नात्मानमवसादयेत्

June 1997

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इतनी अधिक निराशा और अवसाद आखिर किसलिए? यह प्रश्न चिह्न आज के आम इनसान की कहानी बन गयी है। बढ़ते औद्योगीकरण एवं शहरीकरण के फलस्वरूप मेण्टल डिप्रेशन यानि कि मानसिक अवसाद एक व्यापक मानसिक रोग के रूप में उभर रहा है। एक स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार प्रति हजार व्यक्तियों में से 16 लोग इस व्याधि से पीड़ित हैं। 8 से 20 प्रतिशत लोग जीवन के विभिन्न मोड़ पर इससे प्रभावित रहते हैं। वैज्ञानिकों को अनुमान है कि 20 से 30 वर्ष की वयस्क आयु में इसे सर्वाधिक देखा जाता है। इसके बाद प्रायः 40 से 50 वर्ष की आयु में इसके प्रभाव में बढ़ोत्तरी दिखाई देती है। पुरुषों की अपेक्षा महिलाएँ इससे अधिक प्रभावित देखी गयी हैं। एक अध्ययन के अनुसार डाक्टर के पास आने वाले हर तीसरा-चौथा रोगी अवसाद का शिकार होता है। विदेशों में विशेषकर विकसित देशों में यह स्थिति और भी गम्भीर हैं अमेरिका में लगभग दो करोड़ व्यक्ति इसे प्रभावित हैं।

वस्तुतः अवसाद एक तरह की मनोवस्था को व्यक्त करता है। भग्न आशाएँ, उदास, निराश मनःस्थिति इसके प्रमुख लक्षण हैं। जीवन में दुःख, कष्ट, निराशा, असफलता भरी प्रतिकूल एवं विषम परिस्थितियों के दबाव में मन का उदास होना स्वाभाविक है। कभी अपने प्रियजन के निधन पर, तो कभी सम्बन्धी जन से मनमुटाव, कभी परीक्षा में असफलता, तो कभी व्यवसाय में घाटा, कभी प्रेम में निराशा, तो कभी दाम्पत्य सम्बन्धों की उलझनें, कभी पद की-धन की हानि तो कभी लम्बी बीमारी, ऐसी परिस्थितियाँ जीवन को निराश व खिन्नता से भर देती हैं। किन्तु यह अवसाद की स्थिति कुछ समय के लिए ही रहती है। समय के साथ यह अपने आप ठीक हो जाती है। ऐसी परिस्थितियों के अतिरिक्त जीवन में कुछ ऐसे दौर भी आते हैं, जो विषाद को बढ़ावा देते हैं। उदाहरण के लिए, जब व्यक्ति बचपन से किशोरावस्था में प्रवेश करता है या फिर युवावस्था से प्रौढ़ावस्था में आता है अथवा जब व्यक्ति सेवानिवृत्त हो जाता है। इसी तरह महिलाओं में मासिक धर्म से पूर्व तनाव की स्थिति या शिशु जन्म के तुरन्त बाद की स्थिति खिन्नता का कारण बन सकती है। इस तरह की अवस्थाओं पर भी व्यक्ति अन्ततः काबू पा लेता है अथवा ये समय के साथ ठीक हो जाती हैं।

लेकिन जब यह उदासी बिना किसी कारण के मन की गहराइयों में उतर आती है तथा जीवन पर इस कदर छा जाती है कि कुछ अच्छा नहीं लगता, रह जाती। चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा दिखाई देता है। जीवन बोझिल लगता है व जीने की इच्छा नहीं रहती, तब अवसाद रोग के रूप में गम्भीर समस्या बन जाता है। इसका दुष्प्रभाव मन के साथ शरीर पर भी पड़ने लगता है। इसके शारीरिक लक्षणों में भूख न लगना, थकान, नींद न आना, नींद आए तो बुरे स्वप्न दिखना, दुर्बलता, कब्ज, बदहजमी, वजन में लगातार कमी बात चीत न करने का मन, बातचीत में व्यथा का पुट, भीड़ में घबराहट, दिमाग में कंपकंपी व झुनझुनाहट प्रमुख हैं। ऐसा मनोरोगी हमेशा दुःखी रहता है। उसे अकारण घबराहट लगती है, बिना कारण रोने की इच्छा होती है व हर जगह असहज अनुभव करता है। उसमें आत्मविश्वास की नितान्त कमी रहती है। मानसिक लक्षणों में व्यक्ति में नकारात्मक सोच की प्रधानता रहती है। जो धीरे-धीरे व्यक्ति को आत्महत्या की ओर प्रेरित करती है। उचित चिकित्सा के अभाव में आज विश्व में 15 प्रतिशत रोगी आत्महत्या कर लेते हैं।

सामान्य परिस्थितियों में भी मन पर छाए रहने वाले अवसाद को मनोरोग विशेषज्ञ एण्डोजिनस डिप्रेशन अर्थात् आन्तरिक अवसाद की संज्ञा देते हैं। इसका कारण वे मस्तिष्क के सन्देशवाहक रसायन, न्यूरो ट्रांसमीटर्स नाँर एपीनेफरिन या सिरोटोनिन की कमी से यूनीपोलर डिप्रेशन होता है। नशीले पदार्थ व मदिरा का सेवन भी अवसाद का कारण बन सकते हैं। मनः- चिकित्सा विज्ञान के अनुसार नशा भी एक प्रकार का डिप्रेशन का ही रूप हो सकता है। डिप्रेशन के दौरान नशा करने वाले लोगों को अधिक मात्रा में धूम्रपान करते व शराब पीते देखा गया हैं।

कुछ शारीरिक बीमारियाँ भी अवसाद का कारण बन सकती है। जैसे वायरल, छूत के रोग, कैंसर, यकृत शोथ, मस्तिष्क के कुछ रोग, हारमोनल विकार थाइराइड ग्रन्थि का ठीक तरह से न काम कर पाना, लम्बी असाध्य बीमारियों में भी अनायास व्यक्ति गहरे अवसाद से घिर जाता है। कुछ दवाइयाँ भी अवसाद की स्थिति उत्पन्न कर सकती हैं। जैसे रक्तचाप कम करने वाली दवाइयाँ रेसर्पिन और मिथाइल डोपा स्टोराँयड औषधियाँ, गर्भनिरोधक गोलियाँ बार्बीच्यूरेट्स आदि का सेवन शरीर में न्यूरोट्र्न्समीटर की कमी लाकर अवसाद की स्थिति पैदा करता है।

उपचार के तौर पर चिकित्सा विशेषज्ञ एण्डोजिनस डिप्रेशन में उन दवाइयों का सहारा लेते हैं, जो न्यूरोट्र्न्समीटर के सनतुलन को ठीक कर सकें। हालाँकि इस सर्न्दभ में विशेषज्ञ चिकित्सक ही औषधीय परामर्श दे सकते हैं। सामान्यतया ट्र्इसायक्लिक एण्टीडिप्रेसेण्ट दवाइयाँ दी जाती हैं, जो तीन-चार सप्ताह में अपना प्रभाव दिखाती है। इनके अपने साइडइफैक्टस भी हैं, जैसे-आलस्य छा जाना, मुँह सूखना, नींद में, पेशाब में परेशानी, कब्ज, नजर में धुँधलाहट, चक्कर आना आदि। बिना किसी साइडइफैक्ट्स के दवा की खोज करनी हो तो मनश्चिकित्सा विशेषज्ञ भी ध्यान और विधेयात्मक चिन्तन की ही सलाह देते हैं। विशेषज्ञों के अनुसार यदि अवसाद अत्यन्त तीव्र हो और रोगी की प्रवृत्ति आत्महत्या की ओर अधिक हो तो फिर रोगी को अविलम्ब अस्पताल में भरती करना चाहिए। ऐसे में यदि औषधियाँ सन्तोषजनक लाभ नहीं देतीं तो चिकित्सक विद्युत चिकित्सा की सहायता लेते हैं यद्यपि यह उपाय भी सामयिक है। वास्तविक उपाय तो मन की गहराइयों में जाकर अवसाद के कारणों के निकाल फेंकना है।

कतिपय व्यावहारिक उपाय ऐसे हैं जिनसे अवसाद का नियमन आसानी से हो जाता है। उदाहरण के लिए, मन ही मन घुटने की बजाय अच्छा है कि अपनी परेशानियों को व्यक्त किया जाय। इस कार्य के लिए किसी विश्वस्त व समर्थ व्यक्ति का सहारा आवश्यक है, जो उचित परामर्श के साथ सहानुभूति के दो शब्द सुनाकर राहत दे सके। यदि ऐसा व्यक्ति न मिले तो हाथ में कलम या केनवास पर उतार दें। इससे भी मन का गुबार हलका होता है। मानसिक शान्ति मिलती है। मनोवैज्ञानिक भी इस ‘आर्ट थैरेपी’ का अधिकाधिक उपयोग कर रहे हैं।

मध्यम दर्जे के अवसाद में वाताक्षेपी व्यायाम-उदाहरण के तौर पर, तेज साइकिल चलाना, रास्ता कूदना, जागिंग, तेजी से टहलकदमी करना, जीना चढ़ना बहुत सहायक माना गया है। एक ओर इससे जहाँ न्यूरोट्र्समीटर की कमी पूरी होती है, वहीं दूसरी ओर यह मस्तिष्क द्वारा तैयार कुछ रसस्रावों की वृद्धि करता है एक अध्ययन के अनुसार जो महिलाएँ वजन घटाने या उच्च रक्तचाप के नियमन के लिए हलका-फुलका व्यायाम करती रहती हैं उनमें अवसादक लक्षणों का खतरा पचास प्रतिशत घटते देखा गया हैं।

अपने परिवेश के परिवर्तन से भी अवसाद निवारण में सहायता मिल सकती है। ऐसी परिस्थितियों से दूर रहा जाय जो अवसाद को बढ़ावा देती हैं। जीवनशैली में आवश्यक परिवर्तन डिप्रेशन का एक सार्थक ठोस निदान हो सकता है। समय पर सोना, समय पर उठना, विश्राम देना आदि सामान्य उपचार अवसाद के निदान में काफी सहायक सिद्ध हो सकते हैं। अवसादों के विभिन्न स्वरूपों के प्रयास विभिन्न स्तरों पर इसके उपचार के प्रयास अभीष्ट हैं। अवसाद की वजह परिस्थितिजन्य हो या आन्तरिक या कोई अन्य, मूलतः इसका कारण त्रुटिपूर्ण विचार पद्धति है। अपने विचारों के प्रति जागरुकता अपनाकर दृष्टिकोण में अभीष्ट परिवर्तन लाकर हम अवसाद को जड़ से ही मिटा सकते हैं।

डा. डेविड बर्न्स अपनी पुस्तक ‘फीलिंग गुड’ में इसी तथ्य का प्रतिपादन करते हैं कि अवसाद प्रायः दोषपूर्ण विचारों की उपज होता है। वे यह भी बताते हैं कि उदासी अवसाद की अंधकार भरी दुनिया में उलझने वाले विचारों पर नियंत्रण भी सम्भव है। उनके अनुसार नशीली दवाओं की अपेक्षा विचार संयम अवसाद को काबू करने का ठोस एवं प्रभावशाली तरीका है।

डॉक्टर बर्न्स ने संज्ञात्मक चिकित्सा के तीन सिद्धान्त पेश किए हैं-पहला हमारी समूची मनःस्थिति हमारे विचारों या संज्ञा की रचना है। अभी जो हम अनुभव कर रहे हैं उसके पीछे हमारे विचारों का वर्तमान क्रम ही है। दूसरा, अवसाद हम तभी अनुभव करते हैं जब हमारे विचारों में उग्र नकारात्मक सोच हावी होती है। उस क्षण हर वस्तु विवाद में लिपटी नजर आती है और इससे भी बदतर स्थिति वह होती है जब हम कल्पनाजनित विषम परिस्थितियों को भी यथार्थ मान बैठते हैं। तीसरा प्रत्येक अवसादग्रस्त मनोभूमि में नकारात्मक विचार विकृत एवं अतिरंजनापूर्ण होते हैं। अतः हमारी सोच ही हमारे दुःखों का एकमात्र कारण होती हैं।

संज्ञात्मक चिकित्सा में, रोगी को नकारात्मक विचारों को सुनने व उन पर ध्यान देने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। रोगी को पूरा प्रशिक्षण दिया जाता है कि वह विध्वंसात्मक विचार कम उठने की पहचान कर उस पर काबू पाने के लिए क्या कुछ करे? इस तरह गाड़ी तत्काल पटरी पर आने लगती है। इस क्रम से ज्यादातर लोग कुछ सप्ताह में ही अवसाद को जन्म देने वाले विचारों से उबरना शुरू हो जाते हैं।

डॉ. बर्न्स अवसादपूर्ण खिन्नता से राहत के लिए तीन महत्वपूर्ण कदम सुझाते हैं-पहला अपने नकारात्मक भ्रामक विचारों को लिख डालो। नकारात्मक विचारों को कभी भी अपने मन पर हावी मत होने दीजिए। दूसरा उपयुक्त स्वलिखित संज्ञात्मक विकृतियों की सूची पढ़ते रहिए। तीसरा महत्वपूर्ण कदम है-ज्यादा से ज्यादा विधेयात्मक, उद्देश्यपूर्ण एवं वास्तविक विचारों को अधिकाधिक मन में स्थान दिया जाय ताकि वे अवसाद पैदा करने वालो कुविचारों को झुठला सकें। नकारात्मक विचारों के स्थान पर अपना स्थान जमाने योग्य सकारात्मक व उत्प्रेरक विचारों के कुछ उदाहरण।

इस प्रकार से हो सकते है-”आपके भाव यथार्थ नहीं हैं। आपके भावों-मनोभावों का कोई महत्व नहीं है सिवा इसके कि वे आपके विचारों को प्रतिबिम्बित करते हैं। अगर आपके विचार निरर्थक होंगे। आप निराश व हीनता से उत्पन्न अवसाद का मुकाबला कर सकते हैं उन्मूलन किया जाय तो वास्तविक समस्या से निपटने का काम इतना दुःसाध्य नहीं होगा। अपनी उपलब्धियों के आधार पर अपनी कोई मान्यता न बनाएँ। उपलब्धियों पर आधारित आत्म मूल्याँकन भ्रांत व मायावी होता है न कि यथार्थ। आपके व्यक्तित्व का मूल्याँकन धन-प्रतिभा, योग्यता आदि के आधार पर नहीं किया जा सकता। आप अवसादग्रस्त होंगे या मुक्त यह इस बात पर निर्भर है कि आपका अपनी दृष्टि में क्या महत्व है।”

अवसाद की समग्र चिकित्सा का आधारभूत सूत्र है, “स्वयं से प्यार।” आप अपने को पसन्द करना शुरू कर दें तो अवसाद का उपचार शुरू कर दें तो अवसाद का उपचार शुरू हो जाएगा। मानसिक स्थिति बेहतर होने लगेगी। स्वयं से प्यार को इस संकल्प के रूप में लिया जाय कि हमारा जीवन सर्वसमर्थ, अनन्त दयामय प्रभु की देन है। वह हमें बेहद प्यार करता है। परम कारुणिक परमात्मा के प्यार को पाकर बाकी कुछ बचता भी क्या है, जिसके लिए हम स्वयं को अवसादों में डालें। जरा स्वयं से यह पूछ कर देखिए कि यदि कोई विशिष्ट व्यक्ति आपसे मिलने आए, तो क्या आप उसकी कमियों कमियों को उघाड़ेंगे, उन पर चोट करेंगे? निश्चित रूप से बिलकुल नहीं, बल्कि आप उसके लिए सुख-सुविधा का हर सम्भव प्रयत्न करेंगे। उसे भरपूर सम्मान देंगे। तब आप ऐसा स्वयं के लिए क्यों नहीं करते। सर्वसमर्थ भगवान के परमप्रिय आप से अधिक दूसरा विशिष्ट कौन हो सकता है। आप ज्यों ही स्वयं के प्रति प्यार एवं सम्मान का भाव अपनाएँगे, अवसाद का नामोनिशान भी न बचेगा। ध्यान रहे गीता का सूत्र-नात्मानमवसादयेत्। स्वयं को अवसाद में मत डालो।


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