पांडवों द्वारा महाप्रयाण करने के बाद महाराजा परीक्षित ने शासन सूत्र सम्हाला। उस समय द्वापर युग का अन्त हुआ ही था और कलिकाल की काली छाया भूमण्डल पर छाने लगी थी। महाराजा परीक्षित ने जब यह सुना कि मेरे साम्राज्य में कलियुग का प्रवेश हो गया है तो वे दुखी हुए लेकिन यह सोच कर प्रसन्न भी हुए कि युद्ध का अवसर प्राप्त हुआ है। युद्धवीर परीक्षित रथ पर सवार होकर कलयुग का उच्छेद करने के लिए निकल पड़।
साथ में न सेनायें न अंगरक्षक रथ पर अकेले परीक्षित रथ में जूते हुए अश्वों की रास भी स्वयं सम्हाले वे, राज्य के कौन कौने में कलि को ढूँढ़ने के लिए चल पड़े। एक स्थान पर वे कुछ समय के लिए रुक ही थे कि उन्होंने देखा-एक राज वेष धारी हाथ में लाठी लिये एक गाय और बैल को बुरी तरह पीटता जा रहा है गाय उसकी और बैल की बुरी तरह पीटता जा रहा है गाय उसकी निर्मम मार सहती हुई ठोकरें खाती हुई किसी प्रकार अपने को घसीटती हुई चल रही थी। बैल की भी यही दशा थी। राजा परीक्षित ने अपना धनुष चढ़ा कर उसे ललकारा- अरे तु कौन है? इस प्रकार गौमाता और गौसुत वृषभ को निर्ममता के साथ पीटने वाला तू अपराध कर रहा है, अतएव दण्डनीय ही है।
फिर उन्होंने वृषण सू पूछा-कमल नाल के समान आपका वर्ण श्वेत है लगता है इस नराधम के क्रूर अब शोक न कीजिए। मैं इस दृष्ट को अभी किये का दण्ड देता हूँ।
वृषभ ने अपना नाम धर्म बताया और गौ का परिचय पृथ्वी के रूप में देते हुए कहा कि-यह राज वेशधारी पुरुष कलि है और हम दोनों को नष्ट करने पर तुला हुआ है ताकि यह निःशंक होकर स्वैतचरण कर सकें।
परीक्षित ने धर्म और पृथ्वी को वृषभ तथा गौ के रूप में देखकर समझ लिया कि कलि सामना हो गया है। सतयुग में धर्म के चार चरण थे, तप, पवित्रता दया, और सत्य। इस समय तीन चरण नष्ट हो चुके हैं ओर कलि अपनी आसुरी शक्ति ने उस चौथे चरण को भी नष्ट कर देने के लिए तुला हुआ है ताकि धर्म पूरी तरह पंगु हो जाय। समस्त आपदा विपदाओं के कारण आसुरी प्रवृत्तियों के जनक और दृष्टता के प्रेरक कलि का वध करने के लिए उन्होंने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई और उसे तान दिया।
अपने मरण को सामने प्रस्तुत जान कर कलियुग ने परीक्षित के चरणों में अपना सिर रख दिया और कहा आप यशस्वी, दीन वत्सल तथा शरणागत रक्षक हैं। मुझ पर दया कीजिए। आप जो आज्ञा देंगे उसी का पालन करूंगा पर कृपा कर मुझे प्राणों से मत मारिये।’
“तू हाथ जोड़कर शरण में आ गया, इसलिए तुझे मारना तो उचित नहीं है- महाराज परीक्षित ने कहा परन्तु तू अधर्म का सहायक है। इसलिए तुझे मेरे राज्य में नहीं रहना चाहिए।
कलि ने परीक्षित का आदेश स्वीकार कर लिया। इस समय समस्त भूमण्डल पर परीक्षित का राज्य फैला हुआ था। अतः कलि ने कहा-महाप्राज्ञ! आप मुझे ऐसा स्थान बता दीजिए जहाँ में स्थिरतापूर्वक रह सकूँ। महाराज परीक्षित ने कलि को चार स्थान बताये।
द्यूत, मद्यपान, परस्त्री संग और हिंसा। इन चार स्थानों पर मेरा निर्वाह नहीं होगा इसलिए कलि ने एक स्थान और माँगा। परीक्षित ने कहा सुवर्ण। सुवर्ण अर्थात् लोभ। कहते हैं तभी से कलि अपनी आसुरी माया के साथ इन पाँच प्रवृत्तियों को अपना आवास बनाये हुए है। इन पाँचों में से एक भी दुष्प्रवृत्ति जहाँ होती है, वहीं कलि का वश चलता हैं।