विष प्रयोग कीटकों को नहीं हमें मारेगा

May 1976

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कीट नाशक उपायों में अब तक एक ही कारगर उपाय सोचा जा सका है कि विषैले रासायनिक घोल छिड़ककर जहाँ भी ये कीड़े हों वहाँ ही उन्हें मार डाला जाय। डी0डी0टी0 प्रभृति औषधियों का प्रयोग इसी दृष्टि से अति उत्साह पूर्वक हुआ है, पर उससे भी कुछ हल निकला नहीं। एक तो इन कीड़ों की बढ़वार इतनी व्यापक होती है कि उन्हें मारने के लिए लगभग इतने ही मूल्य की दवाएँ चाहिए जितना कि फसल का मूल्य होता है। उन्हें हर कोई न तो खरीद सकता है और न उसका सही प्रयोग जानता है। अवाँछनीय मात्रा में असावधानी से उनका प्रयोग किया जाय तो पौधों के नष्ट होने, और उनके फल, बीज खाने वालों में विषाक्तता बढ़ जाने का खतरा स्पष्ट रहता है।

इन दवाओं के मन्द उपयोग का भी जो दुष्परिणाम सामने आया है उसने विचारशील वर्ग को चिन्ता में डाल दिया है। कीट नाशक औषधियाँ छिड़कीं तो उनका प्रभाव पौधों पर ही नहीं अन्न, शाक, फल आदि पर भी रहता है और वे पेट में पहुँचकर स्वास्थ्य संकट उत्पन्न करते हैं। गोदामों में अन्न को सुरक्षित रखने के लिए जो रसायन छिड़के जाते हैं वे घूम फिर कर खाने वालों के पेट में पहुँचते हैं और वह मन्द विष भी कालान्तर में विघातक परिणाम उत्पन्न करता है। छिड़काव से प्रभावित अखाद्य बनने लगता है। इस प्रकार वह कीट नाशक रासायनिक उपचार कीड़ों को मारने में भले ही असफल रहे, पर मनुष्यों पर अपना प्रभाव जरूर डालता है।

रेकल कार्सन ने अपनी पुस्तक साइलेन्ट स्प्रिंग में अमेरिकी जनता की शारीरिक स्थिति की चर्चा करते हुए लिखा है कि यहाँ हर मनुष्य के शरीर में डी0डी0टी0 एवं आर्गेनो क्लोरीन समूह के विषैले रसायनों की मात्रा बढ़ती ही जा रही है। अभी यह परिमाण दस लाख पीछे 12 भाग है, पर यह क्रमशः बढ़ता ही जायगा और फिर विविध विधि स्वास्थ्य संकट उत्पन्न करेगा। कीट नाशक दवाएँ बनाने वाले कारखानों के कर्मचारियों में तो यह मात्रा 648 भाग तक पहुँच गई है। ब्रिटेन के स्वास्थ्य विज्ञानी का चिन्तन है कि कीट नाशक रासायनिक प्रभाव से मानवी आहार को किस प्रकार बचाया जाय। यह चिन्ता एक देश की नहीं वरन् समस्त विश्व की समस्या है।

यहाँ एक और भी विचित्र समस्या है कि यह कीड़े जल्दी ही विषाक्त घोलों से अपनी रक्षा कर सकने योग्य क्षमता अपने में विकसित कर लेते हैं और उनकी नई पीढ़ियाँ ऐसी ढीठ उत्पन्न होती हैं जिन पर इन रसायनों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे इन छिड़कावों को अँगूठा दिखाते हुए अपना विनाश कार्य प्रसन्नता पूर्वक करते रहते हैं।

खाद्यान्न सुरक्षित रखने के लिए रेडिएशन-विकिरण का प्रयोग किया जा रहा है। रासायनिक खादों की भर-मार है उनके आधार पर खेतों में अधिक अन्न उपजाने की बातें सोची गई हैं। कीड़ों से खाद्य पदार्थों का बचाव करने के लिए डी0डी0टी0, क्लोरेडेन, डेलड्रिन, एनड्रिन सरीखी औषधियों के छिड़काव का प्रचलन बढ़ रहा है। खेतों में भी कृमि नाशक घोल छिड़के जा रहे हैं। इन से तात्कालिक समाधान मिलता है, पर दूरगामी परिणामों की उपेक्षा करते रहें तो फिर जिस मानव प्राणी के लिए यह खाद्य बढ़ाने और सुरक्षित रखे जाने का प्रयत्न हो रहा है वह इस योग्य ही न रह जायगा कि कुछ खा या पचा सके, तो आज की सफलता को असफलता के कम दुर्भाग्यपूर्ण न माना जायेगा।

प्रो0 रेकल कार्सन ने अपनी पुस्तक ‘साइलेण्ट स्प्रिंग’ में यह रहस्योद्घाटन किया है कि अमेरिकी नागरिकों के शरीरों में उनके भाग का दस लाखवाँ भाग उन विषाक्त रसायनों से भर गया है जो कीट नाशक के नाम पर अन्न, शाक, फल आदि पर छिड़की जाती हैं। दूसरे जानवर इन विषाक्त औषधियों से छिड़की हुई घास और हरियाली खाते हैं, उसके विषाक्त तत्व पशुओं के दूध एवं माँस से होकर मनुष्य शरीरों में जा पहुँचते हैं। दोनों ही तरीकों में छिड़की हुई औषधियाँ मनुष्यों के शरीरों में अपना स्थान बनाती और बढ़ाती चलती हैं। उसका दुष्परिणाम भले ही आरम्भ में कम या हल्का हो, पर जैसे-जैसे यह मात्रा बढ़ेगी, हानिकारक परिणाम भी बढ़ते ही चले जायेंगे।

यही स्थिति इंग्लैण्ड की भी है। वहाँ के स्वास्थ्य विभाग ने खाद्य पदार्थों के माध्यम से लोगों के शरीरों में बढ़ते हुए विषाक्त तत्वों की बढ़ोत्तरी के विरुद्ध चेतावनी दी है।

कीटाणु रसायन ऐसे हैं कि उन्हें जहाँ भी छिड़क दिया जाय वहाँ भयंकर महामारी फैलेगी और लोग इठ-अकड़ कर मौत के मुँह में चले जायेंगे। अन्न जल के भण्डारों में इन रसायनों को थोड़ा सा मिलाकर उसे सेवन करने वालों का प्राण हरण किया जा सकता है। हवा में भी यह कीटाणु उड़ाये जा सकते हैं और साँस लेने वाले उन संहारक विषाणुओं से आक्रान्त होकर बेतरह रोते कराहते मृत्यु के मुख में जा सकते हैं।

फसल को कीड़ों से बचाने के लिए प्रयोग किये जाने वाले विषाक्त रसायनों के प्रयोग वाली रीति-नीति ही शरीर में रोग कीटाणुओं को नष्ट करने वाली औषधियों के रूप में कार्यान्वित की जा रही है, उनका उत्पादन और प्रयोग भी अति उत्साहपूर्वक हो रहा है, पर इसके जो दूरगामी, परिणाम-सामने आते हैं उनसे निराशा ही होती है और यह सोचने के लिए विवश होना पड़ता है कि विष प्रयोग के साथ उससे संरक्षण का भी कोई दूसरा उपाय सोचना चाहिए।

झुरिक के ‘मेडीकल न्यूज’ में डॉ0 वार्वली का एक-लेख छपाया है जिसमें उन्होंने औषधि विज्ञान की इस असफलता को स्वीकार किया है कि उपयोगी और शक्ति-शाली औषधियाँ भी अब मनुष्य शरीरों पर अपना असर क्रमशः कम ही करती हैं, इसका कारण वायुमण्डल में जहरीले रसायनों का भर जाना और उसमें निरन्तर साँस लेते रहने वाले मनुष्यों की जीवनी शक्ति का मूर्छित हो जाना है। मृतकों पर दवा क्या काम करेगी? अर्ध मृतकों पर भी उसकी कोई सन्तोषजनक प्रक्रिया नहीं होती। आज का हँसता चलता आदमी भी जीवन शक्ति की कसौटी पर अर्ध मूर्छित, अर्ध मृतक और विषाक्त रसायनों का भण्डार बनता जाता है, ऐसी दशा में औषधियों का प्रभाव उसके शरीर पर स्वल्प ही दिखाई पड़े यह स्वाभाविक ही है। अब सशक्त औषधियों का आविष्कार और चिकित्सकों का निदान उपचार एक प्रकार अशक्त और असफल होता चला जा रहा है।

इन दिनों रासायनिक उत्पादन तेजी से हो रहा है, प्रत्यक्ष और तात्कालिक लाभ की तुलना में यह नहीं सोचा जा रहा है कि इस प्रयास में जो विषाक्तता उत्पन्न होगी उसका दूरगामी परिणाम क्या होगा ? सिगरेट उत्पाद को ही लें-उसे पीने वालों को मजा आता है और उत्पादकों को लाभ मिलता है सो ठीक है, पर सिगरेटों के धुँए से लगभग 250 प्रकार के ऐसे विषैले तत्व वायुमण्डल में भरते जाते हैं जिनसे समस्त प्राणियों के लिए जीवन संकट उत्पन्न होता है। विभिन्न प्रकार के रासायनिक उत्पादन प्रायः दस हजार प्रकार के विषाक्त तत्वों को हवा में भरते चले जा रहे हैं। इनकी निरन्तर अभिवृद्धि का आगामी परिणाम क्या होगा, यदि यह विचार किया जाय तो लगेगा कि यह मौत की फुलझड़ी का खेल-खेला जा रहा है।

ब्रिटेन की चिकित्सा पत्रिका ‘लेन्सैट’ ने एल0 डी0 नामक दवा के तात्कालिक लाभ के फेर में पड़कर स्वास्थ्य संतुलन को चौपट बना लेने वालों के रोमांचक विवरण छापे हैं। यह दवा कुछ समय पूर्व कम्पन रोग के लिए निकाली गई थी और अपने कार्य के लिए रामबाण समझी जाती है। जिनके हाथ, पैर या गर्दन काँपने लगते थे वे इसका सेवन करते ही जादू जैसा लाभ देखते थे फलतः उसे मरीजों ने बड़ी आतुरता और उत्सुकता के साथ सेवन किया। देखते-देखते उस दवा की चर्चा घर-घर पहुँच गई और निर्माता के दरिद्र पार हो गये।

एक समय की यह रामबाण दवा दूसरे समय में अभिशाप सिद्ध हुई और उसके निर्माण एवं प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगा।

कीड़े फसल को नुकसान पहुँचाते हैं- कीड़े शरीर को नुकसान पहुँचाते हैं यह अक्षरशः सही है। पर साथ ही यह भी सही है कि उनके निवारण का उपाय इन्हें विष देकर मारना नहीं है। कीड़ों को अकेले ही नहीं मारा जा सकता उनके साथ साथ मनुष्य भी मरेगा ऐसी दशा में फसल की सुरक्षा और रोगों की निवृत्ति के नाम पर बरता गया अति उत्साह, हमें कीड़ों से होने वाली हानि से भी अधिक महंगा पड़ेगा।

विष प्रयोग के तात्कालिक चमत्कारी प्रभाव की जादुई बाल-क्रीड़ा में उलझे रहने से काम न चलेगा। हमें फसल के पौधों में और मानवी शरीरों में उस जीवनी शक्ति का अभिवर्धन करना पड़ेगा जिसके कारण कीटकों को न आक्रमण करने की हिम्मत पड़े और न बढ़ने, विकसित होने की।

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