अतीन्द्रिय क्षमता और उसके उद्गम स्रोत

September 1976

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बहुधा ऐसी घटनाएं देखने में आती हैं जिनकी सामान्य स्थिति के साथ संगति नहीं बैठती और वे अद्भुत असामान्य और चमत्कारी लगती है। अतीत काल में इसके समाधान सरल थे। तब देवी-देवताओं और भूत-पलीतों की करतूतें उन्हें समझ लिया जाता था और उससे उनके अनुग्रह तथा रोष का अनुमान लगा कर पूजा-उपचार का ताना-बाना बुन लिया जाता था। आज उतने से किसी को सन्तोष नहीं है। यदि देवी देवताओं की ही वे कृतियाँ है तो इन आत्माओं का अस्तित्व सिद्ध होना तथा स्वरूप स्वभाव समझा जाना आवश्यक है। किंवदंतियों-दन्तकथाओं-मूढ़ मान्यताओं और अन्ध-परम्पराओं की मान्यता अपने युग में निरस्त कर दी गई है। अस्तु देवी-देवताओं का अस्तित्व भी अप्रामाणिक और अविश्वस्त ठहरा दिया गया है। ऐसी दशा में समय-समय पर घटित होने वाली ऐसी घटनाओं का कोई आधार ढूँढ़ना ही होगा अप्रामाणिक भी नहीं कही जा सकतीं और जिनका सामान्य स्थिति के साथ कोई समाधान भी नहीं निकलता।

मनुष्य के अतीन्द्रिय अनुभवों की शृंखला बहुत बड़ी है और उनके प्रकारों का ठीक तरह वर्गीकरण करना तथा सीमा परिधि निर्धारित कर सकना कठिन है। तो भी आये-दिन सामने वाले चमत्कारी अनुभवों को कुछ वर्गों में मोटे रूप से विभक्त किया जा सकता है। यथा- (1) सुदूर स्थानों में घटित हुई घटनाओं की बिना ज्ञातव्य साधनों के स्पष्ट जानकारी मिलना (2) एक व्यक्ति को अन्य व्यक्ति की मनः स्थिति एवं परिस्थिति का ज्ञान होना (3) भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं का समय से बहुत पहले ही आभास मिल जाना (4) मृतात्माओं द्वारा ऐसे कृत्य किये जाना जिससे उनके अस्तित्व का प्रत्यक्ष परिचय मिलता हो (5) पुनर्जन्म की वे घटनाएं जिनमें यह प्रमाण मिलता तो है कि यह व्यक्ति पूर्वजन्म की ऐसी जानकारियाँ दे रहा है जो अन्य लोगों द्वारा उसे सिखाई पढ़ाई नहीं जा सकती थीं (6) किसी प्रकार प्रकट करना जो प्रस्तुत व्यक्तित्व से अत्यधिक ऊंचा अथवा भिन्न हो। (7) शरीरों में अनायास उभरने वाली ऐसी शक्ति जो सम्पर्क में आने वालों को प्रभावित करती हो (8) ऐसा मनोबल जो दुस्साहसों को क्रीड़ा-विनोद की तरह कर गुजरे और अपनी तत्परता के सहारे अद्भुत पराक्रम कर दिखाये। (9) अदृश्य आत्माओं के साथ सम्बन्ध स्थापित करके उनका असाधारण सहयोग प्राप्त करना। (10) शाप वरदान का दीर्घ काल तक वस्तुओं तथा व्यक्तियों पर बना रहने वाला प्रभाव (11) पर काया प्रवेश।

इस प्रकार के ओर भी अनेक ऐसे प्रसंग सामने आते हैं जिन्हें उपरोक्त वर्ग विभाजन की श्रेणी में नहीं सोचा जा सकता। उन्हें फुटकर एवं विसंगत बहुवर्गीय कहा जा सकता है। सिद्धि और चमत्कारों के नाम से इन्हें समझा, समझाया जा सकता है। यह अतीन्द्रिय शक्ति के प्रमाण का क्षेत्र है। इन्द्रियों की सहायता से हम जो अनुभव करते हैं वह स्वाभाविक एवं सरल है। यों है तो वह भी आश्चर्यजनक ही। अन्य प्राणियों की तुलना में मानवी संयन्त्र कितना परिष्कृत है और उसकी ज्ञान क्षमता तथा संवेदनाएं कितनी विशिष्ट हैं इसे कोई प्रखर समीक्षक ही बता सकता है। अभ्यस्त होने के कारण हम तो उस विशिष्ट स्थिति को भी सामान्य ही मानने लगे हैं। इन्द्रियों के अतिरिक्त दूसरे साधन वैज्ञानिक उपकरण हैं जो हमारे ज्ञान तथा साधनों का क्षेत्र अत्यधिक विशाल बना देते हैं। इन्द्रिय अनुभूतियों की तरह ही अब यह यान्त्रिक क्षमता भी मनुष्य की व्यक्ति क्षमता का ही एक अंग बन गई है। यों जिन दिनों बिजली जैसी शक्तियों और टेलीफोन जैसे उपकरणों का आविष्कार नहीं हुआ था। उन दिनों की आज की सुविधा सम्पन्न परिस्थितियों से तुलना की जाय तो वह भी जादुई स्तर का चमत्कार ही प्रतीत होगा। अब से चार सौ वर्ष पूर्व के मनुष्य कहीं हों और आज की वैज्ञानिक उपलब्धियों तथा यान्त्रिक प्रगति के सहारे मिले सुविधा-साधनों को देखें तो प्रतीत होगा कि इस जमाने के लोग किसी जादूगरों के लोक में रह रहे हैं। यह प्रकृति के पदार्थ परक स्थूल क्षेत्र की उपलब्धियाँ हैं, जो प्रयत्न करने पर हाथ लगी हैं, यों उनका अस्तित्व तो सृष्टि के आदि काल से ही था। अन्तर इतना ही हुआ कि भूतकाल में मनुष्य उनके अस्तित्व एवं उपयोग से अपरिचित था। अब वह स्थिति बदल गई।

अतीन्द्रिय ज्ञान के सम्बन्ध में इन दिनों जो खोजबीन चल रही है उसमें शोध को चार भागों में विभक्त किया गया है। (1) परोक्ष दर्शन (क्लेअर वायेन्स) ज्ञान प्राप्ति के सामान्य आधारों के बिना ही उन वस्तुओं या घटनाओं की जानकारी पाना जो प्रत्यक्ष नहीं हैं (2) भविष्यज्ञान (प्रिकाग्नीशन) भविष्य में घटित होने वाले घटनाक्रम की बिना किसी मान्य आधार के जानकारी प्राप्त करना। (4) विचार संचार (टेलीपैथी) अपने विचार दूसरों के पास बिना किसी साधन के पहुँचाने और उनके पकड़ने की कला।

सरजान एक्लीस का कथन है कि मस्तिष्कीय संस्थान से काम करने वाले अणुओं में एक न्यूरॉन को प्रभावित किया जा सके तो प्राणी की क्रियाशक्ति और इच्छाशक्ति में पहले की अपेक्षा असाधारण परिवर्तन हो सकता है।

विज्ञानी फेन माँ का कथन है कि समय की गति साधारणतया पीछे से आगे को चलती है, पर यह अनिवार्य नहीं। ऐसा भी हो सकता है कि समय आगे की अपेक्षा पीछे को लौटने लगे। हम भविष्य की ओर बढ़ने की अपेक्षा भूतकाल की घटनाओं को देखते हुए चिरअतीत का अवलोकन करने को ही प्रगति अनुभव करने लगें।

‘लीग फॉर स्प्रिचुअल डिस्कवरी’ नामक संगठन का उद्देश्य है-मनश्चेतना से परे की चेतन-तत्व की तलाश। इस संस्था की स्थापना का आधारभूत कारण मनस्तत्व की विभिन्न शक्तियों का परिचय रहा है। उसी से प्रेरणा लेकर यह गठित हुई। एलन गिंसवर्ग ने विभिन्न रासायनिक तत्वों के आधार पर की गई मानसिक अनुभूतियों को प्राप्त कर, मन को ही जीव-चेतना का अन्त माना है। डॉ0 टिमोदी लियरी ने भी मन को ही सब कुछ माना है और अध्यात्म का उसे ही आधार माना है। भारतीय तान्त्रिक और तिब्बती तन्त्र साधक भी विभिन्न रासायनिक तत्वों के द्वारा मनश्चेतना के विस्तार-प्रसार और उसकी असामान्य अनुभूति-क्षमताओं का लाभ उठाते रहे हैं। कभी-कभी दूरवर्ती ज्ञान भी उससे सम्भव है।

डॉ0 टिमोदीलियरी ने नशा और कुछ औषधियों द्वारा मनश्चेतना के विस्तार के प्रयोग व अनुभव किए हैं। उस स्थिति में शक्ति का विशेष अनुभव होता है और जीवन में आनन्द छा जाता है। वह भी वस्तुतः चेतना को निम्न तल के उठाकर कुछ समय के लिए जगत के मूलभूत तत्वों से एकाकार कर देने की ही स्थिति है।

जैकी केसन ने भी मनोविस्तारक प्रयोग किए हैं। प्रकाश किरणों को विभिन्न आकृतियों में संयोजित कर वे उनके छायाचित्र पानी के माध्यम से किसी पर्दे में प्रक्षेपित करती हैं। उन चित्रों को ध्यान से देखने वाला व्यक्ति सम्मोहित हो जाता है और विचित्र अनुभूतियाँ उसे होने लगती हैं। यह भी है-आत्मतत्व से एकाकार की ही स्थिति।

मनःशक्ति की उत्तेजक और वर्धक औषधियों में सोमरस प्रसिद्ध कहा है। आल्डुअस हक्सले ने उसका भारी गुणगान किया है। उत्तरी योरोप में भी ऐसा ही एक पेच, ‘फलाई एगेरिक’ नामक कुकुरमुत्तों से बनता है। फिजी में ‘कावा’ और एण्डियन तहाई (अमरीका) में ओयाहुस्का पेच प्रचलित हैं, जो दिवास्वप्न की सी अनुभूतियाँ देने लगते हैं। इस स्थिति में कई बार भविष्य, नोप्य भी होता है और मृतात्माओं से सम्पर्क भी। स्पष्ट है कि उस स्थिति में मन किसी महत् तत्व से क्षणिक एकाकारिता की स्थिति प्राप्त कर ही, वे अनुभूतियाँ कर पाता है।

जीव-वैज्ञानिकों की ताजी खोजें बताती हैं कि शरीरस्थ कोशिकाओं और परमाणुओं को मनःशक्ति नियन्त्रित करती है। मनःचेतना वंशानुक्रम-विधि से तो गतिशील रहती ही है मरणोत्तर जीवन में भी वह सक्रिय रहती है।

फ्रायड ने ‘सुपरईगो’ और ‘सेन्सर’ की परिधि में मनःशास्त्र रचा, पर अब मनोविज्ञान निरन्तर आगे ही बढ़ता जा रहा है। जर्मन मनोवैज्ञानिक हेन्सा वेन्डर ने अतीन्द्रिय क्षमता के अनेक प्रमाण जुटाए हैं। टेलीपैथी के शोधकर्ता रेने वार्कोलियर ने कहा है-‘‘मन की व्याख्या पदार्थ विज्ञान के प्रचलित सिद्धान्तों द्वारा सम्भव नहीं।”

मन निस्सन्देह अति सूक्ष्म सत्ता है, पर वह अन्न को ही गैसीय स्थिति है। अन्न से रस बनते हैं। रस, रक्त माँस, मेदा, मज्जा, अस्थि, वीर्य ये सप्त धातुएं कहीं गई हैं। ये अन्न से ही बनते हैं। वीर्य इनकी अन्तिम स्थिति है। वहाँ से आगे मन, बुद्धि, चित, अहंकार आदि अन्तःकरण चतुष्ट्य हैं। मन चाहे तो साँसारिक पदार्थों से ही घिरा रहे, चाहे सूक्ष्म-सत्ता को प्राप्त कर समाधि सुख प्राप्त करे, पर मन है एक रासायनिक तत्व ही, आत्मा नहीं।

मात्र मनःशक्ति के विस्तार तथा उसकी किसी कौतुक क्रीड़ा का नाम अतीन्द्रिय विज्ञान नहीं है। वस्तुतः कौतुक-क्रीड़ा में परितुष्टि सदा अविकसित मन को ही होती है। मनश्चेतना का प्रसार होते ही इन बाल-क्रीड़ाओं से गहरी विरक्ति हो जाती है। तब ब्रह्म चेतना से एकाकार होने की तड़प बढ़ने लगती है। इस एकाकारिता की स्थिति में प्रकृति में क्रियाशील नियमों की जानकारी प्राप्त होने लगती हैं। अतीन्द्रिय विज्ञान मनःशक्ति के विकास तथा आत्मतत्व से उसे एकाकार कर प्रकृति के गूढ़ रहस्यों के पीछे क्रियाशील नियमों-सिद्धान्तों की जानकारी की विधा है। यह मात्र मनश्चेतना का विस्तार नहीं, बल्कि मनश्चेतना के विस्तार द्वारा ब्रह्माण्ड व्यापी चेतना से एकाकार होने का निरन्तर प्रयास और उसके परिणाम स्वरूप उस ब्रह्म चेतना की कार्यविधि तथा उसके गणितीय नियमों की अधिकाधिक जानकारी प्राप्त करने का विज्ञान है।

मानवी चेतना एक है। उसके विभिन्न क्रिया कलापों के अनुसार समय-समय पर उसे विभिन्न नाम दिये जाते हैं। जैसे एक ही व्यक्ति परिस्थितिवश वैद्य, रोगी, ग्राहक, आक्रान्ता, दानी, गायक आदि हो सकता है उसी प्रकार मनःचेतना को उसी की सामयिक स्थिति के अनुरूप कई नाम दे दिये जाते हैं। एक ही व्यक्ति विभिन्न व्यक्तियों की दृष्टि में पिता, पुत्र, भाई, मालिक, नौकर आदि समझा जाता है उसी प्रकार मन भी प्रयोजन विशेष की भूमिका निभाते समय विभिन्न नामों से संबोधित किया जाता है।

सोचते समय चेतना के मनःनिष्कर्ष निकालने की स्थिति में बुद्धि-संस्कारों के जाल में जकड़ी हुई स्थिति चित और आत्म मान्यताओं की गहन आस्था अहंकार है। इन में से जब जो स्थिति अधिक उभरी होती है तब मनुष्य को उसी स्तर का ठहराया जाता है, किन्तु यह स्थिति भी सदा एक जैसी नहीं रहती। वकील के रूप में बहस करता हुआ व्यक्ति बुद्धिमान कहा जा सकता है, पर जब वह नशे की लत से अपने को विवश अनुभव कर रहा होगा तो उसे चित ग्रसित कहा जायगा।

प्राणियों में पाई जाने वाली चेतना में शरीर निर्वाह एवं सुखोपभोग के लिए किये जाने वाले प्रयत्नों में कितना क्रिया-कौशल कितना चातुर्य विद्यमान है यह देख कर एक ओर उनकी बुद्धिहीनता और दूसरी ओर उनकी बुद्धिमता के बीच आकाश-पाताल जैसा अन्तर देख कर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। चींटी कितनी तुच्छ और कितनी बुद्धिहीन, पर उसकी समाज व्यवस्था-भवन निर्माण कला-अनुशासित सहकारिता देखते ही बनती है। मधुमक्खियों की अपनी दुनिया है। उनका जीवन क्षेत्र जिस परिधि में सीमित है उसमें वे किसी कुशल कलाकार, शिल्पी वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, शासनाध्यक्ष, धर्माध्यक्ष एवं समाज व्यवस्थापक की समस्त विशेषताओं के समन्वय का परिचय देती हैं। दीमक द्वारा बनाये जाने वाले नगरों को देखकर उसकी तुलना मनुष्य भवन निर्माताओं से की जाय तो प्रतीत होगा कि स्थिति और सुविधा को ध्यान में रखकर की गई समीक्षा में दीमक को कहीं अधिक कुशल ठहराया जायगा। मकड़ी का जाला तनना-अपने निर्वाह, भोजन एवं वंश वृद्धि के प्रयत्नों में बरते गये वर्चस्व को देखकर मनुष्य का गर्व गल जाता है। मनुष्य और मकड़ी के बीच कितनी असमानता है फिर भी मकड़ी अपने क्षेत्र में अपने स्तर के अनुरूप जो विशेषता प्रस्तुत करती है वैसी उस अनुपात से विकसित से विकसित मनुष्य भी अपने क्षेत्र में कर सकेगा ऐसी सम्भावना नहीं है।

फिर मनुष्य की बुद्धिमता भी एक आश्चर्य है। सिर की खोपड़ी के भीतर जो तनिक सा लिवलिवा पदार्थ भरा है, उसमें किस प्रकार चिन्तन की अद्भुत विशेषता उत्पन्न होती है। विचारों के आँधी-तूफान और भावनाओं के ज्वार भाटे किस आधार पर उठते हैं? आदतों और आकाँक्षाओं में इतनी विचित्रता एवं भिन्नता क्यों रहती है? प्राणियों में शरीर निर्वाह भर की कुशलता पाई जाती है, पर मनुष्य के मस्तिष्क में जो ज्ञान विज्ञान का भण्डार संजोये रह सकने योग्य जो स्वरूप बना हुआ है उसका कारण क्या है? मानवी मस्तिष्क की विचित्र स्थिति के लिए उत्तरदायी कौन है? यह प्रश्न ऐसे हैं जिन पर विचार करते हुए बुद्धि हतप्रभ होकर बैठ जाती है।

अतीन्द्रिय चेतना की परतें और भी विलक्षण हैं। इसका मोटा स्वरूप भाव संवेदनाएं और गहरा स्वरूप वे जानकारियाँ है जो प्रत्यक्ष न होकर परोक्ष होती हैं, जिनका ज्ञानेन्द्रियों के साथ कोई सीधा सम्बन्ध नहीं होता।

सर्दी-गर्मी, स्वाद, आघात स्पर्श, हानि-लाभ से प्रसन्नता-अप्रसन्नता होने जैसी प्रतिक्रियाएं मस्तिष्कीय संरचना से सीधी सम्बद्ध मानी जा सकती हैं। भय, आक्रोश, शोक जैसे घटनापरक प्रभावों को भी किसी कदर समझा जा सकता है, पर प्रेम, दया, करुणा, सेवा, सहानुभूति जैसी उन उदात्त संवेदनाओं का क्या आधार माना जाय जिनसे प्रेरित होकर मनुष्य कष्ट सहने और त्याग करने जैसे ‘अबुद्धिमता’ पूर्ण कदम उठाने के लिए तैयार हो जाता है। देश धर्म के लिए हंसते-हंसते प्राण होम देने वाले- परमार्थ के लिए सब कुछ लुटा देने वाले- आत्म कल्याण के लिए अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य तप साधन दान-पुण्य व्रत उपवास जैसी कष्ट साध्य रीति-नीति अपनाने वाले क्यों इन कार्यों में सन्तोष, आनन्द अनुभव करते हैं? इन समस्याओं का समाधान मस्तिष्कीय संरचना की शरीर के साथ प्रस्तुत संगति को देखते हुए किसी भी प्रकार नहीं दिखता। श्रद्धा भक्ति की-उदार आत्मीयता की- स्थिति किस कारण अन्तःकरण में उत्पन्न ही नहीं, इतनी प्रबल भी होती है कि उस आधार पर शरीर सुख की स्वाभाविक चेष्टा ही उलट जाय।

धर्म, अध्यात्म, संयम, उदारता और कर्तव्य पालन के सिद्धान्त अपनाने से व्यवहारतः मनुष्य घाटे में रहता है। घाटे को न होने देने के लिए ही मस्तिष्क तन्त्र है फिर उस स्वाभाविक संरचना से विपरीत आदर्शवादी तत्व दर्शन क्यों मनुष्य को स्वीकार्य होता है। दूसरों के दुःख में अपने आंसू क्यों निकलते हैं? दूसरों को सुखी देख कर अपने को सुख क्यों होता है? दूर देशों में घटित होने वाली घटनाएं हमें भावनात्मक स्तर पर प्रभावित क्यों करती हैं? मानवतावादी, आदर्शवादी, अध्यात्मवादी उमंगें, महानता की आकांक्षाएं बन कर क्यों अन्तःकरण को मथती और बेचैन दिखाई पड़ती हैं? इन प्रश्नों का उत्तर उन मनोविज्ञानियों के पास नहीं है जो घटनाओं को प्रतिक्रिया स्वरूप चिन्तन तन्त्र की गति-विधियों का निरूपण निर्धारण करते हैं। इसके आगे की अति चेतन स्थिति बहुत ही अद्भुत है और उसके रहस्य समझने में अति कठिनाई उत्पन्न होती है। यों शरीर संरचना के घटकों का क्रिया-कलाप और पारस्परिक योग भी कम विचित्र नहीं हैं। ज्ञानेन्द्रियों के आधार पर जिस प्रकार मस्तिष्क की सूचनाएं मिलती हैं और उस विधान के अनुसार वह स्थिति का स्वरूप निर्धारित करता है वह तन्त्र भी कम विलक्षण नहीं है। शारीरिक और मानसिक हलचलों को मोटे रूप में देखा जाय तो बात दूसरी है अन्यथा थोड़ी गहराई में प्रवेश किया जाय तो प्रतीत होगा कि हमारी सामान्य गति-विधियों के पीछे कितनी असामान्य विधि-व्यवस्था काम कर रही है।

मस्तिष्क सोचने का कार्य करता है। निर्वाह की आवश्यकताएं जुटाने तथा प्रस्तुत कठिनाइयों का समा-धान ढूँढ़ना उसका काम है। उसकी ज्ञान आकांक्षा इसी प्रयोजन के लिए उपयोगी जानकारी प्राप्त करने तक सीमित हो सकती है।

उसके पीछे अचेतन मन की परत है वह रक्त संचार हृदय की धड़कन, श्वास-प्रश्वास, आकुंचन-प्रकुंचन, निमेष-उन्मेष ग्रहण-विसर्जन, निद्रा-जागृति जैसी अनवरत शारीरिक क्रिया-प्रक्रियाओं का स्वसंचालित विधि-विधान बनाये रहता है।

आदतें अचेतन में जमा रहती हैं और आवश्यकता पूर्ति के लिए चेतन मन काम करता रहता है। मोटे तौर पर मस्तिष्क का कार्य क्षेत्र यहीं समाप्त हो जाना चाहिए।

इससे आगे जादू से बने संसार का अस्तित्व सामने आता है। जिसकी अनुभूति तो होती है, पर कारण और सिद्धान्त समझ में नहीं आता। इस प्रकार की अनुभूतियाँ प्रायः अतीन्द्रिय मनः चेतना की होती हैं। भूतकाल की अविज्ञात घटनाओं का परिचय, भविष्य का पूर्वाभास, दूरवर्ती लोगों के साथ वैचारिक आदान-प्रदान, अदृश्य आत्माओं के साथ सम्बन्ध, पूर्वजन्मों की स्मृति, चमत्कारी ऋद्धि-सिद्धियाँ, शाप-वरदान, जैसी घटनाएं अतीन्द्रिय अनुभूतियाँ मानी जाती हैं। व्यक्तित्व का स्तर भी इसी उपचेतना की परतों में अन्तर्विहित होता है विज्ञानी इसे पैरासाइकिक तत्व कहते हैं। इसके सम्बन्ध में इन दिनों जिस आधार पर शोध कार्य चल रहा है, उसे परामनोविज्ञान-पैरा साइकोलॉजी नाम दिया गया है।

स्थूल और कारण शरीरों के बीच एक सूक्ष्म शरीर भी है। विविध शरीरों में एक स्थूल है जिसमें ज्ञानेन्द्रियों का, कर्मेन्द्रियों का समावेश है। सूक्ष्म को मन, बुद्धि, चित और अहंकार के चार परतों में विभक्त किया गया है। मनोविज्ञानी इसे चेतन और अचेतन मन में विभक्त करते हैं और उसके कई-कई खण्ड करके कई-कई तरह से उस क्षेत्र की स्थिति को समझाने का प्रयत्न करते हैं। कारण शरीर को अन्तरात्मा कहा जाता है संवेदनाएं एवं आस्थाएं उसी क्षेत्र में जमी होती हैं। योगी लोग प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि द्वारा इसी क्षेत्र को जागृति एवं परिष्कृत करने का प्रयास करते हैं।

अतीन्द्रिय क्षमता सूक्ष्म शरीर का-मस्तिष्कीय चेतना का विषय है। इन्द्रिय शक्ति के आधार पर ही प्रायः मनुष्य अपनी जानकारियाँ प्राप्त करता है और उस प्रयास में जितना कुछ मिल पाता है उसी से काम चलाता है। मस्तिष्क ब्रह्माण्डीय चेतना से सम्पर्क बना सकने और उस क्षेत्र की जानकारियाँ प्राप्त कर सकने में समर्थ है। अविकसित स्थिति में उसे ज्ञान सम्पादन के लिए इन्द्रिय उपकरणों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। वे जितनी जानकारियाँ दे पाती हैं उतना ही व्यक्ति का ज्ञान-वैभव सम्भव होता है, पर जब मस्तिष्कीय चेतना का अब के अथवा पिछले प्रयत्नों से अपेक्षाकृत अधिक विकास हो जाता है तो फिर बिना इन्द्रियों की सहायता के ही समीपवर्ती एवं दूरवर्ती घटनाक्रम की जानकारी होने लगती है। इतना ही नहीं ब्रह्माण्ड व्यापी ज्ञान-विज्ञान की असंख्य धाराओं से अपना सम्पर्क बन जाता है। प्रयत्न पूर्वक तो थोड़ा सा धीरे-धीरे ही कमाया जा सकता है, पर यदि किसी अक्षय रत्न भण्डार पर अधिकार प्राप्त हो जाय तो अनायास ही धन कुबेर बना जा सकता है। अन्तरिक्ष के अन्तराल में असंख्य मनीषियों की ज्ञान सम्पदा बिखरी पड़ी है विकसित सूक्ष्म शरीर उस ज्ञान भण्डार से सम्बन्ध मिला सकता है और अपनी जानकारियों का इतना विस्तार स्वल्प समय में ही कर सकता है जितना सामान्य प्रयत्नों में सम्भव नहीं हो सकता।

मनुष्य के उपचेतन मन का पक्षी मस्तिष्क के घोंसले में रहता भर है, पर वह उतने में ही आबद्ध रहने के लिए विवश नहीं है। वह देश और काल का-मर्यादाओं का अतिक्रमण करके हजारों वर्ष पूर्व की-अथवा हजारों मील दूर की घटनाओं को उसी प्रकार देख सकता है मानो वे उसके ठीक सामने घटित हो रही है। मानसोपचार विज्ञानी डॉ0 थेमला मौस ने ठीक ही कहा है कि चेतन मस्तिष्क का दबाव यदि उपचेतन पर से हट जाय और वह स्वच्छन्दतापूर्वक विचरण कर सकने की सुविधा प्राप्त कर सके तो उसके ज्ञान की और गति की क्षमता असीमित बन सकती है।

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