अंतर्जगत के झरोखों को खोलता है ध्यान

June 1997

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ध्यान आत्मलोक का प्रवेश द्वार है। स्वयं की अन्तर्निहित क्षमताओं को जाग्रत करने का वैज्ञानिक प्रयोग है। लेकिन इस प्रयोग में तल्लीनता और आत्मलोक में प्रवेश तभी सम्भव है, जब शरीर व मन शान्त स्थिति में हों। शारीरिक और मानसिक उत्तेजनाएँ आत्मिक साधनाओं में बाधक होती हैं। उनके कारण महत्वपूर्ण साधना-विधानों के लिए किया गया भारी पुरुषार्थ भी निरर्थक चला जाता है इसीलिए तत्वदर्शी आत्मिक प्रगति की दिशा में बढ़ने के लिए अभ्यासरत साधकों को यही शिक्षा देते रहे हैं कि शरीर को तनावरहित और मस्तिष्क को उत्तेजनारहित रखा जाय, ताकि उस दिव्यचेतना का अवतरण निर्बाध गति से होता हर सके।

क्रिया-कलापों की भगदड़ से माँस-पेशियों में, नाड़ी-संस्थान में तनाव रहता है। बाहर से स्थिर होते हुए भी यदि शरीर के भीतर आवेश छाया रहा, तो उस उफान के कारण मन की स्थिति एवं एकाग्र रह सकना किसी भी तरह सम्भव न होगा। हठयोग में शरीर को जटिल स्थिति में डाले रहने की आवश्यकता होती है। पर ध्यानयोग की दृष्टि से वह सर्वथा अवाँछनीय है। बद्ध पद्मासन, शीर्षासन, एक पैर से खड़ा होना, जल में बैठना, धूप में तपना, शीत में काँपना, ठण्ड के दिनों में ठण्डे जल से नहाना, गर्मियों में धूनी तपना जैसे शरीर में दबाव डालने वाले साधनाक्रम हठयोग एवं तान्त्रिक साधनाओं के लिए उपयुक्त हो सकते हैं, पर यदि कोई चाहे कि इस स्थिति में प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि जैसे लययोगपरक अभ्यास कर सके तो उसे असफलता ही मिलेगी। इस संदर्भ में बहुधा खेचरी मुद्रा, नासिकाग्र पर दृष्टि जमाना, उड्डयन बन्ध, जालन्धर बन्ध, यहाँ तक कि मंत्रोच्चारण के साथ किया गया माला जप भी व्यतिरेक उत्पन्न करता है। इन विधि-विधानों के साथ ध्यान नहीं हो सकता। क्योंकि चित्तवृत्तियों इन शरीरगत हलचलों में ही लगी रहती हैं। ऐसी दशा में एकाग्रता, स्थिरता हो तो कैसे हो?

आरम्भिक साधना-प्रयास में केवल आदत डालने, नियमितता अपनाने एवं रुचि उत्पन्न करने जितना ही लक्ष्य रहता है। इसलिए उपासना में चंचल-चित्त को एक नियत विधि-व्यवस्था में लगाए रहने वाली मनोरंजन विधियाँ उपयुक्त रहती हैं। शंकरजी पर विल्वपत्र चढ़ाना, अभिषेक करना, परिक्रमा करना, धूप-दीप से गायत्री माता की मूर्ति अथवा चित्र का पंचोपचार, षोडशोपचार पूजन करना आदि क्रियाएँ इसी स्तर की हैं। विभिन्न धर्मग्रन्थों-बाइबिल, रामायण, गीता का पाठ, देवी-देवताओं के स्तवन, मंत्रजप आदि शारीरिक हलचलों के साथ की जाने वाली साधनाएँ इसी स्तर की होती है। उनमें रुचि उत्पन्न करने, स्वभाव का रुझान ढालने का लक्ष्य जुड़ा रहता है। आरम्भ में इस लाभ का भी अपना महत्व है, किन्तु जब ध्यानयोग की उच्च भूमिका में प्रवेश करना होता है, तो शरीरगत हलचलें बन्द करके निःचेष्ट होने की आवश्यकता पड़ती है। माँसपेशियों और नाड़ी संस्थान को जितना अधिक तनाव-रहित, शान्त रखा जा सके उतना ही लाभ मिलना है।

मन-मस्तिष्क के बारे में भी यही बात है। उसमें हलचलें चल रही होंगी, तरह-तरह के विचार उठ रहे होंगे तो जल में उठती हुई हिलोरों की तरह अस्थिरता ही बनी रहेगी। स्थिर जल राशि में चन्द्र, सूर्य, तारे आदि का प्रतिबिम्ब ठीक प्रकार दृष्टिगोचर होता है, पर हिलते हुए पानी में कोई छबि नहीं देखी जा सकती। विचारों की हड़कम्प यदि मस्तिष्क में उठती रहे, तरह-तरह की कल्पनाएँ घुड़-दौड़ मचाती रहें तो फिर ब्रह्म सम्बन्ध की प्रगाढ़ता में निश्चित रूप में अड़चन पड़ेगी। मस्तिष्क जितना अधिक विचार रहित-खाली होगा उतनी ही तन्मयता उत्पन्न होगी और आत्मा-परमात्मा का मिलन-संयोग अधिक प्रगाढ़ एवं प्रभावशाली बनता चला जाएगा।

आकाश में जब बिजली कड़क रही हो या आँधी-तूफान का मौसम चल रहा हो तो हमारे रेडियो की आवाज साफ नहीं आती। कड़कड़ जैसे व्यवधान उठते रहते हैं और प्रोग्राम ठीक से सुनायी नहीं पड़ते। अन्तरिक्ष से भौतिक शक्तियों एवं आत्मिक चेतनाओं का सुदूर क्षेत्र से मनुष्य पर अवतरण होता रहता है। ब्राह्मी चेतना एक प्रकार ब्रोडकास्ट केन्द्र है, जहाँ से मात्र संकेत, निर्देश, सूचनाएँ ही नहीं, वरन् विविध प्रकार सामर्थ्यं भी प्रेरित-प्रेषित की जाती रहती हैं। सूक्ष्म जगत में यह क्रम निरन्तर चलता रहता है। जहाँ सही रेडियो यन्त्र लगा है, जहां व्यक्ति ने अपने आपको सही अन्तःस्थिति में बना लिया है, वहाँ। यह सुविधा रहेगी कि ब्रह्म चेतना की विविध सूचनाओं को ग्रहण करके अपनी ज्ञानचेतना को बढ़ा सके। इतना ही नहीं प्रेरित दिव्य शक्तियों को ग्रहण करने और धारण करने का लाभ उठाकर अपने को असाधारण आत्म-बल सम्पन्न बना सके।

परंतु यह सम्भव तभी है, जब मनुष्य अपने मस्तिष्क को तनावरहित, शान्त स्थिति में रखे। आँधी-तूफान, कड़क और गड़गड़ाहट की उथल-पुथल रेडियो को ठीक से काम नहीं करने देती। मनुष्य का शरीर और मन उत्तेजित तनाव की स्थिति में रहे तो फिर यह कठिन ही होगा कि वह ब्रह्मचेतना के साथ अपना सम्बन्ध ठीक से जोड़ सके और उस सम्मिलन की उपलब्धियों का लाभ उठा सके।

ध्यान भूमिका की साधना में शरीर को ढीला और मन को खाली रखना चाहिए। इसके लिए शिथिलीकरण मुद्रा तथा उनमनी मुद्रा का अभ्यास करना पड़ता है। शिथिलीकरण मुद्रा तथा उन्मनी मुद्रा का अभ्यास करना पड़ता है। शिथिलीकरण का स्वरूप यह है कि देह को मृतक, निष्प्राण, मूर्छित, निद्रित, निःचेष्ट स्थिति में किसी आरामकुर्सी या किसी अन्य सहारे की वस्तु से टिका दिया जाय और ऐसा अनुभव किया जाय मानी शरीर प्रसुप्त स्थिति में पड़ा हुआ है। उसमें कोई हरकत या हलचल नहीं हो रही है। यह मुद्रा शरीर को असाधारण विश्राम देती है और तनाव दूर करती है। ध्यानयोग के लिए यही स्थिति सफलता का पथ प्रशस्त करती है।

मन-मस्तिष्क को ढीला करने वाली उन्मनी मुद्रा यह है कि इस समस्त विश्व को पूर्णतया शून्य-रिक्त अनुभव किया जाय। प्रलय के समय ऊपर नील आकाश, नीचे नील जल का अपने चिन्तन की तन्मयता में अनुभव करते स्वयं को कमलपत्र पर पड़े हुए अबोध बालक की तरह तैरते हुए ध्यान करना चाहिए। ध्यान की इस भावभूमि में अनुभव करें कि बालक पैर का अँगूठा अपने मुख से चूस रहा है। इस प्रकार का प्रलयकालीन दृश्य चित्र के रूप में बाजार में भी बिकता है। चित्र में वर्णित यह अनुभूति मन को शान्त करने की दृष्टि से बहुत उपयुक्त है। इस भावभूमि की प्रगाढ़ता में स्पष्ट अनुभव होता है कि संसार में कोई व्यक्ति, वस्तु, हलचल, समस्या, आवश्यकता है ही नहीं सर्वत्र पूर्ण नीरवता ही भरी पड़ी है।

यह मान्यता दृढ़ होने पर मन को लिए भोगने, सोचने, चाहने का कोई पदार्थ या कारण रह ही नहीं जाता।अबोध बालक के मन में कल्पनाओं की घुड़-दौड़ की कोई गुँजाइश नहीं रहती। अपने पैर के अँगूठे में से निःसृत अमृत का जब आप ही परमानन्द उपलब्ध हो रहा है तो बाहर कुछ ढूँढ़ने-खोजने की आवश्यकता ही क्या रही? इस उन्मनी मुद्रा में आस्था पूर्वक यदि मन जमाया जाय तो उसके खाली एवं शान्त होने की कोई कठिनाई नहीं रहती। कहना न होगा कि कठिनाई नहीं रहती। कहना न होगा कि शरीर को ढीला और मन को खाली करना ध्यानयोग के लिए नितान्त आवश्यक है। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि ध्यानयोग का चुंबकत्व ही आत्मा और परमात्मा की प्रगाढ़ घनिष्ठता को विकसित करके द्वैत को अद्वैत बनाने में सफल होता है। आत्मा ओर परमात्मा का मिलन-संयोग जितना गहरा होगा, उतना ही परस्पर लय होने की सम्भावना बढ़ेगी। इस एकता के आधार पर ही बिन्दु को सिन्धु बनने का अवसर मिलता है। जीव का ब्रह्म बनने का अवसर ऐसे ही लय-समर्पण पर, एकात्मभाव पर निर्भर रहता है।

जटिल संरचना वालो कोमल तारों एवं पुर्जों से बने यन्त्रों का उपयोग बहुत साज-सँभाल के साथ किया जाता है। उन्हें झटके-धक्के लगते रहें तो कुछ ही समय में गड़बड़ी उत्पन्न हो जाती है। ट्रांजिस्टर, रेडियो, टेपरिकार्डर, घड़ी आदि संवेदनशील यन्त्र भारी उठा-पटक बर्दाश्त नहीं कर सकते। इलेक्ट्रानिक उपकरणों, कम्प्यूटर आदि के साथ भी यही बात है। उन्हें ठीक रखना हो तो सावधानी के साथ उठाने, रखने, बरतने का क्रम चलाना चाहिए। यही सत्य शरीर और मस्तिष्क के बारे में है। यदि उन्हें स्वस्थ स्थिति में रखना हो तो तनावों और आवेशों से उनकी समस्वरता को नष्ट होने से बचाना ही चाहिए।

शरीर को मृत समान निर्जीव अनुभव करने, काया से प्राण को अलग मानने-अर्द्धनिद्रित स्थिति में माँस-पेशियों को ढीला करके आरामकुर्सी जैसे किसी सुविधा-साधन के सहारे पड़े रहने को शिथिलीकरण मुद्रा कहते हैं। ध्यानयोग के लिए यही सर्वोत्तम आसन है। शरीर को इस प्रकार ढीला करने के अतिरिक्त मन को भी करने के अतिरिक्त मन को भी खाली करने की आवश्यकता पड़ती है। ऊपर नील आकाश-नीचे अनन्त नील जल-अन्य कोई पदार्थ, कोई जीव, कोई परिस्थिति कहीं नहीं, ऐसी भावना के साथ यदि अपने को निर्मल, निश्चिन्त मन वाले बालक की स्थिति में एकाग्र होने की मान्यता मन में जमायी जाय, तो मन सहज ही ढीला हो जाता है। इन दो प्रारम्भिक प्रयासों में सफलता मिल सके तो ही समझना चाहिए कि ध्यानयोग में आगे बढ़ने का पथ प्रशस्त हो गया।

संसारव्यापी शून्य नीलिमा की तरह ध्यान योग में अपने हृदयाकाश को भी रिक्त करना पड़ता है। कामनाएँ-वासनाएँ, ऐषणाएं, आकाँक्षाएँ, प्रवृत्तियाँ भावावेशपरक उद्विग्नताएँ मन में जितनी उभर-उफन रही होंगी, उतना ही अन्तः-क्षेत्र अशान्त रहेगा और एकाग्रता का तन्मयता का, लय स्थिति का आधार अपनाकर हो सकने वाला प्रयोजन पूरा न हो सकेगा।

मस्तिष्क पर क्रोध, शोक, भय, हानि, असफलता, आतंक आदि के कारणवश आवेश आते हैं, पर वे स्थायी नहीं होते। कारण समाप्त होने अथवा बात पुरानी होने पर शिथिल एवं विस्मृत हो जाते हैं। उनका प्रभाव चला जाता है, पर कामनाओं की उत्तेजना ऐसी है जो निरन्तर बनी रहती है और दर्द की तरह मनः संस्थान में आवेश की स्थिति बनाए रखती है। घृणा, द्वेष, प्रतिशोध, आशंका जैसे निषेधात्मक और लोभ, मोह, अहंता, वैभव, सत्ता, पद, यश-भोग प्रदर्शन जैसी बौद्धिक महत्वाकाँक्षाओं की विधेयात्मक कामनाएँ यदि उग्र हों तो दिन-रात, सोते-जागते कभी चैन नहीं मिल सकता और अपना अन्तःकरण निरन्तर उद्विग्न बना रहता है। यह स्थिति ध्यान-साधना के लिए, ब्रह्म सम्बन्ध के लिए सर्वथा अनुपयुक्त है।

शरीर, मन और भाव-संस्थान को जितना अधिक शिथिल, शान्त, रिक्त किया जा सके, उतनी ही आत्मसाधना के उपयुक्त मनोभूमि का निर्माण होता है। कहना न होगा कि शिथिलीकरण एवं उन्मनी मुद्रा यह प्रयोजन बड़ी आसानी से पूरी करती है। इनके द्वारा जिस पृष्ठभूमि का निर्माण होता है, उसमें ध्यानयोग के उच्चस्तरीय स्वरूप को आसानी से अपनाया जा सकता है।

ध्यान के इस उच्चस्तरीय स्वरूप में स्वयं को सूर्य की स्थिति में ऊपर आकाश में अवस्थित देखते हुए अनुभव करना होता है कि मैं समस्त भूमंडल पर अपनी प्रकाश किरणें फेंक रहा हूँ। संसार मेरा कर्मक्षेत्र और लीला-भूमि है। भूतल की वस्तुओं और शक्तियों को में इच्छित प्रयोजनों के लिए काम में लाता हूँ, पर वे मेरे ऊपर प्रभाव नहीं डाल सकतीं। पंचभूतों की गतिविधि के कारण जो हल-चलें संसार में हर घड़ी होती हैं वे मेरे लिए एक विनोद और मनोरंजन दृश्य मात्र हैं। मैं किसी भी साँसारिक हानि, लाभ से प्रभावित नहीं होता। मैं शुद्ध, चैतन्य, सत्यस्वरूप, पवित्र, निर्लेप, अविनाशी आत्मा हूँ। महान परमात्मा का विशुद्ध स्फुल्लिंग हूँ।

ध्यान का यह स्वरूप जब अभ्यास के कारण पूर्ण रूप से पुष्ट हो जाय और हर घड़ी यह भावना रोम-रोम में प्रतिभासित होने लगे तो समझना चाहिए कि आत्मलोक का प्रवेश द्वारा खुल गया। इसी के साथ स्वयं की अनन्त क्षमताएँ भी जीवन के व्यापक परिदृश्य में अपने प्रकाश एवं प्रभाव का सहज ही परिचय देने लगती हैं। योगीगण इसी को जाग्रत समाधि या जीवनमुक्त अवस्था भी कहते हैं। इसके आनन्द अवस्था भी कहते हैं। इसके आनन्द को अनुभव करने वाला सहज ही गुनगुना उठता है-ज्यों गूँगा मीठे फल का रस अंतर्गत ही भाये।


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