सूक्ष्म चेतना को परिष्कृत किया जाय और सब नियन्त्रित रखा जाय

May 1976

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मानवी चेतना की रहस्यमय परतें यदि समझी जा सकें और समुन्नत की जा सकें तो निश्चित ही उसे अत्यन्त उत्कृष्ट कोटि की जीवन सफलता कहा जायगा। भौतिक विज्ञान स्थूल जगत में बिखरी हुई शक्ति को देखकर चकित है और उसमें बहुत कुछ करतलगत करने के लिए लालायित है।

सामान्य के भीतर जो असामान्य छिपा पड़ा है, उसे अब अधिक अच्छी तरह समझा जाने लगा है। उदाहरण के लिए सूर्य को ही लें, वह गर्मी ओर रोशनी देने वाला, रोज उगने और डूबने वाला छोटा सा अग्नि पिण्ड मात्र है, पर गम्भीरतापूर्वक पता लगाने से वह शक्ति का भाँडागार सिद्ध होता है।

बच्चे की आकृति-प्रकृति का सारा ढाँचा इन नगण्य से घटकों में छिपा पड़ा है यह कितने आश्चर्य की बात है। भले ही सिद्ध न किया जा सके पर अनेक प्रमाण अब इन तथ्यों की निरन्तर पुष्टि कर रहे हैं।

समीपवर्ती विचित्रताओं में सबसे बड़ा है मस्तिष्क की कोठरी में रखा हुआ सूक्ष्म शक्तियों और दिव्य क्षमताओं का भाण्डागार। पर कठिनाई यह है कि जिस प्रकार अपनी आँखों से अपनी आँखों को देख सकना कठिन है और अपने ही रक्त में चल रही हलचलों को जान पाना दुरूह है उसी प्रकार मस्तिष्क को समझना तो कठिन है ही, उससे भी कठिन यह है कि मानसिक चेतना पर नियंत्रण कैसे किया जाय। यदि वैसा सम्भव हो सके तो शक्ति का लगभग इतना ही बड़ा स्रोत हाथ लग सकता है जितना कि बाह्य जगत में दृश्यमान सूर्य में सन्निहित है।

पुस्तकीय शिक्षा, विचार विनिमय, दृश्य, चिन्तन आदि के सहारे जो ज्ञान वृद्धि होती है उससे मस्तिष्क का एक बहुत छोटा अंश ही विकसित हो पाता है। इसके सहारे उपार्जन-लोक, व्यवहार तथा निर्वाह के सामान्य प्रयोजन ही पूरे होते हैं। शक्ति का स्रोत तो अचेतन है। उसके ऊपर प्रभाव डालना अति कठिन है। यदि उस तक पहुँचा जा सके और अभीष्ट दिशा में बदला जा सके तो व्यक्तित्व का स्वरूप बदल सकता है। तब सामान्य को असामान्य के रूप में विकसित हुआ देखा जा सकता है।

अचेतन को प्रभावित करने की दिशा में कितने ही वैज्ञानिक प्रयोग हो रहे हैं और उनमें सफलताएं भी मिल रही हैं।

डॉ0 डेलगाडो ने अपने कथन को प्रमाणित करने के लिए कई सार्वजनिक प्रयोग करके भी दिखाये। अली नामक एक बन्दर को केला खाने के लिए दिया गया। जब वह केला खा रहा था, तब डॉ0 डेलगाडो ने ‘इलेक्ट्रोएसी फैलोग्राफ’ के द्वारा बन्दर के मस्तिष्क को सन्देश दिया कि केला खाने की अपेक्षा भूखा रहना चाहिए तो बन्दर ने भूखा होते हुए भी केला फेंक दिया। ‘इलेक्ट्रोएसी फैलोग्राफ’ एक ऐसा यन्त्र है, जिसमें विभिन्न क्रियाओं के समय मस्तिष्क में उठने वाली भाव तरंग को विद्युत शक्ति द्वारा तीव्र कर देते हैं तो मस्तिष्क के शेष सब भाव दब जाते हैं और वह एक ही भाव तीव्र हो उठने से मस्तिष्क केवल वही काम करने लगता है।

डॉ0 डेलगाडो ने इस बात को अत्यन्त खतरनाक प्रयोग द्वारा भी सिद्ध करके दिखाया। एक दिन उन्होंने इस प्रयोग की सार्वजनिक घोषणा कर दी। हजारों लोग एकत्रित हुए। सिर पर इलेक्ट्राड जड़े हुए दो खूँखार साँड लाये गये। इलेक्ट्राड एक प्रकार का एरियल है, जो रेडियो ट्रान्समीटर द्वारा छोड़ी गई तरंगों को पकड़ लेता है। जब दोनों साँड मैदान में आये तो उस समय की भयंकरता देखते ही बनती थी, लगता था दोनों साँड डेलगाडो का कचूमर निकाल देंगे, पर वे जैसे ही डेलगाडो के पास पहुँचे उन्होंने अपने यन्त्र से सन्देश भेजा कि युद्ध करने की अपेक्षा शाँत रहना अच्छा है, तो बस फुँसकारते हुए दोनों साँड ऐसे प्रेम से खड़े हो गये जैसे दो बकरियाँ खड़ी हों। उन्होंने कई ऐसे प्रयोग करके रोगियों को भी अच्छा किया।

टैक्सास विश्वविद्यालय के राबर्ट थाम्पसन और जेम्समैक कोनेल वैज्ञानिकों ने प्लेनेरिया नामक जीव पर परीक्षण करके यह सिद्ध किया कि विद्युत उपकरणों की सहायता से मस्तिष्कीय क्षमता को घटाया और बढ़ाया जा सकता है। कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय अमेरिका के इस सन्दर्भ में संलग्न विज्ञानी डॉ0 ओटो शिमल ने घोषणा की है कि अब हमारे हाथ में मानव मस्तिष्क को नियन्त्रित करने की शक्ति आ गई है, पर आशा की जानी चाहिए कि उसका प्रयोग अच्छाई के लिए ही होगा, किन्तु साथ ही इस खतरे को भी ध्यान में रखना होगा कि इस नव उपार्जित शक्ति का प्रयोग निजी महत्वाकाँक्षाओं की पूर्ति एवं राष्ट्रीय विस्तारवाद के लिए भी किया जा सकता है। यदि ऐसा किया गया तो यह आविष्कार संसार का सबसे अधिक विघातक अस्त्र सिद्ध होगा।

कुछ दिन अमरीकी प्रतिरक्षा विभाग के एक गधे पर यह प्रयोग किया गया था और उसे उपकरणों से प्रभावित करके अकेला छोड़ा गया था। उसे जिधर चलने और जो करने के लिए निर्देश किया उसने वही सब कर दिखाया।

योग का उद्देश्य बिना वैज्ञानिक उपकरणों के अन्तः चेतना को अभीष्ट स्तर पर परिवर्तित और विकसित करना है। यह इसलिए उपयुक्त है कि हर व्यक्ति अपने का उस दिशा में विकसित करना चाहेगा जिससे उपलब्ध क्षमता को अपने और दूसरों के कल्याण में लगाया जा सके। इसके विपरीत वैज्ञानिक साधनों में यह दूसरों के मस्तिष्क को प्रभावित करने का आधार अपना लिया गया तो जन साधारण को किसी महत्वाकाँक्षी सत्ताधारी की इच्छानुसार ढलना पड़ेगा और वे आत्मोत्कर्ष से वंचित रहकर किन्हीं दूसरों की कठपुतली मात्र बनकर रहेंगे।

विलक्षणताओं की दृष्टि से देखा जाय तो छोटे-छोटे जीव जन्तु भी असाधारण सूक्ष्म चेतना से सम्पन्न पाये जाते हैं और वे ऐसी होती है जिन्हें विलक्षण कहा जा सके।

कैरियन कीड़े की घ्राण शक्ति सबसे अधिक मानी जाती है। वह मीलों दूर के मुर्दा माँस का पता लगा लेता है और उड़ता फुदकता हुआ उस खाद्य भण्डार तक पहुँचकर तृप्तिपूर्वक भोजन करता है।

समुद्र में हल्के ज्वार-भाटे प्रतिदिन 50 मिनट के अन्तर से आते हैं। केकड़े का रंग परिवर्तन भी ठीक 50 मिनट के ही अन्तर से होता है।

कीड़ों के कान नहीं होते, यह कार्य वे अगली टाँगों के जोड़ों में रहने वाली ध्वनि शक्ति द्वारा पूरा कर सकते हैं। तितलियों के पंखों में श्रवण शक्ति पाई जाती है, झींगुर आदि जो आवाज करते हैं वह उनके मुँह से नहीं बल्कि टाँगों की रगड़ से उत्पन्न होती है। कीड़ों की अपनी विशेषता है, उनके फेफड़े नहीं होते पर वे साँस लेते हैं। वे सुन सकते हैं पर कान नहीं होते, वे सूँघते हैं पर नाक नहीं होती। दिल उनके भी होता है पर उसकी बनावट हमारे दिल से सर्वथा भिन्न प्रकार की होती है।

रगफर्ड जाति का कीड़ा सीधे माँ के द्वारा ही जन्मता है। बाप का कोई योगदान उसके जन्मने में नहीं होता। कुंवारी एफिड अपने बल-बूते पर बच्चे जनने लगती है। कुमारी व्रत निवाहते हुए भी वह जननी का पद प्राप्त कर लेती है।

नेस, सलामैसीना, आईस्टर, स्नेल (घोंघा) फ्रैसवाटर मसल (सम्बूक) साइलिस, चैटोगेस्टर स्लग (मन्थर) पाइनोगोनाड (समुद्री मकड़ी) आदि कृमियों में भी यह गुण होता है कि उनके शरीर का कोई अंग टूट जाने पर ही नहीं वरन् मार दिये जाने पर भी वह अंग या पूरा शरीर उसी प्रोटोप्लाज्म से फिर नया तैयार कर लेते हैं। केकड़ा तो इन सबसे विचित्र है। टैंक की सी आकृति वाले इस जीव की विशेषता यह है कि अपने किसी अंग को तुरन्त तैयार कर लेने की प्रकृति दत्त सामर्थ्य रखता है।

आत्म चेतना के विकास को ऐसी सफलता कहा जा सकता है जो आन्तरिक उत्कृष्टता बढ़ जाने से हर घड़ी आनन्द की मनःस्थिति बनाये रह सकती है। इसके अतिरिक्त अचेतन की विकसित क्षमता इतनी प्रखर होती है कि जिसके सहारे देव जीवन जिया जा सके और दूसरों को सुखी समुन्नत बनाकर असीम आत्म संतोष देने वाला श्रेय पाया जा सके। मस्तिष्कीय उत्कर्ष एवं परिवर्तन के लिए भौतिक प्रयोगों की पराधीनता खतरनाक हो सकती है। इस दिशा में जो प्रयत्न हों वे योगाभ्यास स्तर के हों तभी मानवी प्रगति की अति महत्वपूर्ण आवश्यकता पूरी हो सकती है।


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