व्यावहारिक वेदान्त

September 1976

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पूर्वी बंगाल में उन दिनों भयंकर अकाल पड़ रहा था। दैन्य, दारिद्रय और अभावग्रस्त लोग अनाज की उपज कम होने के कारण अपनी क्रय शक्ति खो बैठे थे। थोड़ा बहुत अनाज जो बाहर से आ रहा था वह धनाढ्य व्यक्ति महंगे दामों पर खरीद लेते थे। गरीबों के पल्ले विवशता ही रहती थी। कमजोर, भूखे और निराश लोगों में फिर महामारी फैली और लोग धड़ाधड़ कीड़े-मकोड़ों की तरह मरने लगे।

ऐसी स्थिति में स्वामी विवेकानन्द ने अपना सार प्रचार कार्य स्थगित कर दिया और अपने गुरु भाइयों के साथ पीड़ित मानवता की सेवा में जुट गये। सम्पन्न लोगों का हृदय परिवर्तन करने तथा पीड़ित लोगों के लिए अन्न, वस्तु जुटाने में उन्होंने न केवल रात-दिन एक कर दिये वरन् दूर-दूर नगर भी नाप डाले। उस समय स्वामी जी ढाका में थे।

वहां उन्हीं दिनों कुछ वेदान्ती पण्डित स्वामी जी के पास शास्त्रार्थ करने के लिए आये। पण्डितों की इच्छा थी कि विदेशों में भी भारतीय धर्म और वेदान्त की विचारधारा की दुन्दुभि बजाने वाले इस तेजस्वी स्वामी को हम शास्त्रार्थ में परास्त कर दें और इसी प्रकार विश्व ख्याति की लब्धि कर लें।

स्वामी जी पण्डितों के मनोभाव ताड़ गये थे और चाहते तो शास्त्रार्थ द्वारा उन्हें करारा उत्तर भी देते। पर उनके सामने तो पीड़ित मानवता की सेवा प्रमुख लक्ष्य था। अतः उन्होंने विषयान्तर करते हुए कहा- ‘‘जब में ‘अकाल’ से लोगों को मरते हुए देखता हूं तो मेरी आंखों में आंसू उमड़ आते हैं। भगवान की भी क्या लीला है और क्या इच्छा?’’

सुनकर आये सभी पण्डित एक दूसरे की ओर देखने लगे। स्वामी जी समझते थे कि इन अभिमानी पण्डितों पर इस सीधी-साधी बात की यही प्रतिक्रिया होगी। फिर भी उन्होंने पूछा- ‘‘भला मैंने ऐसी कौन-सी बात कह दी है जिसे सुनकर आप मुस्करा रहे हैं।’’

एक पण्डित जोर से ठठाकर हंस उठा और बोला- ‘‘स्वामी जी! हम तो समझते थे कि आप वीतराग संन्यासी हैं। सांसारिक दुःख-सुख से ऊपर हैं, लौकिक घटनाएं आपको छू नहीं पातीं। लेकिन आप तो इस नाशवान प्राण के लिए आंसू बहाते हैं, जो आत्मा के निकल जाने पर मिट्टी से भी गया बीता है।’’

स्वामी जी उक्त पण्डित का तर्क सुनकर देखते रह गये। फिर उन्होंने क्रोधित होने का अभिनय करते हुए कहा- ‘‘आप स्वयं को दिग्गज वेदान्ती मानते हैं न, तो लीजिए में आज आपकी परीक्षा लेता हूं।’’

यह कहकर उन्होंने अपने पास उखा हुआ दण्ड उठाया- ‘‘यह दण्ड है और मैं इससे आपके शरीर पर प्रहार करूंगा। यह दण्ड आपके शरीर को ही छुएगा। आत्मा को तो स्पर्श करेगा ही नहीं। केवल नश्वर देह को ही मारेगा। अगर आप यथार्थ में पण्डित हैं तो अपनी जगह से जरा भी मत हिलना।’’ स्वामी जी को क्रोधित देखकर वे सब भाग गये।

उनके चले जाने के बाद स्वामी जी ने अपने शिष्यों से कहा- ‘‘आत्मा की पूजा ही वेदान्त धर्म है। पर आत्मा को पूजना तो दूर कोई उसके दर्शन तक नहीं कर सकता और फिर वेदान्ती तो सब में अपनी सुख-सुविधाओं का ध्यान रखते हैं उसी प्रकार दूसरों के सुख-दुःख का भी ध्यान रखना चाहिए। अपना-पराया भूलकर प्राणि मात्र की मंगल-कामना और हित-साधना करनी चाहिए। सिद्धान्तों के शब्द जाल में उलझकर व्यक्ति ज्ञानी तो नहीं अभिमानी जरूर बन जाता है और एक साधक को अभिमान से वैसे ही दूर रहना चाहिए जिस प्रकार जल से कमल।’’

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