बुद्धि संवेदना की अनन्तता में प्रतिष्ठित हुई

June 1997

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

तेजोदीप्त वदन। लम्बे श्वेत केश-घुटनों तक प्रलम्ब बाहु। एक हाथ में कमण्डल। पैरों में खड़ाऊँ। ललाट पर प्रचण्ड तिलक। रोम-रोम सफेद हो चला था। आयु का हिसाब न तो इनके पास और न देवों को ही ज्ञात है। भूत-भविष्य, वर्तमान, पृथ्वी, पाताल और अन्तरिक्ष ऐसा कोई काल और लोक नहीं, जहाँ इस तपस्वी की गति न हो।

वर्षों के बाद उनकी समाधि आज टूटी थी। एक रहस्यमयी मुसकान के साथ आज वह हिमालय के आँगन से बाहर निकले थे। कहाँ? किस ओर? इसका अनुमान कोई लगा पाता इसके पहले वह कपिलवस्तु के राजमहल के द्वार तक पहुँच चुके थे। उनके खड़ाऊँ की खाद-खट् सुन दास-परिचायक चौंके। देखते-देखते राजमहल में खबर पहुँच गई कि हिमालय से कोई महायोगी द्वार पर पधारे हैं।

महाराज शुद्धोधन ने मन्त्रियों के साथ स्वयं द्वार पर आकर उन्हें प्रणाम किया। प्रणाम में त्रिकालदर्शी ऋषि ने एक रहस्यमयी मुसकान के साथ महाराज से कहा-”पुत्र जन्म पर बधाई राजन्।”

“अन्दर चलकर शिशु को अपना मंगल आशीर्वाद दें प्रभु।” “ चलो!” इस शब्द के साथ महर्षि कालदेवल रनिवास की ओर चल पड़े, जहाँ महारानी माया देवी अपनी गोद में देवोपम शिशु को लिए बैठी थी। महर्षि के आसन ग्रहण करने के बाद राजा ने शिशु को महारानी की गोद से लेकर ऋषि को दिया। ऋषि की दृष्टि बालक के भोले मुखमण्डल पर टिक गयी। लगा कि समय जैसे थम गया। क्या नहीं था महर्षि की उस दृष्टि में, काल की सीमाओं को भेदती वह दृष्टि कुछ अद्भुत और अलौकिक को प्रत्यक्ष कर रही थी।

कुछ पलों के अनन्तर महर्षि के मुख से कुछ अस्पष्ट स्वर निकले-”तुम धन्य हो राजन्। धन्य है वह माँ, उसकी कोख से इसने जन्म लिया, धन्य है वह धरती जहाँ इसकी बाल-क्रीड़ाएँ होंगी। धन्य होंगे वे लोग जो इसके आश्चर्यमय जीवन के साथी होंगे।” “ऐसा क्या है इस बालक में ऋषिवर!” प्रश्नकर्त्ता के मुख पर आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता के भाव थे।

“क्या नहीं है, इसमें? यह बालक असाधारण है। भविष्य में यह बोधिवृक्ष की छाया में बुद्धत्व प्राप्त करेगा और संसार को समस्त प्राणियों को सत्य, अहिंसा, क्षमा, शान्ति, मैत्री, करुणा का सन्देश देगा। यह प्रथम बार मनुष्य के स्वभाव की बदलकर हिंसा से अहिंसा की ओर ले जाएगा। इसके प्रत्येक पद से भूलोक में क्रान्तियाँ जन्मेगी और परिवर्तन के भूचाल आएँगे। इसकी दृष्टि से करुणामृत का वर्णन होगा और इसके प्रत्येक संकेत से शान्ति का स्त्रोत बहेगा। यह धर्म राज्य का चक्रवर्ती होगा महाराज।”

“तो क्या यह संन्यासी बनेगा, ऋषिवर?”

“सामान्य संन्यासी नहीं, सम्यक् सम्बुद्ध। क्षत्रियों के दिग्विजय के स्थान पर धर्म विजय करेगा। कल्प-कल्पान्तों तक इसके धर्म की शरण में व्यक्ति और समाज, शान्ति और सुरक्षा ग्रहण कर अभय होंगे।” ऋषि बोलते जा रहे थे, परन्तु महाराज शुद्धोधन ने जैसे कुछ सुना ही न हो, उनका मन ‘संन्यासी’ शब्द में अटक कर रह गया। महर्षि उनको सोचता छोड़कर किसी अज्ञात दिशा की ओर चल दिए।

‘संन्यासी’ तो क्या घर-बार छोड़कर..... कल्पना को इस उफान को उनके अन्तःकरण की दृढ़ इच्छाशक्ति ने टुकड़े-टुकड़े कर दिया। नहीं वह ऐसा नहीं होने देंगे। शिशु का पालन इतनी सुविधाओं में होगा कि उसे कभी वैराग्य न हो। वैभव और विलास की अर्गलाओं से वह उसे जकड़ देंगे।

क्षण, पल, घड़ी, दिवस, मास, वर्ष के साथ उनका संकल्प मूर्त होने लगा। कुमार सिद्धार्थ के लिए साधन-सुविधाओं के अम्बार लगा दिए गए। युवावस्था होते-होते उसका विवाह अप्रतिम सुन्दरी से हो गया।

रूप, यौवन एवं विलास कुमार सिद्धार्थ इन सबसे चारों ओर घिरा था। सारा दिन नृत्य-गीत में व्यतीत हो जाता। वीणा की एक झंकार ऊषा की पलकें खोलती और दूसरी झंकार रात की पलकें मूँद लेतीं। संगीत की स्वर-लहरियों के साथ यौवन और विलास उसके रोम-रोम को बींध रहा था। इन सारे विलास-सुखों से घिरे कुमार सिद्धार्थ न जाने रह-रहकर विह्वल हो उठते थे। एक अनचाही घुटन उन्हें तड़पाए जा रही थी। बिजली की कड़क और चमक की तरह एक सवाल उनके मन में कौंध उठता, आखिर क्या हैं, जीवन? क्या यही अथवा कुछ और?

इस घुटन से उबरने के लिए एक दिन उसने वन भ्रमण का निश्चय किया। आज पहली बार वह राजमर्यादाओं के आडम्बर को परे हटाकर भ्रमण हेतु निकले थे। साथ में था सारथी-जिसके मुख से सवाल उभरा-किधर चलूँ देव। इस प्रश्न ने उनकी विचार-मग्नता को भंग किया। चौंक कर बोले-वन की ओर चलो।

शब्दों के साथ रथ भाग चला। साथ ही कुछ पल ठहरी विचार-शृंखला भी। तो क्या जीवन निरुद्देश्य है। यदि उद्देश्य है तो फिर क्या? प्रश्न उसके मन को मथ रहे थे। वह सब कुछ तो था उसके पास, जिस अधिकतम की संसार में कामना की जाती है, फिर भी कुछ अभाव खटक रहा था।

अचानक वह अचकचा गया। सामने एक जर्जर व्यक्ति पथ को मध्य सामने एक जर्जर व्यक्ति पथ के मध्य खड़ा था। पोपला, झुर्रीदार चेहरा, सिर पर श्वेत केश, जो झड़कर दोहरा हुआ जा रहा शरीर, धँसी आँखें। हाथ से पकड़ी लकड़ी के सहारे काँपते हुए स्वयं को सँभालने की कोशिश कर रहा था। निर्बलता के कारण हटना चाहकर नहीं हट सका था।

“सौम्य। इसे क्या हो गया?” उसने सारथी से पूछा।

“प्रभु! इसे बुढ़ापा हो गया है।”

“क्या यह भी दरिद्रता की कोई यातना है?”

“नहीं आर्य।” छन्दक ने मुस्कराकर महाकुमार की ओर देखते हुए कहा-”इसके सामने धनी और निर्धन दोनों समान है। वैभव का अतिरेक विलासिता की बाढ़ इसे रोकने की बजाय कहीं अधिक शीघ्र इसे आकर्षित कर लेती है।”

“तो क्या धनी भी एक दिन वृद्ध बन जाने पर यही कष्ट भोगते हैं।”

“हाँ आर्य, जन्म लेने वाले इस दशा को भी प्राप्त होते हैं।”

हठात् सिद्धार्थ ने कहा “छंदक।”

“आर्य।”

“रथ लौटा लें।”

“कहाँ चलूँ देव?”

“प्रसाद।”

मानो राजमहल उस वास्तविकता की भयानकता के विरुद्ध एक पलायन था। वहाँ तो ऐसा कुछ नहीं था। छंदक ने लगाम खींची, घोड़ों को मोड़ा और रथ राजमहल की ओर लौट चला।

जिस समय सिद्धार्थ रथ से उतरा उसका मुँह उतरा हुआ था। राजा शुद्धोधन ने देखा तो कहा-”तात्।”

सिद्धार्थ ने अवाक् दृष्टि से देखा। “क्या हुआ वत्स। तू कहाँ गया था और क्यों लौट आया?”

सिद्धार्थ ने उँगली उठाकर शुद्धोधन की ओर न देखकर सुदूर से आने वाले स्वर में कहा-”आर्य! आप भी, पितृव्य अमृतोदन भी और अन्त में मैं भी...........।”

“क्या हुआ वत्स?” राजा चौंक उठा।

“पिता ।” सिद्धार्थ ने कहा और फिर बड़बड़ाया “और फिर एक दिन यशोधरा भी....”

शुद्धोधन की हड्डियाँ काँप गयीं। बोले “पुत्र क्या

हुआ?” “कुछ नहीं आर्य!” सिद्धार्थ ने कहा “आपको चिन्ता नहीं होती?” “किसकी?”

“बुढ़ापे की। जो आने वाला हैं?” इतना कहकर वह किसी चिन्ता में डूब गए।

एक पल को चुप रहकर शुद्धोधन बोले-”पुत्र! यह सब चिन्ता न कर जीवन में जो मिला है उसे भोग। तू मेरा सबसे प्रिय है।”

सिद्धार्थ भीतर चला आया था और जब विशाल प्रकोष्ठ में पहुँचा तो उसे लगा कि वह शिथिल था। भद्रा कापिलायिनी शाक्य कुलनारियों के साथ थी।

रात्रि के मंगल वाद्य बजे थे। रूप और यौवन की मोहक किरणें कुमार को लुभाने लगीं। लेकिन आज वह अन्यमनस्क था। भोर होते ही वह फिर वन की ओर चल पड़ा। फिर तुरंग भाग रहे थे, छन्दक रथ हाँक रहा था। अचानक कोलाहल मचा-”मर गया, मर गया।”

सिद्धार्थ चौंका। छन्दक ने घोड़ों की लगाम को पूरे बल से खींच लिया। रथ डाँवाडोल हो गया।

देखा, एक क्षीणकाय व्यक्ति असह्य यातना में तड़प रहा था। भय से पथ पर गिर गया था। वह काला था। चमड़ा हाथ पर सड़ा-सा लगता था।

सिद्धार्थ ने देखा कि पथ के रक्षक ने चिल्लाकर कहा-”देखता नहीं। महाकुमार का रथ जा रहा है और तू..।”

“ठहर जाओ!” सिद्धार्थ ने रथ से उतर कर कहा।

सबने अभिवादन किया। रक्षक पीछे हट गया। उस व्यक्ति के रूप को देखकर सिद्धार्थ को लगा वह मनुष्य नहीं था पशु था। वह हाथ उठाकर कुछ घिघियाया, लगा जैसे मर्मान्तक वेदना से वह कराह रहा था।

सिद्धार्थ रथ पर लौट गया। उसकी आँखों में दया, घृणा, भय, जुगुप्सा क्या-क्या नहीं थे।

“देव! चलूँ?” छन्दक ने पूछा।

“हाँ।” सिद्धार्थ ने कहा-”छात्र”

“महाप्रभु!”

“यह कौन था, छन्न? यह कौन था? क्या यह भी मनुष्य था?” सिद्धार्थ का स्वर कंपित था।

छन्दक ने कहा था, “स्वामी। आपका हृदय बहुत कोमल है। यह तो एक रोगी है।”

“रोग।” सिद्धार्थ ने कहा था। “क्या यह भी दारिद्रय का प्रसाद है?” “नहीं देव। रोग धनी-दरिद्र नहीं देखता, जो भी इसकी चपेट में आ जाता है, यह उसे दबोच लेता है। बड़े से बड़े सौंदर्य भी इसकी एक ठोकर में ढीले हो जाते हैं, जीवनपर्यंत कराहते हैं। उनके लिए दुःख-सुख नहीं केवल यातना होती है।”

“ऐसा क्यों होता है छन्दक?”

“देव! कर्मफल है यह?”

“लौट ले छन्दक! लौट चल।”

लौटकर सिद्धार्थ ने शय्या में मुँह छिपा लिया। आज रंगशाला में नर्तकियों की खिलखिलाहट उसे लुभा नहीं सकी। यशोधरा के विविध हाव-भावों के बीच वह घुटन महसूस करने लगा था। वह व्याकुलता से सोच रहा था धनी भी, दरिद्र भी और इस विषम संसार में जातियों के अहंकार और घृणा में वह कौन-सा रास्ता है जहाँ। मनुष्य-मनुष्य समान है। यह सब नष्ट कहाँ होगा? मनुष्य सुखी कैसे हो सकेगा? इस सोच-विचार में कब भोर हो गयी, पता ही न चाल। भोर होते ही वह फिर निकल पड़ा। महार्ध उत्तम अलंकारों से शोभित रथ को सैंधव तुरंग अपने श्वेत शरीर को फड़काते हुए बढ़ा चले।

अचानक उसके कानों में रुदन के स्वर पड़े और उसे लगा कि आकाश फट जाएगा? अतलंत गहन में से वेदना के ज्वालामुखी फूटे पड़ रहे थे।

“सारथी।” उसने पुकारा।

“प्रभु।”

“यह क्या है? वे पुरुष कन्धों पर क्या उठाए लिए जा रहे हैं?” “देव! वह मुर्दा है।”

“मृत्यु का नाम तो सुना था, परन्तु देखा नहीं था छन्दक। लेकिन मौत तो इसे ले गयी, लेकिन ये क्यों रो रहे हैं।” “कुमार! स्नेह की अर्गलाओं के तड़कने से किसका हृदय व्याकुल नहीं हो उठता। मनुष्य अपने स्वार्थ से दूसरे के जीवन और मृत्यु का

मोल करता है।”

“वैसे नहीं?”

“नहीं प्रभु। ऐसे यदि हर मरते के लिए आदमी रोने लगे तो जिए कब। सब मरते हैं।” “हाँ प्रभु। रथ बढ़ाऊँ?”

“नहीं, ठहर छन्न! तूने मुझसे पहले क्यों न कहा?”

“देव!” छन्न सकपकाया। कहा-” आर्य राजा से न कहें स्वामी!”

“क्यों?”

“वे कहेंगे पुत्र को तूने दुखी क्यों किया?”

“मैंने पढ़ा है छन्न। मैंने पहले सुना है।”

“सुनना और बात है, देखना और बात है।”

“छन्न! संसार में जो आते हैं, वे जाते भी हैं। आकर जाने वाले डरते क्यों नहीं।?”

छन्दक ने कहा “प्रभु मैं क्या जानूँ? परन्तु इतना अवश्य है कि श्मशान में जाने पर सभी को लगता है, यह संसार व्यर्थ हैं।”

“छन्दक, श्मशान कैसा होता है?”

“प्रभु। बड़ा दारुण होता है वहाँ का दृश्य है।”

“कैसा होता है?”

“लाशें जलती हैं।”

“कौन जलाता है?”

“वह जलाता है प्रभु, जो उसका सम्बन्धी और प्रेमी होता है।” “वह इतना कठोर कैसे हो जाता है, छात्र? जिससे प्रेम करता है, बात करता है, उसे वह इतना हृदयहीन होकर जला कैसे देता है?”

“देव! वह उसे नहीं जलाता। जिसे जलाता है, वह तो मुर्दा होता है, वह तो मिट्टी के समान हो जाता है।”

“कितनी भीषण है यह उलझन। इसमें अधिकार, धन, यश कुछ भी नहीं कर सकता?”

“नहीं कुमार! असमानता के इस संसार में इस मृत्यु ने ही सबको समान करके दिखा दिया है।”

“लौट चल, छन्दक।” सिद्धार्थ ने पुकार कर कहा-”लौट चल।”

रथ राजमहल की ओर मुड़ चला। राजमहल पहुँचने पर मंगल वाद्यों से उसका स्वागत हुआ। आज वहाँ सभी प्रसन्न थे। चारों ओर राग-रंग की धूम थीं। दास-दासियों से लेकर राजकर्मचारियों तक ने उसे पुत्र जन्म की बधाई दी।

ओह! तो यह सब उसके पुत्र जन्म के उपलक्ष में था। अन्तःपुर में प्रवेश करने पर यशोधरा उसे मिली। उसके मुखमण्डल पर प्रसन्नता थिरक रही थी।

दिन भर का थका वह पलंग पर सो गया। आधी रात होने के पहले ही अचानक वह जाग उठा।

क्या वह सो रहा था? वह क्या था। उसका स्वप्न था।

वृद्ध, रोगी सिद्धार्थ घूम रहा था। यशोधरा मृत पड़ी थी। प्रासाद में हाहाकार मच रहा था।

कितना भयानक था वह स्वप्न।

आज आनन्द की अखण्ड वेला में वह भीषण यातना का स्वप्न। सिद्धार्थ का मन धड़क उठा। उसने आस-पास देखा। कक्ष में अनेकों सुन्दरियाँ एक दूसरे से गुँथी-बँधी सो रही थीं। वह सोचने लगा बाँधने के लिए कितनी अर्गलाएँ हैं यह और मनुष्य इन्हीं कड़ियों से प्यार करता है। आखिर क्यों?

यह रूप नहीं रहेगा, बुढ़ापा इस सौंदर्य को ऐसा ढीला कर देगा कि इन्हें देखकर घृणा होने लगेगी। रोग, काले कुरूप रोग आकर इन सुन्दरियों को डस लेंगे और तब यह साँप के विष जैसी यन्त्रणा में छटपटाने लगेगी और फिर मृत्यु इनका रक्त चूसने लगेगी। मृत्यु सर्वग्रहिणी, सर्वनाशिनी, सर्वव्यापिनी मृत्यु आएगी और इन सबको अपने जबड़ों में चबा-चबा कर फेंकेगी।

तब क्या यही जीवन है, वासना, विलास, ऐश्वर्य, मरण और नाश। सोच-सोचकर उसका सिर फटने लगा।

उसने द्वार के पास आकर कहा “यहाँ कौन है?”

कोई नहीं बोला।

सब सो रहे हैं। उसने सोचा। प्रासाद नितान्त नीरव था। उसने फिर पुकारा-”कोई है?”

छन्दक जागकर बोला “आर्यपुत्र मैं छन्दक हूँ।”

“मेरे लिए एक अश्व तैयार कर।” स्वर अजीब था।

“इस समय देव।”

“अभी।”

छन्दक डरा परन्तु प्रश्न का साहस नहीं हुआ। कहा-”जो आज्ञा देव, अभी लाता हूँ।”

सिद्धार्थ का हृदय धक-धक कर रहा था। कुछ ही देर में जब छन्दक अश्व कंथक को सजाकर लाया तो देखा सिद्धार्थ नहीं है। फिर देखा आर्य पुत्र धीरे-धीरे आ रहे हैं। वह आगे आ गया। कहा “देव। अश्व आ गया है।” सिद्धार्थ गम्भीर था। अब वह घबराया हुआ-सा नहीं लग रहा था। राहुल और यशोधरा के पास से लौटा हुआ वह एक नया व्यक्ति था।

एक ऐसा व्यक्ति जो जीवन को नया अर्थ देने के लिए संकल्पित था। आषाढ़ की पूर्णिमा को उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में आज की घड़ी अमूल्य थी। आज उसने महाभिनिष्क्रमण करना था। आत्म-कल्याण, लोककल्याण के लिए सर्वत्याग।

प्रियजन-परिजन, राजमहल, नगर सब कुछ छूटने लगे। धीरे-धीरे शाक्य, कोलिय और रामग्राम के राज्य पार हो गए।

कंथक और छन्दक को वापस लौटा दिया। लेकिन कंथक अपने स्वामी का वियोग न सह सका और उसी समय सदा के लिए पृथ्वी पर गिर गया। छन्दक भरे मन से आँसू भरी आँखों को लिए अपने कदम कपिलवस्तु की ओर बढ़ाए।

फिर सिद्धार्थ का जीवन एक यात्रा बन गया।

कठोर तपस्या में छह वर्ष बीत गए। आज वह

रिर्रजना नदी के किनारे एक विशाल बरगद की छाया में बैठे थे। उसी समय उरुवेला के सेनानी नामक कस्बे से सुजाता खीर लेकर आयी।

उन्होंने उन्वास कौर बनाकर वह खीर खाई और थाल को निरंजना के जल में फेंक दिया। अब वह संकल्पित थे कि बुद्ध होकर ही यहाँ से हटेंगे।

वटवृक्ष की छाया, पद्मासन पर बैठे हुए क्षण बीतने लगे। ध्यान दिनों-दिन गम्भीर होता जा रहा था और बैशाख पूर्णिमा की रात्रि में जब सारा संसार निद्रा की गोद में पड़ा आनन्द ले रहा था। सिद्धार्थ की इन्द्रियाँ, उनका मन, उनकी सम्पूर्ण चेतना अहंभाव से ऊपर उठकर अनन्त के विस्तार में फैल गयी। वे अब बुद्धि की संकीर्ण परिधि से निकलकर संवेदना की अनन्तता की अनुभूति कर रहे थे। समाधि के इस आनन्द में स्वयं का अस्तित्व निर्मल, स्वच्छ, धुला हुआ, शान्त-सन्तुष्ट लग रहा था। भेद की दीवारें ढह चुकी थीं। कण-कण उनका अपना हो चुका था। समाधि निमग्न बुद्ध ने आँखें खोलीं। उनके नेत्रों में असीम करुणा जाग उठी। एक दिव्य रागिणी के समान आकाश में ऊषा उदित हुई। उस दिन नए आलोक ने नया ही जीवन देखा।

बुद्ध उठ खड़े हुए-मानवता को बुद्धि के चक्रव्यूह से निकाल कर संवेदना की अनन्तता में प्रतिष्ठित करने। वह धीरे-धीरे चल पड़े। उनके पाँव धीरे गम्भीर गति से उठने लगे। नंगे पाँव मानो धरती की धूलि में क्षणिक जीवन की पर्तों पर करुणा की अमरता का जीवित संदेश लिखने के लिए बढ़ चलें।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118