नास्तिकता सबसे बड़ा अन्ध विश्वास है!

March 1979

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दार्शनिकों के बीच आस्तिकता तथा नास्तिकता को लेकर शीत युद्ध लम्बे अरसे से चल रहा है। इसके दो मुख्य स्वरूप रहें है। पहला सत्य के अनुसंधान की उत्कट अभिलाषा दूसरा पाँडित्यपूर्ण वाग्वैदग्घ्य की प्रवृत्ति।

प्राचीन भारतीय मनीषी पूर्वजों में सत्य के शोध की लालसा सदैव जागृत-प्रखर रही है। जहाँ एक ओर वे योग्य साधना के पथ पर चलकर आत्मसाक्षात्कार द्वारा सत्य को जानते-देखते -समझते थे वहीं तर्क क्षेत्र में भी सत्य के प्रत्येक पहलू के परीक्षण-विश्लेषण में वे सदा सोत्साह अग्रसर रहें और उससे उन्होंने कभी मुँह नहीं चुराया।

साधना पथ पर चल कर ईश्वर-साक्षात्कार के साथ ही उसके अस्तित्व का तर्कों,-युक्तियों द्वारा विचार-विवेचन भी यहाँ सदा हो होता रहा हैं।

ईश्वरीय सत्ता को पूर्णतः अस्वीकार करने वाले भारतीय दार्शनिक-सम्प्रदायों में मुख्य था चार्वाक-सम्प्रदाय चार्वाक ने ईश्वरीय सत्ता की विद्यमानता का जो तार्किक विरोध किया उसका आस्तिक दार्शनिकों ने वैसी हो तार्किक प्रखरता से उत्तर दिया। उनके विरोध में सच्चे आस्तिक न तो क्रुद्ध हुए, न ही उदासीन अपितु गम्भीरता एवं संयत तार्किकता के साथ उस विरोध के आधार का खंडन किया। इन तार्किक खंडनकर्ताओं में दसवीं शताब्दी के दार्शनिक उद्यनाचार्य का अपना विशिष्ट स्थान है उनका लिखा ‘न्याय-कुसुमान्जलि’ नामक ग्रन्थ ईश्वर सिद्धि के विषय में तर्क प्रधान पुस्तकों में अद्वितीय माना जाता है। यहाँ तार्किकों के समाधान के लिए उसी ग्रन्थ के कुछ महत्वपूर्ण अंशों का सारा-रूप प्रस्तुत किया जा रहा है।

न्याय कुसुमांजलि में पाँच अध्याय या पाँच स्तवक हैं। ईश्वर के विषय पाँच मुख्य विप्रतिपत्तियाँ उस समय तक बौद्धिक जगत में स्थापित थीं अर्थात् ईश्वर के सम्बन्ध में पाँच महत्वपूर्ण स्थापनाएँ प्रस्तुत की जाती थीं उन्हीं पाँचों विप्रतिपत्तियों का निराकरण एक-एक स्तवक में किया गया है।

इसमें से पहली विप्रतिपत्ति है- “अलौकिकस्य पर लोक-साधनस्याभावत-अर्थात् अलौकिक परलोक साधन का अभाव है, इसलिए ईश्वर का भी अभाव है। यह सूत्र रूप कथन हुआ। आइए, इस कथन को विस्तार से समझें और फिर उसका तार्किक परीक्षण करें।

इस सूत्र में तीन तर्क छिपे हैं। पहला है अलौकिक का अभाव। दूसरा परलोक का अभाव। तीसरा साधन का अभाव। अर्थात्- (1) अलौकिक यानी जिसे देखा न जा सके, ऐसी अदृष्ट वस्तु सत्ता कीं कोई हो नहीं सकती। (2) इस लोक के अतिरिक्त और कोई लोक, जिसमें जीवन विद्यमान हो नहीं सकता। (3) संसार में कोई किसी का कारण नहीं है।

इनमें से अन्तिम ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसी लिए उद्यनाचार्य ने सबसे पहले ‘न्यायकुसुमांजलि’ में उसी का खंडन किया है। क्योंकि ईश्वर की सत्ता का जो सबसे पहला भाव -अनुमान होता है। वह इसी आधार पर कि इस सृष्टि का कोई न कोई कारण होना चाहिए। वह कारण मनुष्य है? यह नहीं हो सकता, क्योंकि वह तो अरबों वर्ष के प्रयास के बाद भी आज तक सृष्टि के रहस्य को समझ नहीं सका। अतः मनुष्य या ऐसे ही किसी अन्य प्राणी ने सृष्टि की रचना की हो, यह सम्भव नहीं। इस लिए एक सर्वोच्च सत्ता ही इस समस्त सृष्टि का कारण हैं।

आस्तिक आचार्यों का तर्क है कि घड़ा कार्य है, उसका कर्ता कुम्हार है। इसी प्रकार पृथ्वी आदि का कोई चैतन्य कर्ता होना चाहिए। वही सर्वोपरि चैतन्य-सत्ता ईश्वर है। इस प्रकार उस चेतनसत्ता को दो रूपों में देखा जा सकता है। इस सम्पूर्ण ब्रह्मांड में संव्याप्त और उसकी क्रमबद्ध हलचलों का कारण ब्रह्माण्डीय चेतना है तथा प्रत्येक जीवपिंड में इसी ब्रह्माण्डीय चेतना का सक्रिय अंश है जीव-चेतना या जीवात्मा परमात्मा का ही अंश है। विराट, अनन्त चेतना- समुद्र में तैर रही मछलियों की तरह प्रत्येक जीवधारी की स्थिति है। उसके भीतर जो चेतन- सत्ता है वह उसी परमात्मा का अंश है पिंड से परे सम्पूर्ण सृष्टि में प्रकृति में जो सुव्यवस्थित-सुनियोजित गतिशीलता है, घटना-प्रवाह है, उसका कारण और नियामक परमेश्वर या ब्रह्माँडीय चेतना है।

नास्तिकों ने परम सत्ता के इन दोनों रूपों का इस प्रकार खंडन किया।

(1) सृष्टि की गतिविधियों का संचालक, व्यवस्थापक कोई नहीं है। वह यो ही अकस्मात् होता है। इसे ही कहते है ....-व्यापार का अकस्मात्वाद।

(2) जीव चेतना वस्तुतः स्वतः उत्पन्न होती है। उसका शरीर से बाहर कोई अस्तित्व नहीं। शरीर के निर्माण की प्रक्रिया में चेतना स्वतः हो जीती है। दार्शनिक शब्दावली में इसे ही कहते है भूत-चैतन्य वाद।

इस प्रकार ये दोनों तर्क कारणवादी सिद्धाँत का और ईश्वरीय सत्ता के प्रकाश का खंडन करते है। इनका विस्तार क्यों किया गया है। नास्तिकों का कथन है।

अग्निरुग्णों जलं शीत शीतर्स्पशस्तथानिलः। केनेद चित्रितं तस्मात्-स्वभावात्तद् व्यवस्थितिः।

अर्थात्-अग्नि उष्ण होती है, और वायु का स्पर्श शीतल होता है, यह सब भला किसने बनाया है? अर्थात् किसी ने इन्हें बनाया थोड़े ही है, उनकी यह गुण-प्रकृति स्वभाव से ही है। यह विश्व किसी प्रकार-सत्ता का कार्य नहीं है। वह तो तत्वों के अकस्मात-संयोग का परिणाम है मानव बुद्धि सृष्टि के रहस्य का पता अभी तक लगा नहीं सकी है। इसलिए उसके विवेचक की चेष्टा व्यर्थ है और किसी कारण-सत्ता की मान्यता कल्पना-मात्र है। मोरों को रंगों से कौन सजाता है? कोयल से गाना कौन गंवाता है? यह तो उनकी प्रकृति ही है। इसलिए किसी भी कार्य का कोई अन्य कारण मानना व्यर्थ है। सृष्टि का कारण ईश्वर को मानना अनावश्यक है।

चार्वाकवादियों ने ईश्वरीय सत्ता की कारणता का निषेध तर्क शास्त्रीय पद्धति से यों किया-कारणता का निश्चय तर्क शास्त्रीय ढंग से अन्वय-व्यतिरेक के आधार पर किया जाता है अर्थात् जब कोई कारण किसी कार्य के साथ सदा सम्बद्ध देखा जाय और उस कारण की अनुपस्थिति में कार्य कहीं भी न देखा जाय जब उस कार्य-विशेष का अमुक कारण-विशेष माना जा सकता है। चार्वाक के अनुसार क्योंकि सृष्टि में ऐसा कोई भी कार्य-कारण सम्बंध सिद्वांत्त नहीं हो पाता, इसलिए कारणता का सिद्धाँत ही गलत है।

अन्वय कहते हैं अनिवार्य विद्यमानता को “तत्तत् सत्वेंत्सत्ता अन्वयः” जहाँ-जहाँ कार्य है वहाँ-वहाँ अमुक्त कारण या गुण है यह हुआ अन्वय। जबकि “तदभावे तदभावों व्यतिरेकाः” जहाँ-जहाँ अमुक कार्य या वस्तु का भी अभाव है यह हुआ व्यतिरेक।

जैसे आग दाह का कारण है यह तो हुआ आग का स्वभाव किन्तु आग का कारण क्या है?

प्राचीन काल में अग्नि प्रायः दो प्रकार से उत्पन्न की जाती थी एक अरणि के मन्थन से दूसरे मणि अर्थात्-आतिशी शीशे के प्रयोग से यज्ञ आदि में अरणि नामक वृक्ष के दो टुकड़ों को एक विशेष ढंग से रगड़ कर आग पैदा की जाती थी। आतिशी शीशे यानी मणि को सूर्य के सम्मुख रखकर अग्नि उत्पन्न की जाती थी। उन दोनों साधनों से उत्पन्न अग्नि को तृणादि ग्रहण करते थे घास-फूस के द्वारा वह आग जोर पकड़ती थी, जब उसे जलाकर रखते थे काष्ठादि द्वारा।

अतः उस समय चार्वाक ने तर्क किया “अग्नि का क्या कारण है, कारणवादियो! तुम्हीं बताओ?” अग्नि के तुम तीन कारण गिना सकते हो (1) ‘तृणसत्वें वह्नि सेत्ता, (2) अरणासत्वे वह्नि-सत्ता और (3) मणासत्वे वह्नि सत्ता, यानी या तो तृणादि होने पर आग होती है या अरणि के रहने पर या मणि के रहने पर। अब न तो यह तर्क दिया जा सकता कि जहाँ-जहाँ तृण है वहाँ-वहाँ आग है अथवा जहाँ-जहाँ अरणि या मणि है वहाँ-वहाँ आग है। न ही यह तर्क सिद्ध होता है कि जहाँ-जहाँ तृण, अरिण या मणि नहीं है वहाँ-वहाँ आग नहीं है। यानी आग का इन तीनों कथित कारणों से न तो अन्वय सम्बन्ध सिद्ध होता न ही व्यतिरेक सम्बंध। इस प्रकार अग्नि का कोई एक कारण नहीं सिद्ध हो सकता। यदि कोई अन्य कारण प्रस्तुत किया जाता है अग्नि का, तब उसका भी इन्हीं तर्क आधार पर खंडन हो सकता है। चार्वाकवादियों का तर्क है पर इसी प्रकार सृष्टि के समस्त पदार्थों के कथित कारणों का खंडन हो सकता है। इसलिए संसार में कोई कारण नहीं है। अतः सृष्टि का प्रत्येक कार्य अकस्मात् हो जाता है। उसे किसी कारण की अपेक्षा नहीं रहती। सृष्टि भी अकस्मात और अकारण उत्पन्न हुई या कह सकते है कि इस प्रकार उत्पन्न होना उसकी प्रकृति ही है, उसकी स्थिति या गति का कोई ईश्वर जैसा अन्य कारण नहीं है।

इसी प्रकार आत्मा के बारे में चार्वाक का प्रतिपादन है कि वह किसी परमात्म-सत्ता का अंश नहीं। अपितु शरीर की उत्पत्ति के साथ स्वाभाविक रूप में चेतना अस्तित्व में आ गई। जैसे पान, खैर, चूना तथा सुपारी में अलग-अलग प्रयोग में लालिमा नहीं दीख पड़ती पड़ी किंतु एक विशिष्ट मात्रा में इनके संयोग होने से फिर इनके प्रयोग यानी चबाने से ललाई पैदा होती है, उसी प्रकार अचेतन तत्वों के एक निश्चित क्रम में संयोग से चेतना उत्पन्न होती है। अतः शरीर ही आत्मा है। शरीर के निर्माण की प्रक्रिया में स्वभावतः चेतना उत्पन्न होती है। जैसे जो या महुआ को खाने से नशा नहीं होता, पर इन पदार्थों को एक विशेष परकाया में ढालने पर मदिरा बन जाती है और मादकता नामक गुण-शक्ति उनमें स्वतः ही उत्पन्न हो जाती है, उसी प्रकार अचेतन तत्वों की एक विशिष्ट परिणाम और ढंग में संहति होने पर चैतन्य की स्वभावतः उत्पत्ति हो जाती है। वही आत्मा है। आत्मा का कारण कोई बाह्य सत्ता-परमात्मा आदि मानना बुद्धिहीनता है।

जब तक शरीर है, तभी तक चेतना है। शरीर के नाश हो जाने पर चेतना भिष्ट हो जाती है। पोषकतत्व शरीर को मिलते हैं तो प्रकृष्ट चेतना का उदय होता है। शरीर का पोषण न होने पर चेतना का ह्रास होने लगता है।चैतन्य के कार्य का आधार शरीर ही है। अतः शरीर ही चैतन्य है, वही आत्मा है। हमें सारा सम्वेदन ज्ञान शरीर-परक ही होता है ‘मैं मोटा हूँ’; ‘वह पतला है’, ‘मैं प्रसन्न हूँ’, ‘मैं उदास हूँ’, ‘मैं ज्ञान प्राप्त कर रहा हूँ आदि अनुभव शरीर से जुड़े हैं। अतः चैतन्य शरीर का ही अंग है।

शरीर में औषधि-विशेषों के प्रयोग से शारीरिक-मानसिक दक्षता बढ़ती है। इसे ही चेतना-स्तर में वृद्धि कहा जाता है। अतः शरीर ही चेतना का आधार है।

वर्षा काल में दही रखा हो, तो उसमें स्वतः छोटे-छोटे कीड़े कुछ समय बाद रेंगते देखे जा सकते हैं। इसी प्रकार शरीर में स्वतः चेतना उत्पन्न होती है। अतः न तो सृष्टि संचालन का कारण कोई ब्रह्माँडीय चेतना है और न आत्मा किसी परमात्मा का अंश है। ये तो स्वाभाविक क्रियाएँ हैं। यह हुई ‘साधनस्थ अभागवात्’ की व्याख्या।

इनका खंडन एवं यथार्थ विवेचन इस प्रकार हैं- घड़े का कर्ता कुम्हार है, यह स्पष्ट है। क्योंकि घट का निर्माण प्राणिकृत क्रिया है। किंतु अग्नि, जल, वायु आदि की गतिविधियाँ अप्राणिकृत है। चार्वाक का यह प्रश्न कि उन्हें किसने बनाया अर्थात् किस व्यक्ति ने बनाया-गलत है। क्योंकि उन्हें किसी व्यक्ति ने बनाया, यह तो आस्तिक भी नहीं मानते। आस्तिक तो इन्हें ईश्वरीय व्यवस्था का ही अंग मानते हैं। अतः इन पदार्थों का मनुष्य ने निर्माण नहीं किया, इसलिए ईश्वर नामक सत्ता भी नहीं है, यह तो कोई तर्क नहीं हुआ। इन्हें किसी ने बनाया हो, यह देखने में न आने पर ईश्वर का न होना कैसे सिद्ध हुआ। उल्टे, इससे सिद्ध होता है कि कोई अदृश्य सत्ता इसका निर्माण करती है।

जहाँ तक कारणता के सिद्धाँत के खंडन का प्रश्न है, वह तो स्वतः ही गलत सिद्ध हो चुका है। वैज्ञानिक परीक्षणों-प्रयोगों और परिणामों को तो नास्तिक भी सत्य मानते है और समस्त वैज्ञानिक शोधें अपने मूल रूप में मात्र प्रकृति की अधूरी नकल हैं। प्रकृति की जिस हलचल की जितनी जानकारी ढूँढ़ने-खोजने पर मिल जाती है, उसी की नकल तैयार करली जाती है। इसे ही कहते हैं वैज्ञानिक अन्वेषण। गुरुत्वाकर्षण हो या सापेक्षता- सिद्धाँत, वे विद्यमान तो सहा से ही थे, उनकी जानकारी प्राप्त करली गई। ध्वनियों के कम्पन और प्रवाह, जीवकोशाओं का निर्माण और कार्य, विद्युत-संचार, चुम्बकीय सक्रियता, अंतरिक्षीय- संचार, आदि-आदि समस्त गतिविधियाँ सूक्ष्म रूप में प्रकृति में सदा से जारी हैं। उनके सूत्रों की जानकारी पाकर उसी की बांह पकड़कर चला गया तो रेडियो, टेलीविजन, वायुयान,उपग्रह, औषधि- शल्यक्रिया-उपचारक यंत्र एवं तंत्र, टेस्ट ट्यूब बेबी आदि का निर्माण सम्भव हो गया। वस्तुतः विज्ञान प्रकृति पर विजय नहीं करता, एक अनाड़ी बालक की तरह प्रकृति-माता का अनुकरण-अनुसरण करता है। जब यह अनुकरण सही होता है, तो प्रगति होती है, जिससे विज्ञान-शिशु हर्षोन्मत हो उठता है। जब अनुकरण त्रुटिपूर्ण होता है तो शिशु गिर पड़ता है।, उसे चोट लगती है, क्षतिग्रस्त हो जाता है।

प्रकृति के इस अनुसरण यानी सम्पूर्ण वैज्ञानिक शोध-प्रयोग के आधार है, कारणता का सिद्धान्त एवं प्रकृति की समरूपता के सिद्धाँत।

कारणता का सिद्धाँत का अर्थ है- प्रत्येक कार्य का एक निश्चित कारण होता है। प्रकृति की सफलता के सिद्धाँत का अर्थ है कि प्रकृति में एक स्थान पर यदि किसी कार्य का अमुक भूल कारण है, ता अन्यत्र सर्वत्र भी उस कार्य का मूल कारण वही और वैसा ही होगा। यदि वैसा कीं होता नहीं दीखता तो इसमें त्रुटि प्रकृति-की नहीं होती, हमारी जानकारी की कमी इसका कारण होती है।

इससे स्पष्ट हुआ कि प्रकृति की प्रत्येक हलचल सकारण है और उसका एक निश्चित क्रम है। ऐसी क्रमबद्ध सुनिश्चित सुव्यवस्थित हलचल बिना किसी किसी चेतन-सत्ता के नियंत्रण-निर्देशन के सम्भव नहीं है। अतः नास्तिकों का तर्क निरस्त हो जाता है। अग्नि वाला उदाहरण ही यदि लें तो अरणि, मणि या तूण स्वतः अग्नि के कारण नहीं, वे तो अग्नि-प्रज्वलन के अनुकूल पदार्थ मात्र हैं। अग्नि इनसे भिन्न शक्ति है। शक्ति की वह सूक्ष्म प्रक्रिया ही अग्नि की अभिव्यक्ति का कारण है। इसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ की गतिविधि के सुनिश्चित कारण हैं और इन सम्पूर्ण सृष्टि की क्रमबद्ध व्यवस्थित हलचल का भी सुनिश्चित कारण है।

चार्वाकवादियों का अंतिम तर्क या चेतना की स्तः उत्पत्ति का जो अब वैज्ञानिक दृष्टि से भी खंडित हो चुका है। चेतना स्वतः नहीं उत्पन्न होती, अपितु मूल रूप में विद्यमान रहती है। अब तो वैज्ञानिक भी वह मानने लगे हैं कि सृष्टि के मूल करण स्वयं ही अदृश्य चेतन तरंगें हैं, जो वेतन एवं जड़ दोनों में परिवर्तित हो सकने में सक्षम हैं। ‘शरीर के न रहने पर आत्मा की चेतना भी नहीं रहती’ नास्तिकों का यह तर्क तो स्पष्टतः भी विपरीत है। चार्वाक ने मदिरा और पान की ललाई का भ्रान्त उदाहरण दिया है। पान खत्म हो जाने पर भी लालिमा कुछ देर तक बनी रहती है। मादक-द्रव्य प्रत्यक्षतः पच जाने पर जाने पर भी नशे का प्रभाव मस्तिष्क में कुछ समय तक बना रहता है। यदि चेतना भी मदिरा या पान की लालिमा जैसी आनुषंगिक उत्पत्ति होती तो वह शरीर-नाश के कुछ समय बाद तिरोहित हुआ करती शरीर के रहते नहीं। पर होता विपरीत है, चेतना के तिरोभाव से शरीर पूर्ववत् रहते हुए भी निश्चेष्ट, व्यर्थ हो जाता है। अतः नास्तिकों द्वारा आत्म चेतना को उत्पत्ति-व्याख्या भी अनुपयुक्त एवं अप्रमाणिक है।

भूत-चैतन्यवाद एवं अकस्मात्वाद दोनों ही यर्थात एवं विवेक की कसौटी पर खरे नहीं उतरते और इसलिए नास्तिकता के बारे में आधुनिक दार्शनिक फिलिन्ट की यह उक्ति ही उचित सिद्ध होती है कि “प्रकृति के परमाणुओं ने परमात्मा की क्रिया के बिना स्वयं ही इस विचित्र सृष्टि की यह रचना की” यह बात मानना इस मान्यता से भी अधिक युक्ति शून्य है कि अंग्रेजी भाषा के अक्षरों ने बिना महाकवि शेक्सपियर के मस्तिष्क की सहायता के स्वयं ही शेक्सपियर के महान नाटकों की रचना कर डाली ‘इलियड’ महाकाव्य, में प्रयुक्त समस्त अक्षरों को यदि समस्त मनुष्य जाति संसार के आरम्भ से अब तक दिन-रात उछालती रहती तो भी ‘इलियड’ की पहली पंक्ति तक न बन पाती। वह बनी तभी, जब ‘इलियड’ के सृष्टा कवि होमर ने एकोलीज के क्रोध और ट्राय के युद्ध को काव्य में वर्णन करने की इच्छा की। फिर सृष्टि रूपी काव्य और ईश्वरीय नाटक की ‘इलियड’ काव्य कृति से या शेक्सपियर के नाटकों से क्या तुलना। बिना किसी विशेष चेतन-सत्ता की इच्छा और सहायता के क्या इतनी विशाल सृष्टि इस व्यवस्थित रूप में रची और चलायी जा सकती है? यह मानना कि प्रकृति के परमाणुओं ने स्वतः ही, बिना किसी चेतन-सत्ता के बिना उसकी बुद्धि की प्रेरणा के, स्वतः ही स विशाल, भव्य, जटिल सृष्टि की रचना करदी है, दुनिया का सबसे बड़ा अंधविश्वास है”


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