परिस्थिति पर नहीं, मनःस्थिति पर उत्कर्ष सम्भव

May 1976

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दुनिया में कितने ही लोग अच्छी स्थिति में देखे जाते हैं और कितने ही विषम परिस्थितियों के पाटों में पिसते हुए अपना जीवन पूरा कर डालते हैं। दीन-हीन और यथापूर्व स्थिति में रहने वाले अधिकाँश व्यक्ति जब अपने से ऊँची स्थिति वालों की ओर देखते हैं तो उन्हें यह कुढ़न होने लगती है कि भगवान का न्याय बड़ा विचित्र है। एक आदमी तो इतना ऊँचा, सम्पन्न या विद्वान जबकि उसके समान ही मुझे भी माँ-बाप ने जन्म दिया है, मेरे भी दो हाथ और दो पाँव हैं, नाक, कान और आँखें, मुँह हैं। फिर भी मुझमें और सामने वाले में एक और बीस का अन्तर है। इस कुढ़न का अन्त इस सन्तोष के साथ होता दिखाया है कि हमारा भाग्य ऐसा ही है। काश! हमारे भाग्य में ऐसी परिस्थितियाँ होती तो हम इससे भी अधिक और अच्छा, कुछ कर दिखा देते।

निराशमना व्यक्ति अपनी दुर्दशा का सारा दोष परिस्थितियों के मत्थे ही मढ़ देते हैं। उन्हें यह विचार ध्यान में ही नहीं आता कि परिस्थितियाँ उनकी अपनी ही पैदा की हुई हैं। जिन लोगों को आज ऊँची स्थिति में देख रहे हैं यदि उन्हें विरासत रूप में कुछ मिला न हो तो वे भी किसी दिन उनकी ही तरह थे और विरासत के रूप में यदि कुछ मिला है तो जिनसे विरासत में उन्हें मिला है उन्होंने भी कष्टप्रद, कठिन और बुरे दिन देखे थे। वैसी परिस्थितियों से उन्होंने अपने पुरुषार्थ को तराशा है, प्रतिभा को निखारा है तथा प्रयासों को तपाया है। संपन्न देश अमेरिका के धनाढ्यों में जिस व्यक्ति को सर्वाधिक ख्याति मिली है वह है- हेनरी फोर्ड। जिनके कारखाने में बनी कारें सबसे ज्यादा मजबूत और टिकाऊ मानी जाती हैं। फोर्ड परिवार की गणना विश्व के सर्वाधिक सम्पन्न धनपतियों में की जाती है। पर यह भी एक आश्चर्य का विषय है कि उनका जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ था जिसमें प्रत्येक सदस्य को जीविका के लिए श्रम करना पड़ता था। उनके पिता एक छोटे से किसान थे। केवल इसलिए फोर्ड की उच्च शिक्षा रुक गयी थी। उनके पिता इसका खर्च वहन नहीं कर पा रहे थे। प्रयत्न, लगन और परिश्रम के बल पर उन परिस्थितियों में फोर्ड ने अपना व्यक्तित्व आप बनाया और असफलता की कई मंजिलें पार कर सफल हुए। जिनके कारखाने का छोटा से छोटा मजदूर भी बीस रुपये रोज कमाता है और उस फोर्ड ने जिन परिस्थितियों में जीवन गुजारा उसका अन्दाजा भी नहीं लगा सकते।

फोर्ड की इस सफलता का राज उनकी लगन समझी जाती है। किशोरावस्था में ही उन्होंने कार बनाने का सपना देखा और उसे पूरा करने के लिए जुट गये। उनकी लगन का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि साधना वर्षों में वे रात को मजदूरी करते और दिन में कार का काम करते थे। यह लगन जब पूरी हुई तो फोर्ड चमत्कृत हो उठे। जब उनकी कार ने पहली बार कुछ दूरी तय की तो उन्हें इस पर विश्वास ही नहीं हो सका।

सुई से लेकर रेल के इंजन तक- छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी वस्तुओं के निर्माता उद्योग समूह टाटा के संस्थापक और उसका सिंचन करने वाले जमशेद टाटा के सम्पन्न जीवन के सम्बन्ध में तो बहुतों को पता होगा। लेकिन यह लोग नहीं जानते हैं कि उनका जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ था जिसकी जीविका का आधार पुरोहिताई ही था। निवसारी में जन्में और वहीं पले जमशेद जी को आवश्यक शिक्षा प्राप्ति के लिए भी अपने एक सजातीय सज्जन का सहयोग लेना पड़ा था। विद्यार्थी काल में वे एक ऐसी छत वाले कमरे में रहे जिसकी छत बारिश में हमेशा टपकती रहती। शिक्षा प्राप्त कर अपनी व्यवहार कुशलता के बल पर उन्होंने ऐसे साथी तैयार किये जिनके सहयोग से वे स्वयं कारोबार चलाने योग्य साधन जुटा सके। सर्वप्रथम उन्होंने एक कपड़े के कारखाने के में रूप उद्योग जगत में प्रवेश किया और परिश्रम, दृढ़ता तथा व्यवहार कुशलता के बल पर दिनों-दिन आगे बढ़ते गये।

लोग अक्सर किसी का सहयोग न होने की बात कहा करते हैं। सहयोग न तो घर बैठे मिलता है और न ही अनायास। उसके लिए व्यक्ति को उद्यमी होने के साथ-साथ व्यवहार कुशल भी होना चाहिए तभी अभिवाँछित सहयोग मिल सकता है और अभीष्ट परिस्थितियाँ बनायी जा सकती हैं तथा उस आधार पर आगे बढ़ा जा सकता है।

परिस्थितियों का निर्माण मनुष्य स्वयं करता है। न कि परिस्थितियाँ मनुष्य का निर्माण करती हैं। परिस्थितियों पर आश्रित रहने और उनके बदलने की प्रतीक्षा किये बिना यदि मनुष्य स्वयं उसी में रहते हुए उन्हें बदलने का प्रयास करे तो कोई आश्चर्य नहीं कि उसे असफल न होना पड़े। बहुमुखी प्रतिभा के धनी, पत्रकार, राजनीतिज्ञ, वैज्ञानिक, दार्शनिक और समाज सेवी महामानव बैंजामिन फ्रैंकलिन को अपने जीवन का आरम्भ प्रेस की एक छोटी सी नौकरी से करना पड़ा था। वे जब अपने भाई के प्रेस में नौकर हुए तो टाइप धोने, मशीन की सफाई करने, टाइप जमाने, उनकी पोटलियाँ बाँधने और झाड़ू लगाने का काम सौंपा गया। वे अपने पिता की पन्द्रहवीं सन्तान थे और उनके बाद दो छोटे भाई और जन्मे। उन्नीस व्यक्तियों के इस परिवार का निर्वाह साधन मोमबत्तियाँ और साबुन बनाना तथा बेचना था। इस व्यवसाय से इतना उपार्जन भी नहीं होता था कि दोनों समय भरपेट भोजन किया जा सके। अतः दस साल की उम्र में ही उन्हें परिवार की सहायता के लिए काम पर लग जाना पड़ा। कैसा स्कूल और कैसी शिक्षा। लेकिन प्रेस की यह छोटी सी नौकरी, जिसमें नाममात्र का ही वेतन मिलता और उसमें भी कितना ही जुर्माने के रूप में कट जाता। फ्रैंकलिन रुचि और मनोयोग पूर्वक करते रहे। अपने कार्य को अभिरुचि तथा लगन के साथ पूरा करने से फ्रैंकलिन के अन्तःकरण में यह प्रेरणा उठने लगी कि वे इस कार्य में दक्षता प्राप्त करें और उसी के माध्यम से अपने जीवन को ऊँचा उठायें। जिज्ञासा और मनोयोग दोनों ने मिलकर फ्रैंकलिन को सचमुच ही इस कार्य में दक्ष बना दिया। यही नहीं इसी जिज्ञासा के परिणाम स्वरूप फ्रैंकलिन ने अपनी वैज्ञानिक प्रतिभा को भी उभारा। जिस क्षेत्र में भी उन्होंने प्रवेश किया उसी से अपने मनोयोग और श्रम द्वारा अद्भुत निष्णातावस्था प्राप्त की। मनुष्य की परिस्थितियाँ कितनी ही विषम और प्रतिकूल क्यों न हों- यदि वह अपने कार्य को मनोयोग और अभिरुचि पूर्वक पूरा करता रहे तो वह उन्हीं स्थितियों में आगे बढ़ सकता है।

संयुक्त राज्य अमेरिका में यों तो कितने ही राष्ट्रपति हो चुके हैं और लगभग सभी ने कोई न कोई उल्लेखनीय कार्य किया है, पर अब्राहिम लिंकन का नाम जितने आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है वाशिंगटन को छोड़कर शायद ही किसी और ने जनता के दिलों में प्रवेश प्राप्त किया हो। अब्राहम लिंकन के पिता कुल्हाड़े और बन्दूक से अपना जीवन निर्वाह करते थे। कुल्हाड़े से वे लकड़ियाँ काट कर लाते और बन्दूक से जंगली जानवरों से अपनी रक्षा करते। लकड़ी से बनायी गयी एक कुटिया में ही वे निवास करते। अब्राहम लिंकन के पिता अपने बच्चों को पढ़ाने लिखाने योग्य सुविधा साधन भले ही उपलब्ध न करा सके हों, पर उन्होंने काम चलाऊ अक्षर ज्ञान और पढ़ने की अभिरुचि अवश्य जगा दी थी। यही कारण था कि लिंकन लैम्पपोस्ट के उजाले में, चूल्हों में जलने वाली आग की रोशनी में पढ़ते। दिया-बत्ती का प्रबन्ध भी प्रायः मुश्किल होता था और ऐसी परिस्थितियों में पढ़े-लिखे लिंकन जीवन में बार-बार असफल होने पर भी हिम्मत न हारे तथा अन्त में राष्ट्रपति बन ही गये।

अमेरिका में दूसरे दर्जे का जीवन बिताने वाली गोरे लोगों की दासता के चक्र में पिसने वाली मूल जाति नीग्रो में जन्म लेने वाले कॉर्बर को अपने जीवन में क्या-क्या पापड़ नहीं बेलने पड़े। वे ऐसे परिवार में जन्मे थे जिसका सारा जीवन ही उसके स्वामी के इशारों पर कठपुतली की तरह नाचता था। यहाँ तक कि उन लोगों को अपने बच्चों की ब्याह-शादी भी अपने मालिक की मर्जी के अनुरूप करने पड़ते। क्योंकि बच्चे उनकी सन्तान नहीं मालिक की सम्पत्ति होते थे। फिर भी आज्ञाकारिता, नियम निष्ठा और विनम्रता के बल पर जार्ज कॉर्बर ने अपने मालिक से कुछ सुविधायें हस्तगत कर लीं और उनका उपयोग अपने विकास में करने लगे। भविष्य के प्रति आशावान् और वर्तमान के प्रति उत्साहपूर्ण और जागरुक रहते हुए उन्होंने अपने जीवन को सँवारा तथा सफलता के उस शिखर पर जा पहुँचे जिसके कारण कि उन्हें वैज्ञानिक ऋषि कहा जाने लगा। अपने स्वामी से भले ही उन्होंने कुछ विशेष सुविधायें प्राप्त कर ली हों, पर बाहरी जीवन में तो उन्हें पग-पग पर गोरी चमड़ी वालों से उपेक्षा, तिरस्कार और दलन सहना पड़ा। लेकिन कठिनाईयों में भी वे हिम्मत न हारे और आगे ही आगे बढ़ते गये।

यदि देखा जाये तो वे परिस्थितियाँ जिन्हें हम अवरोधक मानते हैं, अवरोध उत्पन्न करने के स्थान पर हमारी सहायता ही करती हैं। कोई व्यक्ति भूख को भले ही समस्या माने और उसके लिए किये जाने वाले उपार्जन प्रयासों को उलझन। पर यदि भूख न होती तो क्या मनुष्य का सक्रिय सचेतन होना सम्भव था। कर्मशीलता और परिश्रम को कहाँ से उत्प्रेरणा मिलती और उसके अभाव में मनुष्य सभ्यता कहाँ बैलगाड़ी से उठकर वायुयान में बैठती। गरीबी और अभावग्रस्तता कइयों के लिए भले ही दुर्भाग्य हो, पर मनस्वी उसी में पुरुषार्थ और उद्यमशीलता की प्रेरणा प्राप्त करते हैं। साधन सम्पन्नता और अनुकूल परिस्थितियाँ कोई भी माँ के पेट से साथ लेकर नहीं आता। सौभाग्यवश कदाचित वे मिल भी जाती हैं तो मानसिक योग्यता और आन्तरिक क्षमताओं के अभाव में उनका उपयोग करना तो दूर रहा उल्टे दुरुपयोग होने लगता है और सब कुछ मिलने के बावजूद भी आदमी अन्त में कंगाल हो कर खड़ा रह जाता है।

बहुधा लोग शिक्षा और विद्वत्ता के सम्बन्ध में तो अधिक ही परिस्थितियों पर निर्भर करते हैं। सोचते हैं कि यदि अच्छे घर में जन्म न हो, पढ़ने -लिखने की सुविधाएँ न मिलें, उपयुक्त परिस्थितियाँ लभ्य न रहें तब तो आदमी कुछ कर ही नहीं सकता। जबकि सचाई यह है कि अन्य क्षेत्रों में परिस्थितियाँ भले ही कुछ सहायता कर जायें, विद्या और ज्ञान के सम्बन्ध में तो उनका जरा भी वश नहीं चलता। अनुकूल परिस्थितियां होते हुए भी कई धनवानों के बच्चे अनपढ़ और गँवार रह जाते हैं तथा परिस्थितियाँ व साधन न होते हुए भी कितने ही गरीब बच्चे विद्वान और ज्ञानी बन जाते हैं। इस सम्बन्ध में तो यह कहावत भी मशहूर है कि ‘लक्ष्मी और सरस्वती की कृपा कभी एक साथ नहीं होती।’ इस कहावत में सचाई का कितना अंश है यह विवादास्पद हो सकता है पर यह उतना ही सुनिश्चित और ठोस सत्य है कि गरीब व्यक्ति भले ही धनवान न बने, ज्ञानवान् तो बन ही सकता है। कालिदास, सूरदास, तुलसीदास से लेकर प्रेमचन्द, शरतचन्द्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी, निराला, जगन्नाथ प्रसाद रत्नाकर आदि कितने ही विद्वान साहित्यकार हुए हैं, जिनकी पूर्व और उपरान्त आर्थिक स्थिति काफी शोचनीय और कम अच्छी रही है फिर भी उन्होंने निजी प्रयासों और तप−साधनाओं के बल पर जगत् को कुछ दे पाने में सफलता प्राप्त की। यदि शिक्षा और विद्या के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ अथवा सम्पन्नावस्था इतनी ही आवश्यक थी तो इन सब का उच्चकोटि के सृजनशील साहित्यकार हो पाना मुश्किल ही नहीं असम्भव भी था।

सफलता और उत्कर्ष आन्तरिक उपलब्धि है जब कि अच्छी स्थिति और अनुकूल परिस्थितियाँ बाहरी साधन, ठीक उसी प्रकार जैसे अन्न भण्डार के मालिक का आहार की दृष्टि से स्वस्थ और पोषक अन्न ग्रहण कर पाना कोई आवश्यक नहीं है। यदि पेट की कोई बीमारी हो तो लाखों मन अनाज भरा होने पर भी पावभर रोटी हजम कर पाना मुश्किल है और जिसे खुलकर भूख लगती है उसे उद्यम करने के लिए उठ खड़े होना ही पड़ेगा। आन्तरिक विशेषताओं की मनःस्थिति और क्षमताओं को यदि मोड़ा जाये, जगाया जाये तो लाख परिस्थितियाँ बाधक हों, सूरमा योद्धाओं की तरह विजय के गढ़ पर सफलता का ध्वज लहराने का अवसर आ कर ही रहेगा, मिलकर ही रहेगा। सफलता और जीवन में विजयाकाँक्षियों को चाहिए कि वे परिस्थितियों का रोना ही न रोते रहें अपनी मनःस्थिति का काया-कल्प कर आत्मोत्थान के पथ पर आरुढ़ हों।

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