मनोबल गिराने वाले आक्रमणों से रक्षा

March 1979

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कहते हैं किसी विद्यालय के चतुर विद्यार्थियों उस दिन स्कूल की छुट्टी कराने के लिए एक चाल चली। वे एक-एक करके किसी बहाने अध्यापक के पास पहुँचते रहे और अन्य बातों के अतिरिक्त यह भी कहते रहे कि आपका चेहरा आज बुरी तरह उतरा हुआ है, आँखें लाल हैं ओर बुखार जैसे लक्षण प्रतीत हो रहे हैं। यही बात घुमा फिराकर मिलने वाले सभी लड़के अपने-अपने ढंग से कहते चले गये।

अध्यापक ने आरम्भ में तो अधिक ध्यान न दिया पर जब बार-बार वही बात सामने आई तो वह अपने बीमार होने की बात विश्वास करके, सचमुच ही चिन्ता ग्रस्त और बीमार हो गया। अन्ततः वह स्कूल से छुट्टी करके घर चला गया और विद्यार्थियों का मनोरथ मखौल-मखौल में ही पूरा हो गया।

बाल सफेद होने, चेहरे पर एक दो झुर्रियाँ दीखने से बुढ़ापे का आक्रमण हो जाने जैसी चिन्ता करने का बहुत बड़ा कारण नहीं है किन्तु मिलने वाले उसी बात को बार-बार दुहराते रहे और चिन्ता व्यक्त करते रहे है तो इन कहने वालों की चिन्ता उथली एवं बनावटी होते हुए भी उसका बुरा प्रभाव संबंधित व्यक्ति पर पड़कर रहेगा और वह इन शुभचिन्तकों के कथनानुसार उसी ढांचे में चलता चला जायेगा। और अपेक्षाकृत अधिक जल्दी वास्तविक बुढ़ापे का शिकार बनकर रहेगा। कमजोरी और बीमारी भी इसी प्रकार इन स्वजनों के द्वारा उपहार में मिल सकती है। उनका मंशा भले ही इस प्रकार की क्षति पहुँचाना न रहा हो, पर इससे क्या प्रहार तो अपना असर दिखायेगा ही, भले ही वह जान बूझ कर किया गया हो या अनजाने में।

अक्सर मातायें अपने बच्चों के बारे में पत्नियाँ अपने पतियों के बारे में कमजोरी-बीमारी आदि की बात कह कर चिन्ता व्यक्त करती रहती है और प्रकारान्तर से अपने प्रिय पात्रों के स्वास्थ्य को अनजाने ही हानि पहुँचाती रहती हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि वस्तुतः बीमार या कमजोर होने पर उस बात की उपेक्षा करते रहा जाय। उपाय, उपचार करना-परामर्श मार्गदर्शन देना- एक बात है और ऐसा कुछ न करके मात्र अपनी अवास्तविक चिन्ता प्रकट करके किसी को वस्तुतः चिंतित कर देना दूसरी।

अभिभावक अपने बच्चों की मानसिक क्षमता-बुद्धिमत्ता के सम्बन्ध में चिंता व्यक्त करते रहते है। उसे घटाकर बताते हैं। अधिक तीव्र बुद्धि वालों से तुलना करते हैं और प्रकारान्तर वे अपने चालकों को मानसिक स्थिति में हेय सिद्ध करते रहते है यह भर्त्सना भले ही अपने बालक को अधिक बुद्धिमान होने की शुभ कामना से प्रेरित होकर की गई हो पर उसका तरीका ऐसा होता है जिससे बच्चों के कोमल मन पर निराशा का दबाव पड़ता है और वे वस्तुतः मूर्ख, प्रमादी बनते चले जाते हैं। आत्म स्वीकृति को मनःशास्त्र में अत्यधिक माना गया है। यह उत्पन्न तो अपने द्वारा ही होती हैं, पर इसमें योगदान समीपवर्ती स्वजनों या शुभ चिन्तकों का ही अधिक होता है। यह है जिसे स्वजनों का स्वजनों पर अत्याचार कर सकते है।

इस निषेधात्मक प्रभाव प्रक्षेपण की हानि को यदि समझा जा सका होता और उसके स्थान पर विधेयात्मक प्रक्रिया अपनाई जा सकी होती तो निश्चय ही खाई खोदने के स्थान पर दीवार चुनने जैसा अन्तर दिखाई पड़ता खाई खोदने से समतल भूमि नीचे धंसती जाती है। इसके विपरीत चुनने या जमा करने में वही स्थान ऊँचा उठता चला जाता है। उपयोगी भी बनता है और दूर से दिखाई पड़ता है। यदि शारीरिक स्वस्थता, मानसिक बुद्धिमत्ता; कामों की कुशलता, व्यक्तित्व की श्रेष्ठता को ढूँढ़ा जाय तो उसकी बड़ी मात्रा हर किसी में मिल सकती है। स्वजनों में भी। उसी पक्ष को यदि उत्साहवर्धक ढंग से कहते रहा जाय तो इसका प्रभाव बहुत ही उपयोगी होगा। इसमें न तो प्रवंचना मानना चाहिए और न मिथ्याचार। प्रशंसा के योग्य प्रोत्साहित करने योग्य तत्व हर किसी में पाये जाते हैं, भले ही वे मात्रा की दृष्ट में न्यून ही क्यों न हों। छोटी सी बीमारी को निरस्त करने के लिए जब इतने प्रबल प्रयास किये जा सकते हैं तो कोई कारण नहीं कि थोड़ी सी अच्छाई को प्रोत्साहित करने तथा सराहने में कोताही की जाय।

यह दूसरों के साथ सहज सहयोग और उपकार है कि उन्हें उनकी अच्छाइयों के अवगत कराया जाय, सहज सम्भावनाओं के प्रति प्रोत्साहित किया जाय और उज्ज्वल भविष्य का सुनहरा सपना दिखाया जाय। यह भावनात्मक अनुदान किसी अच्छी खासी धन राशि के देने से भी अधिक श्रेयस्कर है। धन से केवल सामयिक आवश्यकताओं की पूर्ति और सुविधाओं की वृद्धि भर होती है किन्तु यदि व्यक्तित्व के मर्मस्थलों के गुदगुदी करना, उन्हें खिलाना और उछलना सम्भव हो सके तो उसकी तुलना अन्य किसी भी उपकार या उपहार से नहीं हो सकती।

इस सम्बन्ध में कहने और सुनने वाले दोनों ही पक्षों को सतर्कता बरतनी चाहिए। कहने वाले ध्यान रखे कि यदि किसी की कमजोरी या बुराई को सचमुच ही दूर करना है तो उसके लिए भर्त्सना एवं तिरस्कार का तरीका न अपनाया जाय। वरन् कमी को असाधारण और आसानी से दूर हो सकने वाली बताया जाय। अधिक चर्चा बुराई की न की जाय, उस संदर्भ में साथ थोड़ा लगाया जाय और अधिक समय इस प्रसंग को दिया जाय कि सुधार में किन उपायों से किस क्रम को अपनाने पर उस व्याधि से छुटकारा पाया जा सकता है। रचनात्मक सुझाव देना, उपाय बताना यदि अपनी सामर्थ्य के भीतर तो वैसा रहना चाहिए अन्यथा इस विषय के अनुभवी व्यक्तियों के पास जाने-उनसे सम्बन्ध मिला देने की सहायता करनी चाहिए। हर हालत में सुधार होने और उज्ज्वल भविष्य बन सकने की संभावना को ही प्रधान रूप से प्रतिपादित किया जाना चाहिए।

सुनने में सावधानी यह बरती जाय कि जो सज्जन निषेधात्मक निन्दा परक, चिन्ताजनक मत व्यक्त करते हैं उनके कथन की भावुकता अथवा शुभ कामना को विकृत ढंग से प्रस्तुत करने वाला भर माना जाय। यदि उसमें कुछ तथ्य हो तो समझ लिया जाय और उसके सुधार का ध्यान रखा जाय। अन्यथा अन कथनीय बातों को ऐसे ही बात के लिए बात जैसा वार्ता विनोद भर मान कर उपेक्षित कर दी जाय। दूसरों को कहने से रोकना कठिन है। बड़ों के प्रति तो ऐसी रोकथाम अनिष्टता में गिन ली जाती है। इसलिए जब वे कह रहे हो तो तब तो नहीं पर पीछे कभी अवसर पाकर इस प्रकार के कथन क्रम की हानियाँ समझा देनी चाहिए। अपने लिए सीधे समझा सकना कठिन हो तो दूसरे किसी ऐसे व्यक्ति के द्वारा रोकथाम करा देनी चाहिए जो उन्हीं के समकक्ष पड़ता हो। पिता को माता, माता को पिता सहज ही समझा सकते हैं क्योंकि उनका दर्जा लगभग समानता का होता है। इतने पर भी बात बनती दिखाई न पड़े तो ऐसे निषेधात्मक प्रहार करते रहने वालों से यथ सम्भव कतराते रहना उनके संपर्क में अनावश्यक रूप से न आना ही श्रेयस्कर है। आत्मरक्षा के लिए इस बचाव को करने में यह ध्यान रखना चाहिए कि वह बहुत ही नीतियुक्त और कुशलता युक्त हो। ऐसा न हो कि बात बढ़ जाय और रूठने, असहयोग करने, उपेक्षा करने जैसे नये आक्षेप उगाने लगें और वह बचाव का उपाय पहले से भी अधिक महंगा पड़े तथा विग्रह उत्पन्न कर दे।

कुछ व्यक्ति ऐसे भी पाये जाते हैं जिनका व्यवसाय ही दूसरों को डराकर उनकी भयभीत मनः स्थिति का लाभ उठाना होता है। इस धंधे में ज्योतिषी लोग सबसे अग्रणी होते हैं। उनकी बात भूत पलीतों की विद्या जानने का दावा करने वालों की भाँति है इन लोगों के हथकंडे समझदार तो जानते है और उनसे बचते भी हैं पर अपने देश की अशिक्षित और पिछड़ी जनता को बहुत बड़ा भाग ऐसा है जो उन लोगों पर अपनी धर्म भीरुता और मूढ़ मान्यता के कारण सहज ही विश्वास कर लेता है। यह लोग सामान्य सी बीमारियों एवं कठिनाइयों को ग्रह नक्षत्र एवं भूत प्रेतों द्वारा धकेली बताकर उस विपत्ति ग्रस्त को और अधिक डरा देते हैं। कठिनाई से दुःखी और भय से आतंकित व्यक्ति दुहरे प्रहार से घबरा जाता है और उन्हीं लोगों से बचाव का उपाय पूछता है। उनका नशा तुला उत्तर एक ही होता है। कुपित ग्रह नक्षत्र या भूत पलीत को शान्त करने के लिए जो तन्त्र मन्त्र करना पड़ेगा उसके लिए उन्हें पैसा दिया जाय। डरे घबराये हुए लीग इस कुचक्र से अपनी जेब कटाते और मानसिक प्रहार से अपने व्यक्तित्व की जड़े खोखली करते रहते हैं। आशंका और भय उनके स्वभाव का अंग बन जाता है जो आगे चलकर उन्हें किसी न किसी प्रकार त्रास ही देता रहता है। इस प्रकार के मूर्खताजन्य आक्रमणों से आत्मरक्षा करना और अकारण अपने को आतंकित न होना और न होने देना प्रत्येक विज्ञ व्यक्ति का कर्तव्य है।

ठीक इसी प्रकार चिकित्सकों में से भी एक ओक्षा वर्ग ऐसा पाया जाता है जो रोग की सामान्य सी व्यथा को बहुत बढ़ा चढ़ा-कर बताता और प्राण संकट उत्पन्न होने जैसा खतरा जताता है। इस प्रकार आतंकित रोगी से चिकित्सा क नाम मोटी रकम ऐंठते रहना सरल पड़ता है। इस कुचक्र को भी ओझाओं और ज्योतिषियों की तरह ही भयानक मानना चाहिए और जहाँ ऐसी आशंका हो वहाँ दूर से ही नमस्कार करना चाहिए। रोग तो समयानुसार अच्छे होते रहते हैं। दवादारू से ही बीमारियाँ अच्छी नहीं होती। प्रकृति भी अपना उपचार क्रम, बराबर जारी रखती है और बीमार अच्छे होते रहते है। रोगोपचार का जितना महत्व है उससे भी अधिक इस बात का है कि कहो बीमारी ने रोगी का मनोबल तो नहीं तोड़ दिया उसे आशंका ग्रस्त भयभीत तो नहीं बना दिया कष्ट निवृत्ति, रो चिकित्सा,संकट मुक्ति, विपत्ति से सुरक्षा दि के लिए प्रयत्न पुरुषार्थ किये ही जाने चाहिए परन्तु उन उपचारों में भयाक्रान्त एवं चिन्ता ग्रस्त बनाने वाली नई विपत्ति सिर पर न चढ़ बैठे, इसका और भी अधिक ध्यान रखना चाहिए। विपत्ति भी बीमारी की तरह हो समयानुसार टल जाती है किन्तु उपाय उपचार के सिलसिले में यदि मनोबल गिरा लिया गया तो वह हानि उपचार लाभ की तुलना में अधिक भारी ही पड़ेगा।

हानिकारक तत्वों से अपना समीपवर्ती वातावरण भरा रहता है। उससे आत्म रक्षा की सतर्कता सदा बरतनी पड़ती है। ठीक इसी प्रकार मनोबल गिराने वाली हरकतें भी कहीं न कहीं से किसी न किसी प्रकार चलती ही रहती हैं। मक्खी, मच्छर, खटमल, पिस्सू, जुँए, मीलर जैसे कृमि कीटक नुकसान पहुँचाने में लगे ही रहते है। चूहे, सांप, बिच्छू, कान खजूरे, मकड़ी, छिपकली भी हानि ही करती है। अनाज, कपड़े और फर्नीचर को बर्बाद करने वाले छोटे-छोटे कीड़ों की करतूतें कितनी चिन्ताजनक होती हैं। इन सबके आक्रमणों से होने वाली क्षति का लेखा-जोखा रखा जा सके तो प्रतीत होगा कि आक्रान्ताओं से समीपवर्ती वातावरण भरा हुआ है। चोर उचक्के, ठग और गुण्डे अकारण ही आक्रमण करते और आघात पहुँचाते हैं। मित्र बन कर शत्रुता का परिचय देना सब्जबाग दिखा कर विश्वास घात करना आज का फैशन है। हवा और पानी में रहने वाले अदृश्य और नगण्य विषाणु अच्छी भली काया में किसी छिद्र से घुस पड़ते है और भीतर ही भीतर सर्वनाश का सरंजाम जुटाते हैं। इन सबसे बचने के लिए कृमि-कीटनाशक तरह-तरह के उपायों को निरन्तर बरतना पड़ता है। इसी श्रृंखला में मनोबल गिराने वाले उन आक्रमण आघातों को भी जोड़कर रखना चाहिए जो देखने सुनने में तो महत्वहीन लगते हैं किन्तु हानि अति अधिक पहुँचाते हैं। प्रगति को समुचित क्षमता रखने वाले व्यक्ति भी दीन-दुर्बलों और अपंग-असहायों की तरह अपने भविष्य को अंधकार से घिरा हुआ देखते ही नहीं, सचमुच उस विपत्ति के मुँह में धकेल भी दिये जाते हैं। जीवन को अनेक आवश्यकताओं में प्रोत्साहन भरा सत्परामर्श भी आवश्यक है। उसे अच्छे, अन्त, जल और हवा की तरह ही महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए और उसे जुटाने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए।


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