अपनों से अपनी बात - रजत जयन्ती वर्ष में 24 गायत्री तीर्थों की स्थापना

March 1979

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रजत जयन्ती वर्ष ने प्रज्ञावतार की प्रखरता सिद्ध कर दी हैं बीजारोपण समयानुसार अंकुरित होता और फलता-फूलता है। परिपूर्ण वृक्ष न बनने तक उसकी कीड़ों मकोड़ों, पक्षियों और पशुओं से रक्षा करनी पड़ती है। अन्यथा असमय ही पौध चन जाने का संकट बना रहता है। पीछे तो वह जीव-जन्तु और पशु-पक्षी तक उसके विशाल वृक्ष में घोंसले बनाते और आश्रय पाते हैं। प्रज्ञावतार जब तक शिशु था तब तक अनास्थावादी तत्वों से लेकर दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादियों तक हर कोई उसे उदरस्थ कर जाने की ताक में था किन्तु प्रयत्नपूर्वक सुरक्षा देने अभिसिंचन और खाद पानी देते रहने से आज यह स्थिति हो गई है कि बोधि-वृक्ष कल्प-वृक्ष की तरह दीनों का उद्धार और पतितों के मार्गदर्शन के साथ-साथ असुरता के महाराक्षस से निबटने में पूर्ण समर्थ है। यह प्रौढ़ता अब परिपक्व अवस्था तक विकसित होकर न केवल इस देश अपितु समूचे विश्व को शीलता प्रदान करने की स्थिति में है।

समय की विकृतियाँ निस्संदेह भयावह हैं। प्रत्यक्ष प्रवाह जिस दिशा में चल रहा है उसे देखते हुए सर्वनाश की सम्भावना स्पष्ट है। व्यक्ति और समाज को जिन विकृतियों ने ग्रस कर रखा है उन्हें गज-ग्राह की पौराणिक गाथा के समतुल्य ही समझा जा सकता है। इन परिस्थितियों में दैवी शक्ति की सहायता ही उद्धार कर सकती है। गजेन्द्र मोक्ष के पाठक जानते है कि महाविनाश के पूर्व ही-धर्म की संरक्षक सत्ता ने अपना उत्तरदायित्व पूरा कर दिया था। असन्तुलन को सन्तुलन में बदलने के लिए नियन्ता अपने घोषित आश्वासन के अनुसार स्वयं वचनबद्ध है। उसने समय-समय पर उसे पूरा भी किया है। ‘यदा यदा हि धर्मस्य...........’ का वचन सृष्टि के आदि से लेकर अद्यावधि समय पर पूरा भी होता रहा हैं। आज की विषय वेला में नियन्ता का हस्तक्षेप अनिवार्य हो गया है। सो हो भी रहा है। समस्या आस्था संतुष्ट की है। सम्पदा की नहीं विचारणा की कमी पड़ रही है। साधनों की नहीं सद्भावों का अभाव है। अन्तरालों में घुसी हुई निकृष्टता ही सुरसा की तरह सर्वग्रासी बनती जा रही है। उसका निराकरण प्रज्ञा की उदीयमान प्रखरता ही कर सकती है। समाज शास्त्री इसे विचार क्रान्ति कहते है। धार्मिक क्षेत्र में इसका नाम ‘ज्ञान यज्ञ’ है। तत्वदर्शी इसी पुष्य प्रवाह को ‘प्रज्ञावतार’ कहते है। अपने समय में भगवान का अवतार इसी रूप में होना चाहिए था, सो ही हो भी रहा है।

प्रज्ञा शब्द ऋतम्भरा प्रज्ञा’ का ही संक्षिप्त नाम है? ऋतम्भरा प्रज्ञा को तत्वदर्शी ब्रह्म विद्या कहते और उसकी आराधना करते रहे हैं। साधकों के लिए यही गायत्री है। उसका अस्तित्व और सम्मान तो अनादिकाल से रहा है और अनन्त काल तक रहेगा, पर समय की आवश्यकता के अनुरूप उसे विश्व चेतना का अभिनव उभार बनकर अपनी भूमिका सम्पन्न करनी पड़ रही है। प्रस्तुत विकृतियों का अनेकानेक नाम रूप के मूल में आस्था संकट ही एक मात्र कारण है।उसका निवारण ऋतम्भरा के विवेक युक्त शालीनता के-उभार से ही सम्भव हो सकता है। इस उभार को सूक्ष्म जगत के अन्तराल में उभरते हुए कोई भी दिव्य चक्षु सम्पन्न व्यक्ति अत्यन्त सरलता पूर्वक देख सकता है। उसने जागृत आत्माओं को सर्वप्रथम झकझोरा है। अगले दिनों उसका आलोक जन−जन को अनुप्राणित करता दृष्टिगोचर होगा। युग परिवर्तन के लिए इससे अधिक और कुछ चाहिए भी नहीं साथ ही यह भी स्पष्ट है कि दुर्भति के कारण उत्पन्न हुई दुर्गति के निराकरण का उसके अतिरिक्त और कोई उपाय भी नहीं है।

पौराणिक प्रतिपादनों में अपने समय के अवतार का नामकरण निष्कलंक रखा गया है। निष्कलंक अर्थात् कलंक रहित। कलंक रहित व्यक्ति नहीं हो सकता। मानवी सत्ता जिस मिट्टी से गढ़ी गई है; उसमें कहीं न कहीं खोट रहता ही है। ‘निष्कलंक सत्ता एक ही है-’प्रज्ञा’। इसी कसौटी पर कसकर सत्य का निरूपण होता है। सत्य का स्थान कितना ही ऊँचा क्यों न हो उसे समझना और पकड़ना प्रज्ञा की सहायता के बिना सम्भव ही नहीं हो सकता। प्रज्ञा ही निष्कलंक है-ऋतम्भरा प्रज्ञा का ही दूसरा नाम ब्रह्मविद्या है चेतना जगत की यही आद्यशक्ति है इसी का सामयिक गतिविधियों के अनुरूप युग शक्ति नाम दिया गया है। प्रज्ञावतार को ही निष्कलंक कह सकते है। सामयिक सन्तुलन बनाने के लिए विकृतियों का निराकरण और सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन आवश्यक है। यह कार्य यों जागृत आत्माओं के प्रबल पुरुषार्थ द्वारा ही सम्पन्न होता दिखाई देगा। किन्तु तथ्य और सत्य यही भी है कि अदृश्य जगत की भाव प्रेरणा ही उन्हें आन्दोलित करेगी और मनःस्थिति एवं परिस्थिति के बन्धनों से मुक्ति दिलाने में मानवी नहीं दैवी प्रयत्न ही सफल हो सकते है। मनुष्य अपने भौतिक पुरुषार्थ से सुसंपन्न बन सकता है, पर सुसंस्कृत बनने के लिए ऐसी प्रबल अंतःप्रेरणा चाहिए जो लोक प्रवाह को चीर कर उल्टी दिशा में बहने की साहसिकता से भरी पूरी हो। उच्चस्तरीय उमंगे निस्सन्देह दैवी प्रेरणा से प्रेरित होती है। ईश्वरीय अनुग्रह का एक ही चिन्ह है- उत्कृष्टता को अपनाने के लिए प्रचण्ड साहस। प्रज्ञावतार की अदृश्य भूमिका यही है। बाजीगर की तरह उसी के द्वारा जागृत आत्माओं को कठपुतली की तरह नचाया जायेगा और युग सृजन की अग्रिम पंक्ति में खड़े होने के लिए विवश किया जायेगा।

नवयुग में समस्त विश्व को एकता, समता और शुचिता की त्रिवेणी में स्नान करना होगा। व्यक्ति और समाज को सुसंस्कृत बनना होगा और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की- ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ की रीति-नीति अपनाकर चलना होगा। इसके लिए सैद्धान्तिक और व्यावहारिक सभी तथ्य बीज रूप से गायत्री महामन्त्र में मौजूद हैं। उसमें दार्शनिक प्रेरणात्मक और सामर्थ्य परक वे सभी क्षमताएँ विद्यमान हैं। जिनके आधार पर नवयुग का सृजन होने जा रहा है। गायत्री का तत्वज्ञान अगले दिनों पूजा, उपासना की परिधि तक सीमित नहीं रहेगा। उसे सतयुग के आधारभूत आलोक की भूमिका निभाते हुए देखा जायेगा। इन्हीं तथ्यों के आधार पर आद्यशक्ति गायत्री की सामयिक भूमिका को ‘.... शक्ति’ कहा गया है। उसका संचरण ‘विश्व माता’ के रूप में होगा। जन-जन पर पड़ने वाली इसकी छाया को ‘देवमाता’ कहा जायेगा। वेद माता के यही रूप अगले दिनों दृष्टिगोचर होंगे। उसे किसी सम्प्रदाय विशेष की बपौती नहीं माना जायगा। जाति, लिंग और क्षेत्र की परिधि से आगे बढ़कर नवीन विश्व की संरचना संदर्भ में अपनी अनोखी भूमिका सम्पन्न करती हुई वह दृष्टिगोचर होगी।

रजत जयन्ती वर्ष के गायत्री महापुरश्चरण अभियान को प्रज्ञावतार का प्रभातकालीन वन्दन कहना चाहिए। उसने कोटि-कोटि जागृत आत्माओं में उच्चस्तरीय चेतना उत्पन्न की है और साहसिक प्रेरणा दी है। लक्ष लक्ष्य व्यक्तियों द्वारा कोटि-कोटि जप और भजन करने से अदृश्य वातावरण में सत्प्रवृत्तियों का प्रचण्ड प्रवाह उत्पन्न हुआ है। इस धर्मानुष्ठान में सम्मिलित होने वाले याजकों ने अपने संपर्क क्षेत्र में सदाशयता का नये सिरे से प्रवाह उत्पन्न किया है। यज्ञ आयोजनों से सृजनात्मक गतिविधियों ने सत्परम्पराओं का प्रचलन किया है। उनके कारण धर्म चेतना का उल्लास जन-जन के मन में उभरा हैं इन उपलब्धियों का प्रत्यक्ष मूल्याँकन करना तो कठिन है, पर दूरदर्शियों की दिव्य दृष्टि यह स्पष्ट करती है कि जो हो रहा है। उसमें उज्ज्वल भविष्य की संरचना कर सकने वाले तत्व प्रचुर परिमाण में विद्यमान है।

प्रव्रज्या अभियान रजत जयन्ती वर्ष की विशिष्ट देन है। पूरा समय देने वाले वरिष्ठ-सीमित थोड़ा समय देने वाले कनिष्ठ और दो घन्टा नित्य नव सृजन के लिए लगाने वाले समयदानी जिस तेजी से पंजीकृत हो रहे हैं, उसे देखते हुए प्रतीत होता है कि भगवान बुद्ध द्वारा संचालित धर्मचक्र प्रवर्तन के लिए जिस प्रकार श्रमण संस्कृति का आवेग आया था और लाखों चीवरधारी परिव्राजक विश्व भर में बिखरे, बरसे थे, प्रायः वैसा ही कुछ इन दिनों भी होने जा रहा है। जागृत आत्माओं का भावभरा समयदान अगले दिनों सृजनात्मक सत्प्रवृत्तियों को किस प्रकार-किस कदर गगनचुम्बी बनाने जा रहा है; इस सम्भावना की कल्पना भर से हर्षातिरेक से रोमांच होने लगते है।

इस महापुरश्चरण में सम्मिलित हुए लाखों साधकों को टोली गठन के सूत्र में बाँधकर उन्हें आत्म-निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण के रचनात्मक प्रयोजनों में लगाया गया है, इसे देव संगठन का नव-जीवन प्राण संचार कह सकते है। यह प्रज्ञावतार का देव माता स्वरूप है। तेतीस कोटि देवताओं का इसी भारत भूमि पर पुनः प्रकट होना और अपने महान कर्तृत्व से इस धरती को स्वर्गादपि गरीयसी बना देना, अभी भी तो एक सुखद स्वप्न है, पर उसकी पूरी और पक्की सम्भावना इस आधार पर दृष्टिगोचर होती है। कि देव परिवार की संख्या और उनकी उत्कृष्ट सक्रियता दिन और रात चौगुनी गति से बढ़ती और गगनचुम्बी बनती चली जा रही है।

रजत जयन्ती वर्ष में सर्वसाधारण के लिए नये सिरे से उसके सूत्र संचालक ने लिखा है- यह लेखन जन-जन को प्रज्ञावतार का स्वरूप प्रयोग और सन्देश से परिचित कराने की दृष्टि से लिखा गया है। तो अब तक भी गायत्री साहित्य लिखा गया हैं और अब उसके तत्व ज्ञान जानकारियाँ देने के लिए युग शक्ति गायत्री सात भाषाओं में प्रकाशित हो रही है, पर यह नूतन साहित्य विशिष्ट उद्देश्य के लिए लिखा गया हैं इस तत्वदर्शन से अपरिचित लोगों को भी विश्व के नवनिर्माण की आधारशिला का स्वरूप समझने का अवसर मिल सके यह इस नवीन लेखन का विशिष्ट उद्देश्य है। इसका अनुवाद भारत की प्रायः सभी भाषाओं में प्रकाशित होगा और अगले ही दिनों उसे गीता एवं बाइबिल की तरह संसार भर की 700 भाषाओं में अनूदित प्रकाशित, प्रसारित करने का योजनाबद्ध प्रयास किया जायगा। जो तत्वदर्शन विश्व के नव-निर्माण की प्रधान भूमिका सम्पन्न करने जा रहा है उसकी पूर्ण जानकारी भी मानव समाज को करायी जाना आवश्यक है। स्पष्ट है कि गायत्री को जाति, लिंग, क्षेत्र की बपौती नहीं रहने दिया जायेगा, वह विश्व संस्कृति का मेरुदण्ड ही थी और भविष्य में भी उसका वही स्वरूप प्रखर होगा।

रजत जयन्ती वर्ष विगत गायत्री जयन्ती से आरम्भ हुआ था। अब 5 जून को उसका एक वर्ष पूरा हो जायगा। इस अवधि में महापुरश्चरण योजना की व्यापकता-देव परिवार की अभिनव संगठना-प्रव्रज्या अभियान की प्रौढ़ता ऐसे काम हैं जो सर्वविदित है। ईसाई साहित्य की तरह अत्यन्त संस्था, अतीव सुन्दर और हर भाषा में उपलब्ध गायत्री साहित्य अगले ही दिनों भारत के कोने-कोने में-विश्व के हर क्षेत्र में जा पहुँचेगा। यह प्रयत्न गर्भ में पक रहा है। अब नौ-दस महीने पेट में रहने के उपरान्त यह भ्रूण पक गया अब उसका प्रसव होने ही वाला है। सम्भवतः अगले तीन महीने पार करके आने वाली गायत्री जयन्ती पर यह सर्वा सुन्दर गायत्री साहित्य भारत के-विश्व के कोने-कोने में जन-जन को उपलब्ध होने लगेगा।

गायत्री महापुरश्चरण के अंतर्गत अप्रैल, मई, जून में अगणित आयोजना हो रहे है। यह आगे अगले वर्ष भी चलते रहेंगे। रजत जयन्ती वर्ष मिशन का पच्चीसवाँ वर्ष है। इसमें 25 कुण्डी धर्मानुष्ठान की धूम रही है। निश्चय यह किया गय है कि यह प्रक्रिया 25 महीने चलने दी जाय। पुरश्चरण आयोजनों को अगले वर्ष भी जारी रखा जायगा और सन् 80 की गुरुपूर्णिमा को 25 महीने पूरे करने के बाद ही उसकी पूर्णाहुति होगी।

रजत जयन्ती वर्ष की केन्द्रीय उपलब्धियां यह है कि ब्रह्मवर्चस आरण्यक में (1) गायत्री शक्ति पीठ, (2) ब्रह्म विद्यालय एवं (3) शोध संस्थान की त्रिवेणी बहने लगेगी। पहले उसे मात्र साधनाश्रम के रूप में बनाया गया था। अब उस गंगा ने त्रिवेणी का रूप धारण कर लिया है। युग शक्ति की 24 धाराएँ 24 देवियों के रूप में प्रतिष्ठापित की गई है। कलेवर की दृष्टि से छोटा होते हुए भी इसे अन्तर्राष्ट्रीय गायत्री तीर्थ बनाया जा रहा है। यह दर्शनार्थियों की श्रद्धा का परिपोषण ही नहीं करेगा वरन् बुद्धिवाद एवं प्रत्यक्षवाद का उपयुक्त समाधान कर सकने के लिए आवश्यक अनुसंधान भी प्रस्तुत करेगा। यह शोधें इतने महत्व की होंगी।, जिनके लिए मानव जाति को अनन्तकाल तक उनका कृतज्ञ रहना पड़ेगा। यज्ञ पैथी ऐसा ही अनुसंधान होगा जिसके द्वारा विश्व मानव को शारीरिक व्याधियों, मानसिक आधियों से ही नहीं आन्तरिक निकृष्टताओं से छुटकारा प्राप्त करके समुन्नत एवं सुसंस्कृत जीवनयापन का अवसर मिल सके। प्रत्यक्षवादी बुद्धिवाद ने पिछली शताब्दियों से अध्यात्मवाद पर आक्रमण करना आरम्भ किया है और प्रतिरोध के अभाव में उसकी छवि धूमिल करने में बहुत हद तक सफलता भी पाई है। अब समय आ गया कि उलट कर हमला किया जाय। ब्रह्मवर्चस् में चलने वाली शोध आज तो आरम्भ ही हो रही है, पर अगले दिनों उसकी सफलता पर विश्वास रखा जा सकता है और यह माना जा सकता है कि जिस दिव्य संरक्षण में यह प्रयास आरम्भ हुआ है उसकी क्षमता को देखते हुए असफलता मिलने का कोई कारण नहीं है।

ब्रह्मवर्चस् के अंतर्गत चलने वाली साधन-शिक्षण प्रक्रिया युग सृजेताओं का एक विशिष्ट वर्ग पैदा करेगी और वे अपनी प्रखरता से अपना-अपने समाज का एवं समस्त विश्व का असाधारण हित साधन कर सकेंगे। ब्रह्म वर्चस का ही एक सहायक भाग- गायत्री नगर है। जहाँ सामान्य तीर्थ यात्रियों को-दस दिवसीय साधनाएँ करके वह आलोक प्राप्त करने का अवसर मिलता रहेगा, जो तीर्थ के नाम से जाने जाने वाले साँस्कृतिक मेरुदण्ड का मूलभूत उद्देश्य है। गायत्री नगर में रहकर इस दिन साधना करने वाले यह अनुभव कर सकेंगे कि तीर्थों का जो महात्म्य शास्त्रकारों ने बताया है वह अकारण एवं निरर्थक नहीं है।

यह विवरण रजत जयन्ती वर्ष के एक वर्ष का है जिसे पूर्वार्ध कहना चाहिए। उत्तरार्द्ध शेष है। जब इस हर्षोत्सव को -ऐतिहासिक धर्मानुष्ठान को-एक वर्ष से बढ़ा कर 25 महीने का किया जा रहा है तो समझना चाहिए कि इसके पीछे सामान्य भावुकता नहीं, वरन् कुछ विशिष्ट दैवी प्रयोजन ही छिपा हुआ है। पुरश्चरण आयोजन 25 महीने चलेंगे, यह बात अपने आप अति महत्वपूर्ण है। इससे वातावरण के परिशोधन में-देव परिवार के विस्तार में-प्रव्रज्या के अधिक प्रौढ़ परिपक्व बनाने में तो असाधारण सहायता मिलेगी ही, पर इससे भी बड़ी बात एक और होने जा रही है, जिसका प्रथम परिचय परिजनों को यह पंक्तियाँ पढ़ने के उपरान्त ही उपलब्ध होगा।

यह तथ्य सर्वविदित है कि वसन्त पर्व भगवती सरस्वती का ही नहीं प्रज्ञावतरण का भी पावन पर्व है। अनादि काल में गढ़ा और आद्यशक्ति गायत्री का जन्म जेष्ठ शुक्ला दशमी को हुआ था। उसी दिन दोनों की जन्म जयन्ती मनाई जाती हैं। इसी युग्म का दूसरा रूप है सरस्वती और युग शक्ति का अवतरण। बसन्त के सौभाग्य में यह दूनी अभिवृद्धि है कि उसे प्रज्ञावतार का जन्मदिन होने का भी श्रेय मिलता रहेगा। युग निर्माण मिशन का-उसके सू. संचालक का जन्मदिन बसन्त पंचमी को मनाया जाता है, यह प्रेरणापर्व भी है इस लिए कि मिशन के सू. संचालक पर उसी दिन आगामी वर्ष के कार्यक्रम के लिए दैवी आदेश, निर्देश उतरते और विधिवत् कार्यान्वित होते रहे है। मिशन के साथ जुड़ी हुई विशिष्ट आत्माओं को भी इसी प्रवाह में बहना पड़ा है। वे भी बसन्त पर्व पर महाकाल की प्रेरणाएँ प्राप्त करते रहे और श्रद्धापूर्वक उनका अनुसरण करके अपना क्रिया-कलाप निर्धारित करते रहे है। सामान्य परिजनों को भी हर वसन्त पर दिव्य लोक से कुछ संदेश, संकेत मिलते रहे हैं इन प्रेरणाओं का कौन कितना अनुसरण कर सका यह उसके पुण्य एवं सौभाग्य पर निर्भर रहा है। प्रज्ञावतार की प्रखरता का सामयिक परिचय इसी तथ्य के आधार की प्रखरता का सामयिक परिचय इसी तथ्य के आधार पर मिलता है कि युग सृजन के संदर्भ में उसके निर्देश क्रमशः बड़े और कड़े होते चले जा रहे हैं। इतना ही नहीं उस अनुशासन को शिरोधार्य करने के लिए देव मानवों के चरण बरबस आगे बढ़ने लगे हैं।

रजत जयन्ती वर्ष के बसन्त पर्व की विशिष्ट प्रेरणा यह है कि प्रज्ञावतार के आलोक को भारत भूमि के समस्त धर्म क्षेत्रों तक पहुँचाने के लिए गायत्री तीर्थों की स्थापना की जाय। आद्य शंकराचार्य को भी इसी प्रकार की प्रेरणा हुई थी। अनेकों दूरगामी परिणामों को देखते हुए उनने भारत के चारों कोनों पर चार धामों की स्थापना की थी। यह कार्य उन दिनों की उनकी स्थितियों में अति कठिन था, पर दैवी सहयोग साथ रहने के कारण वह कुछ ही वर्षों में जादुई सफलता की तरह पूरा हो गया था। इस स्थापना के सत्परिणामों पर जितनी गम्भीरता से चार किया जाय वह उतनी ही अधिक महत्वपूर्ण और श्रेयस्कर प्रतीत होती जाती है।

ठीक इसी स्तर की प्रेरणा प्रस्तुत बसन्त पर्व पर अवतरित हुई है। इसके अनुसार भारत में 2 गायत्री तीर्थ बनने हैं। यह स्थापना उन्हीं स्थानों पर होगी जहाँ परम्परागत विशिष्ट तीर्थ विद्यमान हैं। तीर्थों के रूप रेखा स्पष्ट है। वे कलेवर की दृष्टि से बहुत बड़े नहीं होंगे और न अनावश्यक रूप से खर्चीले। इनकी तीन मंजिल होंगी। ब्रह्मवर्चस की तरह इनमें भी युग त्रिवेणी जैसी गतिविधियों का दर्शन होगा।

पहली मंजिल में युग शक्ति की भव्य प्रतिमा दीवारों पर संगमरमर की गायत्री के अंतर्गत आने वाली 2 महाशक्तियों की प्रतिमाएँ। दर्शकों को इन सभी की जानकारी कराने के लिए ‘गाइडों की नियुक्ति। पैसा चढ़ाने का निषेध। कोई कुछ देना चाहे तो बदले में तत्काल उतने मूल्य का गायत्री साहित्य का प्रतिदान।

दूसरी मंजिल में सत्संग भवन, परामर्श कक्ष रहेगा। इसमें इच्छुकों का गायत्री ज्ञान देने तथा जिज्ञासाओं का समाधान करने का क्रम निरन्तर चलता रहेगा।

तीर्थ की सभी व्यवस्थाओं का संचालन करने, प्रचार प्रयोजनों में विरत रहने के लिए न्यूनतम पाँच परिव्राजक रहेंगे। अपनी निज की साधना, दैनिक-यज्ञ प्रक्रिया एवं शरीर यात्रा के लिए भोजन, शयन, शौच, स्नान आदि का प्रबन्ध रहेगा। अभी आरंभिक निर्माण के लिए इतनी ही व्यवस्था सोची गई है। अच्छा तो यह होता कि दूर-दूर से आने वाले आगंतुकों के लिए एक धर्म शाला भी साथ ही रहती, पर लागत की अधिकता और समय की जल्दी का ध्यान रखते हुए तुरन्त निर्माण के लिए उपरोक्त तीन मंजिलें तीर्थों का ही काम हाथ में लिया गया है। दूसरे चरण में जहाँ भी तीर्थ होंगे उसीसे सटी हुई या थोड़ी हटकर धर्मशालाएँ भी बनेंगी। जहाँ तीर्थयात्री और अनुष्ठानकर्ता शान्तिपूर्वक निवास करने एवं तीर्थों जैसा वातावरण प्राप्त करने का लाभ उठा सकें।

रजत जयन्ती वर्ष में यह गायत्री तीर्थ निर्माण का संकल्प 24 तक सीमित किया गया है। 24 अक्षरों में 24 शक्तियाँ और प्रेरणाएँ है। इसलिए 24 शक्ति पीठों की-गायत्री तीर्थों की संख्या 24 हो तो उपयुक्त ही रहेगा। वैसे भारतवर्ष के हजारों तीर्थों में से कम से कम 240 नहीं तो 108 तीर्थ तो ऐसे ही हो सकते हैं जिनमें गायत्री तीर्थों की स्थापना होनी चाहिए। इसे एक दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति की जन्मदात्री, ब्रह्मविद्या की गंगोत्री और साधना तपश्चर्या की शक्ति निर्झरणी गायत्री का कहीं एक भी समर्थ तीर्थ न दिखे और अन्यान्य चित्र विचित्र देवी-देवताओं के देवालयों की भरमार होती चले। इस लज्जाजनक स्थिति को हमें अविलम्ब धो डालना है। गायत्री तीर्थों की श्रृंखला का व्यापक विस्तार नवयुग के अवतरण का वातावरण बनाने के लिए भी आवश्यक है। यह सभी कार्य इन शक्ति पीठों से किस प्रकार सम्भव हो सकते हैं इसे समय से पूर्व कहना व्यर्थ है। यह तीर्थ मात्र देवालय नहीं रहेंगे, उनके द्वारा जो सृजनात्मक प्रवाह बहेंगे उन्हें हिमालय से निकलने वाली अनेकानेक सरिताओं के समतुल्य ही समझा जा सकता है।

रजत जयन्ती वर्ष के उत्तरार्ध में जिन गायत्री तीर्थों के स्थान चुने जाने हैं। उनका निर्धारण करने में विशेष खो-बीन, जाँच-पड़ताल की आवश्यकता होगी। पहले कहाँ से काम शुरू करना है यह भी इन्हीं दिनों निश्चित होना है। पर इतना निश्चित है कि सप्त पुरियों, द्वादश ज्योतिर्लिंगों, बीस शक्ति पीठों, चार कुम्भस्थलों में से एक भी ऐसा न बचेगा जहाँ गायत्री तीर्थों की स्थापना न हुई हो और जहाँ गायत्री तीर्थों की स्थापना न हुई हो और जहाँ से तीर्थ यात्रा के लिए पहुँचने वाले लोगों को युग शक्ति के स्वरूप, प्रयोग एवं प्रतिफल की जानकारी उपलब्ध न होती हो।

आद्य शंकराचार्य के चार धामों को निर्माण करने में एक मान्धाता ही समर्थ हो गये थे। समर्थ रामदास के महावीर मन्दिर छत्रपति शिवाजी ने बनवाये थे, बुद्ध के विहारों और विश्वविद्यालयों को बनाने में हर्षवर्धन, अशोक जैसे सम्पन्न लोगों का हाथ था। युग निर्माण परिवार में साधन सम्पन्न और उदार होने की दोनों विशेषताएँ जिनमें हो ऐसे लोगों को बहुत ढूंढ़-खोज करने पर ही पाया जा सकेगा। किन्तु आशा उन प्रतिभाओं पर केन्द्रित होती है जो प्रतिभाशाली और प्रामाणिक होने के कारण समर्थ लोगों को अपने प्रभाव से प्रभावित कर सकते है और एक-एक ईंट इकट्ठी करके देवालय बनाने का नया आदर्श प्रस्तुत कर सकते हैं यों यश या पुण्य के लिए भी कई लोग अपने स्थान में मन्दिर धम्र शाला आदि बनाने के इच्छुक रहते हैं। उन्हें यदि तीर्थ में देवालय बनाने से मिलने वाले असंख्य गुने पुश्य की जानकारी कराई जाय और इस माध्यम से व्यापक यश मिलने की स्पष्ट सम्भावना समझाई जाय तो ऐसे लोक भी मिल सकते है। जो अपने धन का श्रेष्ठतम उपयोग इसी में माने और युग देवता के चरणों पर अपने साधनों को समर्पित करने में छोटे भामाशाओं की-हरिश्चन्द्रों की-भूमिका सम्पन्न करें। जो हो, विश्वास यही किया जाना चाहिए कि जिस महाकाल की प्रेरणा से यह अनुपम संकल्प प्रकट हुआ है वही सत्ता इसे सम्पन्न करा सकने वाली प्रतिभाओं को सहयोग की प्रेरणा भी देगी। और यह निर्माण कार्य कष्ट साध्य-साधन साध्य होते हुए भी सम्पन्न होकर रहेंगे। परिजनों को कुछ ही समय में चौबीस गायत्री तीर्थों का दर्शन अपनी इन्हीं आँखों से कर सकने का सौभाग्य मिल जायेगा।

परिव्राजकों की भर्ती का क्रम पहले से ही चल रहा है। स्फूर्तिवान परिश्रमी एवं प्रभावशाली परिव्राजक इन 24 तीर्थों के लिए भी चाहिए। हर तीर्थ में न्यूनतम पाँच परिव्राजकों का एक जत्था रहेगा। उन जत्थों की हर साल एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में बदली होती रहेगी। 24 तीर्थों के लिए 120 परिव्राजकों की 108 के लिए 540 तीर्थ संचालकों की आवश्यकता पड़ेगी। इन सब का प्रथम शिक्षण ब्रह्मवर्चस हरिद्वार में होगा। जो उत्तीर्ण होंगे उन्हें अन्य तीर्थों में भेजा जायेगा। इस प्रकार वे 24 वर्ष में 24 तीर्थों का सेवन कर सकेंगे। 24 वर्ष तक गायत्री की वैसी ही उपासना कर सकने में समर्थ होंगे जैसी कि युग निर्माण मिशन के संस्थापन ने की है।

जिन्हें यह कार्य प्रिय हो-जो अपने को इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए उपयुक्त समझते हों वे पहले कुछ समय हरिद्वार शिक्षण प्राप्त करने की योजना बनाये। इन लोगों के निर्वाह का आवश्यक खर्च संस्था की ओर से ही बहन किया जायेगा।

रजत जयन्ती वर्ष युग निर्माण मिशन का एक पावन वर्ष है। इसमें परिवार को प्रायः समस्त जागृत आत्माओं ने अपने-अपने ढंग से योगदान दिया है। आगामी वर्ष उपरोक्त प्रयोजनों में और भी अधिक श्रद्धा के साथ प्रस्तुत कार्यों में हाथ बँटाने की आज्ञा की जा रही है। इन पंक्तियों को इसी का आह्वान आमन्त्रण समझा जाये।


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