मनुष्य अपनी मौलिक विशेषताएं

March 1979

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डार्विन का विकासवाद जीवविज्ञान का बहुसमर्थित सिद्धान्त है। इस मान्यता को ही आजकल विद्यालयों में पढ़ाया और समझाया जाता है कि जीवन का आरम्भ अविकसित स्तर पर हुआ और वह क्रमशः आगे बढ़ता चला आया। इसके अनुसार मनुष्य का पूर्ण इतिहास गौरवास्पद नहीं है। आज का मनुष्य का पूर्व इतिहास गौरवास्पद नहीं है। आज का मनुष्य अपने पूर्वजों से अधिक अच्छी स्थिति में है-यह मान्यता हमें अहंकार ही नहीं बनाती वरन् अपने पूर्वजों के प्रति अश्रद्धा एवं उपहास की भावनायें भी पैदा करती है।

विकासवादी व्याख्या के अनुसार ‘प्रोटोजुआ’ से मनुष्य क्रमशः विकसित हुआ। सर्वप्रथम एक कोशीय जीव अमीबा, स्पंज, हाइड्रस और फिर विभिन्न सीढ़ियाँ पार करता हुआ मछली; मेढ़क, साँप, छिपकली, चिड़िया, घोड़े, हाथी, बन्दर आदि विकसित होते हुए मनुष्य बना। यह सिद्धान्त हमें यह सिखाता है कि जीव का मूल स्वरूप ही नहीं उसका स्तर, स्वभाव और आधार भी विकसित परिवर्तित होता आया है। एक कोशीय इंद्रिय चेतना से रहित जीवन क्रम उलट-पुलट करते 2 मनुष्य जैसे विकसित प्राणी के रूप में आ गया है। लेकिन यह विकासवादी व्याख्या बुद्धि-संगत नहीं जान पड़ती। इसे मान भी लिया जाय तो प्रश्न उठता है कि वर्तमान प्राणी जिस स्थिति में है वह कब तक बनी रहेगी? विकास सिद्धान्त के अनुसार उनमें परिवर्तन होते-होते अन्ततः वे किस स्थिति में पहुँच जायेंगे और प्रगति की अनंत प्रक्रिया प्राणियों को कौनसा स्वरूप प्रदान करेगी?

सर्वप्रथम हमें विकासवादी सिद्धान्त की कुछ स्थापनाओं का अवलोकन करना पड़ेगा। इसके अनुसार लगभग 10 लाख वर्ष पूर्व “आस्ट्रेलोपिथेकस”नामक वन मानुष विकसित हुआ। यह पहला ग्लेशियर दक्षिण की और बढ़ता हुआ यूरेशिया तथा उत्तरी अमेरिका पहुँचा तथा वहाँ के एक बड़े हिस्से पर छा गया। उस समय अर्थात् अब से दस लाख वर्ष पूर्व यह वनमानुष दक्षिण अफ्रीका के जंगलों में घूमता था और उसका सजातीय “अस्ट्रेलोपिथेकस” नामक वनमानुष उत्तरी अमरीका में। यह चिंपेंजी की तरह होता था और सीधा तन कर चलता था। वही नहीं “आस्ट्रेलोपिथेकस” विकसित होकर ‘पिथेकेन्थ्राइन” मनुष्य रूप में आया। इसके बाद बाद लगभग 60 हजार वर्ष पूर्व “निएण्डटथल” जिससे प्रारम्भिक मानव या आदिमानव विकसित हुआ। बताया जाता है कि इनमें बौद्धिक सामर्थ्य भी थी। ये औजार बनाते थे, शिकार करते थे तथा अपने मृतकों का अन्तिम संस्कार समारोहपूर्वक मनाते थे।

डार्विक के बाद ‘हेमल’ और स्पेंसर आदि ने इसी सिद्धांत की पुष्टि की और इन्हीं आधारों पर नयी-नयी परिकल्पनायें प्रस्तुत कीं। लेकिन पिछले 50 वर्षों में डार्विन का यह प्रतिपादन खण्ड-बण्ड होकर निराधार सिद्ध हो गया है। इस धारणा ने आत्मा, ईश्वर, पुनर्जन्म आदि की तमाम आस्थाओं को जड़-मूल से हिलाकर रख दिया था। क्योंकि विकासवाद के अनुप्रतिद्वन्द्विता प्रकृति का शाश्वत एवं सनातन सिद्धान्त है। इसमें जो योग्यतम होता है वही बचता है। ‘यूज एण्ड डिसयूज’ के अनुसार कारण विशेष से शारीरिक रचना में परिवर्तन, अंगों का लोप और विकास होता है। प्रकृति योग्यता का चुनाव कर उनकी ही रक्षा करती तथा औरों की उपेक्षा करती है, फलतः वे नष्ट हो जाते हैं। प्राणियों में बलवान निर्बलों को नष्ट करके अपने को सुरक्षित रखते हैं जिनमें अपने आपको परिस्थिति के अनुसार बना सकने की क्षमता होती है उन्हीं की सन्तान वृद्धि का क्रम चलता है। इस जीवन संघर्ष से विभिन्न गुणों-विभिन्न परिस्थितियाँ के अनुसार भेद उत्पन्न होता है और परंपरानुगत या आनुवांशिकता से पुष्ट होते हैं।

कुल मिलाकर यह कि विकासवाद के अनुसार मनुष्य पहले बन्दर था अर्थात् पृथ्वी पर जीवन का क्रमशः विकास हुआ। तथा जीवितों में जो योग्य शक्तिशाली और सबल थे वे बचे रहे एवं अन्य प्राणी नष्ट हो गये। डार्विन के बाद ही उनके इस सिद्धांत का खण्डन होने लगा था। उनके एक प्रमुख सहयोगी अल्फ्रेड रसेल वालेस ने, जो डार्विन की बाद भी विकास सिद्धान्त की गवेषणा करते रहे अन्त में कहा-”मैंने विकास के अन मौलिक नियमों को सरल और गम्भीर परीक्षा की है जिनको डार्विन ने अपने अधिकार के बाहर समझ कर जानबूझकर अपने ग्रन्थों में नहीं लिखा और उन नियमों की परीक्षा के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि जीवन अभी भी अव्याख्येय है।”

आल्फ्रेडरसेल वालेस ने यह मन्तव्य अपनी पुस्तक “दि वर्ल्ड ऑफ लाइफ” में प्रकट किया था। चार्ल्स डार्विन के पुत्र जार्ज डार्विन ने स्वयं सन् 1905 में कहा था कि जीवन का रहस्य अभी भी उतना ही गूढ़ है जितना कि पहले था।

प्रो. पैट्रिक गेडीस ने कहा है कि-हम नहीं जानत कि मनुष्य कहाँ से आया और कैसे आया? यह मान लेना चाहिए कि मनुष्य विकास के प्रस्तुत किये गये सिद्धान्त पर्याप्त प्रमाणों के अभाव में संदिग्ध है।

स्वयं डार्विन ने भी लिखा था कि ये सिद्धान्त कोई अन्तिम रूप से सत्य नहीं है। हो सकता है कि आगे चलकर उनमें कुछ और नये तथ्य जुड़ जायें।

प्रो. ओर्वेन का कहना था कि-”मनुष्य अपने प्रकार की एक मात्र जाति है और अपनी जाति का एक मात्र प्रतिनिधि”। बन्दर से मनुष्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में सर जे. डबलू. डौसन ने कहा है- “बन्दर और मनुष्य के बीच की आकृति का कुछ भी पता नहीं है। मनुष्य की प्राचीनतम अस्थियाँ भी मनुष्यों की सी ही हैं। उनमें उस विकास का कुछ भी पता नहीं चलता जो मनुष्य शरीर के पहले हुआ।”

इन सब वैज्ञानिकों से अधिक विस्मयजनक और डार्विन के विकासवाद से एकदम विपरीत वैज्ञानिक अवधारणा प्रस्तुत की है प्रसिद्ध जीवशास्त्री जौन टी. रीड ने। उन्होंने कई तथ्यों, प्रमाणों और पुरातत्व अवशेषों के आधार पर कहा है कि- “मनुष्यों का विकास बन्दरों से नहीं हुआ प्रत्युत बन्दर ही मनुष्यों से जन्मे हैं।” इस सिद्धान्त को व्याख्या करते हुए जॉन टी. रीड ने कहा है कि-”प्राचीनकाल में मनुष्य ने ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में बहुत उन्नति की थी।उनमें से कईयों के सिर कमजोर हो गये। ऐसे कमजोर सिर वाले मनुष्यों में से कई तो बनमानुष हो गये।”

विकास सिद्धान्त के अनुसार जब एक ही जाति के प्राणी निर्बल और कमजोर होकर जीवन संघर्ष में हारने लगते हैं तथा उनसे शक्तिशाली उन्हें परास्तकर आगे बढ़ने लगते है तो यह असम्भव नहीं है कि मनुष्य जाति का ही एक भाग मस्तिष्क से कमजोर होने लगा तथा उसमें और दूसरे गुण उत्पन्न हो गये। फलतः आदमी बन्दर के रूप में उछल कर वृक्ष की डाल पर जा बैठा।

यह तो अब तक की नवीन शोधों से सिद्ध हो चुका है कि बन्दर से मनुष्यों की उत्पत्ति का सिद्धान्त किन्हीं ठोस आधारों पर प्रतिपादित नहीं है। डार्विन ने विकास का अध्ययन करने के लिए संसार के कई भागों की यात्रा की और जीव जन्तुओं की एक-एक जाति में अगणित भेद पायें। इन भेदों की मालथस सिद्धान्त के अनुसार संगतियाँ बिठाकर विकासवाद का सिद्धान्त स्थिर किया। मालथस के अनुसार कोई भी जीव,जाति की संख्या में अधिक बढ़ जाने के कारण जीवन संघर्ष में हार जाती हैं और उसी जाति के कुछ सदस्य नयी विशेषताओं के साथ जीवित रहने हैं।

डार्विन ने इन परिवर्तनों का आधार जीवन संघर्ष मानते हुए विभिन्न आकार प्रकार वाले जीव-जन्तुओं की कड़ियाँ मिलायी और कहा कि पृथ्वी पर जीवन सरल से जटिल की ओर सर्जित होता गया। कई स्थानों पर प्राप्त बहुत पुराने प्राणियों के अवशेषों को आधार बना कर उन्होंने यह सिद्ध करने की चेष्टा की कि सब प्राणी एक ही मौलिक शरीर यंत्र के परिशोधित एवं परिवर्धित रूप है। उदाहरण के लिए सर्वप्रथम बनी साइकिल बहुत ही भद्दे और भौंड़े ढँग की थी।साथ ही वह इतनी आसानी से चलायी भी नहीं जा सकती थी जितनी आसानी से कि हम चला लेते हैं। उसमें सुधार होते-होते ही साइकिल का वर्तमान स्वरूप बना।

इस तर्क का उत्तर देते हुए ‘साइन्स एण्ड रिलीजन’ के लेखक डॉ. जे. एम. फ्लोमिंग ने लिखा है- ‘भले ही साइकिल एक ही यन्त्र का विकल हो किन्तु मोटर, रेल, वायुयान तथा कारखानों के यन्त्र तो सब साइकिल के विकास नहीं है। इसी तरह साँपों के अवांतर भेद से साँपों का विकास भले ही हो परन्तु कनखजूरा जैसे सैकड़ों पैरवाला जीव, गिराया आदि साँपों के विकसित रूप नहीं हो सकते हैं। फिर भी मानल कि ये सांप की ही विकसित पीढ़ियाँ है तो फिर सांप को इस पृथ्वी से विलुप्त हो जाना चाहिए था, क्योंकि डार्विन के अनुसार जीवन संघर्ष में आत्मरक्षा के लिए प्रकृति ने ही उन्हें यह नया आकार प्रकार दिया।

कहा जाता है कि सूक्ष्म जन्तुओं का ही मछलियों कछुओं, पक्षियों, बंदरों तथा मनुष्यों के रूप में विकास हुआ। यदि यही विकास क्रम वास्तविक है तो फिर बन्दरों से बन्दरों की, मनुष्यों से मनुष्यों की, पक्षियों से पक्षियों की और मछलियों से मछलियों की ही उत्पत्ति क्यों होती है? आज भी बन्दरों की परम्परा से मनुष्यों का जन्म होना चाहिए। थोड़ी बहुत समानता से अन्यत्र अन्य रूप में परिणाम हो -यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कितने ही पौधे समान रूप आकार-प्रकार के होते हुए भी गुण और लक्षणों में भिन्न होते है। एक समान दिखाई देने वाले कितने ही पौधे औषध भी होते हैं- और विष के समान भी। एक समान घोड़ों में भी हय, अश्व और अर्वा घोड़ों की जातियों में अलग-अलग गुण, स्वभाव और आदतें पायी जाती हैं। यही क्यों एक ही आकृति के मनुष्यों में भी कोई दृष्ट दुर्जन होता है तो कोई सन्त सज्जन।

ईश्वर ने हर प्राणी को अपनी स्वतन्त्र सत्ता सृष्टि के आरम्भ में ही दी है। अमीबा अभी भी अमीबा ही है। मनु भी सन्तान मानव ने अपनी लम्बी यात्रा में कई उतार चढ़ाव तो देखें होंगे, परन्तु मनुष्य किसी और रूप में इस सृष्टि पर आया तथा आकृति में विकसित होता गया, चह असम्भव ही है। सन् 1923 में नेवादा की खुदाई करते समय 6 लाख वर्ष पुराना एक जूता मिला है है। उस जूते की सिलाई धागा को मरोड़ और मात्र इतना कौशलपूर्ण है कि वह आज के किसी भी जूते की तुलना में अधिक मजबूत सिद्ध होता। है। यही नहीं वहाँ ऐसे प्रमाण भी मिले हैं जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि तब वहाँ कोई बहुत विकसित सभ्यता रही होगी। स्मरणीय है वहाँ प्राप्त अवशेषों की आयु भूगर्भ विद्या शास्त्रियों ने निर्धारित की थी। ‘थियोसोफिकल पाथ’ पत्रिका के अगस्त 1923 अंक में प्रकाशित एक लेख में बताया गया है कि नेवादा की सभ्यता आधुनिक सभ्यता की तुलना में कही भी उन्नीस नहीं ठहरती।

विकास सिद्धांत के अनुसार अब से साठ हजार वर्ष पूर्व ही इस धरती पर आदि मानव के चरण पड़े तो नेवादा की छह लाख वर्ष पुरानी सभ्यता कौन से जीवों ने विकसित की थी। विकासवादियों के पास इसका कोई उत्तर नहीं है। यह ठीक है कि मानव सभ्यता उत्थान और पतन, प्रगति और अवनति के कई दौरों से गुजरी। साधनों ने उसके चिन्तन और कर्तृत्व तथा जीवनयापन के क्रम में परिवर्तन किया होगा। इतने पर भी मानव की मूल सत्ता-जिसे ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कलाकृति कहा जाता है आरम्भ से ही अपनी मौलिक विशेषताओं को साथ लेकर जन्मी है और उन्हें पूर्णता का जीवन लक्ष्य प्राप्त करने तक अपने अन्तरंग में धारण किये ही रहेगी।


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