उस समय दूसरा विश्व युद्ध चल रहा था। अमेरिका और जापान की सेनाएँ मोर्चों पर आमने-सामने डटी हुई थीं। जापान की सरकार ने अपने एक छोटे से टापू गुआम को बचाने के लिए 13 हजार सैनिक तैनात कर दिये थे और अमेरिका जल्दी से जल्दी इस टापू पर अपना अधिकार देखना चाहता था क्योंकि गुआम सैनिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण था। यहाँ से दुश्मन पर सीधे वार किया जा सकता था।
गुआम पर कब्जा बनाये रखने और उस पर अधिकार करने के लिए दोनों देशों की सेनाएं घमासान लड़ाई लड़ रही थीं। जब जापानी सैनिकों के हारने का मौका आया तो उन्होंने आत्म-समर्पण करने के स्थान पर लड़ते-लड़ते मर जाना श्रेयस्कर समझा। संख्या और साधन बल में अधिक शक्तिशाली होने के कारण अमेरिकी सैनिकों को जल्दी विजय मिल गई और गुआम का पतन हो गया। सैकड़ों जापानी सैनिक निर्णायक युद्ध की अन्तिम घड़ियों तक लड़ते रहने के बाद, कुछ बस न चलता देख जंगलों में भाग गये क्योंकि सामने रहते हुए उन्हें हथियार डालने पड़ते, समर्पण करना पड़ता, पर उन्हें यह किसी कीमत पर स्वीकार नहीं था।
सन् 1973 में इन्हीं सैनिकों में से सैनिक सार्जेण्ट शियोर्चा योकोई वापस लौटा, जिसे जापान ने सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित किया। योकोई अट्ठाईस वर्षों तक जंगल की खाक छानता हुआ, पेड़-पौधों को अपना साथी मानते हुए, प्रगति की दौड़ दौड़ रही दुनिया से बेखबर सभ्य संसार में लौटा था। उसके इस वनवास की कहानी बहुत ही रोमाँचकारी है। योकोई को किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा? और उसने इन सबको किस सहजता से स्वीकार किया। उसके मूल में है- आत्म सम्मान और राष्ट्रीय गौरव की अक्षुण्ण बनाये रखने की भावना। ‘टूट’ जायेंगे पर झुकेंगे नहीं, यह निष्ठा।
अट्ठाईस वर्षों तक जंगल में रहते हुए योकोई को यह पता ही नहीं चला कि दूसरा विश्व युद्ध समाप्त हो गया है। इस सम्बन्ध में वह क्या सोचता था? पत्रकारी ने योकोई से यह प्रश्न किया तो उसने बताया, मैंने यह सीखा था कि जीतेजी बन्दी बनने की अपेक्षा मर जाना अच्छा है। गुआम की लड़ाई में आसन्न पराजय को देखते हुए सैकड़ों सैनिकों के साथ में भी जंगल में भाग गया। मेरे साथ आठ सैनिक और थे। हमें लगा कि सबका एक साथ रहना खतरे से खाली नहीं है। इसलिए हम टोलियों में बँट गये। मेरी टोली में दो सैनिक और थे। हम तीनों टोलोफोफोखिर किले की आरे चले गये। यहीं पर हमें पता चला कि जापान हार गया है। अब तो नगर में जाने की सम्भावना और भी समाप्त हो गई।
अट्ठाईस वर्षों तक योकोई ने आदिम जीवन बिताया। उसके पास केवल एक कैंची थी, जिससे वह पेड़ों की शाखाएँ काटता और उनका उपयोग भोजन पकाने तथा छाया करने के लिए करता। कपड़े सीने के लिए उसने अपने बढ़े हुए नाखूनों का सुई के रूप में इस्तेमाल किया। रहने के लिए उसने जमीन में गुफा खोद ली और वह बिछौने के लिए पेड़ों की पत्तियों का उपयोग करता। भोजन के काम जंगली फल काम आते।
समय की जानकारी तो कैसे रखता? परन्तु महीने और वर्ष की गणना तो वह रखता ही था। पूर्णिमा का चाँद देखकर वह पेड़ के तने पर एक निशान बना देता। वह गुफा से बाहर बहुत कम निकलता था। प्रायः रात को ही वह बाहर भोजन की तलाश में आता था। कभी कभार बाहर आना उसे पुनः सभ्य संसार में ले आया।
एक बार टोलोफोको नहीं के किनारे घूम रहा था कि जो मछुआरों ने उसे देख लिया और सन्देह होने के कारण वे उसे पकड़ कर ले आये तथा पुलिस को सौंप दिया। वहाँ पूछताछ करने पर पता चला कि वह जापान की शाही सेना की 38 वीं इन्फैक्ट्री रेजीमेंट का सिपाही है। जापान की सरकार ने उसे करीब 350 सेन वेतन और सहायता के रूप में काफी रकम देने की घोषणा की है।