आत्म चेतना का प्रबल आकर्षण बिल

March 1979

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जीव और ब्रह्म में, आत्मा और परमात्मा में संबंध स्थापित करने के लिए विभिन्न योग साधनाओं का सहारा लिया जाता है। उन सभी योग साधनाओं में, चाहे वह भक्तिपरक हों या ज्ञानपरक, कर्मपरक हों अथवा तन्त्र मार्गी-ध्यान का महत्व पूर्ण स्थान है। क्योंकि यही वह सेतु है जिससे चढ़ कर आत्मा परमात्मा तक पहुँचता है, यही वह डोर है जिससे जीव ब्रह्म से बँधता है।

ध्यान में अपनी बिखरी हुई चित्तवृत्तियों को सब और से समेट कर एक दिशा में, इष्ट में नियोजित किया जाता है। शास्त्रकारों का कथन है कि ईश्वर का अनन्य भाव से चिन्तन, साधक को भी ईश्वर बना देता है। अग्नि में पड़ कर ईधन जिस प्रकार अग्निमय हो जाता है, उसी प्रकार ध्यान द्वारा साधक अपनी चेतना को ईश्वर में आहुत कर स्वयं भी ईश्वर स्वरूप हो जाता है। यह ध्यान साधना का अलंकारिक प्रतिपादन नहीं है। ईश्वरीय सत्ता का तन्मयतापूर्वक भाव भरा चिन्तन व्यक्ति चेतना को क्रमशः विकसित करता चलता है और आत्मा से परमात्मा की मँजिल तक पहुँचा जा सकता है। यह यात्रा किस प्रकार सम्पन्न होती है यह तो अनुभव गम्य ही है परन्तु इस साधना के पीछे छुपे तत्व दर्शन का विश्लेषण तो किया ही जा सकता है। सर्वविदित है कि बिखरी हुई शक्तियाँ और वस्तुएँ बहुत दुर्बल होती हैं। बिखरी हुई बुहारी की सीकों से धूल का एक कण भी साफ नहीं किया जा सकता, परन्तु वे जुड़ कर सूत्र में बंध कर एक दिशा में कार्य करने लगती हैं तो सारी गन्दगी देखते ही देखते साफ हो जाती है बिखरी हुई सूर्य किरणों से साधारण गर्मी तथा प्रकाश ही मिलता है। परन्तु उन्हें केन्द्रित कर लिया जाय तो विराट् ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है। आज-कल सौर ऊर्जा के माध्यम से कारखाने चलाने और बिजली पैदा करने की बात सोची जाती है, उसका उत्पादन भी सूर्य किरणों को केन्द्रित करके ही किया जाना सम्भव है।

ईश्वरीय सत्ता की उल्लेखित विशेषताओं की तुलना में जीव की सामर्थ्य निस्सन्देह तुच्छ है परन्तु उसमें विकास की भी उतनी ही सम्भावना है जितनी कि बीच के वृक्ष होने की। ध्यान के द्वारा उस संभावना को साकार करने के उपयुक्त पात्रता का विकास ही किया जाता है। यह सम्भावना किस प्रकार साकार होती है यह उदाहरण द्वारा भी भली भाँति समझा जा सकता है। प्रवाहमान नदी की धारा में कई बार भयंकर प्रवाह पड़ते देखे गये हैं इनकी सामर्थ्य इतनी अधिक होती है कि उधर से गुजरने वाली नावों और जहाजों का अस्तित्व संकट में पड़ जाता है। यह भंवर इसलिए पड़ते है कि नदी का सम्पूर्ण प्रवाह सब दिशाओं से उसी स्थान पर केन्द्रित हो जाता है। विभिन्न दिशाओं में बहने वाली हवा जब किसी बिन्दु पर केन्द्रित होने लगती एक स्थान पर आकर मिलने लगती है तो चक्रवात उत्पन्न हो जाते हैं। चक्रवातों की क्षमता कितनी विघातक है? यह उदाहरण है किन्तु मानवीय चेतना में ध्यान के द्वारा जो शक्ति जागृत होती है वह व्यक्ति की समस्त क्षुद्रताओं, मलीनताओं, अवांछनियताओं को उखाड़ फेंकने और मनुष्य को उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर ले पहुँचने में समर्थ है।

पिण्ड ब्रह्माण्ड की ही एक छोटी अनुकृति है। एक परमाणु भी अब उतना रहस्यमय हो गया है जितना कि ब्रह्माण्ड। केन्द्रीभूत होकर सिकुड़ कर कई ग्रह−नक्षत्र और तारे भी इतने शक्तिशाली हो गये हैं कि वे दिखाई पड़ने में तो 60 किलोमीटर व्यास के लगते हैं परन्तु हमारे सौरमण्डल के सूर्य जैसे दस सूर्यो के बराबर शक्ति रखते हैं और ऐसे एक दो या सौ दस बीस नहीं दो सौ तारों का पता लगाया जा चुका है जो आकर में दिल्ली जैसे शहर से भी छोटे होने के बावजूद पृथ्वी का अपनी कक्षा से खींच कर अलग हटा सकते है।

कैसे निर्माण होता है इन शक्तिशाली तेज पुर्जों का यह भी कम रोचक रोमाँचक नहीं है। अन्तरिक्ष में फैली हुई हाइड्रोजन गैस का बादल जिन्हें ‘नेव्यूल’ कहा जाता है, धीरे-धीरे साधन होता जाता है। जैसे-जैसे वह सघन होता है उसमें ऊर्जा उत्पन्न होने लगती है, इनकी मद्धिम चमक असंख्य मीलों दूर से देखी जा सकती है। इन तारों से निरन्तर शक्ति प्रवाह निकलता रहता है। इन तारों से निरन्तर शक्ति प्रवाह निकलता रहता है और उसके साथ ही वह सिकुड़ना शुरू हो जाता है। यह प्रक्रिया अरबों खरबों वर्ष में जा कर पूरी होती है। तारे जैसे-जैसे सिकुड़ने लगते हैं उनका घनत्व भी बढ़ता जाता है। यह तो सर्व सामान्य बात है कि वस्तु का घनत्व जितना अधिक होगा उसका आकर्षण बल और भार भी उतना ही बढ़ जाता है। निरन्तर सिकुड़ते रहने के बाद एक स्थिति ऐसी आ जाती है कि तारे उसमें ज्यादा नहीं सिकुड़ सकते और एक ऐसे ऊर्जा स्त्रोत में बदल जाते हैं जो आकार में अपने से कई गुने बड़े ग्रह नक्षत्रों को भी उसकी कक्षा से खींच कर अपनी ओर आकर्षित करने लगते हैं। वैज्ञानिकों ने इन तारों को ब्लैक होल का नाम दिया है।

ऐसे ‘ब्लैक होल’ का अस्तित्व पहली बार आठ दिसम्बर 1972 में ही मालूम हुआ। कई वर्षा से इसके पूर्व खगोल शास्त्री कुछ तारों और उनमें सौरमण्डल के सदस्यों में एक विशेष बिन्दु पर असामान्य स्थिति लक्ष्य कर रहे थे। ये पिण्ड अपने निश्चित पथ से विचलित हो जाते थे और उस विशेष बिन्दु से हटने के वाद पुनः सामान्य पथ पर घूमने लगते थे। वर्षों तक अन्तरिक्षयान और उपग्रहों में लगाये गये यन्त्रों से लिये गये रेड फोटो तथा एक्सरे परीक्षणों से इस बात की पुष्टि हुई कि यह विचलन ‘ब्लैक होल’ नामक अज्ञातपिण्डों की प्रबल आकर्षण शक्ति के कारण होता है।

पृथ्वी के सबसे समीप वाले ब्लैक होल की पृथ्वी से दूरी 7500 प्रकाश वर्ष है। (एक प्रकाश वर्ष अर्थात् एक वर्ष में प्रकाश जितनी दूरी तय करता है। यह एक प्रकाश वर्ष दरी का मतलब है। दस-हजार अरब किलोमीटर। यानी कोई यान प्रकाश की गति से चले तो वह 7500 वर्षों में सबसे समीप वाले ब्लैक होल तक पहुँच सकेगा। सबसे नजदीक वाले ब्लैक होल को वैज्ञानिकों ने साइगनस एक्स नाम दिया है। ‘साइगनस एक्स-1’ नामक ब्लैक होल का अर्द्ध व्यास 60 किलोमीटर है जबकि उसका भार 10 सूर्यो के बराबर है। यह तारा जब चमकता रहा होगा तब हमारे सूर्य से दस गुना बड़ा रहा होगा। परन्तु जब इसमें इतनी आकर्षण शक्ति नहीं थी जितनी कि अब है।

‘साइगनस एक्स 1’-अथवा उस जैसे अन्य ब्लैक होलों में इतनी अधिक आकर्षण शक्ति है कि सूर्य से दस गुना बड़ा कोई भी आकाशीय पिण्ड उसके आस-पास से गुजर जाय तो वह उसे अपने पथ से विचलित कर सकता है और यदि वह विण्ड ब्लैक होल से आकार में छोटा हुआ तो ब्लैक होल उसे उदरस्थ कर लेता है। ब्लैक होल अपने आस-पास के ताराओं से पदार्थ खींच कर अरना सीमा क्षेत्र निरन्तर बढ़ाता रहता है। उस सीमा क्षेत्र में निरन्तर एक्स किरणों उत्सर्जित होती रहती हैं।

इन शक्ति किरणों के उत्सर्जन का एक मात्र कारण उस तारे का-जिसने ब्लैक होल का रूप धारण किया है-निरन्तर सिकुड़ते जाना है। कहना चाहिए एक बिन्दु की ओर केन्द्रित होते जाना हैं। यद्यपि ब्लैक होल से इसकी कोई संगति नहीं बैठती, फिर भी इतना तो समझा ही जा सकता है कि ध्यान साधना में व्यक्ति की मनः शक्ति का बिखराव एक स्थान पर सिमटता जाता है। शक्ति का वह केन्द्रियकरण ऐसा चमत्कारी प्रभाव उत्पन्न करता है कि व्यक्ति सिद्ध सन्तों और योगी पुरुषों की श्रेणी में जा बैठता है।

बिखराव इकाइयों की शक्ति को तो बिखेरता ही है, उसके वजन को हल्का कर देता है। कागज की बड़ी रील को, जिसका उपयोग अखबार छापने में किया जाता है, एक नदी पर फैलाया जाय तो वह पानी पर तैरने लगेगी परन्तु उसे लपेट कर पानी में डाला जाय तो वह अपने ही बराबर वजनदार दूसरी वस्तु को भी पानी में ले डूबेगी। कागज का वजह वही है। परन्तु उसका फैलाव सिकुड़ने के कारण शक्ति बढ़ जाती है। मनुष्य की बिखरी हुई चित्तवृत्तियाँ भी जब एक केंद्र पर एकत्रित होने लगती है तो वही शक्ति मिलकर कमाल कर दिखाती है।

‘ब्लैक होल’ में भी इसी तरह की शक्ति सामर्थ्य उत्पन्न हो जाती है। उसके सीमा क्षेत्र में कणों के प्रबल आकर्षण से घनत्व असामान्य रूप में बढ़ जाने के कारण एक पिन के आधार की वस्तु का वजन दस हाथियों के बराबर हो जाता है। इस बात को यों भी कहा जा सकता है कि यदि दस हाथियों को ब्लैकहोल के सीमा क्षेत्र में पहुँचाया जाय तो वहाँ उन सबका सम्मिलित आकार एक पिन से अधिक नहीं होगा। अर्थात् ब्लैकहोल का एक पिन यदि हाथी की पीठ पर रख दिया जाय तो उसके बोझ से दबकर हाथी जमीन पर बैठ जायेगा।

असामान्य घनत्व और प्रबल आकर्षण शक्ति के कारण ‘ब्लैक होल’ क्षेत्र में प्रवेश करने वाली वस्तुओं की गति भी प्रकाश वेग के बराबर हो जायेगी। इसे यों भी समझा जा सकता है कि यदि कोई मनुष्य ब्लैकहोल के क्षेत्र में प्रवेश कर जाय तो वह गुरुत्वबल के कारण अस्तित्वहीन हो जायेगा, किन्तु उसकी गति प्रकाश की गति के बराबर हो जायेगी। प्रकाश की गति से चलने पर समय का अस्तित्व भी नहीं रह जाता है। अर्थात् ब्लैक होल की यात्रा करने और दस हजार अरब कि.मी. घूम लेने के बाद पृथ्वी पर वापस आयेगा तो वह घड़ी के हिसाब से वहीं का वहीं होगा।

अणुओं की सघन स्थिति और प्रबल आकर्षण शक्ति वाले ‘ब्लैकहोल’ साइगन्स एक्स-1 सूर्य से भी अधिक शक्ति उत्सर्जित करता है। इस ब्लैक होल से एक सेकेंड में इतनी शक्ति उत्सर्जित होती है कि उससे पृथ्वी पर कारों को 100 कि.मी. प्रति घंटे की गति से निरन्तर दौड़ाया जाय तो उन्हें 10 अरब वर्षों तक चलाया जा सकता है।

यह तो फैले हुए स्थूल कणों के सिकुड़ने और सघन होने से उत्पन्न हुई प्रचण्ड शक्ति है। अभी तक इससे कोई लाभ उठाने की सम्भावना नहीं दिखाई पड़ी है। कुछ लोगों ने यह विचार जरूर किया है कि पृथ्वी पर जब प्राकृतिक ऊर्जा के स्त्रोत निरन्तर सूखते जा रहे हैं तो किसी प्रकार इन ‘ब्लैक होलों’ की शक्ति का उपयोग किया जाय। परन्तु यह विचार अभी कल्पना ही है।

लेकिन चेतना के विश्रृंखलित और अनियंत्रित फैले स्वरूप को, बिखरी हुई चित्तवृत्तियों को संगठित किया जाय तो इसी जीवन में प्रचंड शक्ति प्रवाह अपने भीतर ही पैदा किये जा सकते हैं। उस सम्भावना के बीच में जीव में विद्यमान हैं, आवश्यकता है ध्यान और साधना का खाद पानी भर देने की। फिर तो ब्रह्म के समान समर्थ बनने का अवसर मिल सकता है। तपस्वी; ज्ञानी, तत्वज्ञ इन्हीं शक्ति स्त्रोतों को प्रचंड बनाने और उनका आत्मकल्याण तथा लोक कल्याण के प्रयोजन में उपयोग करने का प्रयत्न करते रहते हैं।


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