युगसन्धि महापुरश्चरण और वातावरण का संशोधन

June 1997

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युग-समस्याएँ बाहरी कारणों से उत्पन्न हुई लगती भर हैं, वस्तुतः उनकी जड़ें बहुत गहरी है। बड़े पौधों की जड़ें जमीन विशालकाय तने और परिकर को आवश्यक खुराक मिलती है। लदे हुए फल-फूल बाहर टँगे होते हैं। और मोटी बुद्धि से प्रतीत यह होता है कि यह कहीं बाहर से आये या ऊपर से उतरे हैं, पर सच्चाई यह है कि वृक्ष का अस्तित्व, विस्तार और वैभव बनाये रहने के लिए जड़ें ही प्रमुख भूमिका निभाती हैं। वे चर्मचक्षुओं को दीख न पड़ें यह बात दूसरी हैं।

गीता में इस जगत को ‘ऊर्ध्व मूल अधःशाखा’ वाला ‘अश्वत्थ’ कहा गया है। जड़ें ऊपर और पेड़ नीचे होने की उक्ति पहेली जैसी लगती है, पर सूक्ष्मदर्शी पर्यवेक्षण से इस यथार्थता में किसी प्रकार का कोई सन्देह नहीं रह जाता। बादल ऊपर से बरसते हैं और धरातल में नमी और शीतलता बनाये रहते हैं। प्रतीत यह होता है कि जल धरती की सम्पदा है, पर वस्तुतः वह आकाश का अनुदान है। सृष्टि के आरम्भ में धरती गरम गोला थी। आच्छादित गैसें मिलकर पानी बनीं और बरसीं, उसी से समुद्र बने और भाप से बादल बनने का सिलसिला चला। धरती पर पाया जाने वाला जल ही प्रकारान्तर से प्राणियों का जीवनाधार हैं, फिर भी वस्तुस्थिति यह है कि वह सृष्टि के आरम्भ से लेकर अन्त तक आकाश का ही वैभव था और बना रहेगा।

धरती पर जीवन का विकास सन्तुलित तापमान से हुआ है। यह गर्मी ऊपर सूरज से उतरती है। छूने से धरती ही गरम लगती है और उसी की सतह चमकती है। इसलिए सामान्य बुद्धि धरातल पर फैली हुई गर्मी और रोशनी को पृथ्वी की सम्पदा कह सकती है, पर वास्तविकता यह है कि ऊष्मा और ऊर्जा का स्त्रोत सूर्य है। जमीन से वनस्पति के रूप में उगता और प्राणियों के रूप में चलता-फिरता जीवन वस्तुतः सूर्य का ही अनुदान है। उसकी किरणें असंतुलित हो उठें तो यह धरती अग्नि पिण्ड या शीत पिण्ड बनकर सर्वथा निर्जीव स्थिति में जा पहुँचेगी।

पृथ्वी पर पाये जाने वाली अगणित सम्पदाएँ, क्षमताएँ एवं विशेषताएँ उसकी अपनी श्री-समृद्धि प्रतीत होती हैं, किन्तु विशेषज्ञों का प्रतिपादन है कि यह सारा वैभव अन्तर्ग्रही अनुदान है, जिसे ध्रुवों के चुम्बकत्व से कुशलतापूर्वक खींचा और संग्रह किया है। अंतर्ग्रही अनुदानों का विशेष सौभाग्य यदि धरती को न मिला होता तो वह अन्य निर्जीव ग्रहों की तरह इस सारे वैभव से रहित निस्तब्ध में पड़ी होती।

खाद्य पदार्थों का उत्पादन और उपयोग करने का अवसर धरती के सहारे उपलब्ध हुआ प्रतीत होता है, पर सच्चाई दूसरी ही है। प्राणियों का प्रमुख आहार अन्न-जल नहीं, वायु है। खाद्यों के अभाव में कुछ समय जीवित रहा जा सकता है, पर वायु के बिना एक क्षण का भी निर्वाह नहीं। पोषण जितना खुराक के सहारे मिलता है उससे हजार गुना हवा से ग्रहण करके प्राणिजगत जीवित रहता है। आँखें भोजन को देखें और हवा की गरिमा को देखने, समझने में असमर्थ रहें तो भी स्थिति ज्यों की त्यों ही बनी रहेगी।

ब्रह्माण्ड का छोटा रूप पिण्ड है। सौर-मण्डल की छोटी झाँकी परमाणु के अन्तःक्षेत्र में काम करने वाले घटकों की गतिविधियाँ देखने से मिल जाती है। ब्रह्माण्ड में भरी चेतना परब्रह्म है। उसी का छोटा घटक जीव है। जीव और ब्रह्म का पारस्परिक आदान-प्रदान जितना निर्बाध रहता है उसी अनुपात से जीवधारी समर्थ, सम्पन्न एवं प्रसन्न पाया जाता है। उसका प्रगतिक्रम इसी सम्बन्ध शृंखला पर अवलम्बित है। ईश्वर को अश्वत्थ मूल और जीव को उसका पुष्प-पल्लव कहा गया है। इसी स्थिति को ऊर्ध्व मूल अधःशाखा कहा गया है।

धरती पर पदार्थ और ऊर्जा यही दो घटक प्रधान हैं। इसी प्रकार अन्तरिक्ष की दो सम्पदाएँ हैं।

(1) ‘वातावरण’ और (2) ‘वायुमण्डल’ इन दो हिस्सों में बाँटा जा सकता है। वातावरण चेतनात्मक है और वायुमण्डल प्रकृतिपरक। वातावरण से मनुष्य की आस्था, आकाँक्षा और विचारणा प्रभावित होती है। वायु-मण्डल में वस्तुओं की मात्रा एवं स्तरीय स्थिति का सीधा सम्बन्ध है। मनुष्य एक सीमा तक स्वतन्त्र भी है। उसकी अपनी पुरुषार्थपरायणता का भी महत्व है, किन्तु वातावरण का दबाव तो तूफान की तरह है जिसके आवेग में जन-मानस अमुक दिशा में उड़ता, दौड़ता दिखाई पड़ता है। अन्धड़ के साथ-साथ तिनके और पत्ते दौड़ते हैं। पानी की प्रचण्ड धारा में न जाने क्या-क्या हलका-भारी बहता चला जाता है। इसी प्रकार अन्तरिक्ष में संव्याप्त चेतनात्मक वातावरण जनमानस को किसी दिशा विशेष में अनायास ही धकेलता-घसीटता चला जाता है। अबोध-असमर्थ जनमानस का बहुत बड़ा भाग स्वेच्छा से नहीं वातावरण के दबाव से अपने चिन्तन और प्रयास का निर्धारण करता है। “दैवेच्छा वलीयसी” की उक्ति में इसी सत्य की ओर संकेत किया गया है।

वायुमण्डल के उतार-चढ़ाव का विश्व की सम्पत्ति और परिस्थिति पर क्या प्रभाव पड़ता है, उसे आये दिन देखा जा सकता है। अतिवृष्टि, अनावृष्टि वायु-मण्डल की असन्तुलित हलचलें हैं, जिनसे समस्त प्राणिपरिकर बुरी तरह प्रभावित होता है। मौसम प्रतिकूल हो जाने पर स्वास्थ्य को बुरी तरह क्षति पहुँचती है। दुर्बलता और रुग्णता का-महामारियों का कभी-कभी ऐसा दौर आता है जो सँभाले नहीं सँभलता। मस्तिष्क ज्वर, लू लगने और निमोनिया होने जैसी बीमारियों में मनुष्य का दोष कम और मौसम का अधिक होता है।

वायुमण्डल की अनुकूलता ही प्रकृति की सहायता है। सतयुग में प्रकृति अनुकूल रहती थी और मानवी आवश्यकता के अनुरूप वस्तुओं की कमी नहीं पड़ती थी। मौसम सन्तुलित रहने पर पदार्थ प्रचुर मात्रा में उत्पन्न होते थे। खाद्य पदार्थों में पोषक तत्वों का परिमाण बढ़ा-चढ़ा रहता था। ऐसी-ऐसी अनेकानेक अनुकूलताओं के कारण प्राणी स्वस्थ, परिपुष्ट, प्रखर और दीर्घ रहते थे। समर्थता, काय-कलेवर तक ही सीमित नहीं रहती थी वरन् उसके अन्तराल में रहने वाले मनःतत्व को भी प्रभावित करती थी। स्वस्थ मनुष्य सन्तुलित एवं सुखी भी रहती हैं।

सतयुग में मनुष्यों तथा मनुष्येत्तर प्राणियों के शरीर विशालकाय भी थे और बलिष्ठ भी। पीछे उनमें गिरावट आती चली गई। इसका क्या कारण हुआ? परिवर्तन के दिनों प्राणियों ने क्या अच्छाई अपनाई, क्या बुराई? इसका ऊहापोह करने पर लगता है उनने भला-बुरा उगाया नहीं प्रकृतित उन पर शाप, वरदान अनायास ही लदते रहे हैं।

पुरातनकाल में मानवी चिन्तन का स्तर उच्चस्तरीय था। उनकी कामनाएँ, रुचियाँ, महत्वाकाँक्षा उच्चस्तरीय थीं। ऊँचा चाहते और ऊँचा सोचते थे। फलतः इनके क्रिया-कलापों में आदर्शों का पुट पग-पग पर परिलक्षित होता था। ऐसे व्यक्तियों के स्वभाव में शालीनता, चरित्र में सज्जनता, व्यवहार में उदारता घुला रहना स्वाभाविक है। इसी स्तर के लोग धरती के देवता कहे जाते थे।

उन दिनों समष्टिगत वातावरण ही कुछ ऐसा था जिसके प्रवाह में जनसमुदाय को ऊँचा सोचने, ऊँचा करने के अतिरिक्त और कोई चारा ही नहीं था। प्रवाह चीर कर उलटा चलना कठिन होता है। आज निकृष्टता के प्रवाह में व्यक्ति विशेष को अपने निजी मनोबल के सहारे, उत्कृष्टता अपनाना और उसे अन्त तक मजबूती के साथ पकड़े रहना अति कठिन पड़ता है। कोई अपवाद ही ऐसा पौरुष दिखा पाते हैं। ठीक इसी प्रकार प्राचीन युग में भ्रष्ट चिन्तन एवं दुष्ट आचरण के लिए असाधारण दुस्साहस ही करना होता होगा अन्यथा वातावरण के दबाव में सहज ही वैसा कुछ कर सकना सहज ही वैसा कुछ कर सकना सहज नहीं अतीव दुस्तर था। आज आकाँक्षाएँ और विचारणाएँ मानवी आदर्शों से विपरीत दिशा में उद्दण्ड अंधड़ की तरह बह रही हैं। उससे अनगढ़ ही नहीं सुनिश्चित और सभ्य कहे जाने वाले लोग भी बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं।

कार्य स्थूल है और चिन्तन सूक्ष्म। वायुमण्डल स्थूल है और वातावरण सूक्ष्म। दुष्कर्मों से वायुमण्डल विकृत होता है, प्रकृति रूठती है और परिस्थितियाँ दुःखदायी बनती हैं। आवश्यक वस्तुओं का अभाव घटनाक्रम की प्रतिकूलता और कष्ट-संकटों का विरोध-विग्रह का अभिवर्द्धन यह वायुमण्डल की विषाक्तता का परिणाम है। वातावरण चेतन है। मान्यताओं, आस्थाओं और विचारणाओं के समन्वय से उत्पन्न चिंतन प्रवाह में निकृष्टता भर जाने से वातावरण विकृत होता है। उससे प्रभावित जनमानस में कुकल्पनाएँ दुर्भावनाएँ और अनीतिमूलक उच्छृंखलताएं ज्वार-भाटों की तरह उठती हैं। अचिन्त्य चिन्तन का परिणाम अन्तःकरण में उद्विग्नता और कुटिलताओं के रूप में प्रकट होता है। फलतः संकीर्ण स्वार्थपरता, निरंकुश उच्छृंखलता एवं आक्रामक दुष्टता अपनाने पर उतारू होता है। कुविचारों की परिणति दुर्व्यवहार से होती है। फलतः मनोमालिन्य, विलगाव, असहयोग, विरोध एवं विग्रह के रूप में प्रतिद्वन्द्विता खड़ी होती है और अनेकानेक समस्याएँ उत्पन्न कर देती है। प्रभावित लोग स्वयं उद्विग्न रहते और दूसरों को अप्रसन्न करते हैं। गर्हित दृष्टिकोण ही है जिसे अपनाने वाले स्वयं दुख पाते और दूसरों को दुःख देते हैं। सहयोग के अभाव में प्रगति के द्वार रुक जाते हैं। मनोविकार ही शारीरिक और मानसिक रोगों को जन्म देते हैं। अनुदारता और दुष्टता अपनाने वाले दूसरों की सद्भावना गँवा देते हैं।

वायुमण्डल दूषित होने के कारणों से वैज्ञानिक अनाचार से उत्पन्न कूड़े-कचरे की अभिवृद्धि भी है। वायु प्रदूषण, जनप्रदूषण, कोलाहल, विकरण आदि बढ़ने से अन्तरिक्ष में बढ़ती विषाक्तता और उनसे उत्पन्न विभीषिका की चर्चा सर्वत्र होती रहती है। इसके अतिरिक्त मनुष्यों के अनाचरण भी प्रकृति सन्तुलन को विक्षुब्ध करते हैं, फलतः मौसम, बाढ़, वर्षा, भूकंप, तूफान, युद्ध, महामारी, टिड्डी, मूषक, कृमि-कीटक, दुर्भिक्ष आदि की विपत्तियाँ आती हैं। वनस्पति हीनवीर्य होती है। उसके पोषक तत्व घट जाते हैं और हवा में आक्सीजन और जीवन तत्वों की कमी पड़ने से मनुष्य ही नहीं अन्य जीवधारियों की भी शारीरिक स्थिति इस प्रकार बिगड़ती है कि उनकी मनःस्थिति सामान्य और सुखद परम्परा अपनाये रहने योग्य नहीं रह जाती है। यह प्रकृति विपर्यय हर दृष्टि से हर किसी के लिए हानिकारक ही सिद्ध होती है। वातावरण की विषाक्तता लोकमानस में निकृष्टता की मात्रा बढ़ाती है फलतः स्नेह-सहयोग के स्थान पर द्वेष-दुर्भाव और विग्रह, अनाचार की घटाएँ घुमड़ने लगती हैं।

भौतिक क्षेत्र में सुख-सुविधा और शान्ति-व्यवस्था के साधन बढ़ाने के लिए भरपूर प्रयत्न होने चाहिए। कठिनाइयों को हल करने के लिए जो भी पराक्रम सम्भव हो उसे तत्परतापूर्वक किया जाना चाहिए, किन्तु ध्यान यह भी रखा जाय कि इतना ही सब कुछ नहीं है। इसमें आगे भी बहुत कुछ करना शेष है। वायु-मण्डल और वातावरण का परिशोधन उन अध्यात्म-प्रयत्नों पर निर्भर है, जिन्हें व्यक्तिगत धर्मधारणा एवं सामूहिक सहसाधना के आधार पर सम्पन्न किया जाता है। वायुमण्डल की परिशुद्धि के लिए यज्ञोपचार से बढ़कर और कोई अधिक शक्तिशाली माध्यम अब तक नहीं ढूँढ़ा जा सका। थोड़े से पदार्थों को जलाने की हानि को ही देखा जाय और उसके द्वारा होने वाले लाभों को दृष्टि से ओझल कर दिया जाय तो यह बुद्धिमत्ता की बात न होगी। स्वर्णभस्म, मोती भस्म आदि में उन पदार्थों को जला देने से मोटी दृष्टि से हानि और मूर्खता का ही निष्कर्ष निकलता है, पर जो उन रसायनों का महत्व समझते हैं, उन्हें उसमें लाभ और समझदारी ही का परिचय मिलता है।

वातावरण के परिशोधन से सामूहिक साधनाएँ अत्यधिक कारगर सिद्ध होती हैं। युगसंधि महापुरश्चरण की वर्तमान शृंखला जो सन् 2001 तक चलेगी, में इन दिनों प्रायः एक से दो करोड़ साधक एक समय, एक मन, एक विधान और एक उद्देश्य को लेकर जो धर्मानुष्ठान कर रहे हैं उसका प्रतिफल अदृश्य वातावरण के संशोधन में अपना असाधारण योगदान देगा और इसे आज दूरदर्शिता के सहारे जाना जा सकता है कल उसके प्रत्यक्ष परिणाम भी सुखद परिस्थितियों के रूप में सामने होंगे।


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