तुम समय की रागिनी गाओ,
सवेरा हो रहा है!
रात का शृंगार, भागा जा रहा देखो,सो चुका संसार जागा जा रहा देखो,
दीपक की लौ और उकसाओ,
सवेरा हो रहा है!
आत्म-विस्मृति की खुमारी जा रही भागी,ज्योति की क्षमता, बनायी जा रही बागी,
चेतना के फूल मुस्काओ,
सवेरा हो रहा है!
रात में रजनीचरों का बोलबाला था, बन्द कारा में पड़ा रोता उजाला था,
सूर्य का दायित्व बतलाओ,
सवेरा हो रहा है!
स्वर्ण-पिंजर के लिये मत भूलकर मुड़ना!
मुक्त होकर, भूमि से आकाश तक उड़ना!
पंछियों, युग-पंख फैलाओ,
सवेरा हो रहा है!
सिन्धु खारी है नहीं, रस-सिक्त गागर हैं,भावना के मोतियों से रिक्त सागर है!
साधना के स्वाति-घन छाओ,
सवेरा हो रहा है!
-लाखनसिंह भदौरिया ‘सौमित्र’
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*समाप्त*