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अधिकारी न होते हुए भी राज्याधिकारी भुज ने साम्राज्य सत्ता को हथिया लिया। इसके लिए भुज को युवराज भोज से ही निबटना था। महाराज सिन्धु को जब अकाल मृत्युपाश में आबद्ध होना पड़ा तो उन्होंने अपने परम विश्वसनीय सहयोगी भुज को पाँच वर्षीय युवराज का संरक्षक नियुक्त करते हुए कहा था कि-भोज के समर्थ होने तक वही राज्य व्यवस्था सम्हाले तथा युवराज को राजनीति की दीक्षा दे।
दीर्घावधि तक तो भुज अपने कर्तव्य मार्ग पर आरूढ़ रहे पर धीरे धीरे सत्ता लोलुपता और अधिकार लोभ के छिद्रों ने उनकी सारी निष्ठा कर्तव्य भक्ति बहा दी। लोभ लोलुपता की आसुरी प्रवृत्ति ने छल छद्म का सहारा लिया और युवराज भोज को मिथ्या आरोपों से निष्कासन दण्ड-भोगना पड़ा। राज्य सीमा से निर्वासित अज्ञात प्रदेश में रहने की राजकीय आज्ञा हुई और भोज चल पड़े, अवश निरुपाय होकर।
इतने पर भी भुज के मन का काँटा नहीं निकला। युवराज होने के कारण भोज जनश्रद्धा का सहज भाजन है। उसका लाभ उठा कर कहीं वह जन संगठन न करने लगे। संगठित जनशक्ति के आधार पर भोज मुझे कभी भी पदच्युत कर सकते हैं। इस आशा का को पूर्णतया निर्मूल करने के लिए राजा भूल ने गौडेश्वर वत्सराज को आदेश दिया कि वह भोज का शिरच्छेद कर उसका कटा हुआ सिर लाये ताकि अपने प्रतिद्वंद्वी को मूत देखकर निष्कंटक राज्य सुख भोगा जा सकें।
उसी मार्ग से, जिस मार्ग पर भोज ने प्रयाण किया था, वत्सराज ने अपना रथ दौड़ा दिया। लम्बी यात्रा पूरी करने के बाद भुवनेश्वरी वन के मध्य में भोज को पकड़ा जा सका। उस समय वत्सराज का मन राजा भुज के आदेश पालन तथा कर्तव्य निर्णय के झूले में झूल रहा था। इसी असमंजस की स्थिति में वत्सराज ने भोज को राजादेश सुनाया कि -भुज राजसिंहासन का पूरा अधिकार निश्शंक निश्चित हो कर भोगना चाहते हैं उन्होंने आपके वध की आज्ञा दी है।
;तो विलम्ब क्यों करते हो ‘गौडेश्वर,-भोज ने कहा जिस कार्य के लिए तुम्हें नियुक्त किया है उसे पूरा करो।
वन की नीरवता में कृष्ण पक्ष की अँधियारी रात काली चादर ओढ़े मृत्यु के समान लगती थी। वत्सराज के हाथों में चमकती तलवार उस समय भी ऐसी लगती थी जैसे मृत्यु भी निरपराध का वध करने में सहम रही हो। फिर न जाने क्या हुआ कि वत्सराज के हाथों से तलवार छूट गयी और वह कुमार से लिपटकर कहने लगा मैं भी मनुष्य हूँ कुमार! ममता, वात्सल्य से पूरित हृदय वाला मनुष्य। और उन्होंने कुमार को अंक में भर लिया।
दिये गये दायित्व को पूरा करने में सफल हुए? सम्मुख प्रस्तुत होते ही वत्सराज से राजा भुज ने पूछा। वत्सराज ने स्वीकार भाव से सिर हिलाया और रक्त लिखित एक वटपत्र भुज के हाथों में थमा दिया। वत्सराज ने पत्र पर लिखी पंक्तियाँ पढ़ी’ लिखीं भोज की ही थीं, लिखा था -समर्थ होते हुए भी भगवान श्री राम ने वनवास का क्लेश सहा, समस्त यादव कुल का नाश हुआ नल को राज्य से च्युत होना पड़ और कई चक्रवर्ती दिग्विजयी सम्राट हुए पर काल ने किसी को नहीं छोड़ा। सब काल के अधीन हुए।
श्लोक पढ़ कर भुज का न जाने कौन सा मर्मस्थल दग्ध हो गया और अपनी गलती का भान होते ही वह जोरों से विलाप करने लगा -मैंने क्या कर डाला। इतना बड़ा पाप, महाराज सिन्धु को मैंने क्या कर डाला। इतना बड़ा पाप, महाराज सिन्धु को मैं क्या उत्तर दूँगा? विधवा सावित्री के सामने मैं क्या मुंह लेकर जाऊँगा-?”
अंतरात्मा की प्रताड़ना और पश्चात्ताप की अग्नि ने भुज को विदग्ध कर डाला।
इसके बाद जैसे तैसे वस्तुस्थिति से आवरण हटाया गया कुमार भोज को सुरक्षित पा कर भुज व्यथा कुछ कम हुई, सब काल के अधीन है तो लोभ किस लिए, अनीति क्यों, दुराचरण किस हेतु। भुज ने विधिवत् भोज को राज्यासन सौंपा और स्वयं तप के लिए प्रस्थान कर दिया।