डाकू ने देखी मुरली-मनोहर की झाँकी

June 1997

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वैशाख का महीना, शुक्लपक्ष की रात्रि का समय। श्रीमद्भागवत की कथा सरिता अपनी शीतलता-पवित्रता के साथ पूरी उमंग से प्रवाहित हो रही थी। कथावाचक पण्डितजी विद्वान तो थे ही, अच्छे गायक भी थे। वे बीच-बीच में भगवद्भक्ति के भावपूर्ण पदों का मधुर कण्ठ से गान भी करते। पहले उन्होंने संक्षेप में भगवान के जन्म की कथा सुनायी। फिर नन्दोत्सव का वर्णन करते-करते एक मधुर पद गाया।

कथा का प्रसंग आगे चला। श्रोतागण व्यवहार की चिन्ता और शरीर की सुधि भूलकर भगवदानन्द में मस्त हो गए। बहुतों के शरीर में रोमाँच हो आया। कितनों की ही आँखों में आँसू छलक आए। सभी तन्मय हो रहे थे।

उसी समय डाकू दुर्जनसिंह आस-पास के घरों में सूनापन देखकर डकैती के इरादे से एक घर में घुसा। लेकिन बहुत प्रयास करने पर भी उसे कुछ भी न मिला। वह जिस समय कुछ न कुछ हाथ लगाने के लिए इधर-उधर ढूंढ़ रहा था, उसी समय उसका ध्यान यकायक कथा की ओर चला गया। कथावाचक पण्डितजी महाराज ऊँचे स्वर में कह रहे थे, “प्रातःकाल हुआ। पूर्व दिशा ऊषा की मनोरम ज्योति और अरुण की लालिमा से रंग गई। उस समय व्रज की झाँकी अलौकिक हो रही थी। गौएँ और बछड़े सिर उठा-उठा कर नन्दबाबा के महल की ओर सतृष्ण दृष्टि से देख रहे थे कि अब हमारे प्यारे श्रीकृष्ण हमें आनन्दित करने के लिए आ ही रहे होंगे। उसी समय भगवान श्रीकृष्ण के प्यारे सखा श्रीदामा व सुदामा, मधुमंगल, मनसुखा आदि ग्वाल−बालों ने आकर भगवान श्रीकृष्ण और बलराम को बड़े प्रेम से पुकारा ” हमारे प्यारे कन्हैया आओ न। अब तक तुम से ही रहे हो? देखो, गौएँ तुम्हें देखे बिना रँभा रही हैं। हम कभी से खड़े हैं।” इस प्रकार ग्वाल-बालों की पुकार और जल्दी देखकर नन्दरानी ने अपने प्यार पुत्रों को बड़े ही मधुर स्वर से पुकार-पुकार कर जगाया।

फिर मैया ने स्नेह से उन्हें माखन मिश्री का तथा भाँति-भाँति के पकवानों का कलेऊ करवाकर बड़े चाव से खूब सजाया। लाखों-करोड़ों रुपये के गहने, हीरे-जवाहरात और मोतियों से जड़े स्वर्णालंकार अपने बच्चों को पहनाए। मुकुट में, बाजूबन्द में, हार में जो मणियाँ जगमगा रही थीं, उनके प्रकाश के सामने प्रातःकाल का उजाला फीका पड़ गया। इस प्रकार भली-भाँति सजाकर यशोदा मैया ने अपने लाड़ले पुत्रों के सिर सूँघे और फिर बड़े प्रेम से गौ चराने के लिए उन्हें विदा किया।”

इतनी बातें डाकू ने भी सुनीं और तो उसने कुछ सुना था नहीं। अब वह सोचने लगा कि अरे! यह तो बड़ा अनुपम सुयोग है। मैं छोटी-मोटी चीजों के लिए इधर-उधर मारा-मारा फिरता हूँ, यह तो अपार सम्पत्ति हाथ लगने का अवसर है। केवल दो बालक ही तो हैं। उसके दोनों गालों पर दो-दो चपत जड़े नहीं कि वे स्वयं अपने गहने निकाल कर मुझे सौंप देंगे। यह सोचकर वह कथा स्थल से थोड़ी दूर रुककर कथा के समाप्त होने की बाट देखने लगा।

बहुत रात बीतने पर कथा समाप्त हुई। भगवान के नाम और जयकार के नारों से आकाश गूँज उठा। प्रसाद बँटने लगा। उधर यह सब हो रहा था, परन्तु डाकू के मन में इन सब बातों की ओर कोई ध्यान नहीं था। वह तो रह-रह कर कथावाचक की ओर देख रहा था। उसकी आँखें कथावाचक की गतिविधि पर जीम हुई थीं। कुछ समय के बाद प्रसाद पाकर कथावाचक जी अपने डेरे की ओर चले। डाकू भी उनके पीछे-पीछे हो लिया। जब पण्डितजी कुछ खुले मैदान में पहुँचे, तब उसने पीछे से कुछ कड़े स्वर में पुकार कर कहा-”ओ पण्डितजी खड़े रहो।” पण्डितजी के पास दक्षिण के रुपये-पैसे भी थे। वे कुछ डरकर और तेज चाल से चलने लगे। डाकू ने दौड़ते हुए कहा-”पण्डितजी खड़े हो जाओ। यों भागने से नहीं बच सकोगे।” पण्डितजी ने देखा कि अब छुटकारा नहीं है। वे लाचार होकर ठहर गए। डाकू ने उनके पास पहुँचकर कहा-”देखिए पंडितजी! आप जिन कृष्ण-बलराम की बात कर रहे थे, उनके लाखों-करोड़ों के गहनों का वर्णन कर रहे थे, उनका घर कहाँ है? वे दोनों गौएँ चराने के लिए कहाँ जाते है? आप सारी बातें ठीक-ठाक बता दीजिए। यदि जरा भी टाल-मटोल की तो बस देखिए मेरे हाथ में कितना मोटा झण्डा है, यह तुरन्त आपके सिर के टुकड़े-टुकड़े कर देगा।”

पण्डितजी ने देखा, उसका लम्बा-चौड़ा दैत्य-सा शरीर बड़ा ही बलिष्ठ है। मजबूत हाथों में मोटी लाठी है, आँखों से कठोरता टपक रही है। उन्होंने सोचा हो न हो, यह कोई डाकू है। फिर साहस बटोर कर कहा, “तुम्हारा उनसे क्या काम है?” डाकू ने तनिक जोर देकर कहा-”जरूरत है।” पण्डितजी बोले-”जरूरत बताने में कुछ अड़चन है क्या?” डाकू ने कहा-”पण्डितजी मैं डाकू हूँ। मैं उनके गहने लूटना चाहता हूँ। गहने मेरे हाथ लग गए तो आपको भी अवश्य कुछ दूँगा। देखिए टालमटोल मत कीजिए, ठीक-ठीक बताइए।” पण्डितजी ने समझ लिया कि यह वज्रमूर्ख है। अब उन्होंने कुछ हिम्मत करके कहा-’तब इसमें डर किस बात काक है? मैं तुम्हें सब कुछ बतला दूँगा। लेकिन यहाँ रास्ते में मेरे पास पुस्तक देखकर सब ठीक-ठीक बतला दूँगा।” वह उनके साथ-साथ चलने लगा।

डेरे पर पहुँचकर पंडितजी ने किसी से कुछ कहा नहीं। पुस्तक बाहर निकाली और वे डाकू को भगवान की रूपमाधुरी सुनाने लगे। उन्होंने कहा-”श्री कृष्ण और बलराम दोनों के ही चरण कमलों में सोने के सुन्दर नूपुर हैं, जो अपनी रुनझुन ध्वनि से सबका मन मोह लेते हैं। दोनों की कमर में बहुमूल्य मोतियों से जड़ी सोने की करधनी शोभित है। हृदय पर कौस्तुभमणि झलमला रही है। ऐसी मणि जगत में और कोई है ही नहीं। कलाई में सोने के कंगन कानों में मणि कुण्डल, सिर पर मनोहर मोहन चूड़ा। उनकी अंगकान्ति के सामने करोड़ों सूर्यों की कोई गिनती नहीं। यमुना के तट पर वृन्दावन में कदम्ब वृक्ष के नीचे प्रायः उनके दर्शन मिलते हैं। वनमाली श्रीकृष्ण और हलधारी बलराम।”

सारा विवरण सुनकर उसने लाठी उठाकर कन्धे पर रखी और उत्तर दिशा की ओर चल पड़ा। वह उत्तर भी उसकी अपनी धुन का ही था। दूसरों के देखने में शायद वह दक्षिण ही जा रहा था। उसको इस बात का भी पता नहीं था कि उसके पाँव हरी दूब पर पड़ रहे हैं या काँटों पर।

चलते-चलते एक स्थान पर सुबह का धुँधलका होने को आया। उसने देखा, बड़ा सुन्दर हरा-भरा वन हैं एक नदी भी कल-कल करती बह रही है। उसने सोचा निश्चय किया, यही है, यही है! परन्तु वह कदम्ब का पेड़ कहाँ है? डाकू बड़ी सावधानी के साथ एक-एक वृक्ष के पास जाकर कदम्ब को पहचानने की चेष्टा करने लगा। अंत में वहाँ उसे एक कदम्ब मिल ही गया। अब उसके आनन्द की सीमा न रही। उसने सन्तोष की साँस ली और आस-पास आँखें दौड़ाई। एक छोटा-सा पर्वत, घना जंगल और गाओं के चरने का मैदान भी दिख गया। हरी-हरी दूब रात्रि के तीसरे प्रहर के स्वाभाविक अँधेरे में घुल-मिल गयी थी। फिर भी उसके मन के सामने गौओं के चरने और चराने वालों की एक छटा छिटक ही गयी। अब उसके मन में एक ही विचार था-कब सवेरा हो, कब अपना काम बने। वह एक-एक क्षण सावधानी से देखता और सोचता कि आज सवेरा होने में कितनी देर हो रही है। ज्यों-ज्यों चौथे प्रहर का धुँधलका घटता, त्यों-त्यों चौथे प्रहर का धुँधलका घटता, त्यों-त्यों उसकी चिन्ता, उद्वेग, उत्तेजना, आग्रह और आकुलता बढ़ती जाती। वह कदम्ब पर चढ़ गया और देखने लगा कि किसी ओर उजाला तो नहीं है। कहीं से वंशी की आवाज तो नहीं आ रही है? उसने अपने मन को समझाया- अभी सवेरा होने में देर है। मैं ज्यों-ही वंशी की धुन सुनूँगा, त्यों ही टूट पडूँगा। उसने पण्डितजी से सुन रखा था कि श्रीकृष्ण की प्रिय आदत में वंशी बजाना शामिल है। वे वंशी बजाए बिना रह नहीं सकते। इस प्रकार सोचता हुआ बड़ी ही उत्कंठा के साथ वह सवेरा होने की बाट जोहने लगा।

देखते ही देखते किसी ने प्राची दिशा का मुख रोली के रंग से रँग दिया। उसके हृदय की आकुलता और बढ़ गयी। वह पेड़ से कूदकर जमीन पर आया। परन्तु वंशी की आवाज सुनायी न पड़ने के कारण फिर उठकर कदम्ब पर चढ़ गया। वहाँ भी किसी प्रकार की आवाज सुनायी नहीं पड़ी। उसका हृदय मानो क्षण-क्षण फटता जा रहा था। अभी-अभी उसका हृदय विहर उठता, परन्तु यह क्या, उसकी आशा पूर्ण हो गयी। दूर-बहुत दूर वंशी की सुरीली स्वर लहरी लहरा रही है। वह वृक्ष से कूद पड़ा। हाँ ठीक है, ठीक है बाँसुरी ही तो है। अच्छा यह स्वर तो और समीप होता जा रहा है। दुर्जनसिंह आनन्द के आवेश में अपनी सुध-बुध खो बैठा और मूर्छित होकर धरती पर गिर पड़ा। कुछ ही क्षणों में उसकी बेहोशी दूर हुई। आँखें खुलीं वह उठकर खड़ा हो गया। देखा तो पास ही जंगल में एक दिव्य शीतल प्रकाश चारों ओर फैल रहा है। उस मनोहर प्रकाश में दो भुवन मोहन बालक अपने अंग की अलौकिक छटा बिखेर रहे हैं। गौएं और ग्वाल-बाल उनके आगे-आगे कुछ दूर निकल गए हैं।

भगवान श्रीकृष्ण और बलराम के पास पहुँचकर उनका स्वरूप देखते ही दुर्जनसिंह की चेतना लुप्त हो गयी। पैर लड़खड़ाए और वह गिर पड़ा। फिर उठा। कुछ देर तक टकटकी लगाए देखता रहा, आँखें आँसुओं से भर आयीं। फिर न मालूम क्या सोचा, हाथ में लाठी लेकर उनके सामने गया और बोला-”खड़े हो जाओ। सारे गहने निकाल कर मुझे दे दो।”

सम्मोहर मुसकान के साथ श्री कृष्ण बोले-”हम अपने गहने तुम्हें क्यों दें? दोगे कैसे नहीं? देखते हो मेरी इस लाठी की ओर।” चाहकर भी दुर्जनसिंह अपनी आवाज में कठोरता नहीं ला पाया।

“लाठी से क्या होगा?” प्रभु श्रीकृष्ण ने हँसी की छटा बिखेरी।

“अच्छा क्या होगा? गहना न देने पर तुम्हारा सिर तोड़ डालूँगा और क्या होगा?” दुर्जनसिंह के शब्दों में उसकी बेबसी साफ-साफ झलक रही थी। “कुछ भी करो, लेकिन हम लोग अपने गहने नहीं देंगे।” श्रीकृष्ण जैसे उसे चिढ़ाने पर तुले थे।

“ज्यादा जिद करोगे, तो कान पकड़ कर ऐंठूँगा और सारे गहने छीन-छान कर तुम्हें नदी में फेंक दूँगा।” डाकू दूर्जनसिंह ने अपनी आवाज में तेजी लाते हुए कहा।

प्रभु श्रीकृष्ण का अभिनय नाट्य भी जारी था। वे जोर से चिल्लाए “बाबा ओ बाबा।”

डाकू से झपटकर अपने हाथ से श्री कृष्ण के मुँह पर हाथ रखना चाहा, परन्तु स्पर्श करते ही उसके सारे शरीर में बिजली दौड़ गयी। वह अचेत होकर धड़ाम से धरती पर गिर पड़ा। कुछ क्षणों के बाद जब उसे चेत हुआ तब वह श्रीकृष्ण से बोला-”अरे तुम दोनों कौन हो? मैं ज्यों-ज्यों तुम दोनों को देखता हूँ त्यों ही त्यों तुम मुझे और सुन्दर, और मधुर, और मनोहर क्यों दिख रहे हो? मेरी आँखों की पलकें झपकना बन्द हो गयी हैं। न जाने क्यों, मुझे रोना आ रहा है, देखो तो मेरे शरीर के सब रोएँ क्यों खड़े हो गए हैं। जान गया, तुम दोनों देवता हो, मनुष्य नहीं हो।”

सृष्टि सम्मोहक मुसकान बिखेरते हुए श्रीकृष्ण कहने लगे-”अरे नहीं, नहीं हम भी मनुष्य हैं। हम ग्वाल-बाल हैं। हम व्रज के राजा नन्दबाबा के लड़के हैं।”

दुर्जनसिंह मुग्ध होते हुए बोला-”आहा! कैसी

मुसकान है! जाओ-जाओ तुम लोग गौएँ। चराओ। मैं अब गहने नहीं चाहता। मेरी आशा, दुराशा, मेरी चाह-आह सब मिट गयी। हाँ मैं चाहता हूँ कि तुम दोनों के सुअंग-अंग में अपने हाथों से और भी गहने पहनाऊँ। जाओ-जाओ। हाँ, एक बार अपने दोनों लाल-लाल चरणों को मेरे मस्तक पर रख दो। जरा हाथ इधर तो करा! मैं एक बार तुम्हारी स्निग्ध हथेलियों का चुम्बन करके अपने प्राणों को तृप्त कर लूँ। ओह, तुम्हारा स्पर्श कितना शीतल, कितना मधुर है। धन्य! धन्य!! तुम्हारे मधुर स्पर्श से हृदय की ज्वाला शान्त हो रही है। आशा-अभिलाषा मिट गयी। तुम लोगों को जहाँ भी जाना हो, अब तुम जाओ। मेरी भूख-प्यास मिट गयी। अब कहीं जाने की इच्छा नहीं होती। मैं यहीं रहूँगा। तुम दोनों रोज इसी रास्ते से आओगे न? एक बार केवल एक क्षण के लिए प्रतिदिन मुझे दर्शन देते रहना।

किसी दिन नहीं आओगे। दर्शन नहीं दोगे तो याद रखो मेरे प्राण छटपटाकर छूट जाएँगे।”

“अब तुम हम लोगों को मारोगे तो नहीं? गहने तो नहीं छीनोगे? हाँ, ऐसी प्रतिज्ञा करो तो हम लोग प्रतिदिन आ सकते हैं।” श्रीकृष्ण ने मुस्कराकर कहा। बलराम ने हामी भरी।

“प्रतिज्ञा? सौ बार प्रतिज्ञा! अरे भगवान की शपथ! तुम लोगों को मैं कभी नहीं मारूंगा। तुम्हें मार सकता हो, ऐसा कोई है जगत में? तुम्हें तो देखते ही सारी निष्ठुरता गायब हो जाती है। मन ही हाथ से निकल जाता है। फिर कौन मारे और कैसे मारे।” दुर्जनसिंह ने विह्वल होते हुए कहा।

“यदि तुम्हें हम लोग गहना दें तो लोगे?” भक्तवत्सल प्रभु ने कहा।

“गहना, गहना? अब गहने क्या अब तो कुछ भी लेने की इच्छा नहीं है।” दुर्जनसिंह की चाहत मिट चुकी थी।

“क्यों नहीं? ले लो। हम तुम्हें दे रहे हैं।” भक्तवत्सल प्रभु बोले।

“लेकिन मैं इनका करूंगा क्या? पर तुम्हारी बात टाली भी तो नहीं जा सकती। तुम जो भी आज्ञा दोगे करूंगा।” दुर्जनसिंह में समर्पण के स्वर जग रहे थे।

“तब ठीक है, तुम इन्हें ले जाओ।” श्रीकृष्ण ने कहा।

दुर्जनसिंह ने उनके हाथों से गहनों की पोटली लेते हुए कहा-”मैं फिर आऊँगा, लेकिन गहनों के लिए नहीं, तुम्हारा दर्शन पाने के लिए।”

अवश्य! प्रभु का यह शब्द सुनते ही आनन्द के समुद्र में डूबता-उतराता घर की ओर लौट पड़ा। दूसरी रोज रात के समय कथावाचक पण्डितजी के पास जाकर सब वृत्तान्त कहा और गहनों की पोटली उनके सामने रख दी। बोला-” देखिए देखिए पण्डितजी। कितने गहने लाया हूँ। आपकी जितनी इच्छा हो ले लीजिए। मुझे तो मारना-पीटना भी नहीं पड़ा। उन्होंने अपने आप ही से दे दिया। फिर उन्हें मैं मारने की सोचता भी कैसे? कितने प्यारे हैं जो वे।”

पण्डितजी तो यह सब देखकर-सुनकर चकित रह गये। उन्होंने बड़े विस्मय के साथ कहा-”मैंने जिनकी कथा कही थी, उनके गहने ले आया।”

दुर्जनसिंह कहने लगा-”तब क्या देखिए न, यह सोने की वंशी, यह सिर का मोहन चूड़ामणि।” पण्डितजी हक्के बक्के रह गये। बहुत सोचा, बहुत विचारा परन्तु वे किसी निश्चय पर नहीं पहुँच सकें। जो अनादि, अनन्त, पुरुषोत्तम हैं। बड़े-बड़े योगी सारे जगत को तिनके समान त्याग कर भूख, प्यास, नींद की उपेक्षा करके जीवन भर जिनके ध्यान की चेष्टा करते हैं, परन्तु दर्शन से वंचित रह जाते हैं। उन्हें यह डाकू देख आया। कुछ समझ में नहीं आता।

क्षण भर ठहर कर पण्डितजी ने कहा-”क्यों भाई! तुम मुझे उनके दर्शन करा सकते हों?” दुर्जनसिंह ने कहा-”क्यों नहीं, कल ही साथ चलिए न।” पण्डितजी पूरे अविश्वास के साथ केवल उस घटना का पता लगाने के लिए उसके साथ चल पड़े और दूसरे दिन नियत स्थान पर पहुँच गए। पण्डितजी ने देखा एक सुन्दर-सा वन है। छोटी-सी नदी बह रही है। बड़ा-सा मैदान और कदम्ब का वृक्ष भी है। यह ब्रज नहीं, यमुना नहीं है, पर है कुछ वैसा ही। रात बीत गयी, सवेरा होने के पहले ही दुर्जनसिंह ने कहा-”देखिए पण्डितजी! आप नए आदमी हैं। आप किसी पेड़ की आड़ में छिप जाइये। वह कहीं आपको देखकर न आए तो। अब प्रातःकाल होने में विलम्ब नहीं है। अभी आएंगे।” वह पण्डितजी से बात कर ही रहा था कि मुरली की मोहक ध्वनि उसके कान में पड़ी। वह बोल उठा”सुनिए-सुनिए पण्डितजी! बाँसुरी बज रही है। कितनी मधुर! कितनी मोहक! सुन रहे हैं न?” पण्डित जी अचकचाकर बोले-”कहाँ मैं तो कुछ नहीं सुन रहा हूँ।” “क्या तुम पागल हो गए हो,” दुर्जनसिंह ने चौंककर उन्हें देखा और कहा, “जरा ठहरिए, अभी आप उन्हें देखेंगे। रुकिए, मैं पेड़ पर चढ़कर देखता हूँ कि वह अभी कितनी दूर हैं।”

उसने पेड़ चढ़कर देखा और कहा-”पण्डितजी! पण्डितजी!!” पण्डितजी!!! अब वह बहुत दूर नहीं हैं।” उतरकर उसने देखा कि थोड़ी दूर पर वैसा ही विलक्षण प्रकाश फैल रहा है। वह आनन्द के मारे पुकार उठा-”पण्डितजी देखिए। वे रहे-वे रहे।”

“लेकिन मुझे तो कुछ नहीं दिखाई पड़ता।” अब तो उसे भारी आश्चर्य हुआ-” आप जंगल, नदी सब कुछ देख रहे हैं और उन्हीं को नहीं देख पाते, जिनकी आप कथा सुनाते हैं। तो क्या अब तक वे सारी बातें आप बिना देखे ही कहते थे।”

अब तक भगवान श्रीकृष्ण और बलराम डाकू दुर्जनसिंह के पास आकर खड़े हो गए थे। वह उनसे कहने लगा-”भाई मैं गहने लेने नहीं आया, जो तुमने दिए थे, वे भी तुम्हें लौटाने आया हूँ। तुम अपना सब ले लो। लेकिन भैया, ये पण्डितजी मेरी बात का विश्वास नहीं कर रहे हैं। यदि तुम इन्हें दिखाई नहीं दोगे, तो ये मेरी बात पर विश्वास कैसे करेंगे?” प्रभु श्रीकृष्ण उसे समझाते हुए कहने लगे-”मैं भावैक्यगम्य हूँ। सरल हृदय, निष्कपट विश्वास ही मुझे देखने की शर्त है। तुम परिस्थितिवश डाकू बने हो परन्तु तुम्हारा अंतर्मन निश्छल है, जबकि पण्डितजी नियमित मेरी कथा करते हैं, परन्तु उनके ध्यान में मैं नहीं अधिक से अधिक धन कमाना और सम्मान पाना रहता है। वह मुझे नहीं धनीमानी लोगों को रिझाने की कोशिश करते हैं। विश्वास न हो रहा हो तो उनसे पूछकर देखो।”

दुर्जनसिंह ने पण्डितजी से सारी बातें पूछीं, जिसे उन्होंने रोते हुए सत्य स्वीकार किया। उन्हें आज मालुम हो रहा था, ईश्वर-दर्शन की पात्रता चतुर बुद्धि नहीं सरल हृदय है। उन्होंने पश्चाताप के स्वरों में कहा-”भाई तुम किसी तरह भगवान की एक झाँकी हमें दिखा दो।” दुर्जनसिंह के भगवान से निवेदन करने पर उन्होंने हँसकर कहा-”अच्छी बात है, तुम मुझे पण्डितजी को एक साथ स्पर्श करो।” उसके ऐसा करते ही मानो पण्डितजी के कर्मों का प्रायश्चित हो गया। उन्होंने मुरली-मनोहर की दिव्य झलक प्राप्त कर ली। इस घटना के बाद दुर्जनसिंह-जगन्नाथ दास गोस्वामी बनकर प्रभु और उनके भक्तों की सेवा में तल्लीन हो गया। पण्डितजी भी स्थान-स्थान पर भगवत् कथा का मर्म समझाते हुए जनमानस को यह बताने लगे कि निश्छल विश्वास, सरल हृदय, निष्कपट भावना डाकू को भी सन्त बना देती है।


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