आत्म-विकास के लिए भक्तियोग की साधना

May 1976

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भारतीय तत्व ज्ञान में चेतना की तीन परतें बताई गई हैं। इन्हीं को तीन शरीर आवरण कहते हैं- स्थूल शरीर- रक्त-माँस की चलती फिरती काया। सूक्ष्म शरीर- मस्तिष्क में अवस्थित चेतन और अचेतन की दो परतों वाला मनः संस्थान। कारण शरीर- भाव सम्वेदनाओं, मान्यताओं एवं आस्थाओं का समुच्चय। उसका स्थान शरीर का मध्य केन्द्र- सूर्य चक्र दिव्य हृदय माना गया है। यह तीनों ही शरीर क्रमशः एक से एक अधिक सशक्त और प्रभावशाली हैं। भावनाओं का विचारणा पर और अविचारणा का क्रियाशीलता पर आधिपत्य है। इस प्रकार मनुष्य की सर्वोपरि सत्ता भाव चेतना ही ठहरती है। व्यक्तित्व का बीज स्वरूप यही है। इसी की प्रेरणा से मन, बुद्धि और चित्त को काम करना पड़ता है। शरीर का संचालन मन करता है, पर मन को दिशा अन्तरात्मा से मिलती है। इसी को तत्वदर्शियों ने ‘अहम्’ कहा है। अँग्रेजी में इसी को ‘ईगो’ कहते हैं।

‘अहम्’ को विकसित परिष्कृत करने की प्रक्रिया को ‘आत्म-साधना’ कहते हैं। उसमें भावनाओं के विकास को आगे रखना होता है। भावनाओं में सर्वोपरि है- प्रेम। इसी के इर्द गिर्द दिव्य सम्वेदनाओं का सारा परिकर जुड़ा होता है।

कर्मयोग को- शरीर की आचार-संहिता, ज्ञानयोग को चिन्तन की उत्कृष्टता कह सकते हैं। भक्तियोग द्वारा प्रेम सम्वेदना को विकसित किया जाता है। दया, करुणा, मैत्री, उदारता, सेवा, सज्जनता, सहृदयता आदि अन्तःकरण की दिव्य विशेषताएं प्रेम विस्तार के साथ-साथ परिपुष्ट होती हैं। अस्तु योग की तीन धाराओं में क्रमशः कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग की साधना प्रक्रिया अपनाई जाती है।

प्रेम मानवी अन्तरात्मा का रस है। यह जहाँ से उद्भूत होता है वहाँ ऐसी उल्लास भरी आनन्दानुभूति होती है जिसकी तुलना सांसारिक किसी पदार्थ से नहीं की जा सकती। उसे अलौकिक रस के - नाम से सम्बोधित किया जाता है। इस निर्झर का जल जो भी पीता है असीम तृप्ति अनुभव करता है प्रेमी अन्तःकरण अपने से सम्बद्ध व्यक्तियों को अतिशय बल प्रदान करता है। वातावरण को परिष्कृत कर सकना भी इस भक्ति भावना के विकास विस्तार से सम्भव हो जाता है।

अन्न शरीर का आहार है- ज्ञान मस्तिष्क का। अन्तरात्मा की भूख प्रेम से बुझती है। अन्तराल को पोषण उसी सघन आत्मीयता से मिलता है जिसे सामान्य व्यवहार में प्रेम और अध्यात्म की शब्दावली में ‘भक्ति’ कहते हैं। भक्ति के सम्वर्धन का अभ्यास ईश्वर उपासना के माध्यम से किया जाता है पर वह उतने तक ही सीमित नहीं रहता। व्यायामशाला में शरीर को परिपुष्ट बनाया जाता है पर उस पुष्ट शरीर का उपयोग व्यायामशाला तक सीमित न रहकर विभिन्न प्रयोजनों के लिए होता है। जिस तालाब में तैरना सीखते हैं उसी में आजीवन तैरा जाये अन्य कहीं उस कला का उपयोग न हो, ऐसा कहाँ होता है। ईश्वर भक्ति की साधना से परिष्कृत अन्तः चेतना को अपनी सघन आत्मीयता एवं सहृदयता का परिचय पग-पग पर देना होता है। इससे प्रेमी तो धन्य होता ही है- प्रेम पात्र को भी अति महत्वपूर्ण लाभ मिलता है। गंगा स्वयं तो पवित्र होती ही है उसमें स्नान करने वाले भी पवित्र बनने लगते हैं।

प्रेम मानवी अन्तरात्मा की भूख है। इसका नियमित अभ्यास करने के लिए ही मित्र, प्रियजनों का परिवार बसाया, बढ़ाया जाता है। प्रेम का आदान-प्रदान दोनों ही पक्षों के कारण शरीर को बल प्रदान करता है। जहाँ प्रेम का आदान-प्रदान न हो सका वहाँ भौतिक सुख-साधनों का बाहुल्य होते हुए भी किसी को तृप्ति न मिल सकेगी। इस अभाव के कारण अन्तः भूमिका का तृषित और मूर्छित ही बनी रहती है।

कई छोटे बच्चे ऐसे मिले जिनमें बाल्यकाल से ही विध्वंसात्मक प्रवृत्तियों का विकास आयु के अनुपात से कई गुना अधिक था। न्यूयार्क (अमेरिका) के डॉक्टर रेनी स्पिट्ज ने उनकी पारिवारिक परिस्थितियों की जानकारी प्राप्त की तो मालूम हुआ कि उनमें से 99 प्रतिशत ऐसे थे जिन्हें अपनी माँ का प्रेम नहीं मिला था। या तो उनकी माँ का देहावसान हो चुका था या सामाजिक परिस्थितियों ने उन्हें माँ से अलग कर दिया था।

इस प्रारम्भिक अन्वेषण ने डॉ0 रेनी स्पिट्ज में प्रेम भावना के वैज्ञानिक विश्लेषण की प्रेरणा भर दी। उन्होंने दो भिन्न सुविधाओं वाले संस्थानों की स्थापना की। एक में वह बच्चे रखे गये जिन्हें थोड़ी-थोड़ी देर में माँ का वात्सल्य और दुलार प्राप्त होता था। वे जब भी चाहें, जब भी माँ को पुकारें उन्हें अविलम्ब वह स्नेह सुलभ किया जाता था और दूसरी ओर वह बच्चे रखे गये जिनके लिए बढ़िया से बढ़िया भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा, क्रीड़ा के बहुमूल्य साधन उपस्थित किये गये, पर मातृप्रेम के स्थान पर उन्हें एक संरक्षिका भर मिली थी जो दस-दस बारह-बारह बालकों का नियन्त्रण करती थी। प्रेम और दुलार इतने बच्चों को वह भी कृत्रिम वहाँ अकेली नर्स कहाँ से दे पाती ? हाँ कभी -कभी झिड़कियाँ उन बच्चों को अवश्य पिला देती। उन बच्चों का यही था जीवन क्रम!

एक वर्ष बाद दोनों स्थानों के बच्चों का परीक्षण किया गया। उनकी कल्पना शक्ति की मनोवैज्ञानिक जाँच, शारीरिक विकास की माप, सामाजिकता के संस्कार, बुद्धि चातुर्य और स्मरण-शक्ति का परीक्षण किया गया।

जिस प्रकार दोनों की परिस्थितियों में पूर्ण विपरीतता थी परिणाम भी एक दूसरे से ठीक उलटे थे, जिन बच्चों को साधारण आहार दिया गया था- जिनके लिए खेलकूद, रहन-सहन के साधन भी उतने अच्छे नहीं दिये गये थे किन्तु माँ का प्रेम प्रचुर मात्रा में मिला था, पाया गया कि उन बच्चों की कल्पना शक्ति, स्मृति सामाजिक संबंधों के संस्कार, शारीरिक और बौद्धिक क्षमता का विकास 101.5 से बढ़कर एक वर्ष में 105 विकास दर बढ़ गया था। दूसरे संस्थान के बच्चों की, जिन्हें भौतिक सुख-सुविधाओं की तो भरमार थी पर प्यार के स्थान पर गहन शून्यता, विकास दर 124 से घटकर 72 रह गई थी। इन बच्चों को उसी अवस्था में एक वर्ष तक और रखा गया तो पाया कि वह औसत 72 से भी घटकर बहुत ही आश्चर्यजनक बिन्दु 42 तक उतर आया है।

पहली संस्था के बच्चों के शारीरिक विकास के साथ दीर्घ जीवन में भी वृद्धि हुई, क्योंकि देखा गया कि उस संस्थान में जो 236 बच्चे रखे गये थे, उनमें से इस दो वर्ष की अवधि में एक भी शिशु की मृत्यु नहीं हुई जबकि प्यार-विहीन बच्चों वाले संस्थान के 37 प्रतिशत शिशु काल के मुख में अकाल में ही समा गये।

डॉ0 फ्रीटस टालबोट एक बार जर्मनी गये। वहाँ उन्होंने ड्यूशेल्डोर्फ नगर का बच्चों का अस्पताल देखा। इस अस्पताल में उन्होंने एक वृद्ध स्त्री देखी जो देखने में आकर्षक भी नहीं थी किन्तु जितनी बार भी डॉ0 टालबोट ने इसे देखा उसकी मुखाकृति में एक विलक्षण शाँतिप्रद सौम्यता और मुस्कान उन्होंने देखी। हर समय उसकी बगल में कोई न कोई बच्चा दबा हुआ होता। टालबोट के मन में उस स्त्री को देखकर उसे जानने की अनायास जिज्ञासा उत्पन्न हो गई। उन्होंने अस्पताल के डाइरेक्टर से उस स्त्री का परिचय पूछा तो- डाइरेक्टर ने बताया वह तो अन्ना है श्रीमानजी! डाक्टरों की डॉक्टर। एक ही औषधि है उसके पास ‘प्रेम’ जिन बच्चों को हम असाध्य रोगी घोषित कर देते हैं, अन्ना उन्हें भी अच्छा कर देती है।

कवींस यूनिवर्सिटी, आन्टोरिया, (कनाडा) द्वारा “प्रेम का प्राणियों पर भौतिक प्रभाव” विषय पर एक नई खोज के परिणाम सामने आये हैं। इस विश्वविद्यालय के फार्माकोलौजी विभाग के प्राध्यापक डॉ0 एल्डन वायड ने बताया कि उनके विभाग की एक महिला कर्मचारी विभाग को संभालती है, उसे स्वभावतः चूहों से बहुत प्रेम है। वह उन्हें दुलार भरी दृष्टि से देखती है, उनकी सुविधाओं का ख्याल रखती है और यथा सम्भव अपने व्यवहार में प्रेम प्रदर्शन भी करती है। इसका प्रभाव चूहों पर आश्चर्यजनक हुआ है। महिला ने चूहों के नाम रख छोड़े हैं और वह जिसे पुकारती है वही आगे आता है। जैसे ही वह पिंजड़े के पास जाती है चूहे उसके पास इकट्ठे हो जाते हैं और एकटक देखते रहते हैं। जो भी वह खिलाती है खुशी-खुशी खा लेते हैं यद्यपि उनमें तरह तरह की औषधि मिली रहने से वह भोजन उनकी रुचि और प्रकृति के प्रतिकूल होता है कई बार कष्ट कर विधि से चूहों के शरीर में औषधियाँ पहुँचाई जाती हैं। अनुभव होने पर तो इसके लिए किसी चूहे को तैयार नहीं होना चाहिए, पर वह महिला जिस चूहे को चाहती है, खुशी - खुशी इस प्रयोग के लिए सहयोग देने के लिए तैयार कर लेती है।

श्रीमती डोरिस मुँडे- पचास वर्ष की वृद्धा शरीर से सामान्य व्यक्तियों की तरह साधारण, किन्तु असाधारण भावनाओं वाली श्रीमती डोरिस एटलस निकालकर देखती है वह स्थान किस देश, किस महाद्वीप में है। फिर ध्यान लगाकर बैठ जायेंगी और कुछ ही क्षणों में उनकी स्थिति समाधिस्थ योगी की सी हो जायेगी। शरीर कमरे में रखा हुआ होगा और भाव-शरीर उस सूखे वाले इलाके में। वह अपने हृदय की सम्पूर्ण एकाग्रता और तल्लीनता के साथ भावना करती है कि मेरी अजस्र प्राण शक्ति बादलों में घुल रही है। अब इन बादलों को लेकर मैं उस सूखे वाले क्षेत्र की ओर चल पड़ी। बादलों की क्या बिसात! जो मेरी आज्ञा न मानें, आगे-आगे मैं पीछे पीछे बादल। लो आ गया यह सूखा क्षेत्र। बादलों! यह देखो प्यासी धरती, प्यासे लोग, प्यासे जीव-जन्तु कितने दुखी हो रहे हैं संसार का सुख और शान्ति करुणा पर टिका है। हर सम्पन्न व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अभावग्रस्त प्राणियों के उत्थान और उद्धार के लिए कुछ दे। तुम स्वार्थ क्यों बरतते हो, देने की कंजूसी मत करो अब बरसो! बरसो! बादलो अब तो तुम्हें बरसना ही पड़ेगा।

पानी बरसने लगता है। लोग खुशी से नाचने लगते हैं और उनकी प्रसन्नता में अपनी प्रसन्नता घुलाकर श्रीमती डोरिस की आत्म-चेतना वापस लौट आती है। दूसरे दिन अखबार में समाचार आता है उस स्थान में इतनी जलवृष्टि हुई कि सूखा समाप्त हो गया। यह समाचार पढ़कर श्रीमती डोरिस की प्रसन्नता का पारावार नहीं रहता।

श्रीमती डोरिस का कहना है कि सच्चे हृदय से की गई प्रार्थना के आगे बादल तो क्या भगवान को भी झुकना पड़ता है। उन्होंने “नाफिन” को बताया कि अपनी इस भावना शक्ति के द्वारा हमने लाल चीन, पेरु, अमरीका तथा भारत का सूखा दूर कराया है। कुछ दिन पूर्व बिहार और पाँच वर्ष पहले आस्ट्रेलिया में पड़े जबरदस्त अकाल को दूर करने में उन्होंने अपनी शक्ति का प्रयोग किया था और उन्हें सफलता मिली थी। यह समाचार 28 जुलाई की “नई दुनिया” और संसार के अन्य समाचार पत्रों में छपा था उससे लोगों को भावनाओं की शक्ति का पता चला।

शारीरिक और मानसिक रोगों की जड़ बहुधा मनुष्य के कारण शरीर में छिपी होती है। पापात्मा और कुकर्मी व्यक्ति अपनी ही आत्म प्रताड़ना से पिटकर मानसिक दृष्टि से विकृत और शारीरिक दृष्टि से रुग्ण बनते हैं। इनके अन्य उपचार जो भी हों उन्हें प्रायश्चित एवं पश्चाताप के लिए अवश्य कहा जाना चाहिये। सुधरी हुई अन्तःचेतना से जो हलकापन उत्पन्न होता है उसके कारण रोगों की जड़ें अपने आप कटती चली जाती हैं। यह आत्म चिकित्सा जितनी उपयोगी होती है उतना अन्य कोई उपचार नहीं होता।

डॉ0 होप ने कहा है, “पाप और बीमारी में कोई अन्तर नहीं है। सच्चा चिकित्सक रोगी को दवा देकर छुटकारा नहीं पा सकता, वरन् उसे रोगी की आन्तरिक विकृतियों को भी समझना देखना होगा। इसके बिना अधूरी चिकित्सा के आधार पर रुग्णता का उन्मूलन नहीं किया जा सकेगा।”

रोगी की चिकित्सा में औषधियाँ उतना काम नहीं करतीं जितनी कि चिकित्सक की सहानुभूति। मिठास और आत्मीयता भरे व्यवहार में नाममात्र की औषधि देकर भी कठिन रोगों को अच्छा किया जा सकता है। जबकि कर्कश और कठोर स्वभाव का चिकित्सक कीमती उपचार करते रहने पर भी उतना लाभ नहीं दे सकता। यह बात परिचायक और परिचर्या के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है।

अपने व्यक्तित्व को सीमित करने का नाम स्वार्थ और विकसित करने का नाम परमार्थ है। सीमित प्राण दुर्बल होता है पर जैसे- जैसे उसका अहम् विस्तृत होता जाता है वैसे ही आन्तरिक बलिष्ठता बढ़ती चली जाती है। प्राण शक्ति का विस्तार सुखदुःख की अपनी छोटी परिधि में केन्द्रित कर लेने से रुक जाता है, पर यदि उसे असीम बनाया जाये और स्वार्थ को परमार्थ में परिणत कर दिया जाये तो इसका प्रभाव यश, सम्मान, सहयोग के रूप में बाहर से तो मिलता ही है। भीतर की स्थिति भी द्रुतगति से परिष्कृत होती है और व्यक्तित्व प्रखर होता चला जाता है।

आपको मालूम है कि गंगा आदि नदियों का सम्बन्ध हमारे पूर्वजों ने क्यों स्वीकार किया है इसलिए कि वे दीर्घ बहती हैं। दीर्घत्व का अर्थ यह नहीं है ? कि वे लम्बी बहती हैं। दीर्घत्व का अर्थ यह है कि वे उद्गम स्थान से प्रवेश स्थान तक जल धारा को टूटने नहीं देतीं। अतः इन्हें गन्दे नाले भी गन्दे नहीं बना सकते हैं, अपितु वे इनमें मिलकर शुद्ध, पवित्र, स्वच्छ बन जाते हैं, कहाँ तक कहें वे नाले नाले नहीं रहे, गंगा आदि स्वच्छ, पवित्र, पापनाशक हो जाते हैं वैसे ही दीर्घ प्राणों में अदीर्घ अस्वच्छ निर्मल प्राण भी मिलकर सबल, आरोग्यवर्धक, शक्तिशाली हो जाते हैं अतः पूर्वोक्त नदियों के महत्व का कारण उनका दीर्घत्व ही है। वैसे ही प्राणों का महत्व भी दीर्घत्व ही है। अतः जो प्रायः चौदह सौ फुट के फुसफुसों में सर्वत्र दीर्घ गति करता है वह शरीर मात्र की सर्वत्र गन्दी नालियों में बहने वाले विस्फोटक वायु एवं मलीन रक्त को शुद्ध पवित्र बना अपना रूप बना लेता है।

विचारधारायें परिपुष्ट होकर व्यक्तित्व या प्रतिभा का रूप धारण करती हैं। तब मनुष्य उसी रंग में रंग जाता है, उसी ढांचे में ढल जाता है। प्राण शक्ति और विचार प्रक्रिया का समन्वित निर्माण तेजस् के रूप में होता है। उसे चेहरे के आसपास तेजोवलय के रूप में देखा जा सकता है, विशेषतया उन व्यक्तियों में जिन्हें तेजस्वी समझा जाता है। देवताओं की तस्वीरों में उनके चेहरे के इर्द-गिर्द सूर्य जैसी आभा का चित्रण किया जाता है, यह मात्र देवताओं में ही नहीं होता वरन् हर व्यक्ति में देखा जा सकता है। विशेषतया उन व्यक्तियों में जिन्हें तेजस्वी समझा जाता है। इस प्रभा मण्डल को अँग्रेजी में “औरा” कहते हैं, संस्कृत में ओजस्। शारीरिक स्वास्थ्य या सौन्दर्य से उसका सीधा सम्बन्ध नहीं है। चेहरे की बनावट या चमक अलग बात है, तेजस्विता उससे बिल्कुल भिन्न वस्तु है। विचार, भाव, संकल्प और लक्ष्य की समन्वित प्रखरता से इसका निर्माण होता है। व्यवहार में उसकी अनुभूति चुम्बकीय आकर्षण के रूप में देखी जा सकती है।

देखा गया है कि किन्हीं विशेष व्यक्तियों को देखते ही उनके प्रति हमारी सहज श्रद्धा, ममता और आत्मीयता जगती है, विश्वास होता है और प्रेम उमड़ता है। इच्छा होती है कि उनके सान्निध्य में रहा जाय। जब तक साथ रहते हैं उच्चस्तरीय विचार उठते हैं। यह सात्विक एवं उच्चस्तरीय तेजोवलय का प्रभाव है।

जो हो तेजोवलय एक सम्पदा है जो दूसरों पर प्रभाव या छाप छोड़ने के सन्दर्भ में बहुत काम करती है। यह किसी प्रयत्न या उपचार से उत्पन्न नहीं किया जा सकता, वह तो अन्तः स्थिति का दर्पण मात्र है। व्यक्तित्व को ढालने के लिए जो कुछ करना आवश्यक होता है उसे ही तेजोवलय की साधना कह सकते हैं। इस ओजस् तेजस्विता के सामने या सम्पर्क में आने वाले व्यक्ति ही प्रभावित नहीं होते वरन् वातावरण भी विनिर्मित होता है। जहाँ सज्जन निवास करते हैं वहाँ बसन्त जैसी सुरभित प्रफुल्लता छाई हुई देखी जा सकती है और उस सुषमा से कितनों को कितनी प्रेरणा मिल रही है यह प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। यह सब प्राण शक्ति के विस्तृत होने का ही परिणाम है।

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