अपनों से अपनी बात- - गायत्री जयंती महापर्व से सपतसूत्री आँदोलन का शुभारम्भ

June 1997

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क्रियान्वयन हेतु सप्तर्षि क्षेत्र ‘शाँतिकुँज’ को ही छावनी के रूप में चुना गया है

युग-परिवर्तन के शब्द कहने और सुनने में सरल मालुम पड़ते हैं, पर विश्व की अगणित धाराओं के उलटी दिशा में बहने वाले प्रचण्ड प्रवाह को मोड़ने के लिए कितनी, किस स्तर की शक्ति चाहिए, इसका लेखा-जोखा तैयार करने पर विदित होता है कि बड़े काम के उपयुक्त ही बड़े साधन सँजोने पड़ेंगे। यह सरंजाम जुटाना न तो सरल है और न उसका स्वरूप स्वल्प है। दुनिया बड़ी है, उसकी समस्याएँ भी बड़ी हैं। इतने विशाल क्षेत्र की उलझनों को सुलझाने के लिए कितना कुछ करना पड़ेगा इस पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो प्रतीत होगा कि पुराने खण्डहर को तोड़कर उसी की मिट्टी से नया भवन बनाने के लिए जो कुछ अभीष्ट है, वह सभी कुछ जुटाना पड़ेगा। इससे कम की तैयारी से मानवी कल्पना को हतप्रभ कर देने वाले लक्ष्य की पूर्ति नहीं हो सकती।

भगवान कृष्ण को महाभारत रचाना था। पाण्डव निमित्त बनाए गए थे, पर वे बेचारे करते क्या? अज्ञातवास वनवास की व्यथा भोगते-भोगते इतने साधनहीन हो गए थे कि कौरवों की दुर्धर्ष सत्ता को चुनौती दे सकने लायक सेना, शस्त्र, धन, साधन आदि कुछ भी उनके पास नहीं था। कृष्ण के बार-बार उकसाने पर भी पाण्डव लड़ने के लिए तैयार नहीं हो रहे थे। अर्जुन तो ऐन वक्त तक कतराते रहे। इसका कारण स्पष्टतः तुलनात्मक दृष्टि से साधनों की न्यूनता होगी। संतुलन स्थापित करने के लिए भगवान कृष्ण ने गीता का उपदेश ही नहीं दिया था, रथ के घोड़े ही नहीं हाँके थे वरन् और भी बहुत कुछ किया था।

सर्वथा निर्धन और साधनहीन पाण्डवों का साथ देने, उनके पक्ष में लड़ने के लिए जो विशालकाय सेना खड़ी थी वह तमाशा देखने वाली भीड़ नहीं थी, उसे जुटाने, प्रशिक्षित एवं सुसज्जित करने से लेकर अर्थ-व्यवस्था और युद्ध योजना बनाने तक का सारा कार्य परोक्ष रूप से कृष्ण को ही करना पड़ा था तभी युद्ध में पाण्डव महाबली दुशासन और दुर्योधन की भुजा उखाड़ने और कमर तोड़ने का पराक्रम दिखा सके। इस महासमर में पाण्डव ही विजयी हुए सही, राजगद्दी पर वे ही बैठे सही-पर साथ ही यह भी सही है कि कंस, जरासन्ध, कौरव और शिशुपाल जैसे दैत्यों के माध्यम से नग्न नृत्य करने वाली असुरता को नीचा दिखाने की अद्भुत योजना का सूत्र-संचालन पर्दे के पीछे रहकर चक्रधारी के हाथों ही हो रहा था।

अभी इन दिनों युग-परिवर्तन के जिस प्रचण्ड अभियान से हम सब जुड़े हुए हैं, उसका भी सूत्र-संचालन किन्हीं अदृश्य हाथों से हो रहा हैं। हम सबके जीवन की बागडोर थामने वाले महासारथी का दृश्य भले ही 2 जून, 1990 की गायत्री जयन्ती के महापर्व पर ओझल हो गया हो, पर उनके गीता गान की परावाणी तनिक भी मन्द नहीं हुई हैं। अपनी अनन्त गुनी अलौकिक सामर्थ्य को हमें-हम सभी को सौंपने के लिए आतुर वे आज भी हमसे प्रत्येक से कह रहे हैं- “क्लैव्यं मा स्म गमः? ऐसे विषम समय में क्लीव मत बनो, कायरता मत दिखाओ। वे इन दिनों किस तह युग-निर्माण अभियान से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति के अन्तःकरण को उद्वेलित, आन्दोलित करने में लगे हुए हैं, इसका अनुभव हम सभी को हैं।

लेकिन करें क्या? किस तरह से करें, ये प्रश्न हर किसी का मनोमन्थन कर रहे हैं। युग-परिवर्तन की भूमिका लगभग महाभारत जैसी ही है। इसे लंकाकाण्ड स्तर का भी कहा जा सकता है। स्थूल बुद्धि इतिहासकार इन्हें भारतवर्ष के अमुक क्षेत्र में घटने वाला घटनाक्रम भले ही कहते रहें पर तत्वदर्शी जानते हैं कि अपने-अपने समय में इन प्रकरणों का युगान्तकारी प्रभाव हुआ था। यह ठीक है कि अब परिस्थितियाँ भिन्न हैं। अब विश्व का स्वरूप भी दूसरा है। और फलस्वरूप परिवर्तन का उपक्रम भी दूसरा ही होना चाहिए। यह सुनिश्चित है कि वर्तमान युग-परिवर्तन प्रक्रिया का स्वरूप और माध्यम भूतकालीन घटनाक्रम से मेल नहीं खा सकेगा, किन्तु उसका मूलभूत आधार वही रहा जो कल्प-कल्पान्तरों से युग-परिवर्तन उपक्रमों के अवसर पर कार्यान्वित होता रहा हैं।

असुरता जिस स्तर की हो उसी के अनुरूप प्रतिरोध खड़ा करने के अतिरिक्त परिवर्तन की प्रक्रिया और किसी प्रकार सम्पन्न नहीं हो सकती। जनमानस की कुत्साओं-कुण्ठाओं ने जिस प्रकार जिस रास्ते मलिन, अवरुद्ध किया है, उसी रास्ते को उलटकर सृजन का उपक्रम खड़ा करना पड़ेगा। असुरता की व्यूह रचना के अनुरूप ही देव-शक्तियों को रणनीति बनानी पड़ती है। चक्रव्यूहों के कुचक्र को तहस-नहस करने के लिए तद्नुरूप ही सरंजाम जुटाने पड़ते हैं। वर्तमान परिस्थितियों में तोप-तलवारों से नहीं, उन अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होना पड़ेगा, जिससे मानवी अन्तःकरण में गहराई तक घुस पड़े कषाय-कल्मषों का उन्मूलन किया जा सके।

समयानुसार पूज्य गुरुदेव इस तरह के अनेकों कार्यक्रम अपने कार्यकर्त्ताओं को देते रहे हैं, जिनको सम्पन्न करके असुरता को मुँहतोड़ जवाब दिया जा सके। उसके कुचक्र को तोड़ा जा सके। उनकी सतत् सक्रिय सूक्ष्म सत्ता आज भी शान्तिकुँज के संचालकों को मार्गदर्शन व निर्देश देती रहती हैं। यथार्थ में संचालन तन्त्र की डोर आज भी उन्हीं के हाथों में है। शेष हम सब कठपुतलियाँ हैं। जिनको वे अपनी इच्छानुसार नचाते और उनसे आश्चर्यजनक और अलौकिक कहे जाने वाले कार्यों को बड़ी आसानी से करवा लेते हैं। उनकी प्रेरणाएँ और निर्देश ही अखण्ड ज्योति के पृष्ठों पर शब्द समूह बनकर अवतरित होते रहते हैं।

इस बार भी उन्होंने शान्तिकुँज के संचालन तंत्र को सप्तसूत्री योजना को कार्यान्वित करने का निर्देश दिया है। यह निर्देश भले ही किसी एक को अपनी चेतना की गहराइयों में मिला हो, परन्तु उसकी अनुभूति सभी को हुई है। इस सप्त सूत्री योजना को सप्तसरोवर क्षेत्र में प्रवाहित कल्मषनाशिनी गंगा की सात धाराओं के रूप में भी समझा जा सकता है। इसे क्रियान्वित करने वाले कार्यकर्त्ता अपने लिए भक्त और भगवान के बीच प्रणय मिलन के मधुर बन्धन में बाँधने वाली सप्तपदी की भी संज्ञा दे सकते हैं। वाली सप्तपदी की भी संज्ञा दे सकते हैं। इन सातों सूत्रों का उद्गम स्थान-गोमुख की ही भाँति शान्तिकुँज ही है। भले ही उसे प्रवाह के रूप में कहीं भी क्यों न अनुभव किया जाय।

गायत्री जयन्ती गायत्री एवं गंगा के अवतरण की पुण्य तिथि है और साथ ही इन सातों महाधाराओं को व्यापक बनाने के लिए महासंकल्प की तिथि भी। ये सात सूत्र निम्न हैं-

आस्तिकता संवर्द्धन आन्दोलन,

नारी जागरण आन्दोलन,

विवाहोन्माद प्रतिरोध आन्दोलन,

कुरीति उन्मूलन आन्दोलन,

सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन-दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन आन्दोलन,

व्यसन मुक्ति आन्दोलन,

स्वास्थ्य संवर्द्धन आन्दोलन।

इन संकल्पों से अपने परिजन किसी न किसी रूप से पहले भी परिचित रहे हैं, लेकिन अब इन कार्यक्रमों को उन्हें आन्दोलन का रूप देना है। आन्दोलन प्रारम्भ करने के लिए मात्र संकल्प पर्याप्त नहीं होता। उसके लिए विशिष्ट प्रशिक्षण एवं समुचित मार्गदर्शन की जरूरत पड़ती है। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए शान्तिकुँज में गायत्री जयन्ती के महापर्व से पाँच दिवसीय विशेष सत्रों का आयोजन किया गया है। इन सत्रों में इन सभी आन्दोलनों के स्वरूप की विस्तृत जानकारी के साथ इन सबकी सूक्ष्म बारीकियों का ज्ञान कराया जाएगा। सप्त सूत्री आन्दोलनों को प्रभावशाली बनाने के लिए अपने-अपने क्षेत्र विशेष के अनुरूप हमारे कर्मठ कार्यकर्त्ताओं को कब-क्या और किस तरह से करना चाहिए, इसका व्यावहारिक मार्गदर्शन दिया जाएगा।

हर क्षेत्र की अपनी समस्याएँ होती हैं, परिस्थितिजन्य जटिलताएँ होती है, परिस्थितिजन्य जटिलताएँ होती हैं। उनका निराकरण शान्तिकुँज आए बिना, मिल-बैठकर चर्चा किए बगैर सम्भव नहीं। सप्तसूत्री आंदोलन की चर्चा सप्तऋषि क्षेत्र एवं गंगा की सप्तधाराओं के सान्निध्य में हो सके, इसे सुखद सौभाग्य ही माना जाएगा। पाँच दिवसीय विशेष प्रशिक्षण सत्रों के अतिरिक्त कार्यकर्त्ताओं को समयानुसार उचित मार्गदर्शन देते रहने के लिए इस सम्बन्ध में महत्वपूर्ण पत्राचार की योजना भी बनायी गयी है, जिसके द्वारा इन पाँच दिवसीय सत्रों में प्रशिक्षण लेने के बाद भी सामयिक समस्याओं का निदान-निराकरण सम्भव होता रहेगा।

निःसन्देह युग-परिवर्तन का प्रधान आधार भावनात्मक नव-निर्माण ही है। इसी के लिए उपर्युक्त सात मोर्चे खोले जा रहे हैं। जन-मानस में इन दिनों झूठी मान्यताओं की भरमार है। सोचने की सही पद्धति एक प्रकार से विस्मृत ही हो गयी है। स्थिति का सही मूल्याँकन कर सकने वाला दृष्टिकोण ही हाथ से चला गया है। उसके स्थान पर भ्रान्तियों की चमगादड़ विचार-भवन के गुम्बदों में उलटी लटकी पड़ी हैं। इस सारे कूड़ा-करकट को एक बार झाड़-बुहार कर साफ करना होगा और चिन्तन की तथा जीवन जीने की परिष्कृत प्रक्रिया को जनमानस में प्रतिष्ठापित करना पड़ेगा जो मानवीय गरिमा के अनुरूप है। इन सातों आन्दोलनों से वे सभी आधार प्रबल होंगे, जिनके चलते न अनैतिकताओं के लिए कोई स्थान रह जाएगा और न ही झूठी मान्यताओं के लिए। सप्त-आन्दोलनों के निर्मल प्रवाह द्वारा स्वच्छ और निष्पक्ष चिन्तन सुदूर कोनों तक पहुँचाया जा सकेगा। साथ ही इसके द्वारा किसी भी वर्ग के व्यक्ति उसी स्थान पर पहुँच सकेंगे, जिसके लिए भारतीय अध्यात्म अनादिकाल से अंगुलि-निर्देश करता रहा हैं।

शान्तिकुँज के सशक्त शक्ति उद्गम से सम्बन्ध बनाने वाले, संपर्क साधने वाले आन्दोलनकारी सृजन सेनानी अनुभव करेंगे कि उनके प्रयास की हलचलें जन-जन में दृष्टिगोचर होने लगी है। आशा की गयी है कि समुन्नत आत्माएँ निजी सुख-सुविधाओं को तिलांजलि देकर मानवता के भावनात्मक नवनिर्माण केक इस कदम को इस युग की सर्वोत्तम साधना, उपासना, तपश्चर्या एवं आवश्यकता समझते हुए इसी में सर्वतोभावेन संलग्न होंगी। साथ ही सामान्य स्तर के व्यक्तियों में इतना विवेक तो अनायास ही जाग्रत होगा कि वे अन्धकार और प्रकाश का अन्तर समझ सकें। अनुचित के लिए दुराग्रह छोड़कर इन आंदोलनों द्वारा प्रतिपादित न्याय और विवेक के उचित पक्ष को स्वीकार कर सके। इस प्रकार उभयपक्षीय सुयोग-संयोग उस प्रयोजन को अग्रगामी बनाता चला जाएगा, जो युगपरिवर्तन का मूलभूत आधार है।

युग-परिवर्तन के जिस अभियान का महाकाल ने प्रवर्तन-प्रत्यावर्तन किया है, वह वस्तुतः चेतनात्मक उत्कर्ष ही है। इसी हेतु महेश्वर महाकाल की प्रेरणा सप्तसूत्री कार्यक्रम बनकर शान्तिकुँज में अवतरित हुई। जिसका विस्तार युग-निर्माण आन्दोलन के विभिन्न केन्द्रों से होना और किया जाना है। यह चेतनात्मक उत्कर्ष की बात कहने से यह मतलब नहीं है कि भौतिक प्रगति व्यर्थ है। वह भी आवश्यक है, पर वह दूसरे लोगों का काम है। जिसे वे शक्ति भर सम्पन्न भी कर रहे हैं। सरकारें पंचवर्षीय योजनाएँ बनाती हैं। वैज्ञानिक शोध कार्य में जुटे हुए हैं। अर्थशास्त्री व्यवसाय का उत्पादन और वितरण का ताना-बाना बुन रहे हैं। सैन्य तन्त्र आयुधों के निर्माण और योद्धाओं के प्रशिक्षण में लगा है। शिक्षाशास्त्री बौद्धिक क्षमता के अभिवर्द्धन में लगे हैं। उपेक्षित तो समाज निर्माण का तन्त्र ही पड़ा है। उस नाम पर जो खड़ा है उसे तो विदूषकों जैसी विडम्बना ही कहा जा सकता है। धर्म के नाम पर जो कहा और किया जा रहा है उससे ऐसी आस्तिकता की अपेक्षा नास्तिकता भली प्रतीत होती है। कानून बनाने भर से न तो समाज की दुष्प्रवृत्तियों को मिटाया जा सकता है और न ही सत्प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिल सकता है। आज जब कानून बनाने वाला तंत्र ही शक के घेरे में आ खड़ा हुआ है, तो उनके बनाए कानूनों पर भला किसकी सच्ची श्रद्धा और आस्था टिकेगी?

इसे कर गुजरने की जिम्मेदारी तो अपने परिजनों, नव-निर्माण अभियान के कर्मठ सेनानियों पर आ पड़ी है। उन्हें ही इसे पूरा करना है। सप्त-सूत्री आन्दोलन की कार्य-योजना का अनुग्रह अवतरण इसीलिए चेतना की किसी उच्चस्तरीय कक्षा से हुआ है। इसमें भागीदार बनने के लिए शान्तिकुँज के पाँच दिवसीय प्रशिक्षण सत्रों में आने वाले परिजन अनुभव करेंगे कि उन पर समर्थ सत्ता का विशिष्ट अनुग्रह-अवतरण हो रहा है। उन्हें समर्थ बनाने वाली शक्ति का विशिष्ट अनुदान देने का संकल्प भी उसी का है। जिसने सप्तसूत्री आन्दोलनों की कार्ययोजना सुझायी है।

यहाँ आकर शक्ति-अनुदान पाने वाले अपने क्षेत्र में कार्य करते समय स्पष्ट देखेंगे कि अब तक व्यक्तिगत लाभ में संलग्न रहने की लिप्सा में फँसे हुए लोग भी लोकमंगल के लिए उत्सर्ग करने की उनकी आन्तरिक पुकार सुनेंगे। यह पुकार इतनी तीव्र होगी कि चाहने पर कि वे संकीर्ण स्वार्थपरता, व्यक्तिवादी जीवन जी ही न सकेंगे। उनके संपर्क में आने वालों की, लोग और मोह की जटिल जंजीरें वैसी ही टूटती दीखेगी, जैसे कृष्ण जन्म के समय बन्दीगृह के ताले अनायास ही खुल गए थे। यों माया-बद्ध नरकीटकों के लिए वासना और तृष्णा की परिधि तोड़कर परमार्थ के क्षेत्र में कदम बढ़ाना असम्भव जैसा लगता है। पेट और प्रजनन की विडम्बनाओं के अतिरिक्त वे क्या आगे की ओर कुछ बात सोच या कर सकेंगे? पर समय ही बतायेगा कि इसी जाल-जंजाल में जकड़े हुए वर्गों में से कितनी प्रबुद्ध आत्माएँ उछल कर आगे आती हैं और सामान्य स्थिति में रहते हुए कितने ऐसे अद्भुत क्रिया-कलाप सम्पन्न करती हैं, जिन्हें देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ेगा। जन्मजात रूप से तुच्छ स्थिति में जकड़े हुए व्यक्ति अगले दिनों जब महामानवों की भूमिका प्रस्तुत करते दिखाई पड़ें, तो समझना चाहिए कि युगपरिवर्तन का प्रकाश एवं चमत्कार सर्वसाधारण को प्रत्यक्ष हो चला। आज की स्थिति को देखते हुए यह कार्य बड़ा ही कठिन लगता है। धर्म विडम्बना के सस्ते प्रलोभनों को तिरस्कृत कर धर्मप्रेमी लोग कष्टसाध्य परमार्थ में प्रवेश करेंगे यह कठिन है। बुद्धिजीवी अपनी अच्छी-खासी सुविधाओं का परित्याग कर लोकमंगल के इन आन्दोलनों के लिए दर-दर ठोकरें खाएँगे, यह भी कठिन ही लगता है। पर युग-प्रत्यावर्तन प्रक्रिया का प्रवर्तन करने वाले महेश्वर महाकाल का स्पष्ट आश्वासन है कि शान्तिकुँज के समर्थ शक्ति उद्गम से संपर्क साधने वालों को माध्यम बनाकर वे इस दुःसाध्य कार्य को भी अति सरलता से करवा लेंगे। सप्त-सूत्री आन्दोलनों की व्यापकता नियति की अवश्यम्भावी योजना हैं। इसमें भागी बनने वाले सुनिश्चित रूप से श्रेय के अधिकारी बनेंगे।

रीछ-वानर अपने प्राण हथेली पर लेकर मौत से लड़ने गए थे। बुद्ध के ढाई लाख अनुयायी यौवन की उमंगों को कुचलते हुए भिक्षु-भिक्षुणी बनने की जटिल प्रक्रिया स्वीकार करने को सहमत हुए थे। गाँधी की पुकार पर लाखों ने अपनी बर्बादी को स्वीकार किया था। इसी प्रकरण को यदि इतिहास फिर दोहराए तो इसे न कठिन मानना चाहिए और न असम्भव। जो भूतकाल में होता रहा है उसकी पुनरावृत्ति को कठिन या जटिल मानने का कोई कारण नहीं। समय की पुकार इस कष्टसाध्य प्रक्रिया को भी पूरी करके रहेगी। जीवन्त और जाग्रत आत्माओं का एक बड़ा वर्ग इन पंक्तियों को पढ़कर आगे आवेगा। ऐसा विश्वास किया गया है, उनकी सहायता से शान्तिकुँज द्वारा आन्दोलन की सभी सप्तधाराओं का ऐसा विशालकाय शस्त्रागार खड़ा किया जाएगा जिसकी सहायता से अनाचार की लंका को ध्वस्त किया जा सके।

आज का जनमानस मूढ़ता और दुष्टता की असुर प्रवृत्तियों में बेतरह चिपका दिखता है। वास्तविकता को उपहासास्पद मूर्खता माना जाता है। विवाहोन्माद एवं कुरीतियों का बोलबाला है। नारी उत्पीड़ित एवं प्रताड़ित स्थिति में जैसे-तैसे जीवन गुजार रही हैं। दुष्प्रवृत्तियों की इतनी बाढ़ आ गयी है कि कालेज की छात्र-छात्राएँ व्यसनों के जाल में उलझ गए है। असंयम एवं व्यसन ने जन-जीवन के स्वास्थ्य को चौपट करके रख दिया है। नीति और न्याय की, धर्म और ईश्वर की बातें तो बहुत कही-सुनी जाती हैं, पर व्यवहार में उतारना असम्भव कहा जाता है। सप्तसूत्री कार्य-योजना में भागीदार होने वाले देखेंगे कि आज की यह दुर्दशा कल बदलेगी कल बदलेगी और सर्वसाधारण को सही सोचने और सही अपनाने की ललक उठेगी। यह उभार लोकमानस में आने ही वाला है। दैवी चेतना इस कार्य में इतनी समर्थ भूमिका निभाएगी कि आन्दोलन की सप्तधाराओं का उपहास नहीं उड़ाया जाएगा वरन् उसका स्वागत-समर्थन आशातीत रूप में देखने को मिलेगा।

इसके प्रभाव से धर्म अपने वास्तविक रूप में प्रकट होगा। उसके प्रसार-प्रतिपादन का ठेका किसी वेश या वंश विशेष पर न रह जाएगा। सम्प्रदाय वादियों के डेरे उखड़ जाएँगे। उन्हें मुफ्त के गुलछर्रे उड़ाने की सुविधा छिनती दिखेगी तो कोई उपयोगी धंधा अपनाकर भले मानसों की तरह आजीविका उपार्जित करेंगे। तब उत्कृष्ट चरित्र, परिष्कृत ज्ञान एवं लोकमंगल के लिए प्रस्तुत किया गया अनुदान ही किसी को सम्मानित या श्रद्धास्पद बना सकेगा। पाखण्ड-पूजा के बल पर जीने वाले उलूक उस दिवा प्रकाश से भौंचक्के होकर देखेंगे और किसी कोटर में बैठे दिन गुजारा करेंगे। अज्ञानान्धकार में जो पौ बारह रहती थी, उन अतीत की स्मृतियों को वे ललचाई दृष्टि से सोचते भले ही रहें, पर फिर वह समय लौटकर कभी न आ सकेगा।

शान्तिकुँज के समर्थ शक्ति केन्द्र जहाँ परमपूज्य गुरुदेव की शक्ति समाहित है, के माध्यम से महाकाल इस महाक्रान्ति यज्ञ की हुताशन वेदी पर इन आन्दोलनों की सप्त आज्याहुतियों के लिए युग सेनानियों करे आमंत्रित कर रहा हैं। इसके द्वारा वह ऐसी प्रचण्ड-शक्ति का संचार करेगा कि अपूर्व दृश्य देखे जा सकेंगे। जनमेजय के नागयज्ञ की तरह फुफकारते हुए विषधर तक्षकों को जब ब्रह्मतेजस् स्वाहाकार द्वारा घसीटा ही जाएगा तो उस रोमाँचकारी दृश्य को देखकर दर्शकों के होश उड़ने लगेंगे। वह दिन दूर नहीं जब आज की अरणि-मन्थन से उत्पन्न स्फुल्लिंग शृंखला कुछ ही समय उपरान्त दावानल बनकर कोटि-कोटि जिह्वाएँ लपलपाती हुई वीभत्स जंजालों से भरे अरण्य को भस्मसात् करती हुई दिखाई देंगी।

इसी के साथ नवयुग का सूर्य अपना प्रकाश बिखेरने लगेगा। सभी जानते हैं कि सूर्योदय हमेशा पूर्व दिशा से होता है-ऊषाकाल की लालिमा उसकी पूर्व सूचना लेकर आती है। कुक्कुट उस पुण्य बेला की अग्रिम सूचना देने लगते हैं। तारों की चमक और निशा की कालिमा की सघनता कम हो जाती है। इन्हीं लक्षणों से जाना जाता है। इन्हीं लक्षणों से जाना जाता है कि प्रभातकाल समीप आ गया और अब सूर्योदय होने ही वाला है।

इन आन्दोलनों की सप्तसूत्री कार्य-योजना के प्रभाव-विस्तार से युग-परिवर्तन का सूर्योदय भी इसी क्रम से होगा। यूँ यह सार्वभौम प्रश्न है, विश्वमानव की समस्या है। एक देश या एक जाति की नहीं। फिर भी उदय का क्रम पूर्व से ही चलेगा। कुछ चिरन्तन विशेष परम्परा ऐसी चली आती है कि विश्वमानव ने जब भी करवट ली है, तब उसका सूत्र-संचालन सूर्योदय की ही भाँति पूर्व दिशा से हुआ हैं। यों पाश्चात्य देशवासी भारत को पूर्व मानते हैं, पर जहाँ तक आध्यात्मिक चेतना का प्रश्न हैं, निःसन्देह यह श्रेय-सौभाग्य इसी देश को मिला है कि वह विश्व की चेतनात्मक हलचलों का उत्तरदायित्व अग्रिम पंक्ति में खड़ा होकर वहन करे। इस बार भी ऐसा ही होने जा रहा है। सप्तसूत्री इन आन्दोलनों के माध्यम से महाकाल की चेतना युग-परिवर्तन का प्रकाश इसी पुण्यभूमि से आरम्भ करने जा रही है। जो कुछ ही समय में विश्वव्यापी बने बिना न रहेगा।

इन आन्दोलनों की सप्तसूत्री कार्य-योजना के प्रभाव-विस्तार से युग-परिवर्तन का सूर्योदय भी इसी क्रम से होगा। यूँ यह सार्वभौम प्रश्न है, विश्वमानव की समस्या है। एक देश या एक जाति की नहीं। फिर भी उदय का क्रम पूर्व से ही चलेगा। कुछ चिरन्तन विशेष परम्परा ऐसी चली आती है कि विश्वमानव ने जब भी करवट ली है, तब उसका सूत्र-संचालन सूर्योदय की ही भाँति पूर्व दिशा से हुआ हैं। यों पाश्चात्य देशवासी भारत को पूर्व मानते हैं, पर जहाँ तक आध्यात्मिक चेतना का प्रश्न हैं, निःसन्देह यह श्रेय-सौभाग्य इसी देश को मिला है कि वह विश्व की चेतनात्मक हलचलों का उत्तरदायित्व अग्रिम पंक्ति में खड़ा होकर वहन करे। इस बार भी ऐसा ही होने जा रहा है। सप्तसूत्री इन आन्दोलनों के माध्यम से महाकाल की चेतना युग-परिवर्तन का प्रकाश इसी पुण्यभूमि से आरम्भ करने जा रही है। जो कुछ ही समय में विश्वव्यापी बने बिना न रहेगा।

युग-परिवर्तन की घड़ियों में भगवान अपने विशेष पार्षदों को महत्वपूर्ण भूमिकाएँ सम्पादित करने के लिए आमंत्रित करता है। गायत्री परिवार, युग-निर्माण परिवार के सदस्य अपने को इसी स्तर का समझें और शान्तिकुँज के सतत् संपर्क में रहते हुए अनुभव करे कि युगान्तर के अति महत्वपूर्ण अवसर पर उन्हें हनुमान, अंगद जैसी विशेष भूमिका सम्पादित करने के लिए जन्म मिला है। हमें तथ्य को समझना चाहिए। अपने स्वरूप और लक्ष्य को पहचानना चाहिए और आलस्य-प्रमाद में बिना एक क्षण गँवाए अपने अवतरण का प्रयोजन पूरा करने के लिए अविलम्ब कटिबद्ध हो जाना चाहिए। अग्रगामी पंक्तियों में आने वालों को ही श्रेयभाजन बनने का अवसर मिलता है, महान् प्रयोजन को लिए भीड़ तो पीछे भी आती रहती हैं और अनुगामियों से कम नहीं कुछ अधिक ही काम करती हैं, पर तब श्रेय-सौभाग्य का अवसर बीत गया होता है। परमपूज्य गुरुदेव चाहते हैं कि युग-निर्माण परिवार की आत्मबल सम्पन्न आत्माएँ इन्हीं दिनों आगे आएँ और शान्तिकुँज में प्रशिक्षण प्राप्त करके अपने-अपने क्षेत्र में आंदोलन की सप्तधाराओं को प्रवाहित करें। उन्हें अग्रिम पंक्ति में खड़े होने वाले युग-निर्माताओं की ऐतिहासिक भूमिका निभाने में चूकना नहीं चाहिए। इन पंक्तियों का प्रत्येक अक्षर इसी संदर्भ से ओत-प्रोत समझा जाना चाहिए।


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