माटी खुदी करें दी यार

June 1997

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अरब देश की छोटी-सी रियासत गुलबाद, वहाँ के बादशाह के कारनामों की वजह से बहुत मशहूर थी। बादशाह की आदतें भी अजीबो-गरीब थीं। अपने शयनकक्ष के पलँग में ताजे सुगन्धित पुष्प बिछवाकर सोना उसका प्रिय शौक था। यह कार्य फातिमा नाम की एक दासी करती थी।

एक शाम फातिमा बादशाह के पलँग को सजा रही थी। तभी उसके दिमाग में विचार आया कि इस पलँग पर सोने का कैसा आनन्द आता है? यह सोचकर वह उस पलँग पर लेट गई। दिन भर के परिश्रम से थकी होने के कारण फातिमा को पलँग पर लेटते ही निद्रा ने घेर लिया। वह काफी देर तक गहरी नींद में सोती रही।

अकस्मात बादशाह ने शयनकक्ष में प्रवेश किया तो दासी फातिमा को पुष्पों से सज्जित अपने पलँग पर खर्राटे भरते देखा। अदना-सी दासी की ये जुर्रत कि बादशाह की शान में गुस्ताखी करें। वह आग-बबूला हो गया और हंटर उठाकर फातिमा पर कोड़े बरसाने लगा। दासी कोड़ों की मार से क्षमा-याचना करती हुई रुदन करने लगी। लेकिन बादशाह रुकने का नाम नहीं ले रहा था। वह गिड़गिड़ाते हुए लगातार प्राणों की भीख माँग रही थीं, लेकिन उसकी निष्ठुरता राई-रत्ती भी न पिघली।

पर आश्चर्य, कोड़ों की मार खाती हुई दासी ने थोड़ी देर बाद रोना छोड़कर हँसना शुरू कर दिया। बादशाह ज्यों-ज्यों कोड़े मारता दासी खिलखिलाकर हँसती। दासी के इस अचानक हँसने पर बादशाह आश्चर्यचकित हो गया। उसने कोड़े मारना छोड़ा और पूछा-”दासी अभी तो तू कोड़ों की मार से चीख रही थी और अब ठठाकर हँस रही है। इसकी क्या वजह है।?”

फातिमा ने कहा-”हुजूर जब मैं आपके पलँग को फूलों से सजा रही थी तो मेरे दिल में इस पलँग पर कुछ देर लेटकर आनन्द अनुभव करने का विचार आया। मैं आपके फूलों से सजे पलँग पर लेट गयी तो मुझे मालूम नहीं कि कब नींद की गिरफ्त में आ गयी। कोड़े की मार से हड़बड़ाकर मेरी नींद खुली। आप कोड़े बरसाते रहे, मैं चीख-चीखकर विलाप करती रही। फिर अचानक मेरे मन में विचार आया कि, अरी बाबरी, तू तो इस पलँग पर थोड़ी ही देर लेटी है। इसके परिणाम में तुझे अनगिनत कोड़े पड़ रहे हैं, परन्तु जो बादशाह सारी जिन्दगी इस पलँग पर सोता रहा। उसका खुदा क्या हाल करेगा। उसको तो कयामत तक अनगिनत कोड़ों की सजा भुगतनी पड़ेगी। बस हुजूर इसी ख्याल से मैं जोर-जोर से हँसे जा रही हूँ।”

फातिमा के इस कथन से बादशाह चौंक गया। वह निष्ठुर और सनकी भले ही था, लेकिन न्यायप्रिय भी था। दासी की बातों में उसे सच्चाई नजर आयी। विलासिता के साजो-सामान ऐशो-आराम के पीछे छुपी हुई ईश्वरीय दण्ड-व्यवस्था की झलक उसे मिल गयी। निःसन्देह वैभव-विलास तो हजारों-लाखों गरीबों को सताकर ही तो इकठ्ठा किया जाता है। इसके दण्ड का भागीदार कौन होगा?

उसने ठण्डे दिमाग से सोचा कि दासी सच बात कह रही है। मैंने जीवन को फूलों की सेज पर ही रखा है, काँटों पर रखकर नहीं देखा। मैं फूलों की सेज त्याग दूँगा। फातिमा की सीख ने मेरी आँखें खोल दी हैं। उसने अपनी सोच से उबरते हुए दासी से क्षमा माँगी। अब उसे फकीरी रास आ चुकी थी। वह राज-पाट छोड़ कर गुरु की खोज में रवाना हो गया।

इस खोज में उसके पाँव हिन्द की ओर मुड़े। लाहौर के पास एक घने वन में उसे एक कुटिया दिखाई दी। उसे तीव्र प्यास लग रही थी। पानी पीने की आशा से वह कुटिया पर पहुँच गया। वहाँ एक फकीर ध्यानमग्न बैठे थे। बादशाह ने उनसे पानी पिलाने की विनती की। पास खड़े फकीर के शागिर्द ने उसे पानी पिलाया और खाने को कुछ फल दिए। बादशाह ने सोचा कि इतने घने वन में ये फकीर पतस्यारत है। मैं इन्हें ही अपना गुरु बनाऊँगा। वह वहीं पर बैठकर फकीर बाबा के उठने की प्रतीक्षा करने लगा।

लम्बी प्रतीक्षा के बाद मुनि ध्यान से उठे तो उन्होंने वहाँ बैठे बादशाह से कारण पूछा कि तुम यहाँ क्यों बैठे हो? बादशाह बोला, “फकीर बाबा मैं आपको गुरु बनाना चाहता हूँ। मैं गुलबाद का बादशाह हूँ। मुझे वैराग्य हो गया है।”

फकीर तो त्रिकालदर्शी थे, उन्हें सारी घटना की जानकारी हो गयी। वे मुस्कराए और कहा कि हम तुम्हें अपनी सेवा में रख लेते हैं। अगर तुम योग्य हुए तो हम तुम्हें अवश्य ही अपना शिष्य बनाएँगे। फकीर की इस वाणी को सुनकर वह तन-मन से फकीर की सेवा में लग गया।

सेवा करते हुए उसे काफी दिन बीत गए। एक दिन फकीर ने बादशाह की परीक्षा लेने की सोची। फकीर ने अपने एक शागिर्द से बादशाह के सिर पर कूड़ा-करकट डालने को कहा। उस शागिर्द ने बादशाह के सिर पर सुबह ही बहुत-सा कूड़ा-करकट डाल दिया। सिर पर कूड़ा पड़ते ही उसका राजसी अहंकार जाग्रत हो गया। गुस्से में भरकर उसने कूड़ा डालने वाले से कहा, “अगर मेरा राज्य होता तो ऐसा करने वाले के हाथ कटवा देता।”

फकीर यह सब नजारा देख रहे थे। वे बोले-”अभी तुम शिष्य बनने और ज्ञान प्राप्ति के

लायक नहीं हो। तुममें अभी इतना राजसी अहंकार है कि तुम इतनी गलती पर हाथ कटवा सकते हो। तुम इस थोड़ी-सी मिट्टी से इतनी घृणा करते हो, मृत्यु के बाद तो तुम्हारा ये सुन्दर शरीर भी एक मिट्टी का ढेर हो जाएगा।”

बादशाह फिर से फकीर की सेवा में तत्पर हो गए। फकीर के बताए हर छोटे-बड़े काम को वे भक्तिपूर्वक करने लगे। अगली बार जब फकीर बाबा के संकेत से उन पर पहले की भाँति मिट्टी-कूड़ा डाला गया तो वह बोला-”हे, भाई! आपने मिट्टी डालने का इतना कष्ट बेकार उठाया। आप आज्ञा देते तो इस मिट्टी के टोकरे को मैं स्वयं ही अपने सिर पर डाल लेता। आपके हाथों को बहुत पीड़ा हुई होगी।” बादशाह से यह सुनकर फकीर बाबा अति प्रसन्न हुए और बोले-”बेटे अब तुम शिष्य एवं ज्ञान प्राप्ति के योग्य हो। एक परम ज्ञानी के लिए अहंकारी कदापि नहीं होना चाहिए।” फकीर से वे दीक्षा पाकर सन्त बुल्लेशाह कहलाए। अपने अनुभव का ज्ञान करते हुए उन्होंने कहा-

माटी खुदी करें दी यार। माटी जोड़ा, माटी घोड़ा, माटी दा असवार॥

माटी माटी नूँ मारण लागी, माटी दे हथियार। जिस माटी पर बहुती माटी, तिस माटी अहंकार॥

माटी बाग, बगीचा, माटी दी गुलजार। माटी-माटी नूँ देखण आई, है माटी दी बहार॥

हंस खेल फिर माटी होई, पौड़ी पावे पसार। बुल्लेशाह बुझारत बुझी, लाह सिरों मा मार॥

दासी की सीख एवं गुरु की सेवा से अब उनके अन्दर ज्ञान ज्योति जगमगाने लगी थी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles