धारावाहिक स्तम्भ- - जिज्ञासाएँ आपकी-समाधान हमारे

June 1997

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महानगरों के व्यस्त जीवन के दौरान स्नान शुद्धि, समय-काल तथा भोजनादि का उतना नियमन नहीं हो सकता। क्या यह नियम शिथिल नियम हैं? अर्थात् बिना स्नान किए कभी भी दिन-रात्रि में गायत्री मंत्र दोहराया जा सकता है?

गायत्री महामंत्र एक ऐसा मंत्र है जिसे कभी भी, किसी भी समय, कहीं भी मानसिक जप को रूप में सम्पन्न किया जा सकता है। जिस वातावरण में जप किया जा रहा है, कम से कम उसकी शुद्धि और पवित्रता का ध्यान तो रखा ही जाना चाहिए। मानसिक जप कभी भी, किसी भी स्थिति में चल सकता है एवं जब भी ऐसा समय मिले यथा-बस में बैठे हुए, रेल यात्रा के दौरान अथवा प्रतीक्षारत कहीं बैठना पड़े तो मानसिक जप सतत् चलता रह सकता है। विधि-विधान के द्वारा जप-अनुष्ठान करना हो तो स्थान नियत कर षट्कर्म के बाद जप करना चाहिए। ब्रह्ममुहूर्त सहित तीनों संध्याओं में किए गए जप का निश्चित ही फल मिलता है। यदि वह भावार्थ पर ध्यान लगाकर किया हो, किन्तु यदि यह समय मर्यादा यदि संभव न हो तो इसे नित्य न्यूनतम करते रहने का नियम तोड़ना नहीं चाहिए, चाहे जब भी यह संभव हो। रात्रि की ड्यूटी होने, बीमारी की स्थिति, यात्रादि के कारण रुटीन की अस्तव्यस्तता होने पर जब समय मिले, थोड़ा मानसिक शुद्धि-पवित्रता का भाव मन में रख ध्यान को तल्लीनता की स्थिति में लाकर न्यूनतम एक माला का जप तो करना ही चाहिए। हो सके तो एक माला (छह मिनट) आत्म-कल्याण हेतु, एक लोककल्याण हेतु एवं एक संधिकाल की विषम परिस्थितियों के निवारणार्थ की जानी चाहिए। श्रद्धा-विश्वास, आचार-विचार, नियमितता इन चार नियमों का पालन करने से जप निश्चित ही फल देने लगता है। महानगरों, शहरों का व्यस्त कभी भी जप न कर पाने का या मानसिक जप न करने का कारण नहीं बनना चाहिए।

‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका में योग प्रशिक्षण-योग थैरेपी-प्राकृतिक चिकित्सा आदि पर सामग्री कम देखने में आती है। इसे भी कुछ अंशों में देते रहने का प्रयास करें।

‘योग’ शब्द का जहाँ अर्थ दार्शनिक परिप्रेक्ष्य में हैं, वहाँ अखण्ड ज्योति की पूरी विषयवस्तु उसी धुरी पर केन्द्रित हैं। योग चिकित्सा, प्राकृतिक चिकित्सा आदि पर नियमित स्तम्भ तो पत्रिका में नहीं है, पर अब अगले दिनों यह प्रयास रहेगा कि यह पक्ष भी किसी न किसी रूप में विषयवस्तु में समाविष्ट रहे। आहार-विहार, यम-नियम आदि पक्षों को तो समय-समय पर दिया जाता रहा है। वस्तुतः ‘अखण्ड ज्योति’ की विषय सामग्री जैसा परमपूज्य गुरुदेव निर्धारित कर गए हैं। उसी के अंतर्गत दी जाती रही है। प्राकृतिक चिकित्सा जैसा विषय पंचतत्वों के परिप्रेक्ष्य में कभी-कभी दिया जा सकता है, पर मूलतः यह शारीरिक स्वास्थ्य से सम्बन्धित है, स्थूल विकारों की शुद्धि से इसका सम्बन्ध है। मनोविकारों से मुक्ति, उनकी चिकित्सा एवं आस्था-संकट निवारण द्वारा अध्यात्म के विभिन्न पक्षों का प्रतिपादन अखण्ड ज्योति की विषय परिधि के अंतर्गत आता है, किंतु अब चूँकि पाठकों ने माँग की है। योग के बहिरंग पक्ष को भी चिकित्साक्रम से जोड़ते हुए देते रहने का प्रयास करेंगे।

आप यदि विदेशी घटनाओं की चर्चा अपने लेख में करते हैं व उद्धरण देते हैं तो मैं नहीं सोचता कि यह आलोचना का विषय होना चाहिए। अच्छे प्रसंग जहाँ से मिलें, लेने चाहिए। देश-विदेश की सीमाएँ नहीं देखनी चाहिए। अतः अपना निर्णय पूर्ववत ही रखें। भारतीय संदर्भ भी जहाँ। अनिवार्य है, देते रहें।

उपर्युक्त टिप्पणी के विषय में हमें यही कहना है कि हमारा प्रयास पूरा रहता है कि उदाहरणों के माध्यम से व्यक्ति का चिंतन श्रेष्ठता की ओर बढ़े, चाहे वे विदेशी हों अथवा भारतीय। चूँकि विदेशी उदाहरण प्रचुर परिमाण में पूर्ण प्रामाणिकता के साथ मिल जाते हैं, अपने प्रतिपादनों की साक्षी में देने में कठिनाई नहीं होती। भारतीय उदाहरण मिलते कम हैं, उनकी प्रामाणिकता संदिग्ध होती है एवं उनके क्रमबद्ध संकलन का अभी कोई भारत व्यापी तंत्र नहीं बन पाया हैं। अपना प्रयास यही है कि दोनों के बीच तालमेल बने। आपकी टिप्पणी से हमें बल मिला है एवं प्रयास रहेगा कि पाठकों को श्रेष्ठतम सामग्री द्वारा युग चिन्तन से अनुप्राणित कर सकें।

अखण्ड ज्योति के लेख-सामग्रियाँ निश्चित ही श्रेष्ठतम स्तर में हैं, किंतु पत्रिका ‘ओल्ड मॉडल’ (महावीर प्रसाद द्विवेदी युगीन) जैसी है। इसे युगानुरूप पत्रिका की शक्ल में विभिन्न स्तम्भों में

बाँटकर उनके उपशीर्षक ऊपर देकर लिखना चाहिए। सुझाव को अन्यथा न मानें, कई उपशीर्षक लिख रहा हूँ।

‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका साहित्य स्टाल पर बिकने वाली आम पत्रिकाओं से अलग है। इसी कारण इसके कुछ स्तंभ ही नियमित व उपशीर्षकों के साथ होते हैं। विविधता के साथ-साथ लोक-शिक्षण मूल उद्देश्य है। जीवन जीने की कला का शिक्षण चाहे एक कथानक के माध्यम से मिले अथवा वैज्ञानिक अध्यात्मवाद प्रधान एक लेख से, देने का प्रयास किया जाता है। आपने ढेरों उपशीर्षक दिए हैं। हम प्रयास करेंगे कि उन विषयों को भी इसी परिधि में ले लें, किंतु इसे आम पत्रिकाओं जैसा स्वरूप नहीं दे सकेंगे। यह हमारी विवशता नहीं, अपितु वह नीति है जिस पर हम चल रहे हैं एवं जो पाठकों द्वारा एक विशिष्टता के रूप में स्वीकार कर हृदयंगम की जाती रही है। आशा है आप भी इस तथ्य को भली-भाँति समझ रहे होंगे।


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