खाद्यान्नों की दुर्गति बनाने वाली दुर्बुद्धि त्यागें।

September 1976

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

खाद्यान्नों में गेहूँ और चावल का स्थान मूर्धन्य है। इसके बाद दालों का नम्बर आता है। ज्वार, बाजरा, मक्का आदि सस्ते अन्न भारत में तो प्रयुक्त होते हैं, पर अमेरिका जैसे समृद्ध देशों में तो उन्हें पशु खाद्यों में ही गिना जाता है।

इन दोनों धान्यों और दालों में जीवनोपयोगी तत्व पर्याप्त मात्रा में हैं यदि इन्हें ठीक तरह प्रयुक्त किया जाय तो हमें पर्याप्त पोषण मिल सकता है पर दुर्भाग्य ने हमारा पीछा इस क्षेत्र में भी नहीं छोड़ा। कुछ ऐसी कुमति सिर पर सवार हुई है कि इनका जो उपयोगी अंश है उसे हम अस्वादिष्ट या कुरूप समझ कर फेंक देते हैं और जो छूँछ वाला अंश है उसी के उपयोग करने में प्रसन्नता अनुभव करते हैं।

सर्वविदित है कि सूर्य की सीधी किरणें फल के जिस भाग पर पड़ती है वह पोषक तत्वों से अन्य भागों की अपेक्षा कहीं अधिक भरा-पूरा होता है। गेहूँ का छिलका, दालों का छिलका इतना बहुमूल्य होता है जिनकी तुलना में उनका मैदे वाला-गूदे वाला भाग अत्यन्त नगण्य ठहरता है। गेहूँ को दैत्याकार चक्कियों से पीसते समय जो गर्मी उत्पन्न होती है उससे अधिकाँश पोषक तत्व जल जाते है और वह लगभग भुने हुए सत्तू की तरह निर्जीव बन जाता है। इस पर भी चोकर छानकर रहा बचा उपयोगी अंश फेंक दिया जाता है। दालों की भी यही दुर्गति होती है यदि उन्हें समूचा पकाया जाय तो पूरा लाभ मिलेगा। किन्तु छिलका निकाल कर उनका भी उपयोगी भाग फेंक दिया जाता है। दो दल वाले चना, मटर, उड़द, मूँग, अरहर आदि दाल कहे जाने वाले अन्नों के भीतर जोड़ने वाले स्थान पर जो अंकुर-सा उठा रहता है उसमें ही अंकुर उत्पन्न करने की क्षमता होती है। उसे दालों की जननेन्द्रिय और वीर्यकोष कहते है। दलने में यह अंश भी निकाल दिया जाता है। यह मध्यवर्ती चुनी भाग चूंकि कुछ कसैला होता है, उससे अभ्यस्त स्वाद में यत्किंचित् कमी आती है इतने से कसूर पर उसे देश निकाला दे दिया जाता है। छिलके रहित दालें चूंकि देखने में-खाने में अच्छी लगती हैं, इसलिए उन्हें ही प्रयोग करने का प्रचलन बन गया है।

चावल पर से छाल उतारने के बाद एक परत रह जाती है जो मटमैली-सी होती है। चावल के पोषक तत्व का अधिकाँश भाग भी इसी में होता है। पर गेहूँ एवं दालों की तरह चावल की भी दुर्गति बनाई जाती है और मशीनों से छिलका उतार कर पालिशदार चावल बनाया जाता है। यह भी देखने में, खाने में अच्छा लगता है इसलिए उसी की खपत होती है। पकाने की विधि भी विचित्र है। जो कुछ रहा बचा पोषक तत्व चावल में रहता है वह अधिक पानी में पकाने से ‘माँड’ में चला जाता है। माँड़ फेंक दिया जाता है और वह चावल ऐसा रह जाता है जैसा चाय को पानी में पका कर उसका अर्क तो फेंक दिया जाय और पत्तियों की छूँछ को रुचिपूर्वक खाया-चबाया जाय। नीबू का रस निचोड़ कर फेंक दें और उसके छिलके का रुचिपूर्वक भोग लगायें। विचार करने पर यह प्रत्यक्ष मूर्खता है, पर जब मूर्खता भी रिवाज बन जाती है तो लोग उसी को पसन्द करने लगते हैं चावल को कूटने और पकाने में उसका प्राण निकाल दिया जाता है केवल निर्जीव लाश ही खाने वालों के पल्ले पड़ती है।

संसार के धान उत्पादक क्षेत्र का दो तिहाई भाग चीन और भारत में है। भारतीय जनता का 70 प्रतिशत भाग अधिकतर चावल खाता है। यों चावल, गेहूँ जैसा पौष्टिक नहीं होता तो भी उसमें प्रोटीन, आयरन, कैल्शियम, फास्फोरस, फैट, थायमाइन वर्ग का विटामिन बी0 पाया जाता है। कूटने और पकाने की दुर्गति में चावल अपनी इन विशेषताओं का अधिकाँश भाग गंवा बैठता है। और देखने में अधिक सुन्दर, खाने में अधिक स्वादिष्ट बनाने के फेरे में पड़ने वाले के पल्ले सत्व रहित-तत्व रहित छूँछ ही पड़ती है।

इन तत्वों के अभाव में शरीर को समुचित पोषण न मिलने से तरह-तरह की कमजोरियाँ और बीमारियाँ पीछे पड़ती हैं। मद्रास में अक्सर फैलने वाला बेरी-बेरी रोग प्रायः इसी के कारण पनपता है बच्चों में से बहुतों को इसी रोग से मरना पड़ता है। शरीर में कमजोरी, सुस्ती, हाथ-पैरों में झुनझुनी, वजन घटना, तेज चलने में कठिनाई जैसे लक्षणों को सूखी बेरी-बेरी कहते है? तर बेरी-बेरी में हृदय का फूलना, साँस लेने में कठिनाई, पेट तथा दूसरे अंगों का फूलना जैसे लक्षण प्रकट होते हैं। हाथ-पैरों में जलन, मुँह में छाले, पेचिश, जकड़न, चर्म-रोग, अपच, खून की कमी, उदासी जैसी बीमारियाँ पोषण रहित चावल खाने वालों के पीछे लग लेती हैं।

चावल पकाने से पूर्व कई-कई बार रगड़ मसलकर धोने का रिवाज बुरा है, इसमें भी उसके उपयोगी अंश धुल जाते हैं। धोना हो तो एक बार धोना पर्याप्त है कम पानी में पकाया जाय तो माँड नहीं निकलेगा। यदि माँड निकालना ही है तो उसे फेंकना नहीं चाहिए। दाल आदि में मिला देना चाहिए उसमें उपयोगी अंश रहते हैं।

हाथ की कुटाई के जरिये 68 प्रतिशत चावल प्राप्त होता है और मिल की कुटाई से 62 प्रतिशत। इस प्रकार मिल की कुटाई के पालिशदार चावल के फेर में हम 6 प्रतिशत वजन गंवा देते हैं यदि यह बर्बादी बचाई जा सके तो इतने धान्य की बचत हो सकती है और देश की खाद्य समस्या को हल करने में बड़ी सहायता मिल सकती है। बाजार में 85 प्रतिशत चावल मशीन का और 15 प्रतिशत हाथ का बिकता है। इसमें 6 प्रतिशत का वजन और उसके पौष्टिक अंश का गंवा देना देश की सामान्य क्षति नहीं है।

अमेरिका के एक आहार शास्त्री डॉ0 टी0एल0 क्लेव ने पेट की बीमारियों पर एक प्रामाणिक शोध ग्रन्थ प्रकाशित किया है उसका नाम है- ‘‘पौष्टिक अलसर काजेशन प्रीवेन्सन एण्ड अरैस्ट” उसमें उनने लिखा है-लोगों की भोजन सम्बन्धी बुरी आदतों ने ही उन्हें पेट के रोगों से ग्रसित बनाया है। उन्होंने द्वितीय महायुद्ध के समय कैदियों और सैनिकों में हुई पेट की बीमारियों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करते हुए बताया कि मशीन के कुटे हुए चावल और मैदे की रोटी ने यह बीमारियाँ फैलाईं। जब शोधकर्ताओं ने वास्तविक कारण जाना और भोजन सुधार कराया तो वे बीमारियाँ अपने आप अच्छी हो गईं।

हाथ के कुटे चावल का यदि प्रचलन हो जाय तो एक बड़ा गृह उद्योग भारतीय जनता के हाथ लग सकता है देहातों की बेकारी दयनीय है। कृषि कार्य से लोगों के-विशेषतया महिलाओं के पास बहुत-सा समय बच जाता है। इस समय का उपयोग पहले चर्खा, चक्की आदि कई स्वास्थ्यवर्धक और अर्थ बचत कार्यों में किया जाता था अब वे कार्य बड़े मिलों ने छीन लिए। इसी प्रकार चावल के साथ जुड़ा हुआ धान कुटाई का उद्योग भी मिलों के हाथों चला गया और देहाती गरीब जनता उससे भी वंचित हो गई। चूँकि भारत का 70 प्रतिशत आहार चावल है इसलिए यदि उसका छिलका उतारने वाला उद्योग ग्रामीण जनता के हाथों रहने दिया जाय तो न केवल स्वास्थ्यकर आहार की वरन् ग्रामीण क्षेत्र की अर्थ-व्यवस्था सुधारने में भी उससे एक हद तक योगदान मिल सकता है।

यदि 100 मन धान मिल में कुटवाया जाय तो 70 मन चावल मिलेगा। धान का छिलका ही नहीं चावल के ऊपर का लाल वाला वह बहुमूल्य अंश भी उतर जायगा जिसे चावल का प्राण कहना चाहिए। छिलका और चावल का ऊपरी भाग मिलाकर 30 मन निकल जाता है। यदि उसी को ढेंकी या हाथ की मोटी चक्की से निकाला जाय तो 75 से 77 मन तक चावल हाथ लगेगा। छिलका भर उतरेगा चावल की ऊपरी परत नष्ट न होगी। इस प्रकार उसकी पौष्टिकता भी बनी रहेगी और हर सौ मन पीछे 5-7 मन चावल भी अधिक मिल जायगा। इस महंगाई के जमाने में इतने चावल की बचत भी कुछ माने रखती है।

इस माने में घुन नामक छोटा कीड़ा ज्यादा बुद्धिमान है जो अपने लिए उपयुक्त और लाभदायक अंश चावल में से पहचान लेता है घुन अक्सर चावल की उसी ऊपरी परत को खाता है, इसमें पौष्टिक तत्वों की सबसे अधिक मात्रा है। मशीन के कुटे, पालिश किये चावल में अक्सर घुन नहीं लगता क्योंकि वह जानता है कि इसका पोषक तत्व पहले से ही नष्ट हो चुका है। निर्जीव छूंछ को खाने से क्या लाभ? घुन हम मनुष्यों की बुद्धि को चुनौती देता है जो लाभ वाले भाग को फेंक कर सिर्फ खावट और जायके के फेर में चावल का निरर्थक अंश ही उदरस्थ करते रहते हैं।

यही बात मिल के पिसे आटे के सम्बन्ध में भी है। मिल की चक्की में एक मन का 39 सेर आटा बैठता है। 1 सेर जल जाता है। इस प्रकार 2॥ प्रतिशत वजन की बर्बादी होती है। ताप की अधिकता से विटामिन ई सरीखे उसके बहुत से पौष्टिक गुण भी नष्ट हो जाते हैं हाथ की चक्की से पिसे आटे में यह 2॥ प्रतिशत की बर्बादी रुकती है। जितना गेहूँ था प्रायः उतना ही आटा मिल जाता है। पिसाई में अधिक गर्मी उत्पन्न न होने से सभी जीवन तत्व सुरक्षित रहते है। इसके अतिरिक्त पीसने वाले को पेट तथा छाती का अति उपयोगी व्यायाम करने का अवसर मिल जाता है। उस आधार पर स्वास्थ्य संवर्धन का जो लाभ मिलता है उसकी तो कुछ कीमत आँकी ही नहीं जा सकती।

अब बढ़ती हुई सभ्यता के साथ-साथ डबल रोटी बिस्कुटों का प्रचलन बढ़ रहा है। रोज-रोज हाथ से रोटी बनाने और चूल्हा काला करने के झंझट से बचने के लिए लोग यह सुविधाजनक समझने लगे हैं कि बाजार की बनी डबल रोटी खरीद ली जाय और उसे डिब्बे में बन्द अचार, चटनी बनी हुई सब्जी आदि के सहारे खा लिया जाय। लोगों के बढ़ते हुए आलस्य ने भोजन बनाने की झंझट भरी प्रक्रिया का सफाया करना शुरू कर दिया है और मैदे की बनी खूबसूरत डबल रोटियों का मोहक स्वरूप तथा स्वाद लोगों को पसन्द आने लगा है। बड़ी मशीन से आटा पीस कर-चोकर छानकर भी यदि कुछ तत्व बच जाता था तो वह मैदा की रोटी समाप्त कर देती है। उसे बनाने-खमीर उठाने में जो रासायनिक सम्मिश्रण किये जाते हैं वे उसे न केवल निरुपयोगी वरन् विषाक्त भी बना देते हैं।

होटलों में आमतौर से मैदे से खमीर उठाने के लिए अमोनियम क्लोराइड डाला जाता है। यह वही पदार्थ है जो कपड़ों का मैल काटने और कड़े चमड़े को मुलायम करने के उद्योग में प्रयुक्त होता है। खमीर उठाने के लिए नाइट्रोजन, पेरोक्साइड, प्रोपिओनिक एसिड, वेनजोल पैराक्साइड, पोटेशियम व्रेमिट, ऑक्साइड आफ नाइट्रोजन, निस्ट्रीसल क्लोराइड, सोडियम अल्यूमिनियम सल्फेट सरीखे पदार्थ मिलाये जाते हैं। घर की बनी रोटियाँ जबकि दूसरे ही दिन सूख जाती हैं तब बाजारू डबल रोटी कई दिन तक नम बनी रहती हैं। इस नमी को बनायें रखना भी खमीर उठाने के अतिरिक्त उपरोक्त रसायनों का एक उद्देश्य है। इन लाभों को तो ध्यान में रखा जाता है, पर यह भुला दिया जाता है कि उनका हानिकारक प्रभाव चमड़े पर लाल चकत्ते उठाना एवं दमा जैसी कितनी ही बीमारियाँ भी पैदा कर सकता है।

भगवान ने हमें गेहूँ, चावल और दालें जैसे उपयोगी धान्य प्रदान किए हैं, पर इस दुर्बुद्धि को क्या कहें जो ऐसी विधि विकसित करने में लगी हुई है जिससे वे लाभदायक खाद्य-पदार्थ न केवल निरर्थक वरन् हानिकारक भी बनते चले जाएं।

----***----


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118