धर्म एक परिष्कृत दृष्टिकोण

September 1976

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प्राचीन भारत के मनीषियों ने धर्म का अर्थ व्यापक माना है सम्प्रदाय, मत-पन्थ आदि संकीर्ण हैं। धर्म शब्द का दुरुपयोग इनके पर्याय रूप में नहीं होना चाहिए। ऋषि-मुनियों ने वर्ग सम्प्रदाय आदि भेद-भाव के बिना प्राणि मात्र के- कल्याण के निमित्त ज्ञान-विज्ञान का अन्वेषण किया। जप-तप की अनुभूतियों से विश्व-मानव को लाभान्वित करने सूत्र और मंत्रों की रचना की। वेद-वेदांग इसका ज्वलन्त प्रमाण है।

वेद को धार्मिक ग्रन्थ माना जाता है। उसमें समग्र जीवन जीने की कला वर्णन मिलता है। व्यक्तिगत ही नहीं, सामाजिक समस्याओं का समाधान है। आध्यात्मिक ही नहीं अपितु आर्थिक, राजनैतिक विषय भी है। शासन-प्रणाली के प्रसंग में ‘‘साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं वैराज्यं पारमेष्ठयं राज्यम्’’ आदि ऋग्वेद के ऐतरेय ब्राह्मण में उल्लेख किया गया है।

हमारा कोई धर्म ग्रन्थ एकांगी नहीं। धर्म-शास्त्रों में भी सर्वांगीण विधि बताई गई है। धर्म की परिभाषा है- ‘‘यतोऽभ्युदय निःश्रेयस सिद्धि स धर्मः।’’ ऐहलौकिक अभ्युदय भला भौतिक-आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक ज्ञान शून्यता से कैसे सम्भव है? धर्म परमार्थ के साथ पुरुषार्थ सिखाता है। आत्मिक उन्नति के मार्ग पर चलने के लिए कहकर जीवन को पूर्णता प्रदान करता है।

आज लोग हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन आदि को धर्म मानने लगे हैं। अतः इनसे भेद-भाव रहित होना ‘धर्म निरपेक्षता’ कहलाता है। यह भ्रामक और गलत दृष्टिकोण है। मुस्लिम, यहूदी, मसीही आदि संप्रदाय हैं, धर्म नहीं। धर्म तो एकांगी पंथ-संप्रदायों से ऊपर है। सम्प्रदाय जल-बिन्दु के समान हैं। धर्म समुद्र है। संप्रदायातीत जीवन ही मानवता का स्वरूप है।

परन्तु वर्तमान विश्व में जितनी विचारधाराएं जोरों पर फैली रही हैं, उनमें कृत्रिमता और अधूरा दर्शन है। कुछ एकांगी विचार प्रतिक्रियात्मक और कुछ नकली हैं। पूंजीवाद एकांगी विचार है। पूंजीवाद की प्रतिक्रिया स्वरूप साम्यवाद है। अन्य भारत में प्रचलित कई धारणा तो अंग्रेजों की सीधी नकल हैं। इस तरह के विचार उस काल में चलते हैं। फिर थोड़े समय के बाद खतम हो जाते हैं।

इस युग की यही विडम्बना है कि उद्योग और विज्ञान के विकास से हमारा दृष्टिकोण भौतिकवादी और स्वार्थपरायण बन गया है। अनास्था और अविश्वास के कारण धार्मिक दर्शन के प्रतिद्वंद्व उत्पन्न हुआ। विद्या-विहीन शिक्षित और साधन-सम्पन्न लोग यह समझते हैं कि नये समाज के निर्माण की शक्ति धर्म में रही नहीं। धर्म तत्व के प्रति अश्रद्धा और उपेक्षा इसी अज्ञान की उपज है।

यद्यपि विभिन्न मत-पंथ संप्रदाय और वादों का प्रारम्भ व्यक्तिगत तथा समष्टिगत भूलों को सुधारने की दृष्टि से होता है। व्यक्ति का कल्याण एवं सुन्दर समाज का निर्माण ही सभी मत-वादों का मुख्य उद्देश्य है। किन्तु उनकी ममता व्यक्ति को पागल बना देती है। यही भ्रान्ति और मोह कहलाता है। हम भूल जाते हैं कि औषधि का सेवन आरोग्य के लिए है, ममता किम्बा असक्ति हेतु नहीं। सभी विचारों से स्वयं एवं समाज को सुन्दर तथा आनन्ददायक बनाने की अपेक्षा की जाती है।

जिस दृष्टिकोण की गला फाड़-फाड़कर प्रशंसा की जाती है, यदि यह विश्व कल्याण हेतु जीवात्मा को सन्मार्ग पर चलाने में उपयोगी न बन सका तो उसका परिवर्तन स्वाभाविक है। प्रेम, सत्य और यथार्थ ही धर्म है। एकता और समता का मूल यही धार्मिक दृष्टिकोण है। धर्म का नया दृष्टिकोण इसी सार्वभौम धर्म का प्रतिपादन करता है।

अनुपयोगी मत-वाद और साम्प्रदायिक भेद-भाव तथा पाखण्ड को अब भुलाकर धर्म के इस नये दृष्टिकोण को जीवन के व्यवहार से क्रियान्वित करना ही पड़ेगा। अन्यथा अधर्म, अनास्था, अभाव, दुर्भाव के कारण विविध समस्या जनित संकट समूची मानव सभ्यता के विनाश का चित्र प्रस्तुत कर देगा।

हम जानते हैं कि मानव मात्र के अन्तःकरण में धर्म का दैवी भाव भी विद्यमान है। प्रयोजन है, परम सत्य की अनुभूति का अमृत पिलाकर आत्म-परिचय कराने का- अखण्ड-ज्योति जलाकर सद्ज्ञान के अनुदान से सद्भाव जागरण का।

जीवात्मा का ध्येय है अनन्त आनन्द की प्राप्ति। ‘‘मृत्योर्मा अमृतं गमय’’ में इसी अमरता की मांग है। नदियां अपने आप में संतुष्ट न होने से समुद्र की ओर दौड़ी चली जाती हैं। हवा को एक स्थान पर चैन नहीं। यह प्रतिक्रिया संसार के प्रत्येक परमाणु में चल रही है। किसी को भी अपने आप में संतोष नहीं मिलता। जड़ व चेतन सभी पूर्णता के लिए गतिवान् हैं। अपने स्वत्व को किसी महान् सत्ता में घुला देने के लिए सबके सब सतत् क्रियाशील दिखाई देते हैं।

ऐसी ही प्रक्रिया जीवात्मा की है। व्यष्टि में उसे अनन्त आनन्द की प्राप्ति नहीं। समष्टि की परमात्मा के पावन स्पर्श हेतु सेवा-भक्ति अनिवार्य है। आत्म-चिन्तन की प्रवृत्ति से जीवन-मरण के रहस्य का अनावरण होता है। उसे यह आभास मिलता है कि मानव को यहां वे सारी परिस्थितियां प्राप्त हैं जिनके सहारे सक्रिय होने पर वह अपनी विकास यात्रा आसानी से पूरा कर सकता है।

परमात्मा से प्रेम एवं आत्मीयता स्थापित करने का अच्छा तरीका यह है कि हम उनका अभ्यास परिजनों से प्रारम्भ करें। न्याय रखें और सहिष्णुता बरतें। स्वार्थ की अहं वृत्ति का परित्याग कर परमार्थ के विशाल क्षेत्र में पदार्पण करें। इससे मनुष्य विराट् की ओर अग्रसर होता है। यही नया दृष्टिकोण युग की अनिवार्य आवश्यकता है ।

ऐसा धार्मिक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति हजारों, लाखों योनियों के बाद सौभाग्य से उपलब्ध मानव जीवन को तुच्छ स्वार्थमय गोरखधन्धों में ही दुरुपयोग करने की मूर्खता नहीं करेगा। यह प्रत्यक्ष है कि पशु-पक्षी की तुलना में ज्ञान या धर्म-भावना के कारण ही वह श्रेष्ठ है।

धर्म के इस दृष्टिकोण के फलस्वरूप जीवन आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर प्रगति करता है। सड़ी-गली रूढ़ियों और परम्पराओं के बंधन से मुक्ति मिलती है। स्थित प्रज्ञ और परमहंस ही स्थिति से परम सुख-शान्ति पाता है। इस प्रकार अभ्युदय-निःश्रेयस की सिद्धिदायक विश्वात्मा के विराट् रूप की ज्ञान, कर्म, उपासना ही अभिनव धार्मिक दर्शन का मूल स्वरूप है।

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बालक के पास भी अभिभावकों से उत्तराधिकार में मिलने वाली सम्पत्ति होती है, पर वे न तो उससे परिचित होते हैं और न उसका कुछ उचित उपयोग कर पाते हैं। अविकसित मनःस्थिति में पिता की सम्पत्ति की उन्हें जानकारी हो जाय और उसका मनचाहा उपयोग करने की छूट मिल जाये तो निश्चय ही इस असामयिक अधिकार का प्रतिफल दुष्परिणाम स्तर का ही होगा। वह संपत्ति भी नष्ट होगी और प्रयोगकर्ता बालक का भी विनाश करेगी। इस आशंका को ध्यान में रखते हुए अभिभावक बन्दूक की बारूद और तिजोरी की चाबी जैसी महत्वपूर्ण वस्तुओं को इस प्रकार रखते हैं कि बच्चे उन्हें प्राप्त न कर सकें। इस दुराव में द्वेष का नहीं वरन् सतर्कता का ही समावेश है। बच्चों के प्रति अभिभावकों का असीम और असंदिग्ध प्यार होता है, फिर भी जब कोई गोपनीय वार्ता प्रसंग बन रहा होता है अथवा बहुमूल्य वस्तुओं को किसी गुप्त स्थान पर रखा जा रहा होता है तो बच्चे किसी बहाने वहाँ से अन्यत्र खिसका दिये जाते हैं। यहाँ परायेपन की उपेक्षा या द्वेष अविश्वास जैसा कोई कारण नहीं है। मात्र इतनी ही सतर्कता है कि बालक अबोध मनःस्थिति के कारण कहीं कोई अवाँछनीय दुर्घटना खड़ी न कर दें।

चेतना का बचपन ईश्वरीय सत्ता के हाथ दिव्य अनुदान देने से रोकता है। अन्यथा आत्मा और परमात्मा के बीच का प्रगाढ़ सम्बन्ध अजस्र अनुदान सम्भव है। होता रहा है और होता रहेगा। देव मानवों की स्थिति सामान्य स्तर के नर-वानरों की तुलना में कितनी भिन्न होती है, इसका विश्लेषण करने पर सहज ही यह पता चल जाता है कि चेतना की उच्च परतें कितनी सशक्त और समर्थ हैं और उन्हें प्राप्त करके मनुष्य कितना उच्चकोटि का बन सकता है।

बहिरंग भौतिक प्रगति का अपना महत्व है। श्रम और मनोयोग के आधार पर ही बलिष्ठता, विद्या, प्रतिभा, सम्पदा, कीर्ति जैसी साँसारिक उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं। इनसे भी बड़ी विभूतियाँ आन्तरिक हैं। जड़ जगत द्वारा जो साधन और सुख मिल सकता है उसकी तुलना में चेतन जगत के वरदान असंख्य गुने अधिक हैं। जितना प्रयास बहिर्जगत की सुख सुविधाएं उपार्जित करने के लिए किया जाता है उसका आधा चौथाई भी यदि अन्तर्जगत की विभूतियों को पहचानने और विकसित करने में किया जा सके तो उसकी सफलता देखते ही बनेगी और प्रतीत होगा कि तिजोरी में भरी अजस्र संपदा से अपरिचित रहकर और जहाँ-तहाँ कंकड़-पत्थर बीनने के लिए किये गये श्रम में कितना बड़ा अन्तर था।

पेड़ की जड़ों की गहराई और लम्बाई के आधार पर उसका ऊपरी विस्तार होता है। जड़ें छोटी होंगी तो पेड़ भी बड़ा न बनेगा। किसी प्रकार बढ़ भी जाय तो वह चिरस्थायी न रह सकेगा- हवा के छोटे से थपेड़े में ही उखड़ जायगा। फसल के लहलहाने में प्रशंसा तो पौधों की ही होती है, पर वस्तुतः वह धरती की उर्वरता ही उफन कर ऊपर आई होती है। यदि उर्वरता तत्व खेत में न होंगे तो बाहरी प्रयत्नों से शस्य श्यामला के नयनाभिराम दृश्य और बहुमूल्य उत्पादन उपलब्ध न हो सकेंगे अन्तरंग जीवन की आमतौर से उपेक्षा होती रहती है उस क्षेत्र का कोई महत्व नहीं माना जाता। स्वास्थ्य और शिक्षा के सहारे शरीर और मस्तिष्क को भारी भरकम बनाया जाता है और उसके सहारे अर्थोपार्जन का लाभ लिया जाता है। इतना तो सहज ही हो जाता है, पर उपलब्धियों का उपयोग किस प्रयोजन के लिए हो इसका महत्वपूर्ण निर्णय नहीं हो पाता।

भौतिक प्रगति के लिए प्रयत्न करने की प्रशंसा ही की जा सकती है और उसके लिए प्रोत्साहन ही दिया जा सकता है। यहाँ आक्षेप उस विकृत दृष्टिकोण पर किया जा रहा है जो इस उपार्जन को विलासिता और अहंमन्यता के लिए विनष्ट करने की प्रवंचना रचकर खड़ी करता है। यदि इस मूर्खता को समझा जा सके तो आत्मिक प्रगति की बात सोचने-उसके महत्व को जानने का अवसर मिले।

हर महत्वपूर्ण वस्तु को प्राप्त करने के लिए उसका समुचित मूल्य कठोर श्रम, प्रखर मनोयोग एवं अभीष्ट साधन जुटाने के रूप में चुकाना पड़ता है। इससे कम अनुदान लिए बिना तो कोई भौतिक सफलता भी नहीं मिलती फिर आत्मिक प्रगति का क्षेत्र तो और भी बड़ा है। उसकी उपलब्धियाँ भी अपेक्षाकृत अधिक बहुमूल्य एवं अधिक महत्वपूर्ण हैं। ऐसी दशा में उसके लिए चिन्तन और कर्तृत्व का विनियोग भी अधिक मात्रा में किया जाना स्वाभाविक है। पूजा-पाठ के छुट-पुट प्रयोग बालकक्षा के छात्रों द्वारा विद्या प्राप्ति के लिए किया गया पट्टी-पूजन जैसा छोटा किन्तु अति उपयोगी प्रयास है। बात इतने भर से नहीं बन सकती। जप, ध्यान जैसे प्रयास आत्मिक प्रगति की दिशा में उठाये गये आरम्भिक चरण हैं इन्हें किसी किसान द्वारा बीज बोने के समतुल्य माना जा सकता है। यह आवश्यक तो है, पर पर्यवेक्षण करना और उन्हें नये सिरे से सुव्यवस्थित करने का नाम ही श्रेय पथ का अवलम्बन है।

पिछले दिनों धीरे-धीरे अगणित अनुपयुक्त मान्यताएं अनावश्यक विचारणाएं तथा अवाँछनीय आदतें चेतना की गरदन पर लद पड़ी होती हैं। इनसे पीछा छुड़ाये बिना उस भार से मुक्ति नहीं मिल सकेगी जिसके भार ने अन्तः-करण को बहुत बोझिल बना दिया है और वह उच्चस्तरीय प्रगति के कठिन मार्ग पर ऊंचा चढ़ सकने में समर्थ नहीं हो सकता। आन्तरिक स्वच्छता वह चरण है जिसको भूमि जोतने, गोड़ने, खाद युक्त और नम बनाने जैसे कृषि प्रयासों के समतुल्य माना जा सकता है। आत्मिक प्रगति के पथ पर मिलने वाले चमत्कारी सिद्धियों के अनेक पड़ावों का आनन्द तब लिया जा सकता है जब मलीनता के- अवाँछनीयता के-लदे हुए भार से छुटकारा पाने में सफलता मिले। मैला-कुचैला कपड़ा रंगने का प्रयास व्यर्थ है। इसमें रंग खरीदने में खर्च किया गया पैसा और रंगाई के लिए किया गया श्रम भी निरर्थक चला जाता है। अच्छी रंगाई की सफलता इस बात पर निर्भर है कि कपड़े की अच्छी तरह धोकर स्वच्छ बना लिया गया हो। पूजा-पाठ के समस्त अनुशासन को यदि गहराई से देखा जाय तो उसके पीछे यही तथ्य और संकेत झाँकते दिखाई पड़ेंगे जिन्हें अपनाने पर उत्कृष्ट व्यक्तित्व के निर्माण का मार्ग अपनाना पड़ता है। आत्मशोधन की-आत्म निर्माण की उपेक्षा करके-मात्र पूजा पाठ के सहारे वह प्रयोजन पूर्ण नहीं हो सकता जिसे आत्मिक प्रगति के नाम से पुकारा जाता है।

श्रेय को प्रधानता देने पर प्रेय स्वभावतः गौण हो जाता है। प्रेय की प्रधानता रहेगी तो श्रेय के लिए अन्यमनस्क आधे-अधूरे प्रयत्न ही सम्भव होंगे। फुरसत न मिलने और मन न लगने की शिकायत एक पक्ष में तो बनी ही रहेगी। या तो मन श्रेय में लगेगा और प्रेय के प्रति उतना ही ध्यान रहेगा जितना निर्वाह के लिए आवश्यक है। स्पष्ट है शरीर यात्रा बहुत सस्ती और हल्की है। यदि तृष्णाओं के पर्वत उस पर न लादे जायं तो गुजारे का प्रश्न बहुत ही हलका-फुलका लगेगा और वह थोड़े से प्रयास में भली-भाँति पूरा होता रहेगा। सतर्कता और तत्परता के साथ निर्वाह साधन जुटाने में उतना ही दबाव पड़ता है जितना खिलौनों से खेलने की खिलवाड़ में। हास-परिहास के लिए- क्रीड़ा-विनोद के लिए जितनी दौड़ धूप करनी पड़ती है उतनी से ही निर्वाह साधन जुट जाते हैं।

यदि यह समझा जा सके कि हम शरीर नहीं आत्मा हैं और आत्मा की प्रखरता का निखार आत्मिक प्रगति के साथ जुड़ा हुआ है- जीवन की सार्थकता आत्म-विकास, आत्म-साक्षात्कार एवं आत्म-कल्याण में है तो फिर निश्चय ही अपने साधनों का उपयोग इन्हीं पुण्य प्रयोजनों के लिए किया जायगा। घोड़े को घास तो सभी खिलाते हैं, पर इत्र स्नान कोई विरला ही कराता है। शरीर की भौतिक आवश्यकताएं तो पूरी की जानी चाहिए, पर उसको वासना, तृष्णा के लिए सारी जिन्दगी क्यों बर्बाद की जानी चाहिए, आत्मा के लिए शरीर है- न कि शरीर के लिए आत्मा। हमें रोटी खानी चाहिए न कि रोटी, उलट हमें ही खाने लगे। यदि इस उलटी चाल को बदल कर सीधी राह अपनाई जाय तो आत्मिक प्रगति की राह पर बहुत आगे तक द्रुतगति से बढ़ा जा सकता है। हर हालत में आत्मिक प्रगति जैसे महत्वपूर्ण कार्य के लिए साधनों का एक बड़ा हिस्सा नियोजित रहना चाहिए। मुक्त में या स्वल्प प्रयास से तो छोटे-छोटे काम भी पूरे नहीं होते फिर आत्मिक विभूतियाँ प्राप्त करने की सफलता स्वल्प श्रम से किस प्रकार सम्पन्न हो सकती है। वस्तुतः जीवन के अन्तरंग और बहिरंग स्तरों का परिष्कार ही वह स्थिति है जिसमें ईश्वर का अनुग्रह और उसकी दिव्य विभूतियों का अवतरण मनुष्य को प्राप्त हो सकता है।

आत्मिक प्रगति की आरम्भिक तैयारी का प्रथम चरण यह है कि निर्वाह व्यवस्था और परमार्थ प्रयोजनों के बीच साधनों का उचित बंटवारा किया जाय और इस प्रकार सन्तुलन बिठाया जाय कि दोनों ही प्रयोजन ठीक तरह पूरे हो सकें। श्रम, समय, मनोयोग, कौशल, प्रतिभा जैसे व्यक्तित्व के साथ जुड़े हुए साधनों को ही वास्तविक वैभव माना गया है। इन्हें आत्मिक प्रगति के प्रयोजनों में जितनी मात्रा में लगाया जायगा उतनी ही सफलताएं मिलेंगी। जितना गुड़ पड़ेगा उतना ही मीठा होगा। यदि सारे साधन भौतिक प्रयोजन में लगे रहेंगे तो स्थिति के अनुरूप पूरी अधूरी सफलता उसी क्षेत्र में मिलेगी। पूजा-पाठ की बेगार ज्यों-त्यों करके भुगत ली जाय तो उतने भर से किसी बड़ी प्रगति की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

व्यक्तित्व का निर्माण एक जटिल काम है। बहिरंग क्रिया-कलापों में हरे-फेर करना सरल है। वस्तुओं को बदल लेना भी सरल है, पर गुण, कर्म, स्वभाव में हेर-फेर करना कठिन है। आदतें कितनी ढीठ होती हैं इसे हर कोई जानता है। उन्हें बदलने के लिए कितने तापमान का मनोबल चाहिए इसे अनुभवी ही जानते हैं और उस आत्म-संघर्ष को महाभारत जीतने जैसा बताते हैं। दुष्प्रवृत्तियों का निराकरण कर लेने से आधी बात बनती है, आधी तब पूरी होती है जब निराकरण से खाली हुए स्थान को उच्चस्तरीय सत्प्रवृत्तियों से भरा जा सके। इसका अभ्यास लोक मंगल के परमार्थ प्रयोजनों में संलग्न हुए बिना और किसी प्रकार सम्पन्न नहीं हो सकता। यह कार्य भी बातें बनाने या कल्पना के घोड़े दौड़ाने भर से नहीं हो जाता। उसके लिए बढ़े-चढ़े अनुदान देने पड़ते हैं। साधु, ब्राह्मणों की परम्परा यही रही है कि वे भौतिक आवश्यकताएं न्यूनतम रखते थे और इस प्रकार अपनी बहुत कुछ क्षमताएं निर्वाह से बचाकर लोक मंगल की साधना में लगा सकते थे। लिप्सा लालसाएं छोड़े बिना यह बचत अन्य किसी प्रकार नहीं हो सकती। अस्तु जिन्हें आत्मिक प्रगति-ईश्वर की अनुभूति वस्तुतः ही अपेक्षित हो उन्हें अपने साधनों का श्रेय और प्रेय के बीच उचित विभाजन करने की योजना बनानी चाहिए।

परमार्थ साधना का एक और भी तरीका हो सकता है कि सेवा कार्यों की योग्यता अपने में न्यून हो तो दूसरे अधिक उपयुक्त व्यक्तियों द्वारा वह कार्य सम्पन्न कराये जायं और उसके निर्वाह का एवं साधन जुटाने का उत्तरदायित्व स्वयं उठाया जाय। एक व्यापारी जन जागरण जैसे बौद्धिक एवं भावनात्मक स्तर की क्षमता द्वारा सम्पन्न हो सकने वाले कार्य स्वयं तो नहीं कर सकता, पर जो लोग उस प्रकार की क्षमता से सम्पन्न हैं उन्हें निर्वाह की चिन्ता से मुक्त करने के लिए अपने उपार्जन को उदारतापूर्वक देता रह सकता है। लोक-मंगल के कार्यों में कितने ही उपकरणों एवं साधनों की आवश्यकता पड़ती है। उनके बिना खाली हाथ सेवा-भावी व्यक्ति भी कुछ अधिक कार्य नहीं कर सकते। इन साधनों को जुटाने में अर्थसम्भव उपकरणों की आवश्यकता पड़ती है। इनके लिए भी पैसा चाहिए। वह व्यापारी अपने व्यवसाय में जुटा सके, अधिकाँश अथवा सारा समय उसी में लगावें और अपने लिए न्यूनतम सुविधा लेकर अधिकाँश उत्पादन उन्हीं पुण्य प्रयोजनों में लगा दे तो समझना चाहिए कि उसने ब्राह्मण परम्परा का निर्वाह कर लिया।

मूल तथ्य यथास्थान रहेगा उसका स्वरूप बदल जायगा। एक लोकसेवा प्रत्यक्षतः अपनी लेखनी, वाणी, श्रम अथवा प्रतिभा से करता है। उसी कार्य को एक दूसरा व्यक्ति अप्रत्यक्ष रूप से उन्हीं कार्यों के लिए अपने साधन देकर भी कर सकता है। साधन भी तो आखिर श्रम और मनोयोग से ही जुटते हैं, इनका उपयोग यदि परमार्थ कार्यों में हो गया तो लक्ष्य वही पूरा हुआ जो स्वयं सीधा परिश्रम करके सम्पन्न किया जा सकता है। स्वयं ज्ञानवान, चरित्र-निष्ठ और प्रतिभा सम्पन्न बनने में देर लग सकती है, पर उसी स्तर के व्यक्ति को अपना सहयोग देकर यदि परमार्थ प्रयोजन सम्पन्न कर लिए तो उद्देश्य एक ही पूरा हो गया। महामारी पीड़ित लोगों की सेवा, सहायता के लिए एक वृद्ध और अनुभवहीन व्यक्ति अपने शरीर से कुछ बड़ा काम नहीं कर सकता किन्तु यदि वह अपने साधक उन कार्यों में झोंक देता है और स्वयं सेवकों की- चिकित्सा उपचार की व्यवस्था बना देता है तो भी पीड़ितों को उतना ही लाभ मिल सकता है जो उस वृद्ध के स्वयं चिकित्सक होने और सेवा संलग्न रहने पर सम्भव हो सकता था।

अन्धे और पंगे की कहानी सर्वविदित है। उन्होंने नदी नाले पार करते हुए कठिन और लम्बी मंजिल पूरी कर ली थी। अलग-अलग रहकर वे दोनों ही असफल रहते। पारस्परिक सहयोग ने दो अपूर्णों को मिलाकर एक पूर्ण बना दिया। समर्थ रामदास और शिवाजी प्रताप -भामाशाह, चाणक्य-चन्द्रगुप्त, शंकराचार्य-मान्धाता, बुद्ध-हर्षवर्धन, रामकृष्ण परमहंस विवेकानन्द, गाँधी और जवाहर जैसे युग्य परस्पर सहयोग से कितनी बड़ी सफलताएं प्राप्त कर सके यह सर्वविदित है। उन युग्मों के दोनों पक्षों की क्षमताएं अपने अपने ढंग की अनोखी थीं, फिर भी वे एकाकी होने पर प्रायः अपूर्ण ही बनी रहतीं और उनके स्वतन्त्र एकाकी प्रयासों का उतना प्रतिफल न होता जो मिल-जुलकर काम करने में सम्पन्न हो सका। आग और ईंधन की मिलन प्रक्रिया से गगनचुम्बी दावानल उत्पन्न होने की बात जिनके ध्यान में है वे अपनी सेवा क्षमताएं स्वल्प होने की चिन्ता नहीं करते, वरन् नाले और नदी के मिलन की तरह किसी उपयोगी लोकसाधना में अपने को नियोजित कर देते हैं। श्रेय किसको मिले यह कृपणता यदि मन में न हो तो परोक्ष रूप से श्रेय दोनों पक्षों को प्रकारांतर से लगभग समान ही मिल जाता है। ईसाई धर्म का पुनर्निरूप सेन्टपाल ने अपने अथक परिश्रम और अजस्र अनुदान से सम्पन्न किया था। वे स्वयं ईसा तो न बन सकें, पर सन्त ईसा को परमेश्वर का बेटा बना देने के श्रेयाधिकारी वे ही माने गये। सेन्टपाल का यह उपलब्धि परोक्ष रूप से ईसा के समतुल्य ठहराई जाय तो तथ्य स्वीकारने में किसी विचारशील को कोई बड़ी आपत्ति न होगी।

प्रयास प्रत्यक्ष हो या परोक्ष-लोक साधना स्वयं की जाय या दूसरों से कराई जाय यह निर्णय परिस्थितियों को देखकर भिन्न-भिन्न प्रकार से हो सकता है। बात क्रिया की नहीं भावना की है। अपने लिए न्यूनतम, परमेश्वर के लिए-आदर्शवाद के लिए अधिकाधिक का मार्ग अपना कर ही कोई आत्मचेतना को विकसित कर सकता है। सदाशयता और आस्था का प्रमाण इसी परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर मिलता है। सहृदयता यदि वस्तुतः है तो उसे सेवा में अनिवार्य रूप से परिणत होना चाहिए। करुणा, ममता और भक्ति निर्वीर्य, निस्तेज और नपुंसक नहीं होती वह वाचालता एवं कल्पना-जल्पना तक सीमित नहीं रहती। उसे कार्यान्वित हुए बिना चैन ही नहीं पड़ता। जो सोचता तो बहुत है, पर करता कुछ नहीं, उसकी श्रद्धा को उथली और निर्जीव ही कहा जायगा। ऐसी अन्त: स्थिति के रहते आत्मिक प्रगति का वह पुण्य प्रयोजन पूरा नहीं हो सकता जिससे आधार पर ईश्वर का अनुग्रह और चमत्कारी ऋद्धि-सिद्धियों का अवतरण अनायास ही वर्षा के बादलों की तरह बरसता हुआ दृष्टिगोचर होता है।


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