अन्यान्य ग्रहों के हमारे परिजन हमसे मिलने को बेताज हैं।

June 1997

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पिछली कई शताब्दियों से लोक-लोकान्तर के निवासियों द्वारा पृथ्वी के निवासियों से संपर्क स्थापित करने की बात प्रकाश में आ रही है। इसके लिए विशिष्ट यान जिसे उड़नतश्तरी कहा जाता है-को देखने के रूप में कई घटना-क्रम प्रकाश में आए। लाखों लोगों ने आकाश में उड़ने वाली ऐसी वस्तुओं को देखा जिन्हें वे पहचान नहीं सके कि वह क्या है? अनेकों ने इसके बारे में विस्तार से लिखा है कि वह उल्कापात, ग्रह, तारा-समूह, मौसमी गुब्बारा, गैस का गोला या पर्यावरण असंतुलन से उत्पन्न चिह्न के रूप में अनुभव किया गया। इसके अतिरिक्त जिन्होंने इसे विशिष्ट रूप में अनुभव किया वह सत्यतः अवर्णनीय है। इसी कारण वैज्ञानिकों ने इसे यू. एफ. ओ. ‘अन आइडेन्टिफाइड फ्लाइंग आब्जेक्ट’ (अनजानी अड़ने वाली वस्तुएँ या तश्तरियाँ) की संज्ञा दी। यह सत्य है कि उड़नतश्तरी या सिगार आकार के इन अजूबों को अनेकों नर-नारियों ने न केवल देखा, अपितु उसे अनुभव भी किया है। कई वैज्ञानिकों ने रडार द्वारा उसका परीक्षण भी किया। इसके श्वेत-श्याम फोटो एवं वीडियो भी लिए गये। कभी यह यान नीचे उतर रहा था तथा ऊपर चढ़ रहा था, इस कारण से चंद मिनटों में मनुष्य की यंत्रीय पकड़ की गति से भी तेज उड़ गया। इस कारण से चंद मिनटों में मनुष्य की यंत्रीय पकड़ की गत से भी तेज उड़ गया। इसने कभी भी किसी का नुकसान नहीं पहुँचाया, किन्तु अपनी अलौकिकता एवं पहुँचाया, किन्तु अपनी अलौकिकता एवं विशिष्टता के कारण वैज्ञानिकों के सामने सृष्टि एवं भौतिकी के नियमों को चुनौती दी है और सोचने के लिए बाध्य कर दिया है कि जितना हम देखते हैं, अनुभव करते हैं, यंत्रीय खोज के ढिंढोरे पीट रहे हैं वह पूर्णता की खोज नहीं है अपितु लोक-लोकान्तरों में इससे भी अधिक प्रगतिशील वैज्ञानिक जगत के अस्तित्व का स्वरूप उभर कर आ रहा है।

पिछले दिनों विश्वभर के वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों, दार्शनिकों, मनोवैज्ञानिकों ने यू. एफ. ओ. की अलग-अलग व्याख्याएँ प्रस्तुत की हैं। 1977 में अमेरिका एयर फोर्स द्वारा ‘यूनिवर्सिटी ऑफ कोलोरेडो- एवं ‘अमेरिकन एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ साइंस’ के प्रमुख एवं भौतिक विज्ञानी डॉ एडवर्ड कोडोन के नेतृत्व में एक दल का गठन किया गया। विशिष्ट शोध के लिए उन्होंने 59 घटनाओं में से 23 प्रमुख घटनाओं को लिया। 1969 की अंतिम रिपोर्ट में उनने 21 वर्ष की घटनाओं के बारे में वैज्ञानिक टिप्पणी प्रस्तुत करते हुए कहा, “इसका वैज्ञानिक परिणाम भले ही भविष्य में निकले, किन्तु अभी तक के परिणाम यही बताते हैं कि अन्य ग्रहों में जीवन है, जो भ्रमण के दौरान अपनी उपस्थिति का आभास समय-समय पर देते हैं। इन घटनाओं को प्राकृतिक घटनाक्रम, भूत-प्रेत, कल्पना आदि कहकर अभी तक तो टाला जा रहा है, किन्तु भविष्य में यह स्वीकार करना ही होगा कि लोक-लोकान्तरों में भी जीवन है, वैज्ञानिक प्रगति है, भले ही हम पृथ्वीवासियों को उसकी जानकारी हो।” कोडोन की रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि अमेरिका की एयर फोर्स अथवा किसी भी देश के सुरक्षा-तंत्र को अपनी सुरक्षा के लिए इन घटनाचक्रों के बारे में चिंतित नहीं होना चाहिए। 1973 में सेंटर फॉर यू. एफ. ओ. स्टडीज’ नामक अंतर्राष्ट्रीय संस्था की स्थापना की गई। 1982 की रिपोर्ट में संस्थान ने सत्तर हजार घटनाओं का उल्लेख किया है। इनमें से 80 प्रतिशत के बारे में कोई विशेष तथ्य नहीं मिल पाया, किन्तु 20 प्रतिशत के बारे में अभी तक शोध कार्य चल रहा है। इसी तरह फ्राँस, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड के वैज्ञानिक भी शोध कार्य में जुटे हुए हैं।

कम्प्यूटर विज्ञानी एवं यू. एफ. ओ लाजी के छात्र जैकीस वैली ने अपनी पुस्तक ‘पासपोर्ट टू मैग्नोनिया’ में यू. एफ. ओ. के बारे में प्राचीन परम्परा एवं आधुनिक घटनाचक्रों का समन्वय करके व्याख्या प्रस्तुत की है। उनके अनुसार, ये घटनाचक्र प्राकृतिक असामान्य के ही कारण हैं। इसमें विशिष्ट अनुभूतियाँ अवश्य होती हैं। किन्तु कोई प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता। वैली के अनुसार मनुष्य का जीवन कल्पना और प्राचीन थोपी गयी मान्यताओं के आधार पर संचालित होता है, इन्हीं कारणों से विश्व-ब्रह्माण्ड एवं उसके स्वयं के बीच सम्बन्ध स्थापित होता है। इसी कारण कुछ अलौकिकताएँ भी उत्पन्न होती है। मानवीय मनोविज्ञान पर कार्य करने वाले सुप्रसिद्ध मनोविज्ञान पर कार्य करने वाले सुप्रसिद्ध मनोविज्ञानी कार्ल जुँग ने भी यू. एफ. ओ. के बारे में एक बड़ी विशिष्ट व्याख्या प्रस्तुत की है। उन्होंने 1958 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘फ्लाइंग साँसर’ में लिखा है-”सामूहिक अति विशिष्ट प्राकृतिक घटनाचक्र को देखने की प्रक्रिया सामूहिक अचेतन मन का प्रभाव है। यह किसी चिह्न, कल्पना के आधार पर दृष्टिगोचर होता है एवं किसी विशेष स्थान और समय विशेष पर घटित होता है। गोलाकार, चौकोर, तश्तरी आकार, सिगार आकार वस्तुतः मनुष्य के मन में सूक्ष्मलोकों के प्रति आशा और डर का आरोपण की ही है।”

वैली और कार्लजुँग के विचार लगभग मिलते-जुलते हैं, किन्तु फरवरी 1974 को एक मनोवैज्ञानिक पत्रिका ‘अपर फेट’ में लिख लेख में उन्होंने सुझाव दिया है कि यह समूह मन द्वारा कल्पित विचारों का विद्युतीय चुम्बकीय प्रभाव है जो बाहरी जगत में अनेकों को अनुभव होता है। इन मनोविज्ञानियों की व्याख्या से अनेकानेक वैज्ञानिक सहमत नहीं होते प्रतीत हुए। एक-दो-पच्चीस लोगों तक तो यह मनोवैज्ञानिक प्रभाव कहा जा सकता है, किन्तु हजारों लोगों द्वारा लम्बे समय तक किसी विशिष्ट यान को देखा जाना वस्तुस्थिति को प्रकट करता है और मनोवैज्ञानिक व्याख्या को झुठलाता है।

सर्वप्रथम यू. एफ. ओ. का उल्लेख यूनान प्रान्त के एक आइलैण्ड के ग्रेनाइट पहाड़ में विशिष्ट यान के दिखाई देने के रूप में मिलता है। इजोप्ट के पैपीरस के राजा थरमोस ढ्ढढ्ढढ्ढ (1504-1450 बी. सी.) ने इसके बारे में सर्वप्रथम लिखा है-” 22वें वर्ष तीसरे माह में सर्दी की ऋतु में एक अग्नि का गोला आकाश से आता दिखाई दिया। उस विचित्र यंत्र का सिर नहीं था, बल्कि उसमें पूँछ थी। उसका आकार चौड़ाई एवं लम्बाई में था। उससे कोई आवाज नहीं आ रही थी। कुछ दिनों तक यह आकाश में दिखाई देता रहा। उसका तेज सूर्य से भी ज्यादा था। बाद में वह आकाशीय गोले के रूप में परिवर्तित हो गया। जिसमें असाधारण तेज था। इसके बाद वह आकाशीय गोला दक्षिण दिशा की ओर बढ़ गया और विलुप्त हो गया।” संत एंजिकेल को छेबर नदी-छेलेडिया (ईराक) में 512 बी. सी. में बेबिलोन के राजा ने बुछाडनजर के राज्य में विचित्र यान के दर्शन हुए। वे अपना अनुभव लिखते हैं-”मुझे उत्तरी दिशा में तेज आँधी के साथ बादलों का एक टुकड़ा दिखाई पड़ा, जो ऐसे प्रकाशपुँज के रूप में बदला जो धीरे-धीरे चार जीवित मनुष्यों के रूप में बदलता चला गया। इन सभी के चार मुँह थे और चार पंख। उस यान में चार चक्के भी थे। जिसके चारों ओर आँखें बनी हुई थीं। विचित्र प्राणियों के विलुप्त होते ही चक्के भी गायब हो गये और ऊपर उठ गये। वे कुछ बोल रहे थे किन्तु मैं समझ नहीं पा रहा था। जब वह यान अन्तरिक्ष की ओर प्रस्थान कर रहा था तो भूकम्प जैसी जोरों की आवाज हुई। बाद में जब लोगों को नदी के तट पर लाया गया तो विचित्र चक्कों के निशान पाये गये। जिसमें बड़े विराट आकार के गड्ढे हो गये थे।”

रोमन लेखक जूलियस आब सेक्वेन्सन ने चौथी शताब्दी (ए. डी. ) की विचित्र यान सम्बन्धी घटनाओं को ‘प्रोडिगोरियमर्ल लिबर’ नामक ग्रन्थ में इकट्ठा किया है। उनके अनुसार 217 बी. सी. में जहाज के आकार का एक यान इटली के ऊपर दिखाई दिया। यह रोम से 180 मील पूर्व अपूलिया में एक गोल यान के आकार में गुजरा। उन्हीं दिनों कापुआ के आकाश में अग्नि की लौ जैसे जहाज को लाखों लोगों ने देखा। 11 बी. सी. में जब सीमोरिस और वेलेरियम टार्कानिया में थे तब दोनों ने विभिन्न स्थानों पर ज्वाला उगलती तश्तरियों को अपनी स्थूल आँखों से देखा व लिखा कि ये आकाश से अचानक आयी थीं। सूर्यास्त की वेला में पश्चिम से ग्लोब की तरह एक वस्तु चक्कर। लगाती हुई पश्चिम से पूर्व की ओर जा रही थी। 10 बी. सी. में रोम से 65 मील उत्तर दिशा की ओर आम्ब्रिया के स्पोल्टीयस स्थान में एक आग का गोला, स्वर्णिम रंगयुक्त धरती पर अनुभव किया गया, जिसका आकार धीरे-धीरे बढ़ता गया। वह पहले धरती से उठा और तश्तरी के रूप में बदल कर सूर्य की तरह आकार लेकर शून्य में विलीन हो गया। 1567 में कोनार्ड वोल्फहार्ट द्वारा रचित पुस्तक ‘प्रोडिगिरस एण्ड ओस्टेटोरियम कोनिकन’ में लिखा है- 313 एक. डी. में थियोडोसियस राज्य में एक आश्चर्यजनक प्रकाशपुँज दिखाई पड़ा। यह वीनस के निकट चक्र की तरह दिखाई पड़ा। शुक्र ग्रह की अपेक्षा उसका तेज कम था। धीरे-धीरे उसके दो भाग हो गये, जो विशिष्ट आकार लेते चले गए, फिर एक ही क्षण में दोनों भाग एक होकर गायब हो गए। फ्राँस वर्डन के म्यूजियस में रखी पुस्तक ‘लिवर क्रोनिकोरियम’ में हर्टमेन स्केंडल ने विभिन्न यू. एफ. ओ. के आकारों को घटनाओं के साथ प्रकाशित किया है। 1034 की घटना का उल्लेख करते हुए लेखक हैं-दक्षिण से पश्चिम की ओर सूर्यास्त के समय सिगार आकार की लौ नीले आकाश में हरे रंग का आँरा (आभामण्डल) बनाती हुई गुजरी। सभी लोगों ने इसे एक साथ देखा।

यू. एफ. ओ. के बारे में वैज्ञानिक दृष्टि से प्रामाणिक खोज सर्वप्रथम जापान में 1235 में की गयी। 24 सितम्बर की रात्रि को जब जनरल योरित्सम एवं उनके सिपाही कैम्प में थे, तब उन्होंने एक विचित्र प्रकाशवलय को आकाश में देखा। दक्षिण पश्चिम दिशा में घूमते, चक्कर लगाते, ऊपर-नीचे होते वलय को कई घंटों तक सभी सिपाहियों ने अनुभव किया। जनरल ने आदेश दिया कि इसका पूर्णतः वैज्ञानिक परीक्षण किया जाय। रिपोर्ट में यही बताया गया कि कोई चमत्कारी वस्तु है, जिसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। मध्यकाल में जापान के इतिहास में ऐसी अनेकों घटनाओं का उल्लेख मिलता है। 21 सितम्बर, 1271 की तत्सूनोकुचो कामाकुटा के सुप्रसिद्ध धर्मगुरु ने आकाश में चंद्रमा के समान तेज लिए एक वस्तु को देखा। 1361 में 20 फीट ड्रम के आकार वाले प्रकाशवलय को पश्चिमी जापान के समुद्र में उड़ते हुए देखा गया है। 8 मार्च, 1468 को माउण्टकासुगा में मध्यरात्रि को काली वस्तु वाले यान को विशिष्ट आवाज करते आकाश मार्ग पर जाते हुए देखा गया।

यूरोप में सम्भवत-यू. एफ. ओ. चौदहवीं-पंद्रहवीं शताब्दी में पहली बार कइयों को अनेकों बार दिखाई दी। सन् 1322 की 4 नवम्बर रात्रि के प्रथम प्रहर में आक्सब्रिज इंग्लैण्ड में अग्निमय ज्वाला पुँज को नाव की आकार में विभिन्न रंग बिखेरते आकाश मार्ग पर उड़ते देखा गया। यह दक्षिण से उठा और पहले धीमी गति से उत्तर की ओर गया। धीरे-धीरे उसकी गति बढ़ती गई और वह लाल रंग का पूँछ छोड़ता गया। जो एक प्रकाश रेखा के रूप में बदल गया। 1387 के नवम्बर-दिसम्बर माह में इंग्लैंड के लिस्टरशायर एवं नार्थम्पटन-शायर के आकाश में जलते चक्के के समान अपने चारों ओर आग निकालते, घूमते एक चक्र को देखा गया। 1461 के नवम्बर माह की पहली तारीख को फ्राँस के ऐरम शहर में चाँद के आकार के सप्तरंगी गोले को एक घंटे तक देखा गया। धीरे-धीरे उसका आकार जहाज जैसा हो गया, फिर चंद्रमा की तरह गोल होकर वह गायब हो गया। 1733 की 8 दिसम्बर के दिन डोरसेट (इंग्लैण्ड) शहर के श्री क्रेकर उड़नतश्तरी के बारे में बताते हुए कहते हैं-”मैं घाटी में खड़ा था, मौसम कुछ गरम था, सूर्य स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा था, उसी समय आकाश से एक तारा टूटते दिखाई पड़ा। लेकिन उसका रंग चाँदी चमक रहा था। दूसरे तारों की अपेक्षा उसकी पूँछ बहुत लम्बी थी। दूसरे दिन जब मैंने श्री एडगोकोम्ब से यह बात कही तो इसी घटना को उन्होंने भी दुहराया, जबकि हम दोनों में 15 मीन का अंतर था।” वह पूर्व से उत्तर दिशा की ओर जा रहा था। इसी प्रकार की घटना का उल्लेख 16 दिसम्बर, 1742 को रायल सोसायटी लंदन के आक्रीब्स में सेंट जेम्स पार्क में घटी घटना के रूप में किया गया है। 1 अगस्त, 1762 को स्विट्जरलैण्ड के लसाना शहर में वहाँ के प्रसिद्ध खगोलशास्त्री मान्सीयर डी. रोस्टन व उनके साथियों ने अपने दूरदर्शी यंत्र से पूँछ वाले चमकते तारे को सूर्य के पास चक्कर लगाते हुए एक माह तक देखा। उन्होंने कैमरे के द्वारा उसका आकार बनाने का प्रयास किया, जो रायल एकेडमी साइंसपेरिस को भेजा गया। उन्हीं दिनों उनके एक मित्र ने भी इसी प्रकार के विशिष्ट प्रकाश को देखा।

19 सितम्बर, 1799 को इंग्लैण्ड के ‘जेन्टलमैन’ पत्रिका में एक लेख प्रकाशित हुआ, जिसमें लिखा हुआ था-”आज 8.30 रात्रि को गेंद के आकार वाले बडत्रे तारे को उत्तर से दक्षिण दिशा की ओर जाते सभी इंग्लैण्ड वासियों ने देखा। इसमें से लाल रंग की लपटें निकल रही थीं। 12 नवम्बर को उसी प्रकार लाल रंग का खम्भा आकार का प्रकाशपुँज उत्तर से दक्षिण दिशा की ओर जाते देखा गया।” 19वीं सदी के प्रारम्भ में यू. एफ. ओ. के बारे में अनेकों वैज्ञानिक ग्रंथों में उल्लेख मिलता है। लंदन के वैज्ञानिक जाँनस्टीवली ने अपने ‘साइंस एण्ड आर्ट’ ग्रन्थ में इसका विस्तार से वर्णन किया है। 7 सितम्बर, 1820 में फ्राँस के एम्ब्रम शहर में 27 मार्च, 1470 को नार्थ वेस्ट अफ्रीका में इसी तरह की एक घटना का उल्लेख है, जो दैनिक हैराल्ड में प्रकाशित किया गया। पास्सीमन खाड़ी में वेल्चर जहाज के कर्मचारियों ने 15 मई, 1879 को 180 फीट आकार के एक चक्र को समुद्र में समाते हुए देखा। उनहीं दिनों इसी प्रकार की घटना भारत के पटना शहर में घटित हुई, जो ‘दैनिक हैराल्ड’ में विस्तार से उन्हीं दिनों प्रकाशित हुई थी। इसे ईस्ट इंडिया कम्पनी के सिपाहियों द्वारा देखा भी गया। डीस्क जैसे आकार के चारों ओर चमकता प्रकाशवलय छाया हुआ था। 10 अप्रैल, 1909 को ठीक 8-30 बजे सायं एड्र्याटिक समुद्र में एस. एस. सिल्वर नामक जहाज द्वारा ऐसा ही चक्र देखा गया, ठीक वही घटना 1906 में ब्रिटिश स्टीमर गल्फ ओमान में घटित हुई। एक प्रकाशपुँज घूमता रहा एवं कुछ देर बाद दूसरा चक्का आया, दोनों मिले और गायब हो गये।

जिप्सी मोथ हवाई जहाज के पायलट सर फ्राँसिस चिचेस्टर जब न्यूजीलैण्ड-आस्ट्रेलिया के बीच तस्मान समुद्र के ऊपर 10 जून, 1939 को जा रहे थे, उस समय की घटना का उल्लेख करते हुए लिखते हैं, “मेरे जहाज में 30 डिग्री पर कुछ विशेष चमक के साथ विशाल यंत्रनुमा कोई जहाज अपने निकट आता देखा। मुझे टकराता अनुभव हुआ। मैंने आँखें बंद कर लीं। किन्तु कुछ न होने पर आँखें खोलते ही देखा। वह दूर होता चला गया-मुझे विश्वास नहीं हुआ-लेकिन काफी देर तक उसे जाते हुए देखता रहा।” 28 फरवरी, 1946 को उत्तरी क्षेत्र में एक विचित्र संरचना आकाश में दिखाई पड़ी, जिसका नाम दिया गया ‘घोस्ट राकेट’। हैलसिन्की रेडियो द्वारा इसकी घोषणा भी हुई। ऐसी ही आकृति जुलाई 1946 को स्वीडन में भी दिखाई पड़ी। उन्हीं दिनों आकाश में वैसी ही संरचना टेन्जीर, इटली, ग्रीस, भारत में भी दिखाई दी। स्वीडन तो किसी देश का षड्यंत्र मानकर अपनी वायुसेना को तैयार भी कर चुका था। 10 अक्टूबर, 1946 को स्वीडिश सरकार की ओर से अंततः घोषणा की गई कि यह न पहचान पाने योग्य उड़नतश्तरी है जो अनन्त में चली गयी। 1948 में लंदन टाइम्स में प्रकाशित किया गया कि घोस्ट राकेट स्केन्डिनोवियन देशों में घूम रहा है एवं कई बार कई व्यक्तियों द्वारा देखा जा चुका है।

उड़नतश्तरी के बारे में सबसे रोचक घटना 24 जून, 1947 को घटी, जब अमेरिकन एयर फोर्स के पायलट आनाँल्ड वाशिंगटन एयरपोर्ट से उड़े, वे आगे लिखते हैं-”उस समय सुनहरी धूप खिली हुई थी और मैं माउण्ट रैनर के ऊपर से गुजर रहा था, तभी आकाश में कुछ चमका लेकिन दिखाई नहीं दिया, फिर कुछ ही क्षणों में और चमका और ऐसा लगा कि मैं तश्तरी (पाई आकार) नुमा आकार के 8 जहाजों से घिरा हूँ और वे भी मेरी ही गति से उड़ रहे थे। तीन मिनट साथ उड़ने के बाद पता नहीं वे कहाँ गायब हो गये। उसके बाद अदृश्य ही हो गये।” उसके कथन की पुष्टि भी हो गई जब एयर ट्रैफिक कंट्रोल ने कहा कि आठों जहाज को राडार में देखा गया।

संवैधानिक रूप से यू. एफ. ओ. के बारे में विधिवत् अध्ययन 1948 में अमेरिका एयर फोर्स द्वारा प्रारम्भ हुआ। इसका मुख्य उद्देश्य यू. एफ. ओ. के बारे में सही जानकारी हस्तगत करना था। इस अभियान को ‘ब्लू बुक प्रोजेक्ट’ कहा गया। इसके अनुसार तब से 1990 तक 12600 घटनाएं प्रकाश में आईं। इन्हें प्रकृति की अलौकिकता मात्र कहा गया, किन्तु 701 घटनाएँ ऐसी थीं, जिन्हें सही अर्थों में यू. एफ. ओ. मान्यता दी गयी। 1948 में ही अमेरिकन एयर फोर्स में काम करने वाले खगोलशास्त्री एलेन हाइक ने यू. एफ. ओ. को तीन भागों में बाँटा। पहले यू स्तर के घटनाचक्र में 500 फीट की दूरी से देखे गये यंत्र को रखा गया। इसमें उन्होंने तीन भाग किये-संधिकाल में, रात्रि में और हलके प्रकाश और पूर्ण प्रकाश में देखे गये तश्तरी को। इसे राडार में भी देखा गया। दूसरे भाग में उन्होंने 500 फीट से भी कम दूरी में देखी गयी घटनाओं को रखा। इसको भी उन्होंने तीन भागों में बाँटा। पहला जिसे देखने या अनुभव करने वालों को कोई प्रभाव नहीं पड़ा। दूसरे प्रकार में ऐसी घटनाएँ जिसमें वहाँ के जीव-जन्तु, पशु-पक्षी तथा वहाँ का भूगोल प्रभावित हुआ। तीसरे प्रकार में ऐसी घटनाएँ जिनमें दूसरे ग्रहों से आने अथवा प्रभाव देखने की, घटनाओं का स्पष्ट स्वरूप देखने को मिलता है। वैज्ञानिकों की परिकल्पना को बाद में 80 के दशक में ‘ई. टी. ‘ नाम की एक फिल्म के द्वारा हालीवुड ने भी प्रदर्शित करने का प्रयास किया। यह फिल्म लगातार डेढ़ वर्ष तक छबिगृहों में चली व सबके कौतूहल का केन्द्र बनी।

यू. एफ. ओ. के बारे में वैज्ञानिक अपने तरह की विशिष्ट विवेचना कर रहे हैं, उनके अनुसार यह घटनाचक्र अलौकिक नहीं है अपितु विद्युतीय प्रभाव, प्रकाशवलय का चकाचौंध, मौसमी प्रभाव से उत्पन्न विशिष्टता आदि है। प्राचीनकाल से लेकर अब तक के सभी घटनाचक्रों को समूह मन का मनोवैज्ञानिक प्रभाव मानें अथवा सामूहिक मन की भ्रान्ति मानें, वैज्ञानिक इस दुविधा में हैं, किन्तु यह स्पष्ट है कि ये सारे तथ्य दूसरे ग्रह में मानवीय जीवन, वैज्ञानिक प्रगति एवं संचार व्यवस्था को स्पष्ट प्रतिपादित करते हैं। इन तथ्यों को झुठलाया भी नहीं जा सकता। इस पर और विशेष शोध कार्य किये जाने की आवश्यकता है कि हम इन अतिथियों के ज्ञान का लाभ भी उठा सकें व योग्य तैयारी भी अपनी कर सकें।


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