उनकी वाणी से टपक रही महत्वाकांक्षा (kahani)

January 1981

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आर्य! मैंने बज्रोली, कपाल भाँति, जालन्धर आदि सिद्ध कर लिए हैं भ्रसिका, भ्रामरी और उज्यायी प्राणायामों का अभ्यास भी मैंने कर लिया है आगे की साधना बताइये? पीवक ने भगवान बुद्ध ने संगर्व पूछा।

उनकी वाणी से टपक रही महत्वाकांक्षा की गंध तथागत से छिपी न रही। उन्होंने कहा तात! अभी इसी साधना का अभ्यास करो। नियम समय पर अगली साधना बता दी जायेगी।

पीवक वहाँ से चले तो आये पर उनको सन्तोष नहीं हुआ। वे जिस भिक्षु के पास जाते उसी से यही कहते- मैंने जो साधनायें सिद्ध कर ली न जाने क्यों तथागत उन्हीं को दोहराने की बात करते हैं इससे मेरा समय नष्ट होगा या नहीं?

एक दिन ज्ञात हुआ पीवक संधाराम परित्याग कर नगर की किसी रमणी के साथ भाग गया है- भिक्षुओं ने अत्यन्त आश्चर्यपूर्वक यह सूचना जाकर तथागत को दी तो उन्होंने हँसकर सहज स्वर में कहा- यह दोष उसका नहीं महत्वाकांक्षा का है, यह जहाँ रहेगी सर्वनाश ही करेगी फिर चाहे वह योगी यती और तपस्वी ही क्यों न हो?


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles