श्रम स्वेदों की गंगा

March 1979

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पाटिलीपुत्र साम्राज्य की जनता त्राहि त्राहि कर उठी। लगातार कई वर्षों से अकाल पड़ रहा था, अनावृष्टि की विभीषिका चारों ओर ताण्डव नर्तन कर रही थी। भीषण गरमी के कारण धरती तवे जैसी जल रही थी और क्षुधाग्नि के कारण लोगों के पेट। सम्राट चन्द्रगुप्त ने परिषद की बैठक बुलायी। बैठक में महामन्त्री कौटिल्य भी उपस्थित थे। उपस्थित प्रतिनिधि, अमात्य गणों को सम्बोधित करते हुए सम्राट ने कहा-जिस राज्य में प्रजा सुखी व सुरक्षित हो उसे ही अच्छा राज्य कहा जा सकता है। लेकिन हमारे राज्य में तो चारों और प्रकृति का प्रकोप छाया हुआ है। दुर्भिक्ष के कारण लोग भूखे मर रहे हैं। लगता है देश व्यापी क्षुधा की इस अग्नि में हम सब जल जायेंगे।

इसके बाद मन्त्री परिषद के सदस्यों और सम्राट में मंत्रणा चलती रही। इस निष्कर्ष पर पहुँचा गया कि दुर्भिक्ष प्रकृति के नियमों की एक कड़ी है। सैकड़ों वर्षों के बाद ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई है। इस स्थिति से जूझने के लिए राज्यकोष के दरवाजे खोल दिये जायें। सभी अधिकारी प्रजाजन की सहायता करने के लिए तत्पर हो जाँय। स्थान स्थान पर यज्ञों का आयोजन किया जाय ताकि वरुणदेव के मेघ उनसे पुष्ट होकर वृष्टि करने में सक्षम हों। एक विशाल यज्ञ राजधानी पाटिलपुत्र में भी किया जाय, जिसमें सम्राट प्रमुख यजमान के रूप में भाग लें।

सहायता कार्यों के लिए आवश्यक निर्देश जारी करने तथा समुचित व्यवस्था बनाने के बाद पाटिलपुत्र में विशाल यज्ञ की तैयारियाँ की जाने लगीं। निश्चित किया गया था कि यज्ञ के बाद सम्राट स्वयं राजमहिषी साथ सूखी धरती पर जनक की भाँति हल चलायेंगे। इसके उपरान्त भगवती भागीरथी के तट से एक नहर निकालने के लिए स्वयं कुदाल चलायेंगे। इसके बाद ही यज्ञ की पूर्णाहुति होती।

यज्ञ की तैयारियां की नयी। दूर-दूर से मन्त्रविद् पुरोहित और यज्ञाचार्य आमंत्रित किये गये। व्यापक प्रबन्ध के साथ आरम्भ किये गये इस यज्ञ में लाखों नागरिकों ने भाग लिया। सम्राट चन्द्र गुप्त ने सात दिन तक चले इस यज्ञ में पूर्ण निराहार व्रत का पालन करते हुए प्रमुख यजमान की भूमिका निबाही। यज्ञ पूर्णाहुति के बाद सम्राट और राजमहिषी ने मिलकर बंजर पड़ी धरती पर हल चलाया। इस दृश्य को देखने के लिए हजारों लोग एकत्रित हुए थे। नियत समय तक हल चलाने के बाद उपस्थित जन समूह सहित सम्राट गंगा तट की और बढ़। नहर के लिए उन्होंने जैसे ही कुदाल चलायी हजार हाथ मि कर उनके साथ नहर खोदने लगे और गंगा का पानी देखते ही देखते उस जमीन तक पहुँचाया गया जो अभी अभी ही महाराज ने जोती थी।

इसके बाद महायज्ञ की पूर्णाहुति हुई। पूर्णात् पूर्णामिद के मन्त्रोच्चार सहित जैसे ही अन्तिम आहुति यज्ञ कुण्ड में छोड़ी गयी, यज्ञ की ज्वालाओं से एक दिव्य आकृति प्रकट हुई और उपस्थित यजमानों को सम्बोधित कर कहने लगी- “इस यज्ञ की प्रेरणाओं को घर-घर पहुँचाने के बाद ही यज्ञ कार्य सम्पन्न होगा। आसन्न विपत्तियों का कारण यह है कि लोग श्रम को भूल रहें हैं। उनके श्रमस्वेदों से सूखी धरती मेघों को कर्षित करने में अक्षम हुई जा रही है, इसी कारण यह दुर्भिक्ष प्रस्तुत हुआ है।”

सम्राट द्वारा हल चलाने और नहर खोदने की घटना तो लोगों ने प्रत्यक्ष ही देखी थी। उसके साथ ही यज्ञ पुरुष के संदेश को सुन कर प्रजाजनों में ऐसा उत्साह उमड़ा कि वे हाथ पर हाथ रखें बैठना छोड़ कर श्रमस्वेदों की गंगा बहाने लगे।


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