सन्तोषजनक जीवनयापन (kahani)

March 1979

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एक गाँव में एक सद्गृहस्थ परिवार रहता था, पति-पत्नी, दो बच्चे, माता-पिता उस तरह वे छः व्यक्ति थे। परिवार का मुखिया गाँव के स्कूल में अध्यापक था व गाँव के मन्दिर में पूजा भी करता था। आय कम थी परन्तु फिर भी पूरा परिवार सुखी था, सब लोग एक दूसरे का सम्मान करते रहते थे व सीमित आय में से ही अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर दिया करते थे।

एक दिन उस पुजारी के मन में विचार आया वह कितना अभावग्रस्त जीवन व्यतीत कर रहा है तथा उसके मन्दिर में ही नित्य दर्शनार्थी धनिक रईस कितने समृद्धिशाली व सुखी हैं। भगवान भी अजीब है जो उनकी दिन-रात सेवा करें वह अभावग्रस्त जीवन यापन कर दुःखी बना रहे व जो मात्र थोड़े समय के लिए दर्शनार्थ धाबे वह वैभवपूर्ण जीवन जिए। एक दिन वह पुजारी उन रईस के घर उनके सुख के बारे में पता लगाने लगा। रईस से उसने पूछा, “महाराज आपके इतने नौकर-चाकर हैं बड़ा महल है आपको किसी चीज की कमी नहीं। आपके सुख का क्या कहना” रईस बोला “पुजारी जी से सुखी कहाँ हूँ, मेरे कोई बालबच्चा नहीं है। इस महल में नौकरों के बीच रहकर भी मैं अन्दर से बहुत दुखी हूँ। “पुजारी ने पूछा फिर सुखी कौन होगा” “पास ही के गाँव में एक विद्वान रहता है उसे कई विद्याओं का अच्छा ज्ञान है मैं तो समझता हूँ वही सुखी है” ब्राह्मण पुजारी उस विद्वान से मिला तो मालूम हुआ वह विद्वान भी इसलिए दुखी है कि उसने विद्यार्जन में जितना समय लगाया इस अनुसार उसे आर्थिक लाभ नहीं होता वह जीवन निर्वाह भी कठिनाई से कर पा रहा है। पुजारी ने कहा “तो क्या दुनिया में कोई सुखी नहीं” “क्यों नहीं” “एक गाँ में एक ब्राह्मण पुजारी है उसकी आय तो सीमित है पर जो भी उसकी कमाई है वह सात्विक है। उसकी गृहस्थी बड़ है पर उसमें परस्पर स्नेह है। उसकी पूरी गृहस्थी एक तपोवन है अतः सर्वाधिक सुखी तो वह ब्राह्मण पुजारी ही है।”

यह सुन वह व्यक्ति लौट आया और सन्तोषजनक जीवनयापन करने लगा।


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