिति की मीटिंग अधिक बार भी हो सकती है। उद्देश्य जल्दी से जल्दी सभी संकायों में संचालित किए जाने वाले विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रमों को अन्तिम रूप देना है। पाठ्यक्रमों के उत्कृष्ट, उच्च स्तरीय होने के साथ रुचिकर, ग्रहण योग्य होना ही इनकी विशेषता होगी। इस विशेषता के द्वारा ही विद्यार्थियों में मौलिक प्रतिभा, प्रायोगिक कुशलता एवं देव संस्कृति के जीवन मूल्यों के प्रति जागृति विकसित हो सकेगी। इन पाठ्यक्रमों के साँचों के द्वारा विद्यार्थियों के व्यक्तित्व की ढलाई का कार्य विश्वविद्यालय के संकायों में होगा। यही वह उर्वर भूमि है, जहाँ व्यक्ति का बीज गलेगा और व्यक्तित्व के हरे-भरे पल्लवित एवं पुष्पित पौधे जन्मेंगे, जीवन पाएँगे।


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