आत्मिक प्रगति हेतु ब्रह्मवर्चस की पंचाग्नि साधना

June 1997

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ब्रह्मवर्चस की पंचाग्नि साधना जिसमें शिशु स्तर का चान्द्रायण भी कराया जाता है, सवालक्ष गायत्री महापुरश्चरण (जप के साथ तल्लीनतापूर्वक ध्यान) के अतिरिक्त पाँच योगों के समावेश से पूरी होती है। ये साधनाएँ सरल भी हैं एवं हर परिजन इन्हें सम्पन्न कर सकता है। इनमें कोई भूल होने पर हानि की भी कोई सम्भावना नहीं है। गायत्री को पंचमुखी कहा गया है। पंचमुखी गायत्री की पंचकोशी आवरण साधना में (1) बिन्दुयोग-त्राटक (2) प्राणयोग-सूर्यवेधन प्राणायाम (3) कुण्डलिनी योग-शक्ति चालिनी मुद्रा व साधना (4) लययोग-खेचरी मुद्रा (5) हंसयोग, सोऽहम् साधना का विस्तार से विवेचन परमपूज्य गुरुदेव ने अपने साधना सम्बन्धी मार्गदर्शन में किया है। इस समन्वय को उनने यम द्वारा नचिकेता को सिखाई गयी कठोपनिषद् वर्णित पंचाग्नि विद्या नाम भी दिया है। इस लेख में प्रारम्भिक दो साधनाओं का वर्णन हैं।

(1) बिन्दुयोग (अन्तः एवं बहिर्त्राटक)- भगवान शिव और भगवती दुर्गा के भ्रूमध्य भाग में तीसरा नेत्र चित्रित किया जाता है। यह तीसरा नेत्र है। दिव्य दृष्टि इसी में रहती है। दिव्य दृष्टि सामान्यतया दूरदर्शिता और विवेकशीलता को कहते हैं। उच्चस्तरीय स्थिति में उसे दूरदर्शन जैसी अतीन्द्रिय क्षमता माना जाता है। वेधक दृष्टि भी वही है। इस केन्द्र से प्रचण्ड विद्युत निकलती है और उसके द्वारा दूसरों को कई प्रकार के अनुदान देना सम्भव हो जाता है। भगवान शिव ने इसी तीसरे नेत्र से निकलने वाली प्रचण्ड विद्युत शक्ति के सहारे आक्रमणकारी कामदेव को जलाकर भस्म कर दिया था। संजय इसी केन्द्र का उपयोग टेलीविजन की तरह करते थे उन्होंने धृतराष्ट्र के पास बैठकर ही सुविस्तृत क्षेत्र में फैले हुए महाभारत का समाचार सुनाते रहने का काम अपने जिम्मे लिया था। मैस्मरेजम हिप्नोटिज्म जैसे चमत्कारी प्रयोगों के लिए इन दिनों त्राटक साधना का ही अभ्यास किया जाता है।

मस्तिष्क विद्या के ज्ञाता जाते हैं कि भ्रू-मध्य भाग की तनिक-सी गहराई में पीनियल और पिट्यूटरी नामक दो ग्रन्थियाँ हैं। इन दोनों की क्षमता एक दूसरे को प्रभावित करती और एक संयुक्त प्रभावचक्र बनाती है। इस चक्र की कार्य-पद्धति से मस्तिष्क के विभिन्न भाग प्रभावित होते हैं। मेरुदण्ड से सम्बन्धित नाड़ी गुच्छकों तथा हारमोन ग्रन्थियों से भरी हुई विशिष्ट क्षमता को इसी चक्र से प्रेरणा, एक दिशा मिलती है। चेतन और अचेतन मन को-गतिविधियों को दिशा देने का काम इसी चक्र का है। इसलिए उसे अध्यात्म विवेचन में आज्ञाचक्र कहा जाता है। आज्ञाचक्र अर्थात् काया के स्थूल और सूक्ष्म संस्थानों की विभिन्न गतिविधियाँ अपनाने के लिए आज्ञा देने वाला दिव्य संस्थान पड़ी है, पर वह किसी उच्च उद्देश्य में प्रयुक्त न किये जाने के कारण अँधेरे में भटकती है। कुसंस्कारों से आच्छादित रहती और मूर्छित पड़ी रहती है। इसे जाग्रत करने की साधना का नाम त्राटक है। इसके लिए प्रकाश का अवलम्बन लेना पड़ता है।

त्राटक साधना में घृत-दीप जलाकर सामने रखते हैं। उसे एक बार आँख खोलकर देखते हैं। फिर आँखें बन्द कर लेते हैं। भ्रू-मध्य भाग में ध्यान करते हैं कि प्रकाश ज्योति भीतर जल रही है और अंतःक्षेत्र में विद्यमान तृतीय नेत्र को ज्योर्तिमय बनाती हुई, दिव्य दृष्टि उत्पन्न कर रही है। इस ध्यान में दीप ज्योति से सहायता मिलती है। संकल्प बल द्वारा आज्ञाचक्र में उसकी प्रतिष्ठापना होती है और अभ्यास से उसे इतना परिपक्व बनाया जाता है कि चर्मचक्षुओं की तरह से उसे विश्व-व्यापी दिव्यता का भान होने लगे। जड़ के आवरण में छिपी हुई आत्मा की झाँकी मिलने लगे। पदार्थों में परमेश्वर परिलक्षित होने लगे। इसे विवेक का जागरण भी कह सकते हैं। सामान्य बुद्धि जहाँ अवाँछनीयता से समझौता कर लेती है और मोह-जंगल में भ्रमित होकर कुछ का कुछ निर्णय करने लगती हैं। त्राटक साधना से जो दूरदर्शी, तत्वदर्शी विवेक जाग्रत होता है उसे ऋतम्भरा प्रज्ञा कहते हैं। गायत्री मन्त्र का धियः तत्व वही है। इस जागरण को आत्मजागरण की संज्ञा दी जाती है। इसे भौतिक और आत्मिक जीवन की महान उपलब्धि ही कह सकते हैं।

(2) प्राणयोग (सूर्यवेधन प्राणायाम)-इस निखिल ब्रह्माण्ड में वायु, ईथर, ऊर्जा आदि की तरह ही एक ऐसा दिव्यतत्व भी भरा पड़ा है, जिसे जड़-चेतना की समन्वित शक्ति प्राण कहते हैं। आरोग्यशास्त्री उसे जीवन शक्ति कहते हैं और बताते हैं, उसकी न्यूनाधिक मात्रा के कारण ही मनुष्य दुर्बल और समर्थ बनते हैं। मनःशास्त्री उमंग, स्फूर्ति, उत्साह, साहस के रूप में उसकी व्याख्या करते हैं और जीवट एवं प्रतीक्षा कहते हैं। अध्यात्मशास्त्री इसी प्राण को संकल्प, विश्वास, आदर्श की परिपक्वता, प्रखरता कहते हैं। सम्वेदना क्षेत्र में इसी को सद्भावना, श्रद्धा, कला, सरसता आदि के रूप में प्रतिपादित करते हैं और महानता नाम देते हैं। व्यक्तित्व के विभिन्न क्षेत्रों में प्रवेश करके वह प्राण ही ओजस्, तेजस्, वर्चस् के रूप में प्रकट होता है। मनस्वी, तेजस्वी, तपस्वी, यशस्वी व्यक्तियों में इसी प्रखरता का बाहुल्य पाया जाता है। चेहरे का छाये हुए तेजोवलय के रूप में इसी का दर्शन होता है। वह प्राण ही शरीर विद्युत के रूप में संपर्क क्षेत्र में अपना चुम्बकीय प्रभाव छोड़ता है। आकर्षण, अनुदान, प्रहार जैसे कितने ही प्रभावशाली तत्व उसमें घुले रहते हैं। प्राण की काया में जो सामर्थ्य का स्त्रोत है वह प्राण ही है। इसीलिए उसे प्राणी अर्थात् प्राण द्वारा संचालित कहा जाता है। इसके निकल जाने पर मृत्यु हो जाती है और घट जाने पर जीवित रहते हुए भी मुर्दनी, सुस्ती, उदासी छाई रहती है। पिछड़ेपन से ग्रसित, दीन-दरिद्र, अस्त-व्यस्त, अनिश्चित स्तर के लोगों की प्रधान है। जिस प्राणी में जितना प्राणतत्व अधिक होगा वह उतना ही पराक्रमी पाया जाएगा। ऋषियों के आश्रमों में उन महामानवों का परिष्कृत प्राण ही उच्चस्तरीय वातावरण बनाये रहता था। उसी के प्रभाव से वहाँ पहुँचने पर सिंह, गाय एक घाट पर पानी पीते थे। सत्संग और कुसंग में इस प्राण चुम्बक का ही भला-बुरा प्रभाव काम करता है। विचारों प्रवचनों से समझने-समझाने भर से सहायता मिलती है। एक-दूसरे के मध्य जो प्रभाव या आदान-प्रदान होता है, उसमें प्राणविद्युत ही काम कर रही होती है। दूसरों को प्रभावित करने का काम प्रायः प्रखरता के सहारे सम्पन्न होता है।

पदार्थ जगत में ऊर्जा और गति के रूप में प्राणशक्ति ही विभिन्न प्रकार की मन्द एवं तीव्र गतिविधियाँ उत्पन्न करती हैं। परमाणु के अंतर्गत काम करने वाले छोटे घटक इसी चुम्बकत्व से परस्पर बँधे रहते हैं। द्रुतगति से अपनी कक्षा पर अनवरत गतिशील रहने की सामर्थ्य इसी दिव्य विद्युत से प्राप्त होती है। पृथ्वी की आकर्षण शक्ति में-सूर्य की ऊष्मा में यह पिण्डों को परस्पर जकड़ कर रखे हुए सूत्र शृंखला में महाप्राण ही काम करता है। लेसर, एक्सरेज, अल्ट्रावायलेट आदि विशिष्ट किरणें इसी महाशक्ति की चिनगारियाँ हैं। परमाणुओं और जीवाणुओं के मध्य केन्द्र नाभिक, न्यूक्लियस, पदार्थ समुच्चय का प्राण कहा जा सकता है।

यह प्राण ही चेतना की सर्वोपरि सामर्थ्य है। उसी के सहारे किसी भी क्षेत्र में प्रगति कर सकना सम्भव होता है। यह महातत्व अग्नि आकाश में प्राणतत्व आक्सीजन की ही तरह प्रचुर परिमाण में सर्वत्र भरा पड़ा है। इसकी अभीष्ट मात्रा को खींचना मात्रा को खींचना और आत्मसत्ता में धारण कर सकना प्रयत्नपूर्वक सम्भव हो सकता है। इस प्राण-विनियोग की प्रक्रिया को प्राणायाम कहते हैं। इसमें विशिष्ट क्रिया-प्रक्रिया के साथ श्वास-प्रश्वास क्रियाएँ करना पड़ती हैं। साथ ही प्रचण्ड संकल्प-बल का वैयक्तिक चुम्बकत्व समुचित मात्रा में समन्वित किये रहना होता है। इसी साधना को प्राणयोग कहते हैं। सामान्यतः इसे प्राणायाम कहते हैं। ‘लय’ और ‘ताल’ की महान शक्ति का ज्ञान सर्वसाधारण को तो नहीं होता, पर विज्ञान के विद्यार्थी जानते हैं कि सर्वविदित होने पर भी यह सामर्थ्य कितनी प्रचण्ड है।

सूर्यवेधन प्राणायाम में लय और ताल का विशेष समन्वय है। इड़ा और पिंगला शरीरगत दो विद्युत प्रवाह हैं, जो मेरुदण्ड के अन्तराल में काम करते रहे हैं। इनका मिलन केन्द्र सुषुम्ना कहलाता है। इड़ा, पिंगला में सम्बन्धित श्वास प्रवाह को उलट-पुलटकर चलाने की प्रक्रिया विशिष्ट महत्वपूर्ण है। पेण्डुलम क्रम में उसी के तनिक से स्पर्श का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है और घड़ी चलती रहती है। हृदय की धड़कन भी इसी उलट-पुलट का काम रक्त-संचार के सहारे जीवन धारण किये रहने का महान कार्य सम्पादन करती है।

इसी लोम-विलोम क्रम से किया जाने वाला प्राणयोग सूर्यवेधन प्राणायाम कहलाता है। ब्रह्मवर्चस् साधना में इसी का अभ्यास कराया जाता है। साधक अपने भीतर प्राणतत्व की अभिवृद्धि का अनुभव करता है। इस प्रक्रिया के द्वारा उपार्जित प्राणसम्पदा साधक की बहुमूल्य सम्पत्ति होती है। इस पूँजी को आवश्यकतानुसार विभिन्न प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है। इसे बहिरंग और अन्तरंग क्षेत्र का सामर्थ्य उत्पादक प्रयोग कह सकते हैं। कुण्डलिनी जागरण के लिए तो इसी क्षमता की विशेष रूप से आवश्यकता पड़ती है। विद्युत उत्पादन में जो कार्य जनरेटर करते हैं, लगभग व्यक्तित्व में अनेक प्रयोजनों में काम आने वाली प्राणऊर्जा का संचय सूर्यवेधन प्राणायाम की साधना द्वारा किया जाता है।

प्राणायाम के साथ बन्धों का भी प्रयोग किया जाता है। मुख्य बन्ध तीन प्रयोग किया जाता है। मुख्य बन्ध तीन है।-(1) मूलबन्ध (2) उद्बिन्ध (3) जालन्धरबन्ध। प्राण प्रवाह को नियन्त्रित करने में इन्हें बाँध या वाल्व के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। प्राण ऊर्जा अवाँछनीय दिशा में प्रवाहित न होने देने तथा वाँछित दिशा में नियोजित करने के महत्व को समझते हुए उसके लिए इन योग क्रियाओं में मायाग्रस्त जकड़नों में कसे रहने वाली ग्रन्थियों से छुटकारा जीवनमुक्त स्थिति तक पहुँचाना बन्ध साधना का उद्देश्य है। ब्रह्म ग्रन्थि, विष्णु ग्रन्थि और रुद्र ग्रन्थि का वर्णन हठयोग की विवेचना में किया जाता है। ब्रह्मवर्चस् की बन्ध साधना में इन्हीं तीनों को खोलने का विधान है। मूलबन्ध, जालन्धर बन्ध और उड्डियन बन्धों की साधनाएँ अधिकारी भेद से घटा-बढ़ाकर अथवा समन्वय करके कराई जाती हैं। इसीलिए प्राणायाम बन्ध सहित करने की प्रक्रिया अपनायी जाती है।


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