गायत्री उपासना को सफल बनाने वाली पाँच तप-साधनाएँ

June 1997

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गायत्री उपासना में सफलता प्राप्त करने के लिए आत्मशोधन की प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। इसके बिना धन की सफलता संदिग्ध ही बनी रहेगी। जिस तरह भौतिक प्रगति में सफलता के लिए अभीष्ट श्रम, साहस, प्रयत्न-पुरुषार्थ करना पड़ता है, उसी प्रकार आत्मिक प्रगति के लिए तपश्चर्या का पुरुषार्थ करना पड़ता है। अध्यात्म क्षेत्र की प्रगति पूरी तरह इस तथ्य पर निर्भर है कि साधक में तपश्चर्या की साहसिकता किस मात्रा एक प्रचण्ड हो सकी। उपासना और साधना का तात्विक पर्यवेक्षण करने पर प्रतीत होता है कि अध्यात्म विज्ञान का सारा ढाँचा ही यह प्रेरणा देता है कि प्रगति के लिए आवश्यक ऊर्जा उत्पन्न की जाय। ऊपर उठने के लिए, आगे बढ़ने के लिए सर्वत्र ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। वायुयान को या राकेट को आकाश में फेंकना हो या पानी को नीचे से ऊपर की ओर खींचना हो तो साधन और सामर्थ्य दोनों को ही जुटाना पड़ता है। जीवन को ऊँचा उठाना हो, आगे बढ़ाना हो तो भी समर्थता उत्पन्न करनी होगी और यह ऊर्जा तपश्चर्या के बिना उत्पन्न नहीं हो सकती। तपश्चर्या के बिना उत्पन्न नहीं हो सकती। तपश्चर्या के आधार पर ही वह क्षमता विकसित होती है जो अंतर्जगत की क्षमताओं को जगाकर किसी को विभूतिवान बना सकी। दैवी अनुग्रह इसी आधार पर आकर्षित किये जाते हैं।

आद्यशक्ति की साधना से अभीष्ट सफलताएँ प्राप्त करने वालों का इतिहास आदि से अन्त तक एक ही तथ्य प्रमाणित करता है कि उन्होंने आवश्यक तपश्चर्या करके अपनी पात्रता विकसित की, फलतः उन्हें विभूतियों, सिद्धियों से लाभान्वित होने का अवसर मिला। महामानवों से लेकर ऋषि-महर्षियों तक की सफलताएँ पूर्णतया उनकी तप-साधना पर निर्भर रही हैं। मंत्राराधन जादूगरी नहीं है। उसके पीछे प्रचण्ड तपश्चर्या की शक्ति ही चमत्कार प्रस्तुत करती है। साधक की पात्रता का विकास जिस अनुपात से होता है, उसी क्रम में उसका वर्चस्व बढ़ता जाता है और दैवी अनुदान-वरदानों से वह निहाल होता जाता है।

उच्चस्तरीय गायत्री महाशक्ति की साधना पंचमुखी है। उसके प्राण रूपी प्रकरण पाँच-पाँच सोपानों बँटे हुए हैं। तप−साधना वाला प्रकरण भी पाँच भागों में विभक्त है। पाँच तत्वों से बना हुआ काय-कलेवर, पाँच प्राणों से बने हुए चेतना-संस्थान पाँच प्राणों से बने हुए चेतना-संस्थान भी पाँच प्रकार की तपश्चर्याओं से परिष्कृत, परिमार्जित होते हैं। गायत्री उपासना को सफल बनाने वाली पाँच तपश्चर्याएँ-(1) उपवास, (2) ब्रह्मचर्य, (3) मौन, (4) तितीक्षा और (5) अनुदान-इन पाँच नामों से प्रसिद्ध हैं। साधना के साथ-साथ इनका समन्वय जितना हो सकेगा, उसी अनुपात से उसकी कार्य-क्षमता बढ़ती चली जाएगी।

उपवास का प्रयोजन है- आहार की संयमशीलता और सात्विकता। पापों के प्रायश्चित के लिए तो चान्द्रायण, संतापन आदि कितने ही विशिष्ट व्रत हैं। अमावस्या, पूर्णिमा, एकादशी एवं साप्ताहिक उपवासों का क्रम कितने ही लोग चलाते हैं। श्रावण, कार्तिक, माघ, वैशाख महीने के पूरे व्रत-साधनों का विस्तृत माहात्म्य है। रमजान में रोजे तो मुसलमान भी रखते हैं। जन्माष्टमी, रामनवमी, शिवरात्रि, गंगा दशमी, नवरात्रि आदि के पर्वों पर उपवासों की परम्परा है। आहार न करने से पेट को विश्राम मिलता है और उसका नयी शक्ति, नयी स्फूर्ति अर्जित करना स्वास्थ्य की दृष्टि से तो हितकर है ही, उसका प्रभाव मन पर भी पड़ता है। शारीरिक आवश्यकता भूख के रूप में प्रकट होती है ओर आहार माँगती है। धर्मश्रद्धा के साथ जुड़ा हुई संकल्प-शक्ति उस माँग को पूरा करने से इनकार करती है। संस्कार और संकल्प के बीच विग्रह खड़ा होता है। समझाकर या बलपूर्वक कुसंस्कारों का दमन किया जाता है और धर्मबुद्धि के सहारे शरीर को संतोष-समाधान कराया जाता है। इस अनुशासन स्थापना को तपश्चर्या कहा गया है। इस अभ्यास में अन्यान्य प्रकार की वासनाओं का दमन एवं समाधान हो सकता है।

इन्द्रियनिग्रह और मनोनिग्रह से इस सफलता से क्रमशः उत्साह एवं साहस बढ़ता है। मन को जीतना सबसे बड़ी सफलता है, विजय है। जो पूरी तरह इस क्षेत्र में सफल हो सका, उसे जीवनमुक्त ही कहा जाएगा। उपवास की तपश्चर्या के सहारे आत्मानुशासन स्थापित करने का महत्वपूर्ण प्रयोजन सिद्ध होता है।

उपवास किसे, किस प्रकार, कितना करना चाहिए, यह साधक की मनः स्थिति और परिस्थिति पर निर्भर है। पूर्ण उपवास तो वही है जो मात्र जल पर रहा जाय। आँशिक उपवास के कितने ही प्रकार हैं-दूध, छाछ, फलों का रस, शाकों का रस, खिचड़ी, दलिया आदि। उपवास की इन प्रक्रियाओं में से जो जितना कठिन या सरल चुनाव कर सके, उसे करना चाहिए। इसके साथ ही अस्वाद व्रत की प्रक्रिया भी जुड़ी हुई है। नमक, शक्कर, मसाले छोड़कर बिना स्वाद का भोजन करना इन्द्रियनिग्रह का एक बड़ा कदम है। स्वास्थ्य की दृष्टि से इसमें तनिक भी हानि नहीं, वरन् इससे मन की चंचलता को रोकने और सात्विकता की अभिवृद्धि में सहायता मिलती है।

अस्वाद व्रत जिह्वा इन्द्रिय का संयम है। जीभ को चटोरेपन के दुर्गुण से छुड़ा लेने में साहसिकता का समावेश है। इसे जीत लेने पर अन्य सभी इन्द्रियों पर अनुशासन स्थापित कर सकना सरल हो जाता है। इसमें भी आत्म-निग्रह का, आत्मानुशासन का संकल्प प्रखर होता है और इससे बढ़ा हुआ साहस अन्य कुसंस्कारी दुष्प्रवृत्तियों पर विजय पा सकने में सफल हो जाता है। स्वाद छूटने पर जो कुछ खाया जाएगा, प्रायः वह सीमित और सात्विक ही रहता है और उससे आत्मिक प्रगति में बड़ी सहायता मिलती है। इसलिए उपवास और उसकी एक महत्वपूर्ण शाखा अस्वाद व्रत का पालन तपश्चर्या में ही सम्मिलित है। उसका लगातार कितने समय तक पालन किया जाय, यह साधक की इच्छा पर निर्भर है। न्यूनतम सप्ताह में एक बार इस तप के पालन का अभ्यास तो करना ही चाहिए।

जप, स्तवन, कीर्तन, पठन आदि जिह्वा से किये जाते हैं, अतः इस उपकरण की शुद्धि नितान्त आवश्यक हैं। जिस जीभ रूपी बन्दूक से मंत्र रूपी कारतूस चलाया जाता है उसकी सफाई पहले ही कर लेनी चाहिए। नली में कूड़ा-करकट भरा हो, दबाने को घोड़ा तथा दूसरे पुर्जे अस्त-व्यस्त हों तो अच्छे कारतूस होने पर भी निशाना लगाना कठिन है। वंशी बजाने वाले यह देख लेते हैं कि उसके छेद साफ हैं या नहीं। मैले बर्तन में दूध दुहने या उबालने से उसके फटने की आशंका रहेगी। यही बात अशुद्ध जिह्वा के सम्बन्ध में भी है, उसके द्वारा किये गये पूजा-उपचार एवं मंत्र-साधन सफल नहीं होते। अस्तु, उपासना को सार्थक बनाने के लिए जिह्वा शुद्धि की प्रक्रिया पर पूरा ध्यान देना चाहिए। जिह्वा शुद्धि आहार से भी जुड़ी है एवं वाणी से भी।

शास्त्रों में कहा गया है कि अभक्ष्य आहार से जिह्वा की पवित्रता और आध्यात्मिक क्षमता नष्ट होती है। इसलिए भोजन की सात्विकता पर पूरा-पूरा ध्यान देने की आवश्यकता है। स्वाद को जीतना अति आवश्यक है, इसके बिना आहार को सात्विक नहीं रखा जा सकेगा। जीभ का चटोरापन न केवल पेट को, स्वास्थ्य को बिगाड़ता है, वरन् मानसिक चंचलता और तामसिकता का भी निमित्त होता है। भोजन पवित्र हाथों का बनाया हो। पकाने और परोसने वाले के संस्कार आहार में रहते हैं। इसलिए साधक को अपने हाथ का अथवा सुसंस्कारी हाथों का पकाया, परोसा आहार लेने की व्यवस्था करनी चाहिए और हर हालत में भूख से कम ही खाना चाहिए। बेईमानी से कमाया हुआ, युद्ध में पाया हुआ धन भी बुद्धि भ्रष्ट करने का बड़ा कारण है। ऐसे धन से खरीदे गये खाद्य पदार्थ, वस्त्र तथा दूसरे उपकरण, आध्यात्मिक प्रगति में घोर बाधा पहुँचाते हैं। इन सब बातों का ध्यान रखा जाय तो उपासना की सफलता सुनिश्चित होती है।

जिह्वा का एक कार्य है-आहार ग्रहण, दूसरा है-उच्चारण। उच्चारण का तात्पर्य है साधक के सम्भाषण में पवित्रता का समावेश। असत्य भाषण, छल, शेखी खोरी, अवाँछनीय परामर्श, अपमान, तिरस्कार, कटुवचन, चुगली, हिम्मत गिराना जैसे अनेक वाणी दोष है। इनके रहते भी वाणी की पवित्रता नहीं बन पाती। साधक को नपा-तुला बोलना चाहिए। व्यर्थ की बक-झक करते रहने की आदत पड़ गयी हो तो वह दूर करनी चाहिए। अपने वाणी दोषों को सुधारने के लिए पूरा-पूरा ध्यान देना चाहिए। इस संदर्भ में वाणी का विश्राम, निरीक्षण, संशोधन करने के लिए मौन का अभ्यास करना चाहिए। मौन को वाणी का तप कहा गया हैं।

निःस्वार्थ सेवा से अहंकार, घृणा, ईर्ष्या जैसे दोषों से मुक्ति पायी जा सकती है। इससे भेदभाव, ऊँच-नीच का भाव मिटता है। पवित्रता पनपती है। जीवन के प्रति दृष्टिकोण विशाल होता चला जाता है। सब में एक और एक में सबकी अनुभूति होने लगती है। फिर सेवा ही पूजा में बदल जाती है।

सुविधानुसार हर दिन जाग्रत स्थिति में एक-दो घण्टे मौन रहने का अभ्यास करने का प्रयत्न करना चाहिए। भोजन के समय, मल-मूत्र विसर्जन में, उपासना के समय तो मौन रहने की परम्परा भी है। इसके लिए जिस समय कम जन-संपर्क रहता है उस समय एक दो घण्टे का मौन रखने का नियम बनाना चाहिए। सप्ताह में यह महीने में एक दिन पूरा मौन रखना भी जिह्वा की अवाँछनीय गतिविधियों पर रोक लगाने, पुरानी आदतें भुलाने का एक अच्छा उपाय है।

शक्ति-संचय की दृष्टि से कम बोलना उपयोगी है। जब मनुष्य अधिक दुर्बल हो जाता है तो उसकी वाणी बन्द हो जाती है या लड़खड़ाने लगती है। यद्यपि होश-हवाश बने रहते हैं। बोलने में अन्तःशक्तियों पर बहुत जोर पड़ता है।

अनेकों अवयवों की संयुक्त शक्ति के अतिरिक्त उसमें शरीर विद्युतशक्ति का भी एक बहुत बड़ा भाग खर्च होता है। दुर्बलता की स्थिति तक उतनी सामर्थ्य न रहने से ही बोलने में कठिनाई होती है।

‘वाइस ऑफ साइलेन्स’ ग्रन्थ में थियोसॉफी के जन्मदाताओं ने यह बताया है कि मौन रहने की स्थिति में दैवी-वाणी को सुनने में दोनों क्रियाएँ साथ-साथ चलाने में कितनी कठिनाई होती है, यह सभी जानते हैं। ईश्वर की वाणी सुनने, अदृश्य लोक के दिव्य संदेशों को पकड़ने के लिए मौन धारण का अभ्यास करना उचित ही है। गायत्री उपासकों के लिए उपवास अस्वाद एवं मौन का अभ्यास करने के साथ में जिह्वा के माध्यम से की जाने वाली दोनों ही तपश्चर्याएँ आवश्यक हैं। आहार की तामसिकता और अनर्गल वार्ता का संयम करने से जिह्वा में वह शक्ति उत्पन्न होती है जिसके द्वारा किया गया जप-आराधन सफल हो सके।

तीसरा तप- ब्रह्मचर्य। ब्रह्मचर्य का मोटा अर्थ है-वीर्य रक्षा। स्वास्थ्य सुरक्षा की दृष्टि से यह भी आवश्यक है। इस बहुमूल्य धातु का सूक्ष्म रूप ओजस् है। नेत्रों में ज्योति, वाणी में प्रभाव, मस्तिष्क में स्मृति, व्यक्तित्व में प्रतिभा, शरीर में स्फूर्ति, चेहरे पर तेजस्विता, मन में साहसिकता के रूप में यह ओजस् ही काम करता है। जीवन-ज्योति में आलोक जिस तेल के आधार पर प्रकाशवान रहता है, वह वीर्यरक्षा से ही संचित होता है। आत्मिक प्रगति के लिए प्रचण्ड संकल्प शक्ति की आवश्यकता पड़ती है। भौतिक आकर्षणों से लेकर कुसंस्कारों के अवरोधों से पग-पग पर जूझना होता है। इसके लिए योद्धाओं जैसे शौर्य, साहस की आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए अभीष्ट शक्ति-संचय की दृष्टि से ब्रह्मचर्य का पालने आवश्यक है। दाम्पत्य जीवन का अर्थ आत्मघात नहीं है। पति-पत्नी भी सीमित ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए दो मित्रों की तरह और सहेलियों की तरह मित्रता और प्रसन्नता भरा जीवन सरलता और सफलतापूर्वक जी सकते हैं।

ब्रह्मचर्य का सूक्ष्म ओर महत्वपूर्ण भाग वह है जिसमें नर, नारी को और नारी, नर को कामुकता की दृष्टि से न देखकर सामान्य प्राणी की तरह देखते हैं। अश्लील विचारों की वासनात्मक कुदृष्टि का समन्वय नहीं होने देते। यदि स्नेहपूर्वक एक-दूसरे को देखना आवश्यक हो तो पुत्री, भगिनी या माता की, पुत्र, भाई या पिता की पवित्र दृष्टि रखते हुए घनिष्ठता एवं मित्रता का भी निर्वाह हो सकता है। हम जिस आद्यशक्ति की माता के रूप में उपासना करते हैं। उसका चित्र युवा नारी का है। उसमें पवित्रता भरी मातृ-बुद्धि की श्रद्धा जमाने का एक उद्देश्य यह भी है कि नारी यौवन पर दृष्टि जाते ही उत्कृष्ट चिन्तन उभरने का अभ्यास होता रहे। सरस्वती, लक्ष्मी, काली आदि अन्य देवियों की प्रतिमाओं में भी यौवन के साथ भावभरी श्रद्धा संजोये रहने की मान्यता है इसी प्रकार देवताओं को रूप-यौवन संपन्न बनाकर नारी को यह अभ्यास करने का अवसर नारी को यह अभ्यास करने का अवसर दिया गया है कि वे पर यौवन से कामुक उत्तेजना ग्रहण न करें, वरन् ईश्वर तुल्य पवित्र मान्यताओं का अभ्यास करें। मीरा आदि की आराधना इसी स्तर की थी। यौवन विकारों को पवित्र चिन्तन में परिणत करने की साधना ही वास्तविक ब्रह्मचर्य है। इसका अभ्यास देव प्रतिमाओं सहारे किया जा सकता है। सामान्य जीवन-क्रम में इस सम्बन्ध में अधिक अनुशासन बरतने की मर्यादाएँ बनानी और पालन करनी चाहिए।

इस क्रम में चौथी प्रक्रिया है- तितीक्षा। तितीक्षा का अर्थ है-सुविधाओं का स्वेच्छापूर्वक परित्याग और कष्टसाध्य जीवनक्रम का अभ्यास। यह कई कारणों से आवश्यक है। मितव्ययी ब्राह्मणोचित जीवन निर्वाह की स्थिति अपनाने पर ही परमार्थ प्रयोजनों की पूर्ति होती है और विलासिता से पिंड छूटता है। अल्पव्यय में निर्वाह करने वाले को कई प्रकार की असुविधाएँ सहन करनी पड़ती हैं। इसका पूर्वाभ्यास तितीक्षा से ही करना पड़ता है। अल्पव्यय में निर्वाह करने वाले को कई प्रकार की असुविधाएँ सहन करनी पड़ती हैं। इसका पूर्वाभ्यास तितीक्षा से ही करना पड़ता है। तितीक्षा के कई रूप हैं जिसे हर साधक को करते रहना अनिवार्य है।

सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास सहने का अभ्यास तितीक्षा है। भूमिशयन, बिना जमते के चलना, कम वस्त्रों का उपयोग भी इसी श्रेणी में आता है। बिना दूसरों की सहायता का स्वावलंबी जीवन, अपनी शरीर यात्रा के कार्य अपने हाथों करने का अभ्यास भी इसी प्रयोजन के लिए है। कपड़े धोना, हजामत, बनाना, जैसे दैनिक आवश्यकता के काम बिना दूसरों की सहायता लिए करने के नियम इसी तप-तितीक्षा के अंतर्गत आते हैं। अपनी स्थिति के अनुरूप इनमें से जिनसे जो जितनी मात्रा में बन पड़े, उतना कुछ करते रहने का प्रयत्न करना चाहिए।

पाँचवाँ तप है- अनुदान। अपने सुविधा-साधनों में कमी करके उस बचत को सत्प्रयोजनों में लगाते रहना अनुदान अथवा अंशदान है। समय-दान, श्रमदान, धनदान आदि इसी वर्ग में आते हैं। अपने धर्म-कृत्यों में से प्रत्येक के साथ किसी न किसी रूप में दान देने का विधान जुड़ा हुआ है। विविध प्रकार के दान, पुण्य-परमार्थ एवं धर्मकृत्य माने गये हैं। ब्रह्मभोज, प्रसाद वितरण आदि की पूर्णाहुति मानी जाती है। यह लोकमंगल के लिए अंशदान की ही एक प्रक्रिया है। अंशदान का अर्थ है-अपना उपार्जन तो अधिकाधिक बढ़ाना, पर उसका एक न्यूनतम अंश ही अपने निर्वाह में खर्च करना और शेष बचता हो तो परमार्थ प्रयोजनों में लगा देना। यह उसमें अपनी वासना-तृष्णा पर, लोभ-मोह पर अंकुश रखना पड़ता है। कार्यों या व्यक्तियों के लिए न्यौछावर करना पड़ता है। इतनी उदार साहसिकता को जो भी परमार्थ प्रयोजनों के लिए नियोजित कर सके, उसे तपस्वी ही कहा जाएगा। समय दान और धनदान का न्यूनतम अनुदान युग निर्माण परिवार के प्रज्ञ-परिजनों को ज्ञानयज्ञ के लिए प्रस्तुत करना पड़ता है। ज्ञानघटों की स्थापना से इसी तपश्चर्या का शुभारंभ होता है। अपने युग का सबसे बड़ा परमार्थ ज्ञानयज्ञ ही माना गया है। हमें प्राचीनकाल के ऋषियों, महामानवों और देवपुरुषों की तरह बढ़ा-चढ़ा अंशदान पीड़ा और पतन का समग्र निवारण कर सकने वाले ज्ञानदान के निमित्त करते रहना चाहिए। तपश्चर्या का यह पंचम चरण है। इन पाँचों को किसी न किसी रूप में कार्यान्वित करके गायत्री उपासना के वास्तविक सत्परिणाम देखने का अवसर प्राप्त करना चाहिए, यह मानकर चलना चाहिए कि तप के बाद ही योग परमात्मा का मिलन-संयोग, श्रेष्ठ तपस्वी ही समर्पित योगी बन सकता है। हम जीवन-शैली में पर्याप्त संतुलन, समत्व स्थापित कर योगी बनना सीखें व अनुदानों के अधिकारी बनें।


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