यथार्थता और एकता में पूर्वाग्रहों की प्रधान बाधा

September 1976

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सत्य-असत्य का- उचित-अनुचित का भेद करने के लिए मनोभूमि निष्पक्ष होनी चाहिए। उसमें किसी प्रकार के पूर्वाग्रह नहीं होने चाहिए। किसी मान्यता पर आग्रह जमा हो तो मनोभूमि पक्षपात ग्रसित हो जायगी। तब अपनी ही बात को किसी न किसी प्रकार सिद्ध करने के लिए बुद्धि कौशल चलता रहेगा। बुरी से बुरी बात को भली सिद्ध करने के लिए तर्क ढूंढ़े जा सकते हैं और अपने पक्ष समर्थन में कितने ही तथ्य तथा उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं। इस स्तर के विवादों का कभी अन्त नहीं होता। पूर्वाग्रह जब प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाता है तो फिर अपनी जीत और विपक्षी की हार ही अभीष्ट होती है।

शास्त्रार्थों का एक जमाना था जिसमें भिन्न-भिन्न मतवादी अपने पक्ष का समर्थन और विपक्ष के खण्डन करने के लिए एड़ी चोटी का पसीना एक करते थे। अपनी जीत और सामने वाले की हार के लिए वे पर्याप्त मसाला एकत्रित कर लेते थे। जिसकी चतुरता जितनी पैनी होती थी, वह उतना ही तगड़ा पड़ता था, पर हार स्वीकार करना कम चतुर के लिए भी सम्भव न था। अस्तु शास्त्रार्थ का अन्त वितण्डावाद के रूप में- आरोप-प्रत्यारोप के रूप में- आक्रमण-प्रत्याक्रमण रूप में होता है और वे अनिर्णीत स्थिति में रोष विद्वेष का वातावरण छोड़कर समाप्त हो जाते हैं। मध्यस्थ किसी का पक्ष समर्थन करता है तो उसे उस ओर का समर्थक पक्षपाती कहा जाता है। किसी पक्ष की हार घोषित कर दी जाय तो भी वह उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं होता।

वकीलों की बहस जो सुनते रहते हैं वे जानते हैं कि तथ्यों को अपने अनुकूल ढालने का बुद्धि कौशल अब कितना आगे बढ़ गया है। एक ही कानून के पक्ष-विपक्ष के वकील किस प्रकार भिन्न अर्थ निकालते और एक ही बयान एवं एक ही घटनाक्रम को किस प्रकार अपने समर्थन के लिए तोड़ते-मरोड़ते और खींच-तान करते हैं। सामान्य व्यक्ति की बुद्धि इसमें भ्रमित हो जाती है और जिस वकील की दलील सुनती है उसी को सही मानने लगती है। निष्पक्ष न्यायाधीश ही यह निर्णय कर सकता है कि इन दलीलों में कितना तथ्य है ऐसा कर सकना उसके लिए तभी सम्भव होता है जब वह दोनों में से किसी के प्रति भी झुकाव नहीं रखता। यदि उसे किसी पक्ष के प्रति पहले से ही सहानुभूति होगी तो फैसले में वही झुकाव अनर्थ प्रस्तुत कर रहा होगा।

न केवल शरीर की दृष्टि से वरन् मन, बुद्धि और भावना की दृष्टि से भी जीव का क्रमिक विकास हुआ है। आदिम काल की और आज की मान्यताओं में जमीन-आसमान जितना अन्तर हो गया है। जो बातें किसी समय सत्य समझी जाती रही होंगी, वे आज उस रूप में नहीं मानी जातीं। यह प्रगति तभी सम्भव हुई जब पूर्वाग्रहों की तुलना में तर्क और प्रमाण के आधार पर जो अधिक उपयुक्त जंचा उसे स्वीकार किया गया। यदि यह आग्रह रहा होता कि जो अब तक जाना माना गया है वही सत्य है-अपरिवर्तनीय है-तब फिर हम आदिम काल की मान्यताओं से ही चिपके बैठे रहे होते और प्रगति के पथ पर जितनी लम्बी यात्रा हो चुकी है वह सम्भव न हुई होती।

आज जो माना जा रहा है कल की विकसित परिस्थितियों में उसे भी अमान्य ठहराया जा सकता है। यह गुंजाइश मन में रखनी चाहिए। तभी सत्य की शोध के लिए चल रही मानवी प्रगति का क्रम अक्षुण्ण रह सकेगा और अनेकता से एकता की दिशा में प्रगति सम्भव हो सकेगी।

प्रचलित मत-मतान्तरों में प्रचलित मान्यताओं को यदि उनके अनुयायी नितान्त सत्य मानते रहेंगे तो अपने से भिन्न अन्य सभी मतों को, धर्मों को, असत्य माना जाता रहेगा और उनको मिटाने के लिए आक्रमण, प्रत्याक्रमण का सिलसिला चलता रहेगा। बहस का अन्त न होते देख कर पिछले दिनों विचार परिवर्तन के लिए तलवारों का खुलकर प्रयोग हुआ है। लेखनी और वाणी की शक्ति से काम चलता न देखा तो लाठी के बल पर अपनी मान्यता दूसरों पर थोपने की चेष्टा की गई है। योरोप में रोमन कैथोलिक और प्रोटैस्टेण्टों में इसी प्रश्न को लेकर शताब्दियों तक भयंकर रक्तपात होता रहा है कि किस मत को सही और किस को गलत माना जाय। अपने देश में भी चोटी कटाने की बात पर सहमत न होने वालों के असंख्य सिर कलम हुए है और रक्त की नदियाँ बहती रही हैं। कुछ दुर्बल मनःस्थिति के लोग डर से सिर झुका गये हों यह बात दूसरी है, पर प्रश्न हजारों वर्ष उपरान्त भी जहाँ का तहाँ हैं विभिन्न मतों के अपने अनुयायी हैं और वे सभी अपने-अपने पक्ष समर्थन में पूरे आग्रह के साथ अड़े हुए हैं। इन सभी के पास अपने-अपने तर्क और तथ्य हैं, विपक्ष को हराने, घटाने के लिए उनके नरम-गरम उपाय भी पूरी शक्ति के साथ चलते हैं फिर भी कोई न तो जीतता है और न हारता है। यथास्थिति में परिवर्तन होने के कोई लक्षण प्रतीत नहीं होते।

सर्वधर्म समन्वय की चर्चा देर से चलती रही है- सर्वधर्म सम्मेलन के आयोजन भी जब-तब होते रहते हैं, पर वह पूर्वाग्रह जहाँ का तहाँ है जिसमें सब धर्मों का सार लेकर एक विश्व धर्म बनाने की संभावना का साकार हो सकना कठिन ही बना रहेगा। थियोसॉफी जैसे प्रयत्न कारखाने में तूती की आवाज बन कर रह गये। धार्मिक क्षेत्र की तरह राजनीतिक क्षेत्र में भी शासन तन्त्र किस आधार पर चलाये जाय इस संदर्भ में भारी मतभेद मौजूद हैं और वे एक दूसरे का अस्तित्व मिटाये बिना समन्वय का-सत्यान्वेषण का कोई रास्ता ढूंढ़ नहीं पा रहे हैं।

सत्य की शोध में सबसे बड़ी बाधा पूर्वाग्रहों की है। उन्हें छोड़े बिना निष्पक्ष मनोभूमि बन नहीं सकती और जहाँ पक्षपात पहले से ही जड़ जमाये हुए हैं वहाँ यथार्थता का दर्शन कर सकना किसी के लिए भी सम्भव नहीं हो सकता।

मतभेदों की दीवारें गिराये बिना एकता, आत्मीयता, समता, ममता जैसे आदर्शों की दिशा में बढ़ सकना सम्भव नहीं हो सकता। विचारों की एकता जितनी अधिक होगी स्नेह, सद्भाव एवं सहकार का क्षेत्र उतना ही विस्तृत होगा। परस्पर खींचतान में नष्ट होने वाली शक्ति को यदि एकता में-एक दिशा में प्रयुक्त किया जा सके तो उसका सत्परिणाम देखते ही बनेगा। प्रगति के मार्ग में सबसे बड़ी कठिनाई पारस्परिक मतभेदों और तज्जनित संघर्षों में शक्ति की असीम मात्रा का नष्ट होते रहना ही है। इस अपव्यय को रोका जा सके तो मानवीय सामर्थ्य एवं उपलब्ध सम्पत्ति के आधार पर असीम सुख साधन उत्पन्न किये जा सकते हैं और उनके सहारे अगले कल ही स्वर्गीय परिस्थितियों का सृजन किया जा सकता है।

यदि मनुष्यता को जीवित रहना है तो उसे एकता और आत्मीयता की दिशा में बढ़ना होगा। मत-भेदों की दीवारें गिरानी पड़ेंगी और चिन्तन तथा कर्तव्य को एकरूपता प्रस्तुत कर सकने वाला राजमार्ग बनाना पड़ेगा। जीवन और मरण के बीच और कोई विकल्प नहीं। सद्भावपूर्वक निर्वाह करने या मर-कट कर नष्ट हो जाने के अतिरिक्त शान्ति का और कोई मार्ग नहीं, मतभेद जितने ही बने रहेंगे विनाश का असुर उतना ही भयावह होता चलेगा।

सत्य की दिशा में बढ़ने से ही मतभेदों को दूर किया जा सकता है तथा एक सर्वमान्य मार्ग निकल सकता है इसके लिए यह प्रारम्भ आवश्यकता है कि हर व्यक्ति पूर्वाग्रहों को एक ओर रखकर निष्पक्ष मनोभूमि का विकास करे। विवेक की स्थापना ऐसी ही मनःस्थिति में सम्भव होती है निष्पक्ष चिन्तन से सत्य की शोध की जा सकती है। सत्य को अपना कर ही एकता की ओर बढ़ा जा सकता है। इसके लिए पूर्वाग्रहों की खिड़कियाँ खोलकर उन्मुक्त निष्पक्ष चिन्तन को अपनाये जाने की आवश्यकता जन-साधारण को समझाई जानी चाहिए।

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