बन्ध मुद्राओं का स्थूल तथा सूक्ष्म प्रभाव

January 1981

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हठयोग प्रदीपिका में दीर्घायु प्राप्त की जाने वाली नौ मुद्राओं का वर्णन किया गया है। जो निम्न हैं- (1) महामुद्रा (2) महाबन्ध (3) खेचरी (4) उड्डियान बन्ध (5) वज्रोली (6) शक्तिचालनी।

मुद्राओं के द्वारा मस्तिष्क के न्यूरोनल सर्किट या मस्तिष्क को जगाकर शक्ति को सहज सजग चेतना के स्तर तक लाया जा सकता है।

नलिका विहीन रासायनिक ग्रन्थियों को उत्तेजित कर या अन्य केन्द्रों को परिचालित कर शरीर के अनैच्छिक अवयवों को अधिकृत कर सकते हैं जिससे शरीर के समस्त अवयवों पर नियन्त्रण प्राप्त किया जा सकता है।

मुद्राओं से मस्तिष्क में अल्फा तरंगें अधिक बनने लगती हैं। इन मुद्राओं को अधिक समय तक करने से ध्यानयोग या एकाग्रता की क्रिया बनती है जिससे हमारी बौद्धिक क्रियाएँ शान्त हो जाती हैं जिसके सतत् अभ्यास से कुंठा, हिस्टीरिया, निराशा, दुःख, चिन्ता आदि से छुटकारा प्राप्त किया जा सकता है। साथ ही मानसिक क्रियाओं और विचारों पर भी नियन्त्रण प्राप्त होता है।

योग साधना में वर्णित ‘बन्ध’ विधि में किसी प्रकार का बन्धन नहीं है जैसा कि शब्दार्थ से प्रतीत होता है। अपितु चक्रों के आयनोप्लाज्मिक क्षेत्रों को सक्रिय व विस्तृत करने की विधि है। बन्ध तीन होते हैं इनके अलग अभ्यास से विभिन्न चक्रों के आयनिक क्षेत्रों को जागृत करने में सहायता मिलती है किन्तु तीनों बन्धों का एक साथ अभ्यास करने से चौथा महाबन्ध हो जाता है जो सबसे ज्यादा प्रभावी व कारगर सिद्ध होता है।

इन बन्धों का चक्रों पर पड़ने वाले प्रभाव को समझाने के लिए हम सुषुम्ना के अगल-बगल इड़ा व पिंगला को थ्री डाइमेशन में घूमता हुआ एक विद्युत क्वापल मान सकते हैं। जब मूलबंध का अभ्यास किया जाता है तो उससे मूलाधार चक्र के चारों ओर का आयनिक क्षेत्र विस्तृत हो जाता है और उसकी सघनता समाप्त हो जाती है। इसी प्रकार उड्डियान बन्ध के अभ्यास से मणिपुर चक्र के चारों ओर की सघनता नष्ट हो जाती है और उसके चारों ओर का आयनिक क्षेत्र विस्तृत होता जाता है। साथ ही जब मूलबन्ध के साथ उड्डियान बन्ध का अभ्यास किया जाता है तो मूलाधार से लेकर स्वाधिष्ठान चक्र के मध्य का आयनोप्लाज्मिक क्षेत्र विस्तृत हो जाता है।

तीसरा है जालन्धर बन्ध, जालन्धर बन्ध के अभ्यास से विशुद्धि चक्र के चारों ओर का आयनिक क्षेत्र अपनी सघनता छोड़ विस्तृत होता जाता है और इसकी तरंगों का प्रभाव ऊपर की ओर उठता हुआ आज्ञाचक्र व अनहत चक्र को प्रभावित करता है। जालन्धर बन्ध का अभ्यास उड्डियान बन्ध के साथ किये जाने से स्वाधिष्ठान चक्र से लेकर आज्ञाचक्र तक का आयनोप्लाज्मिक क्षेत्र विस्तृत हो जाता है। इसी प्रकार जब तीनों बन्धों अर्थात् मूलाधार, उड्डियान एवं जालन्धर बन्ध का एक साथ अभ्यास किया जाता है तो इसे महाबन्ध की स्थिति कहा जाता है। इसके अभ्यास से मूलाधार चक्र से लेकर आज्ञाचक्र व अनहत चक्र तक का आयनिक क्षेत्र अपनी सघनता त्याग कर विस्तार ग्रहण करता है जिससे प्राणशक्ति या प्राणऊर्जा विकसित होती है। सभी चक्रों को जागृत करने में सहायता मिलती है। इस प्रकार योगाभ्यास की इस प्रक्रिया से मानसिक सक्रियता बढ़ जाती है और अति मानवीय क्षमता प्राप्त करने में काफी सहायक सिद्ध होती है।

बन्ध और मुद्राएँ प्रत्यक्षतः शरीर के सामान्य अवयवों पर ही दबाव डालने लगते हैं, पर परोक्ष स्थिति का पता लगाने पर प्रतीत होता है कि उनकी प्रतिक्रिया अंतःस्रावी ग्रंथियों पर भी होती है।

यह दिन-दिन स्पष्ट होता जाता है कि हृदय, फेफड़ा, आमाशय, वृक्क आदि गतिविधियों का स्वास्थ्य पर जो प्रभाव पड़ता है उससे भी प्रतिक्रिया अंतःस्रावी ग्रन्थियों से रिसने वाले हारमोनों की होती है। उनकी तनिक भी न्यूनाधिकता अथवा व्यवस्था अस्त-व्यस्तता से शरीर ही नहीं मस्तिष्क भी कुछ से कुछ होने लगता है। अभी तक वह उपाय हस्तगत नहीं हुआ है जिन हारमोनों के उद्गम अथवा स्राव में अभीष्ट हेर-फेर किया जा सके। चिकित्सा विज्ञान को इस भारी कमी को बन्ध और मुद्राओं के माध्यम से ठीक करने का नया मार्ग मिला है। ऐसा नया जो चिर पुरातन भी है और जिसका प्रयोग भारतीय योग विज्ञानी चिरकाल से करते रहे हैं। उड्डियान बन्ध से थाइराइड का सन्तुलन ठीक करने में भारी सहायता मिलती है।

थायराइड ग्रन्थि शरीर में, गले में स्थित वह ग्रन्थि है जिसका यदि वजन किया जाय तो इसका भार 15 से 20 ग्राम होता है। इस ग्रन्थि में अनेक छिद्र होते हैं। जिनमें जीवनोपयोगी हारमोन्स जैसे थायरोक्सिन आदि रहते हैं। खाद्य-पदार्थों में पाया जाने वाला (आयोडीन तत्व) शरीर को भोजन द्वारा मिलता है और ग्रन्थि इस तत्व को भोजन से ले लेती है।

थायराइड ग्रन्थि परस्पर सम्बद्ध तथा अन्योन्याश्रित आठ इन्डोक्राइन ग्रन्थियों में से एक है इन इन्डोक्राइन ग्रन्थियों को कुण्डलिनी योग का अभ्यास करके स्वस्थ बना जा सकता है।

योग के द्वारा थायराइड ग्रन्थि को क्रियाशील बनाया है और इन्डोक्राइन ग्रन्थि प्रणाली तथा स्नायु-तन्त्र के साथ इसका सामंजस्य स्थापित कर सकते हैं।

सूक्ष्म शरीर विज्ञान में चक्र, ग्रन्थि, उपत्यिका आदि का महत्वपूर्ण स्थान है। उन्हें जागृत, समर्थ और प्रखर बनाने के लिए कितने ही प्रकार के अभ्यास किये जाते हैं। ध्यान धारणा के मानसिक प्रयोग भी उस प्रयोजन के लिए किये जाते हैं। इनमें सरल उपाय बन्ध मुद्राओं का है। आसन प्राणायाम की तरह बन्ध मुद्राओं का प्रभाव भी स्थूल शरीर की तरह ही सूक्ष्म शरीर पर भी पड़ता है। चक्रों के जागरण से कई अतीन्द्रिय क्षमताओं को विकसित होने के लाभों की चर्चा होती रहती है। उनके लिए प्रयुक्त होने वाले अन्याय उपचारों में बन्ध और मुद्राओं का भी स्थान है।

हमारे शरीर में सात मुख्य चक्र हैं। इनका स्थूल शरीर में भी प्रकटीकरण हुआ है उनमें से अधिकतर मेरुदण्ड में स्थित हैं और लगभग उन्हीं स्थानों पर हैं जहाँ अन्य इन्डोक्राइन ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं। इन्हीं स्थानों पर स्नायु जाल भी हैं और यहीं पर स्नायु एकत्र भी होते हैं। इस प्रकार स्नायुओं, ग्रंथियों और चक्रों के बीच एक सम्बन्ध है। चक्र ऊर्जा बिन्दु हैं। हमारे अस्तित्व के उच्चतम स्तरों से ऊर्जा इन्हीं बिन्दुओं से होती हुई शरीर में प्रवेश करती है, ऐसा लगता है कि शरीर के अन्दर स्थित ऊर्जा के विभिन्न स्तरों को किसी सुई-डोरे से खींच-खींचकर चक्र बिन्दुओं पर बाँध दिया गया हो।

इन्डोक्राइन ग्रन्थियाँ चक्र से सीधे सम्बन्धित है थायराइड ग्रन्थि उसी जगह है जहाँ विशुद्धि चक्र स्थित है। विशुद्धि का अर्थ है शुद्धिकरण। स्टैनफोर्ड विश्व-विद्यालय के विलियम ए-टिलर के अनुसार यदि हम ग्रन्थियों और चक्रों के सम्बन्धों को भली प्रकार समझ लें तो शरीर की शक्ति असीमित रूप से बढ़ाई जा सकती है। इन्डोक्राइन ग्रन्थियाँ और उनके पास स्थित चक्रों के जोड़े ब्रह्मांड की ऊर्जा खींचकर शरीर में भर देते हैं, जब शरीर की ऊर्जा प्रणालियाँ सन्तुलित होती हैं तभी शरीर शक्ति का अधिकतम उपयोग करता है। अन्यथा नहीं।

बन्धों के द्वारा शरीर के विशेष स्थानों पर रक्त प्रवाह एवं प्राण-संचार में रोक लगती है और नियन्त्रण होता है। विभिन्न शारीरिक अवयवों में प्राण एवं रक्त का प्रवाह संयत किया जा सकता है। साधना में प्रयुक्त होने वाले मुख्य बन्ध तीनों हैं- (1) मूलबन्ध (2) उड्डियान बन्ध (3) जालन्धर बन्ध।

पांडिचेरी के ‘जवाहरलाल इन्स्टीट्यूट ऑफ पोस्ट ग्रेजुएट मेडीकल एजुकेशन एण्ड रिसर्च’ के फिजियोलॉजी विभाग के डा. गोपाल, एम.बटमैन और एस. लक्ष्मण ने बन्धों का नाड़ी, हृदय एवं ब्लडप्रेशर पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन प्रयोगों द्वारा किया।

उन्होंने 18 योगाभ्यासियों पर प्रयोग करके देखा कि प्राणायाम के साथ जब बंध लगाने की क्रिया की जाती है तो रक्त-वाहिनियों पर दबाव पड़ने से हृदय की धड़कन एवं रक्तचाप (ब्लड प्रेशर) में कमी हो जाती है। साथ ही शरीर एवं मस्तिष्क को विश्राम देने में मदद मिलती है।

डा. गोपाल एवं उनके साथियों, सहयोगियों का कहना है कि बन्धों के प्रयोग से योगाभ्यास द्वारा ‘ब्लड प्रेशर’ का उपचार किया जा सकता है। उन्होंने सुझाव दिया है कि रक्तचाप कि चिकित्सा के लिए जालंधर बन्ध का प्रयोग किया जाय तथा रक्तचाप साधारण अवस्था में आने पर मूलबंध और उड्डियान बन्ध का अभ्यास करना चाहिए। इनके अभ्यास से रक्तचाप को बढ़ने से रोका जा सकता है।

इन प्रयोगकर्ताओं के अनुसार मूलबन्ध और जालन्धर बंध साथ-साथ करने से रक्तचाप में राहत मिलती है। इस प्रकार के परीक्षणों की चर्चा उनने अपनी पुस्तक ‘बन्ध शरीर विज्ञान का अध्ययन’ में की है।

हठयोग प्रदीपिका के अनुसार मूलबंध के अभ्यास से अपान व प्राण की एकता होती है। संचित मल, मूत्र का क्षय होता है तथा वृद्ध भी युवावस्था को प्राप्त होता है। मूलबंध के करने से अधोगामी अपान ऊर्ध्वगामी होकर जठराग्नि के मण्डल में पहुँचता है जिससे जठराग्नि की ज्वाला तीव्र होती है फिर अग्नि और अपान से ये दोनों ऊष्ण होकर ऊर्ध्वगति से प्राण में पहुँच जाते हैं जिसके समागम से जठराग्नि अत्यन्त प्रज्वलित हो जाती है।

बन्ध मुद्राओं का प्रभाव शरीर और मस्तिष्क पर क्यों होता है? इसकी जाँच-पड़ताल शरीर विज्ञानियों ने गम्भीरतापूर्वक की है। इस प्रयोजन के लिए मस्तिष्कीय तरंगों के अध्ययन के आधार पर वायोफीड नामक नवीन मशीन का आविष्कार हुआ है जिसके सहयोग से व्यक्ति मन और मस्तिष्क को अपनी इच्छानुसार शान्त कर विश्राम की अवस्था को प्राप्त कर सकता है। ‘लेंगली पोर्टर न्यूरोसाइकियाट्रिक इंस्टीट्यूट’ के जॉय कीमिया ने सिद्ध किया है कि जापानी झेन शिक्षक ध्यान अवस्था में साधारण अवस्था की अपेक्षा अधिक अल्फा तरंगों को दर्शाते हैं तथा वे अपनी इच्छानुसार कभी भी बन्द या आरम्भ कर सकते हैं। जॉय कीमिया का कथन है कि आनन्ददायक अनुभूति का कारण अल्फा तरंगों की उपरान्त स्थिति से अधीरता या व्यग्रता का शमन होता है।

इस समय फीडबैक का अधिकाधिक प्रचलन अमेरिका में है। यूरोप तथा अन्य औद्योगिक देश भी इसके लिए प्रयत्नशील हैं। लोगों की उत्सुकता इसलिए बढ़ रही है कि अल्फाबायोफीडबैक के प्रयोग से उन्हें उपविष टिकियों का प्रयोग बन्द कर देना पड़ेगा और वे अपनी मस्तिष्क की तरंगों पर व अनैच्छिक शारीरिक अवयवों पर चेतना के विभिन्न स्तरों पर अधिकार प्राप्त कर लेंगे।

अपने मस्तिष्क की विद्युतीय तरंगों पर अधिकार प्राप्त कर लेने पर बीमारियों पर भी अधिकार प्राप्त कर सकते हैं।

शरीर के प्रति सजगता हमें अपने शरीर को चलाने में मदद करती है और गलत रास्ते में जाने से रोकती है। इस नियन्त्रण से ज्ञान संवर्धन होता है प्रतिभा का विकास होता है।


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