उपभोग की इच्छा, कृमि-कीटकों, पशु-पक्षियों और अविकसित प्राणियों में भरी रहती है, उसी से प्रेरित होकर वे अपने विविध क्रिया-कलाप चलाते हैं। पेट की भूख को पूरा करने के लिए जीव-जन्तु अहर्निशि भागते, दौड़ते देखे जाते हैं। प्रौढ़ावस्था में उन्हें प्रजनन की उत्तेजना व्यग्र करती है उसकी है तृप्ति के लिए वे जोड़ा मिलाते हैं और भिन्न लिंग वाले प्राणी के साथ दोस्ती गाँठते हैं। मादा को प्रकृति ने एक और भावनात्मक विशेषता दी है- वात्सल्य इस प्रेरणा से उसे घोंसला बनाने, अंडे सेने और बच्चे पालने का भी झंझट सहन करना पड़ता है। यदि उस जाति के प्राणी में नर-मादा के साथ रहने का प्रचलन रहा तो फिर उसे भी पत्नी को शिशु पालन में सहारा देना पड़ता है। इतनी ही छोटी सीमा में अविकसित पशु-पक्षियों और प्राणियों की जीवनचर्या का आरम्भ और अन्त होता है। शरीर की दो ही भूख हैं पेट और प्रजनन। निकृष्ट स्तर के प्राणी इन दो ही तृप्ति के अतिरिक्त और कुछ और न तो सोचते हैं और न करते हैं। भूख और उसकी तृप्ति को खाते रहने का प्रयास इस एक शब्द में कही कहा समझा जा सकता है।
अविकसित मनुष्य भी इसी परिधि में घूमते हैं। उनके सोचने और करने का घेरा इतना ही सीमित होता है। स्वादेन्द्रिय से लेकर जननेन्द्रिय तक की लिप्साएं-लालसाएं मन में विविध प्रकार के विक्षोभ उत्पन्न करती हैं और उन उद्वेगों के समाधान के लिए कई तरह की गतिविधियाँ अपनानी पड़ती हैं। स्वादिष्ट भोजन पाने-पकाने के लिए रसोईघर का पाक विद्या का विस्तार होता है। एक के बाद दूसरे स्वाद और शकल के व्यंजन बनाये तलाशे जाते हैं। घर में संतोष नहीं होता तो हाट, बाजार और होटलों में पत्ते चाटे जाते हैं। स्पष्ट है कि यह चटोरापन ही स्वास्थ्य सम्पदा का सत्यानाश करता है। रुग्णता और अकाल मृत्यु का ग्रास बनाता है फिर भी स्वाद तो स्वाद ही ठहरा। विकसित कहे जाने वाले अविकसित स्तर के नर पशु के लिए स्वाद की महिमा बहुत बढ़ी-चढ़ी हो गई अन्य प्राणी भूख की तृप्ति के लिए व्याकुल रहते हैं। मनुष्य की विकासोन्मुख विशेषता स्वादेन्द्रिय के चटोरेपन तक बढ़ गई। मूल बात खाने और पेट भरने तक ही सीमित बनकर रह गई।
शरीर की अगली भूख काम चेष्टा है। अन्य प्राणी साथी की तलाश और यौन प्रयोजन पूरा करने उस क्षुधा की तृप्ति कर लेते हैं। मनुष्य ने काम चेष्टा का बौद्धिक विस्तार किया है और बहुत दिनों तक साथ रहने वाले साथी की तलाश और निर्बाध यौन कर्म का विधि विधान बनाया है। विवाह उसी का नाम है। इतने से काम नहीं चला तो बौद्धिक और शारीरिक व्यभिचार के अनेकानेक तरीके ढूँढ़े। नर-नारी साथ साथ रहे तो यौन कर्म के प्रतिफल प्रजनन को भी व्यवस्थित करना पड़ा। नारी को प्रसव और नर को शिशु पालन के आवश्यक साधन जुटाना भी आवश्यक हो गया। बात यौन-कर्म भर की थी, पर उसी की प्रतिक्रिया बच्चे-कच्चों के रूप में सामने आ खड़ी हुई तो समाज व्यवस्था के अनुसार वह उत्तरदायित्व भी वहन करना पड़ा। समीप और साथ रहने के कारण बालकों की कोमलता एवं सुषमा भी सुहाने लगी अतः बन्धन और भी कड़े हुए और घर-परिवार बन गया।
अन्य प्राणी भी यौन कर्म की ऐसी ही क्रिया-प्रतिक्रिया में व्यस्त पाये जाते हैं। मनुष्य ने भी अपने स्तर के अनुरूप इन्हीं दो पशु प्रवृत्तियों का विकास किया है। पेट भरने की साधन सुविधा, तन ढकने विलास विन्यास के साधन जुटाने की अन्य कई दिशाओं में विस्तृत हो गई। यौन कर्म का विस्तार कतिपय काम क्रीड़ाओं एवं विनोद विडम्बनाओं में विकसित हुआ। विवाह परिवार और व्यभिचार इसी यौन लिप्सा का विस्तार है। इन्हीं प्रयासों में लगी हुई बौद्धिक चेतना को खाने की-शरीर तृप्ति की -प्रवृत्ति ही कह सकते हैं। इस क्रियाशीलता की भाव-प्रेरणा को लोभ और मोह कह सकते हैं जननेन्द्रिय प्रतिक्रिया के कारण जिन प्राणियों से सम्बन्ध जुड़ा उन्हें ‘मोह’ की परिधि में ले सकते हैं और पेट पालने से लेकर शरीर संरक्षण के अन्य प्रयोजनों की पूर्ति के लिए आवश्यक साधन जुटाने की प्रवृत्ति को लोभ कह सकते हैं। आमतौर से नर-पशुओं का क्रिया-कलाप इतने तक ही सीमित रहता है।
थोड़ा और बौद्धिक विकास हुआ तो एक नई मस्तिष्कीय भूख जगती है- जिसे अहंकार की तृप्ति कहते हैं। दूसरों की तुलना में अपना बड़प्पन चाहना-इसे अहंता कहा गया है। अहंकार की पूर्ति के लिए मनुष्य ऐसे काम करते हैं जिससे उन्हें दूसरों की तुलना में अधिक सफल और अधिक सम्पन्न कहा जा सके। चूँकि आज धनवान को अधिक सम्मान प्राप्त है इसलिए चेष्टा अधिकाधिक धनी बनने की होती है। इसमें सम्मान के अतिरिक्त अधिक मात्रा-अधिक सुविधाजनक वस्तुओं को प्राप्त करने का अवसर रहता है। धनी व्यक्ति निर्धनों पर अपनी गरिमा की छाप तो डालते हैं, परिवार समेत इसी, धन संपदा के आधार पर अधिक सुखोपभोग किया जा सकता है। अस्तु धन संग्रह की एक अतिरिक्त आकाँक्षा भी मनुष्य में बढ़ी-चढ़ी मात्रा में पाई जाती है जिसे ‘तृष्णा’ कहते हैं।
वैभव का प्रदर्शन करने के लिए-तरह तरह के ठाट-बाट बनाये जाते हैं। शृंगारों, साज-सज्जा का यही प्रयोजन है कि निर्धन और अभावग्रस्त लोग उस वैभव का आतंक मानें और धनवान को अपने से ऊंचे स्तर का समझ कर सम्मान प्रदान करें। कई बार तो गुण्डागर्दी और आतंकवाद का भी उद्देश्य यह अहंकार प्रदर्शन ही होता है। प्राचीन काल में तो युद्ध भी इसी अहंता की सनक पूरी करने के लिए लड़े जाते थे। लूट-खसोट से लेकर रोष-प्रतिशोध भी उन दिनों युद्ध प्रवृत्ति को भड़काते थे, पर मूल कारण आतंकवादी, अहंकार का प्रदर्शन ही रहता था। अब भी लोग इसी प्रवृत्ति से प्रेरित होकर करने न करने योग्य, कृत्य-कुकृत्य करते रहते हैं। कई बार तो धर्माडम्बरों के खर्चीले और कष्टसाध्य प्रदर्शन भी इसी निमित्त किये जाते हैं।
वैभव संचय और अहंकार प्रदर्शन की संयुक्त महत्वाकाँक्षा को ‘तृष्णा’ नाम दिया जाता रहा है। शरीर तृप्ति को प्रवृत्ति की वासना और मानसिक लिप्सा की पूर्ति को तृष्णा कहते हैं। देखा जाता है कि ओछे स्तर का मनुष्य समाज अपनी समस्त क्षमता को इन्हीं दो कार्यों में जुटाये रहता है। खाने और पाने की अभिलाषा ही उसके समस्त क्रिया-कलापों का केन्द्र बिन्दु होता है। इसे पशु प्रवृत्ति से एक कदम भी ऊंचा स्तर नहीं कहा जा सकता है। पशु शारीरिक और मानसिक क्षमताओं की दृष्टि से पिछड़ा होता है, इसलिए उसके प्रयास भी उतने ही छोटे और क्षणिक होते हैं। मनुष्य चूँकि विकसित स्तर का है इसलिए उसने न केवल शारीरिक सुखोपभोग के दो आधार पेट और प्रजनन का विकास विस्तार किया है, वरन् अहंता की मानसिक क्षुधा विकसित करके तृष्णा पूर्ति के साधन जुटाये हैं। यों वह तृष्णा, अहंता अन्य प्राणियों में भी पाई जाती है। मधुमक्खियाँ और चींटियाँ संग्रह करना जानती हैं और सर्प, सिंह आदि को अहंकारी आक्रोश प्रकट करते सदा ही देखा जाता है। दहाड़ते, चिंघाड़ते नर वर्ग के प्रौढ़ प्राणी प्रायः अपना अहंकार ही व्यक्त करते हैं कई बार तो वे इसी प्रवृत्ति से प्रेरित होकर मल्ल-युद्ध की चुनौती भी देते हैं।
सृष्टि के अन्य प्राणियों से मनुष्य को जो विशिष्टता प्रदान की गई है वह उसकी शारीरिक बौद्धिक गरिमा नहीं वरन् भावनात्मक महानता है। शरीर की दृष्टि से मनुष्य कितने ही प्राणियों से पिछड़ा है। उसमें जलचरों और नभचरों जैसी डूबने, तैरने या उड़ने की विशेषता कहाँ है। थलचरों में भी घोड़े जैसे दौड़ने वाले-हाथी जैसे विशालकाय और सिंह जैसे पराक्रमी कितने ही प्राणी हैं जो मनुष्य की शारीरिक क्षमता को सहज ही चुनौती दे सकते हैं। मानसिक दृष्टि से-इन्द्रिय उत्कृष्टता की दृष्टि से छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़े तक मनुष्य से कहीं आगे हैं। गन्ध का आश्रय लेकर छोटे कीड़े अपनी जीवनचर्या चलाते हैं। कुत्ते की घ्राण क्षमता से सभी परिचित हैं। चमगादड़, मकड़ी, मधुमक्खी, चींटी, दीमक जैसे तुच्छ प्राणियों की मानसिक विशेषताएं देखकर दंग रह जाना पड़ता है। इनमें से कितनों को तो वर्षा, सूखा ऋतु परिवर्तन से लेकर भूकम्प आदि का भी पूर्वाभास रहता है। इन विशेषताओं का लेखा-जोखा लिया जाय तो मनुष्य को इन प्राणियों की तुलना में पिछड़ा हुआ ही पाया जायगा। वह बन्दर की तरह न तो पेड़ों पर रहकर जीवनयापन कर सकता है और न चूहे की तरह बिलों में ही उसका गुजारा है। बर्फ में रहने वाले सफेद भालू, पेन्गुइन पक्षी जितनी क्षमता भी तो उसमें नहीं है। बिना दिशा यन्त्र या घड़ी की सहायता के हजारों मील लम्बी यात्रा करने और अपने स्थानों की लौट आने वाले पक्षियों जैसी विशेषताएं उसमें कहाँ हैं?
मनुष्य की अपनी महानता और विशेषता एक ही है भावनात्मक उत्कृष्टता। वह खाने में नहीं खिलाने में रस लेता है और उसी से अपनी महानता को सन्तुष्ट परिपुष्ट करता है। दूसरों को दुःख पाते देखकर स्वयं दुःखी हो उठना और पिछड़े हुओं की-पीड़ितों की सहायता के लिए हाथ बढ़ाना जिसके लिए अनिवार्य और अपरिहार्य हो जाय उसे ही मानवी विशेषता से सम्पन्न कहना चाहिए। ‘करुणा’ को मानवी उत्कृष्टता का अविच्छिन्न अंग कह सकते हैं। हिमालय के उच्च शिखर पर जमा हुआ बर्फ पिघल कर निचले क्षेत्र की जल आवश्यकता को पूरा करने के लिए नदी निर्झरों के रूप में बहता है। इस बहाव में प्रकृति की करुणा को बहता हुआ देखा जा सकता है। बादलों में से ऊपर से जल राशि के रूप में यह करुणा ही बहती है। वृक्षों में से पत्र पुष्प और फलों के उत्पादन को अभावग्रस्त आवश्यकता की पूर्ति के लिए करुणा का विकास ही कह सकते हैं। घास इसी उद्देश्य को लेकर उगती और जीवित रहती है कि उससे प्राणियों की क्षुधा पूर्ति का साधन बन सके।
आत्मा का गुण है-आत्मीयता। आत्मीयता का अर्थ है-अपनी विशेषताओं और परिस्थितियों से दूसरों को सजाने, संजोने की प्रवृत्ति। हमें जो वैभव मिला है उसे मिल बाँटकर खाने के लिए यह आत्मीयता ही प्रेरित करती है। अपना आपा शरीर तक सीमित न रहकर जब अधिकाधिक क्षेत्र में विकसित होता है तो उसे आत्म विस्तार कहते हैं। आत्म विकास ही मानव जीवन का लक्ष्य है। अपूर्णता का अर्थ है सीमाबद्धता और पूर्णता का तात्पर्य है सीमा का अधिकाधिक विस्तार। शरीर और परिवार तक सीमाबद्ध रहना उतने ही क्षेत्र के सुख-दुःख में दिलचस्पी रखना यह बताता है कि चेतना को स्वार्थ भरी संकीर्णता ने भव बन्धनों में अवरुद्ध करके रखा है। आत्म विस्तार जिस क्रम से जितना होगा उतनी ही आत्मीयता की परिधि बढ़ती जायगी। जो आत्मीय होते हैं उनके दुःख बंटाने और सुख बढ़ाने की आकांक्षा स्वभावतः उमगती है। जिसके अन्तःकरण में असंख्यों को अपना मानने की भाव चेतना जग पड़े समझना चाहिए कि आत्मीयता की महान आध्यात्मिक विभूति का वरदान इसे उपलब्ध होने लगा।
आत्मा को परमात्मा का पद तब प्राप्त होता है जब वह अपनी लघुता को महानता में विसर्जित करता है और स्वार्थ को परमार्थ की सीमा तक बढ़ाता है। जिसे परमार्थ ही स्वार्थ प्रतीत होने लगे समझना चाहिए उसे आत्म विस्तार का अध्यात्म अनुदान मिलना आरम्भ हो गया। नर को नारायण- पुरुष को पुरुषोत्तम बनने के लिए आत्म-विकास की मंजिल पूरी करनी पड़ती है। सीमित से असीम बनना पड़ता है। ‘‘अपने में सबको और सब में अपने को’’ देखने का दृष्टिकोण ही तत्वज्ञान है। इसी को ब्रह्म-विद्या एवं आध्यात्मिकता का सार कह सकते हैं। पेट प्रजनन की और अहंता की परिधि से ऊँचे उठकर जब संसार के पिछड़ेपन को हटाने के लिए अपने समस्त साधनों को नियोजित करने की करुणा जगे तो समझना चाहिए कि महान मानवता का प्रकाश अन्त:करण में उठा। जब शरीर और परिवार से आगे बढ़कर समस्त संसार को समुन्नत बनाने के लिए सक्रिय सद्भावना उमंगे तो कहना चाहिए मानवी गरिमा का उत्कर्ष हो चला। यही है मानव जीवन का लक्ष्य- जिसे पाये बिना किसी का भी अन्तरात्मा सुखी सन्तुष्ट नहीं हो सकता।