शिक्षण प्रक्रिया की मौलिकता-अज्ञान का निवारण

June 2002

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शिक्षण प्रक्रिया की मौलिकता छात्र-छात्राओं के समग्र एवं सार्थक विकास के लिए है। इस बारे में प्रचलित रीति-नीति के अधूरे और एकाँगी होने से सभी परिचित व परेशान हैं। शिक्षा मनीषी इवान इलिच ने तो इसकी व्यर्थता से हैरान होकर ‘डिस्कूलिंग सोसाइटी’ तक की कल्पना कर डाली है। अपने चिन्तन में उन्होंने कुछ मौलिक सवाल उठाए हैं- क्या शिक्षा का स्मरण शक्ति के विकास तक सीमित रहना उचित है? ऐसी शिक्षा से क्या फायदा जिससे विद्यार्थी के नैतिक व सामाजिक मूल्य विकसित न हो पाते हों? संकल्प बल से विहीन, उच्च आदर्शों से विमुख व्यक्तियों का सृजन करने वाली शिक्षा की सार्थकता क्या है? इवान इलिच के ऐसे और भी अनेकों सवाल हैं। इन सभी सवालों का सटीक जवाब शिक्षण प्रक्रिया के मौलिक सृजन में है।

विभिन्न विश्वविद्यालयों में जो पढ़ाया जा रहा है, वह बहुत अधिक गलत नहीं है। परन्तु जिस ढंग से पढ़ाया जा रहा है, वह एकदम अर्थहीन है। पाठ्यक्रम जहाँ जो भी बनाए गए हैं, उनमें कई कमियों के बावजूद विषय की जानकारियाँ पर्याप्त है। विद्यालयों एवं महाविद्यालयों के स्तर पर कक्षावार ये जानकारियाँ रटाई जाती हैं। इस विषय में सम्बन्धित सवाल पूछे जाते हैं। और विद्यार्थी अपनी कक्षा की वैतरणी पार कर जाते हैं। लेकिन पूरी पढ़ाई के दौरान जो सवाल सबसे अहम् थे, वे जस के तस छूट जाते हैं। किसी को भी यह मालूम नहीं हो पाता कि आखिर इस पाठ्यक्रम की विषय वस्तु का हमारे निजी जीवन से क्या जुड़ाव है? यदि इसे न पढ़ते तो क्या हानि थी? और अब पढ़ लिया तो क्या लाभ होंगे? किताबों में छपे हुए काले अक्षर क्या केवल मन-मस्तिष्क पर कालिख पोतने के लिए थे या फिर उनसे कुछ उजली रोशनी जिंदगी में फैलनी थी?

मनोवैज्ञानिक आर.डी. लेंग ने अपने एक शोध पत्र ‘टीचिंगः इट्स मेरिट्स एण्ड डिमेरिट्स’ में इस सम्बन्ध में काफी कुछ कहा है। उनका कहना है कि शिक्षण के वर्तमान स्वरूप को देखकर कि समूची पद्धति अर्थहीन एवं गुणहीन हो गयी है, इससे समाधान की बजाय सवाल जन्म लेते हैं। प्रो. लेंग के अनुसार प्रत्येक शिक्षक को वह चाहे किसी भी विषय का हो, एक कुशल मनोचिकित्सक की भूमिका निभानी चाहिए। ताकि उसका विद्यार्थी अपने व्यक्तित्व की समस्याओं के समाधान खोज सके। अमेरिकन मनोवैज्ञानिक राबर्ट डी पैटरसन भी आर.डी. लेंग के कथन से सहमत हैं। वे भी शिक्षण प्रक्रिया के युगानुकूल मौलिक सृजन को आज के समय का एक अनिवार्य दायित्व मानते हैं।

देव संस्कृति विश्वविद्यालय इस दायित्व को निभाने के लिए प्रतिबद्ध है। यहाँ की शिक्षण प्रक्रिया सर्वथा मौलिक एवं लीक से हटकर होगी। इसके मौलिक बिन्दुओं में सबसे पहला बिन्दु है- शिक्षक और छात्रों का अनुपात। यहाँ यह अनुपात इतना होगा कि शिक्षक अपने प्रत्येक छात्र की व्यक्तिगत सार-संभाल कर सके। देव संस्कृति के महानतम प्रणेताओं में से एक महर्षि वशिष्ठ का कथन है कि अध्यापन का प्रारम्भ बिन्दु तब होता है जब आचार्य की चेतना अपने छात्र की चेतना का स्पर्श करती है। आचार्य की अन्तर्चेतना का अवरोहण और छात्र की अन्तर्चेतना का आरोहण एवं इन दोनों का सम्मिलन शिक्षण की शुरुआत है। इस सम्मिलन के स्वरूप को कठोपनिषद् के शान्तिपाठ में दर्शाते हुए कहा है- ‘हे भगवन्! आप हम दोनों आचार्य और शिष्य की साथ-साथ रक्षा करें। साथ-साथ हमारा पालन करें। हम दोनों साथ-साथ शक्ति को प्राप्त करें। हम दोनों की अधीत विद्या तेजोमयी हो और हम दोनों परस्पर द्वेष न करें।’

आचार्य एवं शिष्य की अन्तर्चेतना के सम्मिलन के बाद दूसरा मौलिक बिन्दु अध्ययन की विषय वस्तु के शिक्षण के बारे में है। इस सम्बन्ध में सामान्य परम्परा रटाने, लिखाने या थोड़ा-बहुत समझाने की है। लेकिन यह अपर्याप्त है। इस क्रम में आवश्यक आवश्यकता है कि विद्यार्थी को विषय वस्तु का उसके जीवन से जुड़ाव का बोध कराया जाय। जिसका वह अध्ययन कर रहा है, ज्ञान के उस क्षेत्र की उसके निजी जीवन में एवं मानवीय जीवन में क्या महत्त्व है, इसे समझाया जाय। विद्यार्थियों को यहाँ यह बताना जरूरी होगा कि विषय में वर्णित विभिन्न पाठ्य अनुक्रम जीवन में- कहाँ, क्या और किस तरह महत्त्व रखते हैं। इस विश्वविद्यालय में रटाने और लिखाने की बातें बिल्कुल भी न चलेंगी। आचार्य द्वारा समझायी गयी रीति के अनुसार विद्यार्थी स्वयं पुस्तकालय में ग्रन्थों का अवलोकन करके अपने नोट्स को तैयार करेंगे। इसमें उनकी मौलिक सूझ-बूझ का विकास होगा।

विषय के विभिन्न बिन्दुओं के सैद्धान्तिक ज्ञान के साथ उसके व्यावहारिक ज्ञान के शिक्षण के लिए विभिन्न उपयोगी परियोजनाएं तैयार की जाएँगी। प्रत्येक विषय के आचार्य अपने विषय के अनुरूप इन्हें तैयार करेंगे। कक्षा और विषय के अनुरूप इनमें शोध एवं प्रयोग के विभिन्न स्तर होंगे। इससे विद्यार्थियों में विषय के गहरे व व्यावहारिक ज्ञान का विकास होगा। साथ ही उन्हें कुछ विशेष एवं मौलिक करने की सार्थक अनुभूति होगी। उनकी सृजन क्षमताओं का विकास होगा। कुछ नया करने, नया सोचने की सूझ-बूझ पनपेगी। इस सम्बन्ध में तीसरा बिन्दु पाठ्य विषय से अंतर्संबंधित है। इसके क्रियान्वयन के लिए सभी पाठ्य योजनाओं एवं प्रायोगिक परियोजनाओं को इस ढंग से तैयार किया जाएगा कि उन सब में नैतिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक मूल्य घुले-मिले रहें। विद्यार्थी कोई भी विषय अथवा किसी भी कक्षा में पढ़े किन्तु वह जीवन जीने की कला अनिवार्य रूप से सीखे। उसे अपने नैतिक सामाजिक एवं आध्यात्मिक दायित्वों का भान एवं ज्ञान हो सके। साथ ही उसमें इन्हें निभाने की मौलिक क्षमता का विकास हो सके।

छात्र और छात्राओं में परस्पर सहयोग एवं उल्लासपूर्ण भावों को विकसित करने के लिए उपयोगी खेलों का भी प्रशिक्षण दिया जाएगा। खेल-कूद की उपयोगिता शारीरिक स्वास्थ्य के साथ मानसिक सन्तुलन एवं एकाग्रता के लिए भी है। इनका प्रशिक्षण विश्वविद्यालय की शिक्षण प्रक्रिया की मौलिकता का अनिवार्य, अविभाज्य एवं महत्त्वपूर्ण बिन्दु होगा। इस क्रम में उन्हीं खेलों का चुनाव किया जाएगा, जो छात्र-छात्राओं में शारीरिक बल एवं स्फूर्ति के साथ मानसिक विकास में भी सहायक हो। विद्यार्थियों में आपस में सहयोग की वृत्ति एवं टीम भावना पनप सके।

समग्र एवं सार्थक विकास के लिए विकसित की गयी शिक्षण प्रक्रिया में शरीर बल व बुद्धि बल के साथ नैतिक, आध्यात्मिक एवं संकल्प बल को विकसित करने वाली योजनाएँ भी शामिल की जाएँगी। यह शिक्षण प्रक्रिया सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण एवं आधारभूत बिन्दु है। इसे व्रताभ्यास का नाम दिया गया है। देव संस्कृति विश्वविद्यालय में अध्ययन करने वाला प्रत्येक विद्यार्थी अपनी कक्षा एवं आयु के अनुरूप प्रत्येक वर्ष कुछ व्रतों का पालन करेगा। वर्ष भर में इनका अभ्यास पूर्ण होने पर अगले वर्ष वह कतिपय नए व्रतों की दीक्षा लेगा।

इन व्रतों को किसी दिन विशेष के उपवास की सीमा तक नहीं समेटा जाना चाहिए। ये व्रत जीवन के आध्यात्मिक अनुशासन के रूप में होंगे। इनमें उपवास, गायत्री जप, योगाभ्यास आदि कुछ भी नियम-अनुबन्ध हो सकते हैं। इन सबका उद्देश्य जीवन में संकल्प बल का विकास एवं आध्यात्मिक शक्तियों का निखार है। इस व्रताभ्यास का प्रत्येक कक्षा को उत्तीर्ण करने में अनिवार्य योगदान होगा। यही वह विशेषता है, जो यह दर्शाएगी कि छात्र व छात्रा के जीवन में बुद्धिबल के साथ आत्मबल की भी अनिवार्यता है।

शिक्षण प्रक्रिया की मौलिकता की मूल भावना यही है। जो काल क्रम एवं समय के अनुसार अपने विकास के नए आयाम उद्घाटित करेगी। इस प्रक्रिया में भागीदार होने वाले आचार्य हो या विद्यार्थी दोनों का ही जीवन क्रम अनूठा होगा। महर्षि याज्ञवल्क्य के अनुसार यहाँ के आचार्यगण-

यथा घटप्रतिच्छन्ना रत्नराजा महाप्रभाः। अकिञ्चित्करताँ प्राप्ता स्तद्वद्विद्या सर्वशः॥ (याज्ञवल्क्य स्मृति 1.2.12)

विद्यार्थियों के अज्ञान के आवरण को दूर करके ज्ञान के प्रकाश से उसको आलोकित करेंगे। अज्ञान रूपी अन्धकार घट से ही ज्ञान रूपी दीपक आवृत्त रहता है। आचार्य उस आवरण को हटाकर विद्यार्थी को सभी विद्याएँ प्राप्त कराता है।

विद्यावान् आचार्य एवं विद्याभ्यासी विद्यार्थी दोनों ही मिलकर शिक्षण की इस मौलिक प्रक्रिया को प्राण सम्पन्न बनाने के लिए यहाँ होने वाली सेमीनार-संगोष्ठी में भाग लेंगे। इन संगोष्ठियों का आयोजन-उपक्रम प्रत्येक संकाय एवं विभाग द्वारा समय-समय पर किया जाएगा।


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