संकीर्ण स्वार्थ परता ही पतन का मूल कारण

September 1976

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क्षुद्र और महान में अन्तर यह होता है कि क्षुद्र व्यक्ति अत्यन्त छोटे दायरे में अपने आपको सीमाबद्ध करके सोचता है और उसी छोटी परिधि में अपनी विचारणाएं, आकाँक्षाएं एवं गतिविधियाँ सीमित रखता है। अपने शरीर को ही प्रायः क्षुद्र व्यक्ति अपना समझते हैं। उसी के व्यसन, मनोरंजन, प्रदर्शन के लिए तरह-तरह के साधन जुटाने में लगे रहते हैं। इन्द्रिय लिप्सा उन्हें परमप्रिय होती है- जीभ का चटोरापन, यौन लिप्सा, उत्तेजन दृश्य और आकर्षक श्रवण, आराम तलबी, मौज-मजा, मस्ती, मटर गश्ती- जैसी शरीर साधना में परायणता होती है कि अपना दूरगामी हित साधन भी दृष्टि से ओझल हो जाता है। स्वास्थ्य खोखला हो चले-अकाल मृत्यु से मरना पड़े इसकी चिन्ता नहीं, लोकनिन्दा, परलोक पतन-जैसे संकट आयें परवाह नहीं-हर हालत में, हर कीमत पर-उचित-अनुचित का विचार किये बिना इन्द्रिय लिप्सा, इन्द्रिय वासना पूरी होती रहनी चाहिए।

जो एक कदम और आगे बढ़ पाते हैं उन्हें स्त्री से यौन लिप्सा एवं रूप आकर्षण के कारण प्रीति हो जाती है। वह बच्चे जनती है। ममता अपने शरीर से बढ़ाकर स्त्री, बच्चों को भी अपनेपन की सीमा में ले आती है। अथवा वे विनोद आकर्षण एवं सुविधा, व्यवस्था के कारण सह्य अभ्यस्त होते-होते आवश्यक बन जाते हैं। ऐसी दशा में भी वे भी किसी कदर अपने जैसे लगते लगते हैं, ममता के बन्धन उनसे भी बंध जाते हैं, मोह उनसे भी जुड़ जाता है, उनके लिए सुविधा, साधन जुटाने-संग्रह जोड़ने-जमाने की बात सोची जाने लगती है। यों गहराई के साथ देखा जाय तो प्रेम उनसे भी नहीं होता। प्रेम का फलितार्थ सदा प्रेमी का हित-साधन करने की ही बात सोचता रहा है। पर क्षुद्र व्यक्ति न तो प्रेम जैसी किसी वस्तु से परिचित होते हैं और न प्रेमी के लिए क्या किया जाना चाहिए यह समझते हैं। स्त्री जिस दिन से घर में आती है उसी दिन से उसका जीवन रस नष्ट भ्रष्ट करने में लगते हैं और कुछ ही दिनों में उसे यौन रोगों की दुर्बलता की आग में जलने के लिए झोंक देते हैं। बच्चे पर बच्चे पैदा करते जाते हैं, यह नहीं सोचते कि इस असहाय अबला के शरीर में कितने प्रजनन करने की-कितनों को दूध पिलाने और पालन करने की शक्ति है। उसके कन्धों पर असह्य वजन लादते हैं और अन्ततः उसका शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य चौपट हो जाता है, जिन्दगी भर कराहते, कलपते दिन गुजारती है। दाम्पत्य जीवन की वफादारी तो थी नहीं, उसके कर्तव्य उत्तरदायित्वों का बोध था नहीं- ऐसी दशा में पत्नी का यौवन उभार ढलते ही इधर-उधर ताक झाँक शुरू हो जाती है। आरम्भिक दिनों में पत्नी के प्रति जो भाव दिखाये गये वे उनके लिए वह बेचारी तरसती ही रहती है। रोटी, कपड़ा दिया जाता रहे बात दूसरी है। घर की रखवाली करने वाली चौकीदारिन जैसा जीवन जीती है। यों कहने को वह अपनी पत्नी है, पर उसके व्यक्तित्व की प्रगति के लिए, स्वावलम्बन एवं स्वास्थ्य विकास के लिए सोचने की कभी आवश्यकता नहीं समझी गई। उससे अधिक से अधिक लाभ उठाना बस इतना ही दृष्टिकोण रहा। ऐसी दशा में गम्भीरता से देखा जाय तो अपनी वास्तविक ममता पत्नी के प्रति भी नहीं थी। मूल में तो अपने ही शारीरिक स्वार्थ काम करते थे। पत्नी तो उनकी पूर्ति का निकटवर्ती माध्यम मात्र रही।

यही बात बच्चों के सम्बन्ध में है। उन्हें खिलाने, पिलाने, अमीरी, ठाट-बाट, सजाने में रुचि इसलिए रही कि अपनी अमीरी की छाप दूसरों पर पड़े और अपने अहंकार की पूर्ति होती रहे। बच्चों के व्यक्तित्व का विकास अभिभावकों के प्रगाढ़ स्नेह पर निर्भर रहता है। उन्हें जैसा बनाना, ढालना हो उसके लिए घर का वातावरण विनिर्मित करना पड़ता है। अपने को वैसा ही साँचा बनना पड़ता है जिसमें ढलकर बच्चे सुसंस्कृत बन सकें। बालकों को दिया जा सकने वाला सबसे महत्वपूर्ण उपहार यही हो सकता है कि अभिभावक उन्हें गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता प्रदान करे उन्हें सुसंस्कृत बनायें। यह प्रयोजन उन्हें किसी महंगे स्कूल में भेजने से पूरा नहीं हो सकता। अभिभावक स्वयं उस प्रकार के साँचे बनें और बालकों को उसमें ढालें तो ही उनका वास्तविक हित साधना हो सकता है। सुसंस्कारी बालक अपनी प्रतिभा से स्वावलम्बी जीवन जी सकते हैं अनेकों को सहारा दे सकने योग्य हो सकते हैं। कुसंस्कारी सन्तान के लिए दौलत छोड़ मरना उन्हें दुर्गुणी, दुर्व्यसनी और आत्मघाती बनाने का ही पथ प्रशस्त करना है।

आमतौर से क्षुद्र मनुष्य स्त्री बच्चों के साथ ऐसी ही दुष्ट ममता का परिचय देते हैं। नस-नस में भरी क्षुद्रता उन्हें इससे आगे की बात सोचने ही नहीं देती। स्त्री पर वासना का दबाव-औलाद पर दौलत का दबाव वस्तुतः उनके साथ अपराध भरा आचरण ही है, पर क्षुद्र मनुष्य इसी को उन पर लादा गया अहसान मानते हैं। प्रेम तत्व का यदि ज्ञान रहा होता तो स्त्री, बच्चे ही प्रेम भाजन बनकर थोड़े ही रह जाते। तब माता-पिता, भाई-बहिन भी उसी परिधि में आते और वह ममता, प्रेम-भावना, सहायता परिवार के अन्य लोगों को भी उपलब्ध रही होती। मित्र, परिचित, पड़ौसी अन्य लोग भी उससे लाभ उठाते। अभावग्रस्तों और पिछड़े लोगों को भी उस उदारता का लाभ मिलता। पर क्षुद्रता ने कभी ऐसा करने नहीं दिया। जो कुछ सोचा गया, जो कुछ किया गया अत्यन्त छोटी स्वार्थ संकीर्णता की परिधि में ही सीमित रहा।

उपार्जन, श्रम, व्यवसाय में भी जब संकीर्ण स्वार्थ का आधिपत्य रहता है तब वह कर्तव्य, धर्म, नीति, न्याय, औचित्य आदि का तनिक भी विचार नहीं करता। पिटाई से बचने की तरकीबें ढूँढ़ कर वह हर प्रकार के छल, कुकर्म करने में निरत रहता है। दूसरों पर क्या बीतेगी इसकी परवाह किये बिना अपना ही लाभ कमाते रहने का नाम ही अपराध प्रवृत्ति है। चोर, डाकू, उचक्के, ठग यही सब तो करते हैं। जो दुस्साहसपूर्वक यह कर गुजरते हैं और पकड़े जाते हैं उन्हें अपराधी कहते हैं। जो चतुरता से- लुक-छिपकर यही सब करते रहते हैं उन्हें क्रिया कुशल और बुद्धिमान कहा जाता है। आज हर व्यवसाय में-हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार संव्याप्त है। इसका कारण कोई ऐसी मजबूरी नहीं है जिससे ऐसा करने के लिए विवश ही होना पड़े, वरन् वह क्षुद्रता है जो अपने शरीर के अतिरिक्त और किसी को भी-यहाँ तक कि अपने जीवन-लक्ष्य और परलोक को भी अपना नहीं मानने देती। तात्कालिक भौतिक और निजी लाभ ही सब कुछ रहता है। अपने मन की परिधि इतनी ही छोटी रहती है। यह क्षुद्रता ही नर-कीटकों की, नर-पशुओं की, पतित पामरों की निशानी है। आज शिक्षित और अशिक्षित, सम्पन्न और विपन्न सब इसी नरक में सड़ रहे हैं।

समस्त पापों की, समस्त विग्रहों की, समस्त उलझनों की जननी यह क्षुद्रता ही है। यह जब तक जन मानस में बसी और घुसी रहेगी तब तक क्षण-क्षण में- पग-पग पर विविध आकार-प्रकार की समस्याएं और विपत्तियाँ सामने आती रहेंगी। यदि सुख-शान्ति की अपेक्षा हो तो भावना क्षेत्र में जमी हुई इस विष वेलि की जड़ उखाड़नी पड़ेगी। मनुष्य को अधिक विस्तृत-अधिक व्यापक, अधिक उदार, अधिक दूरदर्शी बनाना पड़ेगा। अध्यात्म का-धर्म का समस्त ढाँचा इस एक ही प्रयोजन के लिए खड़ा किया गया है। उपासना और साधना की, प्रक्रिया व्यक्ति की मनःस्थिति को व्यापक बनाने के लिए ही रची गई है। आत्मवत् सर्वभूतेषु की, विश्व परिवार की मान्यता ही आत्म विस्तार का आत्म कल्याण का प्रयोजन पूरा करती है। व्यक्तिगत सुख-सुविधा को पद दलित करके उन्हें परमार्थ प्रयोजनों के लिए नियोजित करना इसी का नाम परमार्थ साधना है। व्यक्ति का स्वार्थ जितना व्यापक होता है उतना ही वह परमार्थी बनता है। परमार्थी को ही ईश्वरभक्त, अध्यात्मवादी, महामानव तत्वदर्शी आदि का दूसरा नाम दिया जाता है। आत्मा का दायरा जिसने असीम बना दिया-परम कर लिया वही परमात्मा है। जिसने संकीर्ण स्वार्थपरता से छुटकारा पा लिया समझना चाहिए उसे जीवन मुक्ति का लाभ मिल गया।

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