मंत्रशक्ति और देवसत्ताओं का तारतम्य

September 1976

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मंत्र शब्द की व्युत्पत्ति कई प्रकार से होती है। निरुक्त में ‘मन्त्रा मनात्’ मन से संचारित होने वाली प्रक्रिया को मन्त्र कहा गया है। ‘मंत्रि गुप्त भाषणे’ रहस्यमय सम्भाषण को मन्त्र कहते हैं। शतपथ ब्राह्मण में ‘वाग्वै मन्त्रः’ परिष्कृत वाणी से उच्चारित शब्द शृंखला को मन्त्र बताया गया है।

मनुष्य सत्ता दो भागों में विभक्त है- शरीरगत और मनोगत । शरीर क्रिया करता है और मन चिन्तन। दोनों से ही अपने-अपने ढंग के विद्युत -प्रवाह निसृत होते हैं। शरीर में घर्षणात्मक क्रिया होती है। हृदय की धड़कन, नाड़ी समूह में रक्त का आवागमन-फेफड़ों द्वारा श्वास का ग्रहण विसर्जन-माँस-पेशियों का आकुंचन-प्रकुंचन एक प्रकार का घर्षण उत्पन्न करता है और उन हलचलों से जो गर्मी उत्पन्न होती है उसे शरीरगत ऊर्जा कह सकते हैं। इसी के बल पर शरीर यन्त्र विभिन्न प्रकार के क्रिया-कृत्य करने में समर्थ होता है। इसे घर्षणपरक विद्युत कहा जाता है।

मस्तिष्क से चुम्बकीय विचार तरंगें उत्पन्न होती हैं। तालाब में ढेला फेंकने पर लहरें उठती हैं और वे धीरे-धीरे बहती हुई तालाब के अन्तिम छोर तक जा पहुँचती हैं। यह विश्व-ब्रह्माण्ड भी एक प्रकार का तालाब है किन्तु है गोल । इसलिए इसका अन्तिम छोर भी वही स्थान होता है जहाँ से संचरण क्रिया आरम्भ हुई थी। मस्तिष्क से ताप-प्रकाश की तरह ही विचारों की विद्युत तरंगें निकलती हैं। वे आगे-आगे बहती बढ़ती चली जाती हैं। अन्ततः वे एक पूरी परिक्रमा करने के बाद अपने मूल उद्गम स्थान पर शब्द बेधी बाण की तरह लौट आती हैं।

यह यात्रा चुपचाप नहीं होती रहती, वरन् इनकी चुम्बकीय शक्ति बहुत कुछ ग्रहण विसर्जन भी करती चलती है। यह तरंगें जिस क्षेत्र से सम्पर्क बनाती हैं उसे प्रभावित करती और स्वयं प्रभावित होती हैं यह प्रभाव प्रक्रिया सजातीयता के आधार पर चलती है। समान वर्ग के पदार्थ अथवा प्राणी एक दूसरे से प्रभावित और आकर्षित होते हैं। पालतू पक्षी उड़ा दिया जाय तो वह अपनी ही जाति के पक्षियों के झुण्ड में जा मिलेगा। अन्य जाति के पक्षियों की उपेक्षा करता हुआ वह सजातीयों को ढूँढ़ेगा और वे जहाँ भी मिलें वहीं अपने रहने का प्रबन्ध करेगा। विचार भी एक प्रकार के पक्षी हैं। वे अपनी ही जाति के विचार प्रवाहों के साथ रिश्ता बनाते और आदान-प्रदान करते हैं।

कुछ जाति के पक्षी ऋतु परिवर्तन का लाभ लेने के लिए अपने जन्म स्थान से बहुत दूर उड़ जाते हैं किन्तु समय पर फिर लौटकर अपनी जगह वापिस आ जाते हैं। विचारों की मात्रा भी इसी प्रकार की है। उनकी तरंगें मस्तिष्क से उठती हैं। विश्व भ्रमण के लिए निकलती हैं। इस यात्रा में वे पुण्य बटोरती और दान-पुण्य करती तीर्थ-यात्रा जैसी रीति-नीति अपनाती हैं। भले या बुरे विचार घर से निकलते हैं और अपने साथ सजातीयों का एक पूरा झुण्ड लेकर अपने उद्गम स्थान पर अपेक्षाकृत अधिक बलवान होकर लौट आते हैं। इस प्रक्रिया के अनुसार मनुष्य अपनी विचार सम्पदा से-जहाँ असंख्यों को लाभान्वित करता है वहाँ उनसे बहुत कुछ प्राप्त भी करता है। इस प्रकार अपने विचार वस्तुतः दूसरों को कम और अपने को अधिक प्रभावित करते हैं। खेत में बोया हुआ बीज बढ़ता और फलता है। उस फसल का लाभ बोने वाले किसान को ही मिलता है। अपने मस्तिष्क रूपी खेत में हम विचारों के बीज बोते हैं और उनकी फसल स्वयं ही काटते हैं। अशुभ विचारों से दूसरों को भी हानि होती है किन्तु वापिस लौटने पर उनकी बढ़ी-चढ़ी घातक शक्ति की हानि अपने को ही अधिक भुगतनी पड़ती है। यह बात सद्विचारों के सम्बन्ध में भी है। वे भी सारा वातावरण प्रभावित करते हैं, जिधर से गुजरते हैं उधर ही सुगन्धित शीतल वायु जैसा उत्तम प्रभाव छोड़ते हैं और अन्ततः अनेक गुने परिपुष्ट होकर जब लौटते हैं तो उसका लाभ सृजेता को ही मिलता है। गाय सवेरे जंगल में चरने जाती है और शाम को वापिस लौटती है इस वापसी में घास से पेट भरने के साथ-साथ थनों में दूध भरकर भी घर आती है। विचार दुधारू गाय की तरह हैं वे जहाँ निकलते हैं वहाँ मात्र विचार होते हैं, पर परिभ्रमण के बाद उनकी स्थिति काफी सुदृढ़ हो चलती है। तद्नुसार उसका परिणाम भी उद्गम स्थल को मिलता है। बादल समुद्र से उठते हैं। दूर देशों में बरसते हैं। वर्षा का जल नदी-नालों में होकर समुद्र में फिर वापसी जा पहुँचता है, पर इस वापसी में पृथ्वी में रहने वाले अनेक खनिज पदार्थ भी उसके साथ घुले होते हैं। उन्हीं के कारण समुद्र का पानी क्रमशः अधिक खारी और अधिक गाढ़ा होता जाता है। मस्तिष्क रूपी, समुद्र विचार रूपी बादलों को आकाश में उड़ाता है, तो सजातीय अनुभवों एवं अनुदानों की पोटली अपनी अभिनव कमाई के रूप में अपने साथ लादे हुए होते हैं।

शब्द के साथ ऊर्जा लिपटी होती है। यदि कोई हलकी-सी ध्वनि लगातार एक वर्ष तक जारी रखी जाय और उसकी ऊर्जा संग्रहीत रखी जाय तो इतनी गर्मी मिलेगी जो एक कटोरी पानी को खौला सके ।

शरीर द्वारा शब्द की उत्पत्ति का मोटा विवरण यह है कि बाहर की वायु अन्तर के अमुक स्नायु संस्थानों से टकराती है और उस आघात से शब्द उत्पन्न होता है। इस उत्पन्न में भी शारीरिक अवयवों की हलचल अपने आप नहीं हो जाती वरन् मन का पूरा नियन्त्रण रहता है बाहरी हवा का कितना दबाव किस अवयव पर किस उतार-चढ़ाव के साथ पड़े और उससे किस स्तर का ध्वनि प्रवाह निसृत हो, किन्हीं शब्दों को सौम्य, आवेश युक्त, अपेक्षित गद्य अथवा पद्य शैली में भिन्न-भिन्नता प्रकार से बोला जा सकता है। यह भिन्नता मन जनित है। जब हम चाहते हैं तब इच्छा शक्ति द्वारा नियोजित वे हलचलें आरम्भ होती हैं जो बाहरी वायु को खींचने भीतरी से टकराने -स्नायुगत हलचल उत्पन्न होने और ध्वनि प्रवाह चल पड़ने तक की लम्बी किन्तु क्षण भर में सम्पन्न होने वाली क्रिया का उपक्रम बन जाती हैं।

शब्द में शरीरगत घर्षण विद्युत का समावेश होता है क्योंकि वह अवयवों की हलचल से उत्पन्न होता है। किन्तु साथ ही मन का सहयोग भी उसमें पूरी तरह जुड़ा होता है इसलिए धारावाहिक विद्युत का भी सहज समन्वय हो जाता है। इसलिए शब्द में उभय-पक्षीय विद्युत संचार जुड़े हुए देखे जा सकते हैं। सहज धकेलने में मात्र शारीरिक हलचल ने ही काम किया उसमें घर्षण विद्युत ने ही काम किया किन्तु यदि किसी को क्रोध पूर्वक हलका सा भी चाँटा मारा गया है तो उसकी प्रतिक्रिया कहीं अधिक उग्र होगी क्योंकि सहज धकेल में उतना विद्युतीय प्रवाह नहीं था जितना कि आवेश युक्त चाँटे में। उसमें शरीरगत और मनोगत विद्युत का दुहरा रोल रहा इसलिए आघात न केवल शरीर पर ही लगेगा, वरन् मनः क्षेत्र को भी तिलमिला देगा।

वायु के भीतर एक और सूक्ष्म तत्व है जिसे ‘ईथर’ कहते हैं। शब्द के कम्पन इस ईथर में ही होते हैं ईथर के कंपन उसकी सूक्ष्मता के अनुरूप अत्यधिक तीव्र होते हैं। उनकी गति भी उसी हिसाब से तीव्र होती है। प्रकाश कम्पनों की गति एक सैकिण्ड में एक लाख छियासी हजार मात्र है। जबकि ईथर में शब्द के कंपन एक सैकिण्ड में 2305793009213693952 तक पाये जाते हैं। हमारे कान इतने तीव्र कम्पनों को पकड़ नहीं सकते। उनकी रचना बहुत सीमित ध्वनियों को ही सुन सकने योग्य हुई है। वे मात्र 32770 गति के कम्पन सुन सकते हैं। मनुष्य के कानों की पकड़ से मन्द और तीव्र असंख्य ध्वनियाँ इस आकाश में प्रवाहित रहती हैं, पर अपनी सीमित श्रव्य शक्ति के कारण वह सुन नहीं सकते।

शब्द के कम्पन अपनी चरम स्थिति पर पहुँचकर ‘क्ष’ किरणों एक्सरेज के रूप में परिणत हो जाती हैं। तब उनकी गति एक करोड़ मील प्रति सैकिण्ड होती है।

कम्पन कभी नष्ट नहीं होते वे भी अमर होते हैं। वे कुछ समय तो आकाश में उड़ते हैं, पर धीरे-धीरे पृथ्वी की आकर्षण शक्ति से खिंचकर नीचे उतरते आते हैं और धरती की सतह पर परत की तरह जमते चले जाते हैं। यहाँ भी वे मृत नहीं बन जाते किन्तु सक्रियता जारी रखते हैं। प्रभावित होने और प्रभावित करने का आदान-प्रदान इस स्थिति में भी चलता रहता है। इस क्षमता का मन्द अथवा तीव्र होना इस बात पर निर्भर रहता है कि विचारकर्ता का व्यक्तित्व कितना विद्युतीय था और उसमें किस स्तर की संकल्प शक्ति का प्रयोग हुआ।

सजातीयों का एकत्रीकरण प्रकृति का नियम है। भू-गर्भ में खदानें इस सिद्धान्त पर बनती और बढ़ती हैं कि अमुक स्थान पर एकत्रित खनिज एक संयुक्त चुम्बकत्व उत्पन्न करते हैं। उसका प्रभाव जितने क्षेत्र में होता है वहाँ से उसी जाति के बिखरे कण खिंचते हुए चले आते हैं और उस जमाव में सम्मिलित होने लगते हैं। इस प्रकार खदान का आकार बढ़ता है साथ ही उसका चुम्बकीय क्षेत्र भी। जितनी बड़ी खदान उतना बड़ा चुम्बकत्व और फिर उतने ही सुदूर क्षेत्र तक उसकी आकर्षण प्रक्रिया का प्रभाव। यही है वह आधार जिसके सहारे धातु आदि की खदानें धीरे-धीरे अपना आकार बढ़ाती रहती हैं।

शब्द, ताप आदि की तरह विचार भी एक प्रकार का पदार्थ ही है। कम्पन और गति के साथ जो वस्तु जुड़ी, वह पदार्थ बनी। सूक्ष्मता, स्थूलता का अन्तर तो बना ही रहेगा। इससे सत्ता में कोई अन्तर नहीं आता। खदानों की तरह कोई अति तीव्र और अधिक व्यापक विचार सघन होकर समर्थ गुच्छकों के रूप में विकसित होते रहते हैं। इनका बहुत प्रभाव होता है। धर्म, सम्प्रदायों के अपने विचार गुच्छक हैं। राजनैतिक क्षेत्र में साम्यवाद, पूँजीवाद, प्रजातन्त्रवाद, अधिनायकवाद के बड़े प्रचण्ड विचार गुच्छक हैं और वे जिन मस्तिष्कों में अनुकूलता पाते है उन्हीं पर चढ़ दौड़ते हैं अध्यात्म की भाषा में इन्हें ‘अधि-देवता’ कहा गया है।

हर मन्त्र का एक अधि देवता माना गया है। उसकी अपनी आकृति और प्रकृति का वर्णन है। मन्त्र में शक्ति उसी से आती है और सिद्ध होने पर साधक को उसी से वरदान मिलता है। ध्यान साधना की सुविधा के लिए इन अधि देवताओं को मनुष्य की आकृति दी गई है और शस्त्रों, आभूषणों एवं वाहनों से अलंकृत किया गया है। इससे प्रतीत होता है कि वे कोई मनुष्य जैसे ही देव दानव स्तर के होंगे और मनुष्यों की तरह खाते, सोते, बोलते और क्रुद्ध, प्रसन्न होते होंगे। आलंकारिक दृष्टि से इस प्रतिपादन में समझाने समझने की सुविधा रह सकती है, पर यदि यथार्थता जाननी हो तो इन अलंकारों के पीछे छिपे हुए तथ्यों को जानना पड़ेगा।

तात्विक दृष्टि से कुछ विशिष्ट प्रकार के विचार गुच्छकों को ‘अधि देवता’ कहा जा सकता है। विशिष्ट अर्थात् जिनके पीछे मनस्वी लोगों का अनुमोदन, सघन निष्ठा का समन्वय, उनका कार्यान्वित होना जैसे आधारों का समन्वय। उदाहरण के लिए गायत्री महामन्त्र अति प्राचीन है। उसकी शब्द रचना का निर्धारण-अमुक स्तर के शक्ति कम्पन उत्पन्न कर सकने की विशेषता को ध्यान में रखकर किया गया है। मन्त्र में शब्दार्थ का कम और उसकी शक्ति उत्पादन क्षमता का महत्व अधिक होता है। गायत्री मन्त्र के पीछे अगणित अति मनस्वी लोगों की मानसिक श्रद्धा ऊर्जा सम्मिलित है। साधना-पुरश्चरण प्रक्रिया की असंख्य धाराएं उसके साथ मिलती चली गई हैं। दैनिक उपासना के रूप में उसे अब तक अगणित व्यक्तियों द्वारा प्रयुक्त किया गया है। इससे उस दिव्य शक्ति की क्षमता युग युगों से निरन्तर बढ़ती चली आई है और वह अधि देवता अधिकाधिक परिपुष्ट होता चला आया है। गायत्री की शक्ति अन्य मन्त्रों से अधिक है। इस स्पष्ट तथ्य का कारण उसके अधि देवता का शक्ति सम्पन्न होना है। गायत्री एक अधि देवता भी है। उसका प्रतीक पूजन साधक को इस शक्ति प्रवाह के साथ संयुक्त करने में सहायक सिद्ध होता है। यहाँ यह ध्यान रखने योग्य है कि देवताओं की आकृतियों का निर्धारण, अमुक स्तर के विचार गुच्छकों की क्षमता का प्रतीकात्मक वर्णन ही है। यदि आकृति की वास्तविकता को स्वीकार करने न करने के झंझट में न पड़ा जाय तो साकारवादी और निराकारवादी गुच्छकों के अस्तित्व का अनुभव कर सकते हैं।

प्रत्येक वेद मन्त्र का एक देवता है। हर मन्त्र के साथ उसका परिचय विनियोग जुड़ा हुआ है। हर मन्त्र का एक छन्द-ऋषि और देवता होता है। इनकी व्याख्या ध्वनि प्रवाह- अनुमोदन परम्परा और ऊर्जा गुच्छक के रूप में की जा सकती है। छन्द अर्थात् मन्त्र शृंखला के द्वारा उत्पन्न होने वाले कम्पनों का प्रवाह स्तर। ऋषि अर्थात् वह मान्यता और भावना जो उसके साथ चिरकाल से एक परम्परा बनकर चलती आ रही है। देवता अर्थात् छन्द बीज का परिपुष्ट वट-वृक्ष। इतने आधार हर मंत्र के साथ जुड़े होते हैं। इसलिए उपासना काल में इन सब को पूजा प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठापित किया जाता है। उनकी छवि का ध्यान एवं उपचार पदार्थों से पूजा सत्कार किया जाता है। यह देव सान्निध्य की तथ्यपूर्ण मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। मोटी बुद्धि से इसे अन्ध-विश्वास कहा जा सकता है। पर वस्तुतः वैसी बात है नहीं। परमाणु के इलेक्ट्रॉन घटकों सहित चित्र प्रायः छपते रहते हैं। और उनमें कई गेंद, गोले उड़ते, भ्रमण करते दिखाई पड़ते हैं। तथ्यतः वैसा देखने योग्य कहीं कुछ नहीं है। परमाणु के घटक मात्र विद्युतीय कण हैं। उन्हें रेत कण की तरह आकृति युक्त स्थिति में नहीं देखा जा सकता। उनके परिणामों को देखकर वैसा अनुमान लगाया गया है कि जैसा कि ऐटम के चित्रों में छपा हुआ देखा जाता है। झंझट ही खड़ा करना हो तो ऐटम की आकृतियों को भी झुठलाया जा सकता है। देवताओं की आकृतियाँ भी इसी आधार पर कपोल कल्पित कही जा सकती हैं, पर इस खण्डन-मण्डन से कुछ बिगड़ता बनता नहीं। देखना यह होगा कि मंत्र शक्ति की कुछ प्रतिक्रिया होती है या नहीं? यदि होती है तो उसके सूक्ष्म स्वरूप की स्थूल स्थापना करने में कोई हर्ज नहीं। इससे समझने-समझाने में सुविधा रहती है। एटम का वह चित्र जितने गोले उड़ते, घूमते दीखते हैं बन जाना कुछ अनर्थ जैसा नहीं हुआ है। आत्म-शक्ति से भरे-पूरे शक्ति गुच्छकों के सान्निध्य में आने से जो प्रभाव उत्पन्न होता है उसके सहारे मन्त्र सत्ता के रूप में निर्धारण में कोई दोष नहीं है। अधि देवताओं का मंत्र शक्ति के साथ जुड़े होने का तथ्य इसी आधार पर समझा जाना चाहिए।

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