हमारी प्रशिक्षण प्रक्रिया का अगला चरण

September 1976

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शान्तिकुँज की सत्र शिक्षण योजना के अंतर्गत प्रथम पाँच वर्षों में प्रायः दस हजार व्यक्तियों ने आत्म-निर्माण और लोक-कल्याण की शिक्षा ग्रहण की है। परिवार की जागृत आत्माओं को-अन्तःकरण को उत्कृष्टता की दिशा में अग्रसर करने और गतिविधियों में लोक-मंगल के आदर्शों का अधिकाधिक समावेश करने का प्रशिक्षण दिया गया है। मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का लक्ष्य पूरा करने के लिए यही प्रथम चरण है कि जागृत आत्माएं दीपक की तरह स्वयं ज्योतिर्मय बनें और अपने प्रकाश से सम्पर्क क्षेत्र में आलोक उत्पन्न करें। इसी प्रयोजन के लिए गत वर्षों में (1) एक वर्ष के कन्या शिक्षण सत्र (2) एक महीने के महिला शिविर (3) दस दिन की जीवन साधना शिक्षा (4) एक महीने के वानप्रस्थ शिविर चलते रहे हैं। इस आरण्यक शिक्षा-पद्धति के सत्परिणाम देखते हुए निकटस्थ व्यक्ति को यह विश्वास उत्पन्न हुआ है कि व्यक्ति, परिवार और समाज का नवनिर्माण करने के लिए इस प्रकार की शिक्षण प्रक्रिया से बढ़कर युग परिवर्तन का आरम्भिक प्रयास और कोई हो ही नहीं सकता।

साधना स्वर्ण-जयन्ती वर्ष में इस शिक्षण प्रक्रिया का स्तर और भी ऊँचा उठा दिया गया है। यह सत्र तो भविष्य में भी जारी रहेंगे, पर उनके छात्रों की पात्रता को अधिक परखने के बाद ही प्रवेश दिया जायगा और जो आवेंगे उनके प्रशिक्षण में प्रकाश के अतिरिक्त प्रेरणा तत्व का अधिक मात्रा में समावेश रहेगा। प्रकाश से तात्पर्य है बौद्धिक शिक्षण-ज्ञान सम्पदा का अभिवर्धन। स्वाध्याय और सत्संग से इसी प्रयोजन की पूर्ति होती हैं। लेखनी और वाणी द्वारा-दृश्य और श्रव्य माध्यम द्वारा जानकारियों का विस्तार और बुद्धिबल का विकास होता है। तथ्यों की जानकारी मिलने से दिशा निर्धारण में सहायता मिलती है अस्तु प्रकाश प्रयोजन के लिए विभिन्न स्तर की शिक्षा प्रक्रिया चलती है अपने स्तर की शिक्षा देने में शान्तिकुँज ने पिछले सत्रों में इसी आवश्यकता की पूर्ति की है।

यों साधना की-प्रेरणा की गरिमा को आरम्भ से ही समझा गया है और प्रकाश प्रशिक्षण के साथ उसे जुड़ा रखने का प्रयास निरन्तर किया गया है। वह शान्तिकुँज की शिक्षण प्रक्रिया आरम्भ करते समय यह निश्चय किया गया था कि अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति दो खण्डों में पूरी हो सकेगी। इसलिए उसके लिए दो पाठ्य-क्रम निर्धारित किये जायं। भूमि जोतने और बीज बोने की प्रक्रिया में यों परस्पर सम्बन्ध है, पर किसान उसे एक-एक करके दो बार में सम्पन्न करता है। प्रथम पाँच वर्षों में शान्तिकुँज की शिक्षण प्रक्रिया प्रकाश प्रधान रही है। उसमें सद्ज्ञान संवर्धन के उद्देश्य से आवश्यक उद्बोधन देने की बात को प्रमुखता दी गई। यह कृषि को जोतने जैसा एक चरण पूरा हुआ।

आगामी पाँच वर्षों में दूसरे-प्रेरणा पक्ष की-प्रधानता रहेगी। पिछले दिनों शिक्षार्थियों का अधिकाँश पाठ्यक्रम में अधिकाँश क्रिया-कलाप के लिए निर्धारित था। अगले दिनों साधना प्रयोजनों की प्रमुखता रहेगी। शिक्षार्थियों को योग-साधना एवं तपश्चर्या में निरत रहना पड़ेगा। प्रथम पाँच वर्षों में शान्तिकुँज के आरण्यक का प्रशिक्षण स्कूली स्तर का समझा जा सकता है और इस प्रकार सोचा जा सकता है कि अब वह कालेज स्तर में परिणत हो चला। उसमें साधना प्रक्रिया पर जोर दिया जायगा, शिक्षण का यों समावेश तो रहेगा, पर उसे उतना ही पर्याप्त मान लिया जायगा जितना अभीष्ट प्रयोजन के लिए नितान्त आवश्यक है।

साधना स्वर्ण-जयन्ती वर्ष में ही शान्तिकुँज की द्वितीय पंचवर्षीय योजना आरम्भ हो रही है उसमें कई अति महत्वपूर्ण कार्यों को हाथ में लिया गया है। अब तक ‘धर्म मंच में लोक-शिक्षण’ की प्रक्रिया हिन्दू धर्म की प्रयोगशाला में ही प्रयुक्त होती रही है। अब उसका कार्यक्षेत्र विश्व के अन्य प्रमुख धर्मों की परिधि में विस्तृत किया जायगा। इसके लिए लगभग वैसा ही प्रस्तुतीकरण और प्रसार अभियान व्यापक रूप से चलाना पड़ेगा जैसा कि अब तक हिन्दू धर्म के क्षेत्र में चलता रहा है। अब तक हिन्दी भाषा ही अपने विचार विस्तार का प्रमुख माध्यम रही है। हिन्दी भाषी क्षेत्र में ही युग-निर्माण विचारधारा का प्रसार सम्भव हो सका है। अब क्षेत्र विस्तार की दिशा में कदम बढ़ने हैं तो स्वभावतः अन्य भाषाओं का भी आश्रय लेना पड़ेगा। अपनी द्वितीय पंचवर्षीय योजना में इन दो कार्यों के अतिरिक्त यज्ञ प्रक्रिया की वैज्ञानिक शोध भी एक बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है। पिछले दिनों यज्ञीय परम्परा को वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन में अधिकाधिक स्थान दिलाने के लिए यज्ञ विज्ञान को बौद्धिक एवं भावनात्मक उत्कर्ष का माध्यम बनाया जाता रहा है। अब उसे मानसिक और आत्मिक क्षेत्र में घुसी हुई आधि-व्याधियों के निराकरण का समर्थ माध्यम बनाया जाना है। भौतिक कठिनाइयों-वैयक्तिक विकृतियों का समाधान करने में यज्ञ विज्ञान किस प्रकार, किस सीमा तक समर्थ हो सकता है यह अनुसंधान अगले ही दिनों किया जाना है। शास्त्रीय फलश्रुतियाँ बताते रहने से आज का तर्कवादी मस्तिष्क किन्हीं तथ्यों को स्वीकार नहीं कर सकता। श्रद्धा के पोषण में पहले भी विवेक का समन्वय किया जाता था अब तो प्रत्यक्षवाद की कसौटी पर कसे बिना कुछ भी गले नहीं उतरता। ऐसी दशा में चेतना पर चढ़ी हुई मलीनताओं को निरस्त करने में स्वर्णकार की भट्टी की तरह ही यज्ञ प्रक्रिया का प्रयोग करना पड़ेगा। व्याधियों के निराकरण में होम्योपैथी, एलोपैथी, आयुर्वेदिक, बायोकैमीक, नैचरोपैथी आदि अनेक चिकित्सा पद्धतियाँ प्रचलित हैं। वे शरीर को रोग मुक्त करने का दावा करती हैं। हमें चेतना को रुग्ण बनाने वाले कषाय-कल्मषों के निवारण में ‘यज्ञ पैथी’ का आश्रय लेना पड़ेगा। पर आज की स्थिति में युग के अनुरूप उन पुराने प्रयोगों को नये रूप में किस प्रकार परिष्कृत किया जा सकता है यह गम्भीर शोध का जटिल विषय है। अगले दिनों ऐसे ही अनेक महत्वपूर्ण कार्यों में जीवन का बचा खुचा समय प्रयुक्त होना है। प्रवासी भारतीयों के लिए संस्कृति के ऐसे प्रहरी तैयार करने हैं जो इन भारत माता के लालों को अपनी माता के साथ भावनात्मक रूप में जुड़ा रखने के लिए अपने को खपा सकें।

यह सब तो वे कार्य हैं जिनमें कुछेक प्रतिभाओं के सहचरत्व में हमें सम्पन्न करना है। व्यापक कार्य यह है कि अपने लाखों परिजनों में से कुछ हस्तियाँ ऐसी छोड़कर जायं जो आध्यात्मिकता की क्षमता, उपयोगिता को अपने विकसित व्यक्तित्व के सहारे प्रमाणित करते रह सकें। इसके लिए उपयुक्त पात्रों की खोज का प्रथम चरण पिछले पाँच वर्ष में पूरा हुआ है। एक प्रकार से यह “इन्टरव्यू” था। इसमें जाग्रत आत्माओं को निकट से देखने और परखने का अवसर मिला। आदान-प्रदान का उपयोगी उपक्रम भी चला। अब उपयुक्त समझे गये व्यक्तियों की नियुक्ति होनी है और कार्य सँभालने के लिए ट्रेनिंग मिलनी है। संक्षेप में अगले पाँच वर्ष तक शांतिकुंज में चलने वाली शिक्षण प्रक्रिया का यही आधार एवं उद्देश्य समझा जा सकता है।

पिछले दिनों जो सत्र चलते रहे हैं उनके नाम तो वही रहेंगे, पर समूची शिक्षा का उन्हें उत्तरार्द्ध कहा जा सकेगा। जो लोग पिछले पाँच वर्षों में आ चुके हैं उन्हें अगले पाँच वर्षों में भी उत्तरार्ध पूरा करने के लिए अवसर मिल सकेगा। एम0 ए0 दो वर्षों में होती है। दोनों के परीक्षा अंक जुड़ते हैं और उनके योग पर उत्तीर्ण होने की घोषणा होती है। अस्तु इन पंक्तियों द्वारा उन सभी शिक्षार्थियों को आमन्त्रित किया जाता है जो प्रकाश की तरह प्रेरणा की भी-ज्ञान की तरह शक्ति की भी आवश्यकता अनुभव करते हैं।

इन सत्रों में शिक्षण का स्तर व्यावहारिक मार्ग-दर्शन से ऊँचा उठाकर आध्यात्मिक आधार पर चेतना की मूल सत्ता को परिष्कृत करने की विवेचना के साथ जोड़ दिया जायगा। साधना प्रमुख रहेगी। दस दिवसीय सत्रों में गायत्री अनुष्ठान अनिवार्य होगा और एक महीने के वानप्रस्थ सत्रों में पुरश्चरण करना होगा। इसके अतिरिक्त व्यक्ति की स्थिति और आवश्यकताओं को देखकर तदनुरूप अन्य साधनाएँ अन्तःकरण की चिकित्सा स्तर पर कराई जायेंगी। यह साधनाएँ ‘योग’ विज्ञान के अन्तर्गत आती हैं। राजयोग, हठयोग, लययोग, प्राणयोग, कुण्डलिनी योग जैसी उपासना परक और ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग जैसी भावना पर कितनी ही साधनाएँ हैं जो पात्रता और स्तर के अनुरूप बताये और अपनाये जाते हैं। मनःस्थिति का निर्माण इसी आधार पर सम्भव होता है। बौद्धिक शिक्षण तो उसकी पृष्ठभूमि भर बनाता है।

साधना का दूसरा चरण होगा ‘तप’। तप का अर्थ है-शारीरिक सुविधाओं और मन की ललक लिप्साओं पर कठोरतापूर्वक अंकुश नियन्त्रण की स्थापना। कष्टसाध्य तितीक्षाएँ इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए होती हैं, स्पष्ट है कि तपाने की गर्मी से हर वस्तु में प्रखरता और परिपक्वता आती है। कच्ची ईंटें पकाने से चिरस्थायी बनती हैं। कुम्हार के बर्तन अवे में पककर ही सुदृढ़ बनते हैं। आयुर्वेदीय रसायनों एवं भस्मों में अग्नि संस्कार ही मुख्य है। सामान्य पानी जब आग के सम्पर्क से भाप बनता है तो रेलगाड़ी के इंजन को दौड़ाने लगता है। मिट्टी मिला कच्चा लोहा भट्टियों में गरम किये जाने पर ही शुद्ध बनता और फौलाद के रूप में विकसित होता है। सोने का खरापन आग में तपने पर ही प्रमाणित होता है। प्राचीन काल के आत्मबल सम्पन्न महामानव तप शक्ति से ही महात्मा, देवात्मा एवं परमात्मा बन सकने में समर्थ हुए। तप से आत्मबल बढ़ता है और उसकी परिणित अनेकानेक सिद्धियों तथा चमत्कारों में देखी जाती है। आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ देने में तप वही काम करता है जो दो धातु खंडों को तपाकर एक बना देने में ‘वैल्डिंग’ उपचार काम करता है। तलवार पर धार चढ़ाने में अग्नि संस्कार की आवश्यकता होती है और व्यक्तित्व को निखारने में तप से अद्भुत परिणाम उत्पन्न होता है। पार्वती ने तप बल से ही शंकर की पत्नी बनने में सफलता पाई थी। भागीरथ तप से ही गंगा लाये थे। तपस्वी दधीच की अस्थियों से वज्र बना था। सप्त ऋषियों का वर्चस्व उनकी तप साधना के कारण ही निखरा था। आज भी वह सनातन तथ्य अपने स्थान पर जहाँ का तहाँ मौजूद है।

सोचा गया है जिस आधार पर हमें कुछ बनने और कुछ करने की सफलता मिली उस कष्टसाध्य तपश्चर्या का कुछ-कुछ अनुभव उन शिक्षार्थियों को भी कराया जाय जिनसे हमें कुछ अपेक्षा है अथवा जो हमसे कुछ आशा करते हैं। तप प्रक्रिया को हटा देने पर हमारे निज के जीवन में कुछ बच ही नहीं रहता। प्रकरण कष्टसाध्य और अरुचिकर हो सकता है, पर महत्वपूर्ण उपलब्धियों के लिए इससे कम मूल्य चुकाने से बात बनती भी तो नहीं है। अस्तु अगले दिनों जीवन-साधना और वानप्रस्थ सत्रों के साथ प्रकाश अनुदान के लिए ब्रह्म-विद्या स्तर के प्रशिक्षण-मनोनिग्रह के लिए योगाभ्यास तथा प्रसुप्त दिव्य शक्तियों के जागरण के लिए तपश्चर्या का त्रिविधि समन्वय बनाकर चला जायगा। इस त्रिवेणी संगम से कुछ महत्वपूर्ण परिणाम दृष्टिगोचर हो सकेंगे यह सुनिश्चित है।

अगले दिनों शान्तिकुँज में आने वाले शिक्षार्थियों को कष्टसाध्य नियन्त्रित एवं कठोर अनुशासन का पालन करने के लिए तैयार होकर आना चाहिए। तप साधना में - (1) मात्र गंगाजल ही पीना (2) स्थिति के अनुरूप व्रत उपवास (3) हविष्यान्न एवं आंवला कल्प का सेवन (4) मौन (5) नंगे पैर रहना (6) अपनी शारीरिक सेवाएँ करना (7) भूमि शयन (8) ब्रह्मचर्य पालन (9) आश्रम की स्वच्छता के निमित्त श्रमदान (10) निर्धारित दिनचर्या का बिना आलस्य-प्रमाद के परिपालन। मुख्यतया यही दस तप साधन हैं जो साधकों की स्थिति के अनुरूप बताये कराये जायेंगे।

जीवन-साधना सत्रों में पिछले दिनों जिन्दगी जीने की कला का सिद्धान्त पक्ष समझाया जा चुका है अगली बार उनमें व्यावहारिक क्रिया-कलाप की सुनिश्चित रूपरेखा व्यक्ति विशेष की परिस्थितियों को देखते हुए बना दी जायगी। वानप्रस्थ सत्रों में धर्म-तन्त्र से लोक-शिक्षण के लिए कथा, प्रवचन, पर्व, संस्कार, यज्ञ कर्मकाण्ड आदि का अभ्यास कराया जाता रहा है। उन प्रयोजनों को अधिक प्रभावशाली कैसे बनाया जा सकता है, यह उत्तरार्ध में अगली बार सिखाया जायगा। वानप्रस्थ स्तर के लोग, साधु व ब्राह्मण की उभय-पक्षीय प्रक्रिया का समन्वय करते हैं और आत्म-निर्माण तथा समाज निर्माण की अति महत्वपूर्ण भूमिका सम्पादित करते हैं। यह सब किस प्रकार सम्भव हो सकता है इसके मार्मिक प्रशिक्षण की विधि-व्यवस्था इन सत्रों में सम्मिलित होने वालों को पूरी तरह ध्यान में रखते हुए पृथक-पृथक प्रकार की बनाते रहने का क्रम चलाया गया है।

इन जटिलताओं का समावेश हो जाने से पिछले दिनों जो भीड़-भाड़ शिविरों में रहा करती थी वह स्वभावतः घट जायगी। जिन्हें वस्तुतः आत्मोत्कर्ष में ठोस रुचि होगी वे ही आने का साहस करेंगे। इससे हमारी भी एक बड़ी कठिनाई दूर होगी। तीर्थयात्रा, पर्यटन आदि का मनोरंजन करने वाले सैलानी अक्सर सत्रों की आड़ में यहाँ घुस पड़ते हैं। शिक्षार्थी अपने साथ अड़ौसी-पड़ौसी, नाते-रिश्ते वाले, तथा स्त्री-बच्चे लेकर आ धमकते थे और इस आश्रम के तपोवन को धर्मशाला तथा अन्य क्षेत्र की तरह प्रयुक्त करने का आग्रह करते थे। दुख कष्टों की निवृत्ति का आशीर्वाद अनुदान पाने के लिए तथा कौतूहल शान्ति करने वाले दर्शनार्थी मात्र परामर्श करके ही विदा नहीं होते थे। यहीं अड्डा डालकर कितने ही दिन रहना भी चाहते थे। स्पष्ट है इन अनचाहे अतिथियों से आश्रम व्यवस्था में भारी अव्यवस्था फैलती थी और तपोवन का गौरव स्तर तथा अनुशासन बेतरह गिरता था। हमारे लिए ऐसे प्रसंग साँप, छछूँदर जैसे असमंजस में डालने वाले होते रहे हैं। गरम दूध न पीते बनता था न उगलते। अनचाहे अतिथियों को ठहरने देने और न ठहरने देने में भारी धर्म संकट का सामना करना पड़ता था और उस उलझन से निपटने के लिए कोई हल निकालना और सन्तुलन बनाये रहना अति कठिन पड़ता था। अब भावी सत्रों में साधना की कठोरता जुड़ जाने से घुसपैठियों का प्रवेश पा सकना सम्भव न रहेगा और जो नर-नारी वस्तुतः अभीष्ट प्रयोजन के लिए आने वाले होंगे उन्हीं की व्यवस्था हमें करनी पड़ेगी।

परिवर्तित शिक्षण प्रक्रिया इन्हीं दिनों आरम्भ की जा रही है। सितम्बर का वानप्रस्थ सत्र तथा अक्टूबर से आरम्भ होने वाले दस दिवसीय सत्र इसी नये स्तर के अनुरूप होंगे तथा भविष्य में भी इसी आधार पर चलते रहेंगे। यों भावी योजना इस प्रयोजन के लिए अलग आश्रम बनाने की है। विधिवत् ‘आरण्यक’ विधि-व्यवस्था उसी में चलेगी। उसका नामकरण ‘ब्रह्मवर्चस’ सोचा गया है। इसके लिए शान्तिकुँज के समीप ही जमीन खरीदने की तैयारी चल रही है। कुछ कठिनाइयों से यह प्रगति धीमी है। देर लगे तो उसके लिए नये चरण रोके नहीं जा सकते। वर्तमान आश्रम का ही उस प्रयोजन के लिए वैसा ही उपयोग होता रहेगा जैसा कि अब तक होता रहा है। मत्स्यावतार की तरह महिला जागृति अभियान की बढ़ती हुई गतिविधियों के लिए यह इमारत भी कम पड़ रही है ऐसी दशा में ‘ब्रह्मवर्चस् आरण्यक’ का अलग आश्रम तो देर सवेर में बनेगा ही, पर अभी तो जैसा कुछ चलता रहा है वैसा ही चलेगा।

आवेदन पत्र हाथ से लिख कर भेजा जा सकता है। उसके आरम्भ में मोटे अक्षरों एवं लाल स्याही से यह लिखा जाना चाहिए कि किस सत्र की किन तारीखों में आने की इच्छा प्रकट की गई है।

अब तक के आवेदन पत्रों में (1) शिक्षार्थी का नाम (2) पूरा पता (3) शिक्षा (4) व्यवसाय (5) आयु (6) जन्म-जाति (7) शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के सही होने की घोषणा (8) 14 वर्ष से कम आयु के बालकों को सत्रों में न लाने के प्रतिबन्ध तथा बिना स्वीकृति वालों को घसीट लाने की रोकथाम पर सहमति। इन आठ बातों का उल्लेख रहता था। अब नये आवेदन पत्रों में कुछ प्रश्न और जोड़ दिये गये हैं (9) पिछले किसी सत्र में शान्तिकुँज आ चुके हों तो उसका उल्लेख (10) अब तक के जीवन क्रम में घटित हुई भली बुरी किन्तु महत्व की घटनाओं का विस्तृत विवरण (11)सामने प्रस्तुत समस्याओं एवं कठिनाइयों की जानकारी (12) भविष्य के लिए मन में उठने वाली आकांक्षाओं एवं क्रिया-कलापों की झलक तथा तैयारी। (13) अब तक की की गई साधनाओं का विवरण तथा निष्कर्ष। इन दिनों इस दिशा में जो किया जाता हो उसका परिचय। पुराने आठ और नये पाँच कुल तेरह प्रश्नों के उत्तर आदि कागज पर लिख कर भेजे जाने चाहिए और स्वीकृति मिलने पर नियत समय पर पहुँचने की तैयारी करनी चाहिए। यदि किसी कारणवश समय पर पहुँचना सम्भव न हो सके अथवा तारीख बदलवाना हो तो समय से पूर्व ही उसकी सूचना दे देनी चाहिए ताकि उस खाली स्थान का लाभ किसी अन्य साधक को मिल सके। भोजन व्यय एक महीने का 70) और दस दिन का 25) है। यह शिक्षार्थी को स्वयं ही वहन करना चाहिए और आते ही जमा कर देना चाहिए।

परिजनों की कन्याएँ एक वर्ष के और महिलाएँ एक महीने के शिविरों में आती रही हैं। वे सत्र भविष्य में भी यथावत चलते रहेंगे। अगले वर्ष के लिए उनके आवेदन पत्र जनवरी से ही भेज देने चाहिए ताकि समय से पूर्व ही स्वीकृति प्राप्त करके स्थान सुरक्षित करा लिया जा सके। इस वर्ष मई जून में जितने आवेदन पत्र भेजे थे उन्हें सभी सीटें पहले से भर जाने के कारण स्वीकृति न दी जा सकी। सीमित स्थान और आवेदनों की अधिकता वाली कठिनाई कन्याओं और महिलाओं के प्रशिक्षण में भी रहती है। अस्तु देर से चेतने वालों को निराश ही होना पड़ता है।

स्तर ऊँचा उठाने वाला प्रयोग कन्याओं और महिलाओं के सम्बन्ध में भी किया जायगा बहुत छोटी आयु न्यून शिक्षा तथा बौद्धिक विकास की कमी वाली छात्राओं को न लिया जा सकेगा। ऐसी प्रतिभावान छात्राओं के प्रशिक्षण की आवश्यकता है जो व्यक्तिगत उत्कर्ष के साथ साथ नारी जागरण के लिए कुछ करने की भावनाओं से ओत-प्रोत हों।

जिनके पारिवारिक उत्तरदायित्व हलके हों-पूरे हो चूके अथवा है ही नहीं-ऐसी महिलाओं के लिए नारी उत्थान के लिए कुछ महत्वपूर्ण कार्य कर सकना अधिक अच्छी तरह संभव हो सकता है। ऐसी छात्राओं को इस आशा से प्राथमिकता दी जायगी कि सम्भवतः वे युग की पुकार को पूरी करने के लिए महिला जागरण अभियान में कुछ अधिक योगदान दे सकेंगी। इसी प्रकार जिनके विवाह में बहुत उतावली न हो रही हो उन्हीं का कन्या शिक्षण में आना अधिक सार्थक है। इन तथ्यों को अगले वर्ष कन्याओं और महिलाओं को स्वीकृति में प्रमुखता देते हुए ध्यान में रखा जायगा। इस प्रशिक्षण का लाभ जन-कल्याण के लिए उपलब्ध हो सके तो ही उसकी सार्थकता है। व्यक्तिगत लाभ तक ही जिस शिक्षा का सीमा बन्धन बना रहे तो उसका उतना महत्व नहीं जिस पर सन्तोष व्यक्त किया जा सके।

जीवन साधना और वानप्रस्थों के लिए न्यूनतम समय तो घोषित कर ही दिया गया है, पर जिनकी आकाँक्षा एवं पात्रता होगी वे विशेष अध्ययन एवं विशेष साधना के लिए अधिक समय भी यहाँ ठहर सकेंगे। कुछ पारिवारिक उत्तरदायित्वों से निवृत्त व्यक्ति आजीवन परमार्थ प्रयोजनों में निरत रहना चाहते हैं। ऐसे लोगों के व्यक्तित्व यदि समाज सेवा के उपयुक्त सिद्ध हुए तो उन्हें देर तक इधर रुकने की स्वीकृति दी जा सकती है। लोक मंगल के लिए समर्पित जीवनों का स्वागत करने के लिए अपने मिशन का द्वार सदा से खुला है। उनके ब्राह्मणोचित स्तर के निर्वाह की व्यवस्था भी यहाँ मौजूद है, पर ऐसे समर्पण स्वीकार तभी होंगे जब उन्हें कई कसौटियों पर परख कर खरा मानने की स्थिति सामने आ जायगी।

कुछ लोग पारिवारिक उत्तरदायित्वों से निवृत्त होकर किसी शान्त एवं प्रकाशपूर्ण वातावरण में शेष जीवन बिताने के इच्छुक होते हैं। रिटायर पेन्शनर तथा जिनके पास अपने गुजारे के दूसरे प्रबन्ध हैं वे आरम्भ से ही यह अनुरोध करते रहे हैं कि उन्हें शान्तिकुँज में स्थायी निवास का अवसर दिया जाय। स्थानाभाव के कारण अब तक उन्हें मना ही किया जाता रहा है, पर अब ऐसी स्थिति बन चली है जिसमें कुछ चुने हुए लोगों को यहाँ स्थायी निवास की स्वीकृति दी जा सके। अस्तु इस प्रकार की इच्छा वाले व्यक्ति कुछ समय प्रयोग के रूप में इधर निवास करने की स्वीकृति प्राप्त कर सकते हैं और पीछे जब उन्हें यहाँ अनुकूलता प्रतीत हो तो स्थायी रूप से निवास का निर्णय कर सकते हैं।

विचारों का आदान-प्रदान सरल भी है और आवश्यक भी। उसके लिए लेखन, भाषण एवं दृश्य, श्रव्य जैसे माध्यम भी अनेकों हैं, पर विडम्बना यह है कि सब कुछ जान लेने पर भी कुछ भी न मानने की हठी मनोभूमि जहाँ की तहाँ बनी रहती है। विशेषतया जब कभी आदर्शवादिता को व्यावहारिक जीवन में उतारने का अवसर आता है तब तो धर्म प्रवक्ता भी बगलें झाँकते देखे जाते हैं। धर्मोपदेशों में कुशल व्यक्ति भी जब अपने निजी आचरण में खोटे उतरते हैं तब प्रतीत होता है कि विचारों के पीछे जानकारियाँ तो बहुत होती हैं, पर वह सामर्थ्य बहुत स्वल्प होती है जिसके सहारे व्यक्तित्व उभरते और अस्तित्व प्रखर बनते देखे जाते हैं।

मनुष्य की मूल सत्ता अनुकरण प्रिय है। प्रायः वह मनस्वी वर्चस्व से प्रभावित होती है। ओजस्वी मनुष्य असंख्यों को अपना अनुयायी बनाते हैं। प्रभाव का केन्द्र प्राण है। प्राण शक्ति मन, वचन, कर्म की एकता से प्रखर बनती है। प्राणवान् व्यक्तित्वों और वातावरणों का सान्निध्य ग्रहण करके सामान्य लोग भी आगे बढ़ने तथा ऊँचे उठने के लिए आवश्यक मनोबल प्राप्त करते हैं। तीर्थ स्थानों में जाने और वहाँ निवास करने का जो लाभ प्राचीन काल में मिलता था इसके पीछे वहाँ का प्राणवान वातावरण ही मुख्य कारण था। शान्तिकुँज को प्राण शक्ति युक्त बनाने के लिए हर सम्भव प्रयत्न किया जाता रहा है। यह स्थान कुछ समय पूर्व गंगा की धारा के बीचों बीच था। बाँध बन जाने से गंगा का प्रवाह सीमित बना और डूबी जमीन को उपयोग के लिए निकाल लिया गया। इसी भूमि पर शान्तिकुंज बना है। 55 वर्ष से जल रहे जिस अखण्ड धृत दीपक पर अपनी गायत्री साधना सम्पन्न होती आई है उसे अब इस भूमि पर लाकर स्थापित कर दिया गया है। आरम्भ के दिन से लेकर आज पर्यन्त करोड़ों गायत्री मन्त्र के जप पुरश्चरण-नित्य यज्ञ, शास्त्र प्रवचन, स्वाध्याय परायण जैसे अनेकों आत्मशक्ति सम्वर्धक प्रयोग यहाँ चलते रहते हैं। इसका प्रभाव इस भूमि को सच्चे अर्थों में युग तीर्थ बना सकने में समर्थ हो गया है। हिमालय की दिव्य सत्ताओं का यहाँ संरक्षण है। इसके सूत्र संचालक तत्व इसे अधिकाधिक महत्वपूर्ण बनाने के लिए प्राण-प्रण से प्रयत्नशील हैं। ऐसे तपोवन में कुछ समय का निवास अपने आप में एक ऐसा सौभाग्य है जिसका सत्परिणाम कोई भी और कभी भी देख सकता है।

पिछले पाँच वर्षों में चलती रही प्रशिक्षण प्रक्रिया के जो प्रतिफल देखने में आये हैं उनसे प्रत्येक सम्बद्ध व्यक्ति को भारी सन्तोष एवं उत्साह मिला है। अगले अग्रिम चरण के रूप में आरम्भ हो रही साधना प्रक्रिया का महत्व, प्रथम चरण की-पिछले पाँच वर्ष वाले प्रशिक्षण की तुलना में अत्यधिक है। इसलिए इसका लाभ उठाने के लिए उन सब को पुनः आमन्त्रित किया जा रहा है जो पिछले किसी शिविर में आ चुके या जो अभी तक नहीं आयें हैं। यहाँ अधिक समय तक ठहर सकना एवं स्थायी निवास बना लेना तो और भी उच्चस्तर का सौभाग्य है। जागृत आत्माओं के साथ रहने और साथ रखने की हमारी आकाँक्षा की पूर्ति इन सत्रों के माध्यम से ही सम्भव हो सकेगी, इसलिए उस ओर भावनाशील परिजनों में से प्रत्येक का ध्यान आकर्षित किया जा रहा है।

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