अपनों से अपनी बात - प्रज्ञा परिजनों को बढ़ते उत्तरदायित्व सम्भालने होंगे

January 1981

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अखण्ड-ज्योति परिवार के प्रज्ञा परिजनों ने युग परिवर्तन की मशाल जलाने और ज्योति जगाने में अग्रगामी भूमिका निभाई- इस तथ्य और सत्य से विज्ञ समुदाय का हर व्यक्ति भली-भाँति अवगत है। विगत 43 वर्षों की लम्बी अवधि पर दृष्टिपात करने से इसी निष्कर्ष पर पहुँचाना पड़ता है कि ‘अखण्ड-ज्योति’ की गणना लोकरंजन के लिए प्रचार विज्ञापन या उपार्जन के लिए निकलने वाली पत्रिकाओं के परिवार में नहीं हो सकती। उसका उदय अवतरण एक सुनिश्चित मिशन के रूप में- एक लक्ष्य विशेष के लिए हुआ था। यह कहने में कोई अत्युक्ति या दर्पोक्ति नहीं है कि इस लम्बी अवधि में व्रतशील तीर्थयात्री की तरह उसने प्रयाण क्रम को बिना थके-बिना डरे डगमगाये-अनेकानेक विघ्न बाधाओं को झेला और गतिशीलता को अनवरत जारी रखा है।

भागीरथी प्रयत्नों ने अदृश्य और दूरवर्ती गंगा को स्वर्ग से धरती पर उतारा था। इस गाथा का एक छोटा उदाहरण नव सृजन की प्रवृत्ति प्रेरणा को जन-जन के मन-मन तक उमँगते देखने से मिल सकता है। समुद्र मंथन से चौदह रत्न निकले। खदानें खोदने से मणिमुक्तक हाथ लगे हैं। उसी घटना क्रम का एक छोटा रूप यह है कि प्रज्ञा परिवार के परिजनों में से सहस्रों की संख्या लाँघ कर लाखों तक पहुँचने वाली सृजन शिल्पियों की विशालकाय चतुरंगिणी-भारत को महा भारत बनाने के दुहरे मोर्चे पर प्राण-पण से जूझती हुई दृष्टिगोचर हो रही है। अनौचित्य का उन्मूलन और सृजन का संवर्धन देखने में परस्पर विसंगत लगते हैं और एक साथ करने में कठिन असम्भव प्रतीत होते हैं, पर समय ने जब दुहरी और अनमेल जिम्मेदारी कन्धों पर रख ही दी तो उसे वहन करने के अतिरिक्त और कोई मार्ग भी नहीं रहता।

इतिहास में इस प्रकार का भार वहन करने वाले और भी कई हुए हैं। परशुराम को फरसा और फावड़ा चलाने में समान कौशल दिखाना पड़ा था। उन्होंने अनाचार को निरस्त करने की तरह ही खन्दकों को समतल बनाने और मरुक्षेत्रों में उद्यान लगाने में समान अभिरुचि और तत्परता दिखाई थी। द्रोणाचार्य की पीठ पर शस्त्र और छाती पर शास्त्र लदे रहे। उन्होंने सदाशयता को सींचने और दुष्टता को निरस्त करने के अनमेल प्रयासों की संगति बिठाई समन्वित नीति अपनाई थी। अखण्ड-ज्योति का प्रज्ञा परिवार प्रायः उसी मार्ग पर चलता और उज्ज्वल भविष्य के लक्ष्य तक जा पहुँचने के लिए समग्र साहस सँजोये हुए बढ़ता रहा है। प्रयास कितने बन पड़े और कितने सफल हुए इसका लेखा-जोखा रख सकना दूरवर्ती लोगों के लिए कठिन है। मूक साधना की प्रवृत्ति और उपलब्धि का पर्यवेक्षण मात्र अतिनिकटवर्ती लोगों के लिए ही सम्भव है। जो इस स्थिति में हैं वे जानते हैं कि विगत 43 वर्षों में धर्मतन्त्र को पुनर्जीवित करने और जन मानस को उलटने की दिशा में कितनी उत्साहवर्धक सफलता मिलती चली गई है। यों, जो करने में पड़ा है उसकी तुलना में उपलब्धियों को नगण्य भी कहा जा सकता है।

छावनी बनाने से लेकर सैनिकों की भर्ती और शिक्षा का प्रबन्ध सामान्य समय में, स्थिर शान्ति काल में होना है। लड़ाई छिड़ जाने पर तो एक ही बात ध्यान में रहती है जो साधन मौजूद हैं उन्हीं के सहारे आक्रांता को धकेलने और सुरक्षा को सुदृढ़ बनाने के लिए जो संभव हो कर गुजरा जाय। विगत 43 वर्षों से अखण्ड-ज्योति ने कुंती की तरह अपना परिवार सृजा संजोया, पर अब तो समय के आह्वान पर उन सभी को कृष्ण के नेतृत्व में महाभारत की सृजन योजना में निछावर होने के लिए तिलक लगाना और विदा करना ही एक मार्ग है। सामान्य समय और आपत्ति काल का अंतर तो समाधान ही होता है। एक मैं सामान्य निर्धारण चलता रहता है, पर दूसरे अवसर पर अन्यत्र से सामर्थ्य समेट कर एक ही केंद्र पर नियोजित करनी होती है। आग बुझाने और दुर्घटना से निपटने को प्राथमिकता देनी होती है भले ही उस कारण नियमित क्रिया-कलापों में व्यतिरेक ही उत्पन्न क्यों न होता हो।

युग सन्धि के प्रस्तुत बीस वर्ष ऐसे हैं जिन्हें अभूतपूर्व- अनुपम एवं अद्भुत अप्रत्याशित कहा जा सकता है। इतिहास के खण्ड विनाश और खण्ड सृजन के घटनाक्रमों का ही उल्लेख मिलता है। समूची मनुष्य जाति के लिए एक ही समय जीवन-मरण का असमंजस उत्पन्न हुआ हो, ऐसा अवसर अब से पूर्व कभी भी नहीं आया। इतनी विकट समस्याएं और इतनी विघातक विभीषिकाएं एक साथ मनुष्य समुदाय के सम्मुख चुनौती बन कर एक साथ आई हों, ऐसा भूतकाल खोजने पर भी नहीं मिलता।

प्रभात काल की उदीयमान किरणें सर्वप्रथम पर्वतों के उच्च शिखर पर चमकती हैं। धरती पर तो वे बाद में उतरती हैं। सृष्टा की संतुलन योजना में व्यापक अनौचित्य को निरस्त करने और सत्प्रवृत्तियों को सींचने के उभयपक्षीय उपक्रम समान रूप से सम्मिलित हैं। प्रेरणाओं का परिवहन मनीषा करती रही है। ‘उमंगें पुरुषार्थ बनकर सामने आती हैं। व्यापक परिवर्तन की भूमिका निभाने में महामानवों को ही अग्रिम पंक्ति में खड़ा होना होता है। इसी आदर्शवादी साहसिकता के कारण वे स्वयं धन्य बनते और अन्य असंख्यों को उबारने का श्रेय पाते हैं।’

सौभाग्यवान वे हैं जो इस श्रेय प्रतियोगिता में घुड़-दौड़ लगाते और बाजी जीतकर विजय श्री का वरण करते हैं। श्रेयाधिकारी बनने के लिए सर्वोत्तम अवसर युग सन्धियों का ही होता है। उसे पहचानने वाले और हाथ से न जाने देने वाले ही स्वनाम धन्य बने हैं। हनुमान, अंगद, नल-नील बनने का सौभाग्य हर सदाशयी सेवा भावी को नहीं मिल सकता है। अर्जुन और भीम से भी अधिक कुशल बलिष्ठ समय-समय पर होते रहे हैं, पर उपयुक्त समय पर उपयुक्त भूमिका निभाकर वे जिस प्रकार धन्य बने वैसा सौभाग्य अन्यान्यों को कहां मिल सका? धनिकों में अशोक, हर्षवर्धन, मांधाता, भामाशाह जितने सम्पन्न कभी कहीं न हुए हों ऐसी बात नहीं है। इन महान मानवों की गरिमा इतिहास के स्वर्णाक्षरों में इसलिए अंकित है कि उनने समय को पहचाना और उपयुक्त समय पर उपयुक्त कदम उठाने का साहस जुटाया। यों जराजीर्ण होने पर जीवित रहने अथवा मरने पर आंख मूंदते ही लाख करोड़ की संपदा उत्तराधिकारी दर्प पूर्वक हड़प लेने और उस उपलब्धि को अधिकार जताते हुए मूंछें ऐंठते हैं।

समय आलस प्रमाद में और वैभव दर्प विलास में गंवाने वालों की कमी नहीं। पर वे दूरदर्शी विरले ही होते हैं, जो निर्वाह की न्यूनतम आवश्यकता जुटाने में थोड़ी-सी सामर्थ्य खर्च करने के उपरांत अपना पुरुषार्थ सत्प्रयोजनों में नियोजित करके अपना एवं असंख्यों का चिरस्थायी हित साधन करते हैं। दुर्व्यसनों और विग्रहों में- ललकों और तृष्णाओं में सामान्य जनों की जीवन-संपदा गलती-जलती रहती है। इस अपव्यय की फुलझड़ी जलाने में कई कौतूहल बनाते और बाल-विनोद जैसा मोड़ मनाते देखे जाते हैं, पर उन असामान्यों की संख्या नगण्य जितनी होती है। जो सुर दुर्लभ मनुष्य जन्म का महत्व समझते और उसका उपयोग महान प्रयोजनों में करने की दूरदर्शिता अपनाते हैं। ऐसे ही थोड़े लोग उस ऐतिहासिक अवसर को समझने और पकड़ने में समर्थ होते हैं जिसमें दैवी आह्वान उतरते और सम्पर्क में आने वालों के लिए अलभ्य वरदान जैसे सिद्ध होते हैं।

अखण्ड-ज्योति परिवार के प्रज्ञा परिजनों की सौभाग्य भरी दूरदर्शिता देर-सबेर में कोटि-कोटि कंठों द्वारा इसलिए सराही जायेगी कि उनने अंधेरे में दीपक जलाने जैसा साहस दिखाकर अपनी विशिष्टता एवं वरिष्ठता का परिचय दिया। साहस के धनी अनेकों होते हैं। उद्दण्ड आतंकवादी, दस्यु आततायी आये दिन दुस्साहस बरतते और दुष्टता करते देखे जाते हैं। यों इसे भी साहसिकता ही कहा जायेगा। लुटेरे और हत्यारे इसी स्तर के होते और दैत्य दानव कहलाते हैं। इन पर लोक-भर्त्सना और आत्म-प्रताड़ना ही बरसती है। समाज और शासन का दंड पाते और ईश्वरीय कोप का नरक सहते हैं। तात्कालिक सफलताएं जो उनके पल्ले पड़ती हैं, नरक जैसी घिनौनी और जहर जैसी विषैली सिद्ध होती हैं। ऐसे लाभ कुछ ही समय में नस-नस को बेधने वाले अभिशाप बनकर सामने आते हैं।

यहां चर्चा उस साहसिकता की हो रही है जो लोक-प्रवाह से अलग हटकर अपना रास्ता बनाती है। उत्कृष्ट दृष्टिकोण और आदर्श क्रिया-कलाप अपनाते की बात सामान्यजनों से नहीं बन पड़ती वे प्रचलन के प्रवाह में ही बहते रहते हैं और अधिकांश लोगों के अधिकांश जीवनक्रम में व्यवहृत होने वाले ढर्रे को अपनाने के अतिरिक्त और कुछ सोचते करते बन ही नहीं पड़ती। सच्चे अर्थों में शूरवीर वे हैं जिनने मानवी गरिमा को समझा और तदनुरूप स्वतंत्र चिंतन और स्वतंत्र कर्तृत्व अपना कर महामानवों जैसी वरिष्ठता का मार्ग अपनाया। ऐसे ही लोग प्रकाश स्तंभ ही तरह उफनते समुद्र में भी अपना सिर उठायें- अस्तित्व बनाये रहते हैं। उधर से निकलने वाले जलयानों में डूबने से बचा सकने वाला मार्ग-दर्शन कर सकना इन्हीं के भाग्य मे बदा होता है। मानवता ऐसे ही नर-रत्नों को जन्म देकर कृत-कृत्य होती है।

अखण्ड-ज्योति ने ऐसे ही मणि-मुक्तकों को जहां-तहां से ढूंढ़ा और हीरक हार की तरह उन्हें कलात्मक ढंग से गूंथ कर युग देवता की सौंदर्य सज्जा को बढ़ाया है। दूसरे शब्दों में उसे ऐसी पुष्प वाटिका की उपमा भी दी जा सकती है जिसमें एक से एक सुंदर सुरभित फूलों को खिलते-महकते देखकर दर्शकों का मन हुलसता है। इस खिली पीढ़ी का विशिष्ट सौभाग्य यही है कि उनका उपयोग वैश्या गृहों में नहीं देवमंदिरों में ही होता चला जा रहा है। आर्थिक और शैक्षणिक दृष्टि से सामान्य होते हुए भी दृष्टिकोण, चरित्र एवं सृजन अभियान में योगदान की दृष्टि से अपने को असामान्य स्तर का सिद्ध किया है। इस प्रतिपादन मूल्यांकन की प्रामाणिकता यह है कि उस छोटे से समुदाय के प्रयास पराक्रम से युग निर्माण योजना बनी-बढ़ी और इस स्थिति तक पहुंची कि उसे असंतुलन को संतुलन में बदल सकने में समर्थ माना और विश्व मानव के भाग्य निर्धारण में उसका योगदान अद्भुत समझा जा रहा है। पिछले 43 वर्षों की दृढ़ता, गतिशीलता और सफलता को देखते हुए यह आशा बंध चली है कि प्रस्तुत विभीषिकाओं से जूझने और उज्ज्वल संभावना मूर्तिमान करने में उसकी सुनिश्चित भूमिका होगी।

युग सन्धि की बेला में प्रज्ञा अभियान को गतिशील करने के लिए उनके केन्द्र संस्थानों की स्थापना का उपक्रम पिछले वर्ष उत्साहपूर्वक चला है। छोटी बड़ी स्थापनाएं 2400 के लगभग बन पड़ी हैं। ऊपर से देखने में यह मझोले देवालय समझे जा सकते हैं, पर वस्तुतः इन्हें जन जागृति का केंद्र माना जाना चाहिए। देव प्रतिमा की स्थापना एवं पूजा परिचर्या का क्रम अन्य देवालयों जैसा होते हुए भी उनकी विशेषता यह है कि सृजन और सुधार की दस सूत्री योजना बना कर यह सभी संस्थान अपने-अपने निर्धारित कार्यक्षेत्र में निरंतर कार्यरत रहेंगे।

इन सभी संस्थानों में न्यूनतम दो कार्यकर्ता रहेंगे, एक स्थानीय प्रवृत्तियां चलाने के लिए दूसरा समीपवर्ती सात गांवों के कार्यक्षेत्र में घर-घर अलख जगाने- युग साहित्य पढ़ाने- युग चेतना पहुंचाने तथा जन्म दिवसोत्सव के माध्यम से परिवार संस्था में नव सृजन का वातावरण बनाने वाले आयोजन करते रहने के लिए। कार्यकर्ताओं का निर्वाह महिलाओं द्वारा स्थापित धर्म घटों के मुट्ठी फण्ड से तथा दस सूत्री कार्यक्रम चलाने के लिए पुरुषों द्वारा दस पैसा नित्य वाले ज्ञान घटों की राशि से चलते रहेंगे। बूंद-बूंद से घड़ा भरने वाली उक्ति के अनुसार जनमानस में युगान्तरीय चेतना के लिए श्रद्धा समर्थन उत्पन्न कर लेने के उपरांत प्रज्ञा संस्थानों की अर्थ-व्यवस्था को सुसंतुलित बने रहने के लिए आवश्यक किंतु बनने में कठिन देखते हुए भी क्रम सरल से सरलतम बनता चला जायेगा। जो कार्य धन कुबेर भी नहीं कर सकते, जिस भार को उठा सकना किसी सुसम्पन्न सरकार के लिए भी संभव नहीं हो सकता वे जन सहयोग के सहारे अनायास ही पूरे होते चले जायेंगे।

सभी प्रज्ञा संस्थानों में शिक्षा संवर्धन की, दो-दो घंटे की तीन कक्षाएं नियमित रूप से चलेंगी एक प्रौढ़ों के लिए- दूसरी महिलाओं के लिए- तीसरी बालकों के लिए। सायं काल स्वास्थ्य शिक्षण एवं खेलकूद, आसन, प्राणायाम। रात्रि में नव-सृजन का वातावरण बनाने वाली पौराणिक ऐतिहासिक कथा-गाथाएं। आरंभिक दिनों में यही कार्यक्रम सभी छोटे बड़े प्रज्ञा संस्थानों का है। जैसे ही उन्हें अधिक जन समर्थन और प्रत्यक्ष सहयोग मिलने लगेगा वैसे ही उन दस सूत्री कार्यक्रमों को स्थानीय परिस्थिति के अनुरूप गतिशील किया जाता रहेगा। युग सन्धि के दूसरे वर्ष में जिन दस गतिविधियों को अग्रगामी बनाया जाना है उनमें से पांच सृजनात्मक हैं। पांच सुधारात्मक सृजनात्मकों में हैं- (1) शिक्षा विस्तार (2) स्वास्थ्य संवर्धन (3) स्वच्छता श्रमदान (4) गृह उद्योग (5) हरितमा विस्तार।

सुधारात्मकों में हैं- (1) नशा निवारण (2) शादियों में होने वाले अपव्यय का प्रतिरोध (3) हरामखोरी, कमजोरी का तिरष्कार (4) फिजूल खर्ची फैशन की रोकथाम (5) अवांछनियताओं का उन्मूलन।

लोक सेवियों की संख्या, साधनों की मात्रा परिस्थितियों की अनुकूलता के आधार पर कार्यक्रम भी बढ़ते जायेंगे। अभी दस हैं। अगले दिनों 20 होंगे। फिर वे क्रमशः 30, 40, 50, 60 होते हुए शत सूत्री योजना तक पहुंचेंगे और हर स्तर का व्यक्ति हर स्थिति में रहते हुए भी यह अनुभव करेगा कि वह इसे शत सूत्री योजना के कार्यक्रम में कुछ न कुछ योगदान दे सकता है। जन-जन को सृजन प्रयोजनों में लगाने से ही सुविस्तृत धरातल पर फैले हुए अनाचार अज्ञान से जूझना और सद्भाव सत्प्रयास को व्यवहार में उतारना संभव हो सकेगा।

युग सन्धि का प्रथम वर्ष बीजारोपण वर्ष था। उसमें प्रज्ञा संस्थानों की स्थापना को बीज माना गया और उन स्थापनाओं पर जोर दिया गया। जहां इमारतें नहीं बन सकती थी वहां निजी घरों का एक कमरा प्राप्त करके उसी में प्रज्ञा मंदिर बनाने की योजना चलाई गई है। उसे सर्वत्र अत्यन्त उत्साहपूर्वक अपनाया गया है। प्रज्ञा पीठें प्रायः दो वर्ष 2400 बनी, पर यह प्रज्ञा मंदिर अगले तीन महीनों में ही प्रायः उतनी ही संख्या में और भी बनने जा रहे हैं। कुछ ही महीने की स्वल्प अवधि में इन पांच हजार निर्माणों को देखते हुए यह आशा बंधती है कि देश के 7 लाख गांवों के लिए हर सात गांव पीछे एक प्रज्ञा संस्थान का बनना और उनकी संख्या का एक लाख तक जा पहुंचना असंभव नहीं है- समय साध्य एवं श्रम साध्य भले ही हो।

युग सन्धि का दूसरा वर्ष ‘‘परिपोषण वर्ष’’ है। जो गत वर्ष बोया गया है वह अब अंकुरित हो चला। उसे सींचने की आवश्यकता पड़ रही है। गर्भस्थ बालक भ्रूण स्थिति में चुपचाप बैठा रहता है, पर प्रसव के उपरांत बाहर आते ही उसके लिए दूध, कपड़ा गरम पानी, सफाई सुरक्षा आदि के अनेकानेक साधक जुटाने पड़ते हैं। बीजारोपण वर्ष की स्थापनाएं अब अपना परिपोषण चाहती है अन्यथा सरकारी वृक्षारोपणों की तरह अपेक्षा के गर्त में गिर कर यह स्थापनाएं भी निष्क्रिय एवं उपहासास्पद बनती चली जायेंगी। जिन स्वप्नों को साकार करने के लिए इन प्रज्ञा केंद्रों की स्थापना की गई है उन्हें फूलता फलता बनाने के लिए मात्र खाद, पानी जैसे साधनों की ही नहीं कुशल किसानों और मालियों की भी जरूरत पड़ेगी। स्मरण रखने योग्य है कि पेड़-पौधों से लेकर- पालतू पशु-पक्षियों, बालकों, परिजनों को ही नहीं सत्प्रवृत्तियों को सींचने के लिए भी अभीष्ट साधनों के अतिरिक्त संयोजकों के समय मनोयोग एवं श्रम सीकरों की भी आवश्यकता पड़ती है। वस्तुतः सिंचाई का वास्तविक स्वरूप वही है। परिपोषण के लिए खाद, पानी से ही काम नहीं चलता। साधनों की तरह संरक्षकों को अपन समय सहयोग भी देना पड़ता है।

अखण्ड-ज्योति परिजनों ने सदा से प्रज्ञा परिजन की भूमिका निभाई है और नव सृजन के लिए नियमित रूप से योगदान दिया है। अब बढ़ती हुई आवश्यकताओं को देखते हुए उसमें अधिकाधिक अभिवृद्धि की आवश्यकता है। युग सन्धि पर्व का जागृत आत्माओं को विशेष रूप से यह आह्वान आमंत्रण है कि वे निर्वाह और परिवार के दो उत्तरदायित्वों में एक तीसरा ‘‘नव निर्माण’’ और सम्मिलित करें। नई संतान बढ़ने पर साधनों के विभाजनों में उस नये सदस्य का हक भी सम्मिलित कर लिया जाता है। जो है उसी में से मिल बांटकर नये सदस्य को भी हिस्सा दिया जाता है। जागृत आत्माओं को यही करना होगा। यदा-कदा दान पुण्य कर देने से काम नहीं चलेगा। समय और साधनों की संपदा को अब तीन हिस्सों में विभाजित करने- तीन मदों में बांटने की बात सोचनी चाहिए।

सृजन प्रयोजन के लिए असंख्यों, नये काम आगे आ रहे हैं। उनमें से प्रत्येक का विस्तार हो रहा है। इस बढ़ोतरी की एक ही मांग है- ‘युग शिल्पियों का अधिक अनुदान।’ इसकी पूर्ति प्रज्ञा परिजनों को स्वयं की करनी होगी। जनता से चंदा मांगने और समर्थकों से सहयोग अर्जित करने का औचित्य है। पर यह ध्यान में रखने योग्य है कि अपना उदाहरण प्रस्तुत करने से ही जन-साधारण में उदार सेवा साधना के लिए उत्साह उत्पन्न किया जा सकता है। स्वयं पीछे रहा जाय और दूसरों से लंबी-चौड़ी आशा लगाई जाय तो उसमें सफलता कदाचित ही कभी- छोटी-सी मात्रा में मिल पाती है। आदर्शवादी उत्साह उत्पन्न करने कि लिए तो श्रेय साधकों को स्वयं ही आगे बढ़ना होता है और अपना उदाहरण प्रस्तुत करके उन्हें भी सहयोग देने के लिए सहमत किया जाता है।

आठ घंटा उपार्जन के लिए- सात घंटा सोने- सुस्ताने के लिए- पांच घंटा नित्य कर्म और परिवार के लिए इस प्रकार बीस घंटे में उपार्जन एवं कुटुंब के उत्तरदायित्व भली प्रकार निभ सकते हैं। शेष चार घंटे युग संधि के बीस वर्षों में सृजन संवर्धन के लिए लगने चाहिए। इसी प्रकार घर के सदस्यों में एक ‘प्रज्ञा अभियान’ को सम्मिलित करके उसके हिस्से के साधन नव सृजन के लिए नियोजित होने चाहिए। उतना न बन पड़े तो महीने में एक दिन की आजीविका इस निमित्त लगाकर शेष से अर्थ संतुलन बिठाना चाहिए। जिन लोगों के पारिवारिक उत्तरदायित्व पूरे हो चुके, वे वानप्रस्थ की धर्म परंपरा अपनायें। जिनके पास गुजारे के लिए मौजूद है वे दस दिनों अधिक कमाने की बात सोचने की अपेक्षा अर्जित से काम चलाने और अपना समय, समय की मांग पूरी करने में लगायें। जिनके छोटे गृहस्थ हैं और परिवार के अन्य सदस्य कुछ कमा सकते हैं उनके लिए उचित यही है कि जो कमी पड़ती हो उसे सृजन योजना से लेकर अपनी समर्थता का उपयोग उस पुण्य-प्रयोजन में लगने दें, जिस पर विनाश को निरस्त करने और उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करने की आशा केंद्रित हो रही है। युग धर्म का निर्वाह करने के लिए जागृत आत्माओं को यह कदम उठाने ही चाहिए, उठाने ही पड़ेंगे।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118