मंत्र में शक्ति कहाँ से और कैसे आती है ?

May 1976

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मंत्र साधना केवल कुछ शब्दों के संग्रह को बार-बार दुहराते रहना भर नहीं है वरन् शब्द शक्ति का विज्ञान समस्त उपयोग है। उनमें मंत्र साधक को संयम, मनोनिग्रह और भाव संवर्धन के तीनों तत्व मिलाने पड़ते हैं तब कहीं शब्द शक्ति के चमत्कारी विकास का अवसर मिलता है। शरीर के विकास में अन्न, जल और वायु का पोषण चाहिए। उसी प्रकार शब्द को मंत्र शक्ति का रूप धारण करने के लिए साधक को त्रिविध परिष्कार की आवश्यकता पड़ती है। यों शब्द समुच्चय के रूप में बने हुए मंत्रों की अपनी निजी विशेषता भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।

मंत्र जप में शारीरिक और मानसिक स्थिति ऐसी बनानी पड़ती है जिसमें उच्चारित शब्द प्रवाह मात्र उच्चारण बनकर न रहा जाय। आवाज भर को दुहराने के लिए मुख यन्त्र का उपयोग किया जाता रहा तो उसका साधक पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव तो होगा, पर वह प्रवाह उत्पन्न न हो सकेगा जिसकी तुलना श्रवणातीत ध्वनियों से की जा सकती है।

शब्द विज्ञान के शोधकर्त्ताओं ने जाना है कि जो मुख से बोले और कानों से सुने जाते हैं मात्र उतनी ही सीमा तक ध्वनि विस्तार नहीं है वरन् ऐसी भी आवाजें इस संसार में प्रवाहित होती हैं जो कानों से तो नहीं सुनी जा सकती हैं पर प्रभाव की दृष्टि से अत्यन्त सामर्थ्यवान होती है।

कहने की आवश्यकता नहीं है कि “शब्द” या ध्वनियाँ हर व्यक्ति को प्रभावित करती हैं किसी बच्चे ने कभी शेर की दहाड़, हाथी की चिंघाड़ न सुनी हो और उसे एकाएक सुनने को मिल जाये तो वह घबरा जायेगा हालाँकि उसे यह पता नहीं होगा कि शेर हिंसक जीव है। कोयल की कूक से प्रसन्नता और कौवे की काँव-काँव से कर्कशता का स्वतः भान होता है। शब्द एक प्रकार का आलोड़न है जैसे कोई पानी को मथे और काई को दूर कर दे। उसी प्रकार शब्दों के कम्पन न केवल विशिष्ट प्रभाव उत्पन्न करते हैं, वरन् यह कम्पन “संवहन” की शक्ति भी रखते हैं और काई के समान ही विजातीय द्रव्य को खींचकर बाहर भी निकाल सकते हैं। शरीर में कुछ ऐसी चक्र ग्रन्थियाँ, गुच्छक और उपत्यिकाएं होती हैं जो शब्दों की ध्वनियों को अपने-अपने ढंग से प्रभावित और प्रसारित करती हैं। भाव विज्ञान के ज्ञाता मन्त्रज्ञ इन स्वर लहरियों को ही रोग निवारक शक्ति के रूप में प्रयोग करते रहे हैं।

शब्द शक्ति को ताप में परिणत किया जा सकता है। शब्द जब मस्तिष्क के ज्ञान कोषों से टकराते हैं तो हमें कई प्रकार की जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। यदि उन्हें पकड़ कर ऊर्जा में परिणत किया जाय तो वे बिजली, ताप, प्रकाश, चुम्बकत्व के रूप कितने ही प्रकार का क्रिया-कलाप सम्पन्न कर सकने योग्य बन सकते हैं।

इलेक्ट्रोनिक्स के उच्च विज्ञानी ऐसा यन्त्र बनाने में सफल नहीं हो सके हैं जो श्रवण शक्ति की दृष्टि से कान के समान सम्वेदनशील हो। कानों की जो झिल्ली आवाज पकड़कर मस्तिष्क तक पहुँचाती है, उसकी मोटाई एक इंच के ढाई हजारवें हिस्से के बराबर है। फिर भी वह कोई चार लाख प्रकार के शब्द भेद पहचान सकती है और उनका अन्तर कर सकती है। अपनी गाय की या मोटर की आवाज को हम अलग से पहचान लेते हैं यद्यपि लगभग वैसी ही आवाज दूसरी गायों की या मोटरों की होती है, पर जो थोड़ा सा भी अन्तर उनमें रहता है, अपने कान के लिए उतने से ही अन्तर कर सकना और पहचान सकना सम्भव हो जाता है। कितनी दूर से किस दिशा से, किस मनुष्य की आवाज आ रही है, यह पहचानने में हमें कुछ कठिनाई नहीं होती। यह कान की सूक्ष्म संवेदनशीलता का ही चमत्कार है।

श्रवण शक्ति का बहुत कुछ सम्बन्ध मन की एकाग्रता से है। यदि किसी बात में दिलचस्पी कम हो तो पास में बहुत कुछ बकझक होते रहने पर भी अपने पल्ले कुछ नहीं पड़ेगा। किन्तु यदि दिलचस्पी की बात हो तो फुसफुसाहट से भी मतलब की बातें आसानी से सुनी समझी जा सकती हैं। कहना न होगा कि मंत्र−साधना के साथ ध्यान प्रक्रिया इसीलिये जोड़ी गई कि उच्चारण के साथ-साथ मानसिक एकाग्रता बनी रहे और प्रयुक्त शब्द प्रवाह को सामर्थ्यवान बनने के लिए एकाग्रताजन्य ऊर्जा की सहायता मिलती रहे।

ऐसी ध्वनि तरंगें (साउण्ड-वैव्स) जिनको हम सुन नहीं सकते, आज वैज्ञानिक एवं व्यावसायिक जगत में क्रान्ति मचाये दे रही हैं। कर्णातीत ध्वनि (साउण्ड व्हिच कैन नाट बी हर्ड बाई इयर) पर नियन्त्रण करके अब चिकित्सा शल्यकीट और कीटाणुओं का संहार, धुँआ और कोहरा दूर करना, कपड़े, कम्बल और बहुमूल्य गलीचों को धोकर साफ करना, घड़ी आदि के पुर्जे चमकाना, साफ करना जैसे छोटे-मोटे काम ही नहीं धातुओं को क्षण भर में काट डालना, छेद डालना, गला देना, एक दूसरे में जोड़ देना आदि ऐसे काम होने लगे हैं, जिनको बड़ी-बड़ी मशीनें भी काफी समय में कर सकती हैं। ध्वनि की इस करामात पर आज सारा संसार आश्चर्य चकित है, लोग समझ नहीं पा रहे कि इतनी सूक्ष्म गतिविधि से इतने भारी कार्य कैसे सम्पन्न हो जाते हैं। विद्युत से भी अधिक तीक्ष्ण और सर्वव्यापी कर्णातीत नाद शक्ति की वैज्ञानिक बड़ी तत्परतापूर्वक शोध कर रहे हैं।

आज के विज्ञान की दृष्टि में भी स्थूल ध्वनि कोई महत्व नहीं रखती, क्योंकि सुन ली जाने वाली ध्वनि (औडिबल साउण्ड) की शक्ति बहुत थोड़ी होती है। यदि डेढ़ सौ वर्ष तक निरन्तर ऐसी ध्वनि उत्पन्न की जाय तो उससे केवल एक कप चाय गरम करा लेने ही जितनी शक्ति पैदा होगी। किन्तु श्वांस या विचार तरंगों के रूप में शब्द का जो मानसिक स्फोट होता है वह बड़ा शक्तिशाली होता है, यद्यपि वह ध्वनि सुनाई नहीं देती, पर वह इतनी प्रखर होती है कि अपनी एक ही तन्मात्रा से वह परमाणुओं का विखण्डन कर सकती है और उससे उतनी ऊर्जा पैदा कर सकती है, जिससे विश्व के किसी भूभाग यहाँ तक चन्द्रमा और सूर्य में भी क्रान्ति पैदा कर दी जा सकती है। इस शक्ति को मन्त्र विज्ञान से जाना जाता है और उसकी ब्रह्म शक्ति या कुण्डलिनी शक्ति के रूप में प्रतिष्ठा की गई है।

“अल्ट्रा साउण्ड” उस ध्वनि को कहते हैं जो मनुष्य के कान से किसी भी स्थिति में न सुनी जा सके। अति सूक्ष्म कम्पनों को जब विद्युत आवेश प्रदान किया जाता है तो उसकी भेदन क्षमता इतनी बढ़ जाती है कि सघन से सघन वस्तुओं के परमाणुओं का भी भेदन करके उसकी आन्तरिक रचना का स्पष्ट फोटोग्राफ प्रस्तुत कर देती है।

उदाहरण के लिए शिकागो की एक महिला की डॉ0 परीक्षा की गई, पर डॉ0 यह निश्चय नहीं कर पाये कि इसके पेट में ट्यूमर की गाँठ है अथवा गर्भ। एक्सरे पर एक्सरे खींचे गये, पर स्थिति का सही पता नहीं चल सका। तब अल्ट्रा साउण्ड का प्रयोग किया गया और यह साफ प्रकट हो गया कि महिला के पेट में गर्भ विकसित हो रहा है। भूटा अमेरिका में एक व्यक्ति से धोके में गोली चल गई। छर्रा एक छोटे बच्चे के आँख, में धंस गया, डाक्टरों ने पचासों प्रयत्न किये पर यह पता नहीं चल पाया कि कारतूस का टुकड़ा किस स्थान पर डट गया है।

ब्रह्माण्ड में चल रहे स्वर प्रवाह की तरह ही पिंडरूपी सितार भी अपने क्रम से झंकृत होते रहते हैं। मेरुदण्ड स्पष्टतः वीणा दण्ड है। सात धातुओं से सात तार उसमें जुड़े हैं। सप्त विधि अग्नियों का पाचन परिपाक चलते रहने से ही तो प्राण को पोषण मिलता है और जीवन को स्थिर रक्खा जाता है। यह अग्नियाँ सात धातुओं को पकाती हैं और परिपाक को तेजस में बदलती है।

(1) पेशियों का आकुँचन-प्रकुँचन (2) नाड़ियों का रक्ताभिषरण (3) फुफ्फसों का श्वाँस-प्रश्वाँस (4) हृदय की धड़कन (5) मस्तिष्कीय विद्युत का ऋण धन का आरोह-अवरोह (6) चित का विश्राम जागरण (7) कोशिकाओं का जन्म-मरण यह सात क्रिया-कलाप ही जीवन विद्या के मूलभूत आधार हैं। इन्हीं को सप्तऋषि, सप्तलोक, सप्तद्वीप, सप्तसागर, सप्तमेरु, सप्तशक्ति के नाम से पुकारते हैं। शब्द सूर्य के यही सप्त अश्व हैं-

कैलीफोर्निया अमेरिका में हुए एक प्रयोग में एक वैज्ञानिक ने एक सेकिण्ड में पाँच करोड़ से अधिक कम्पन वाली ध्वनि पैदा कर दी, उस क्षेत्र में रुई का टुकड़ा पड़ा था वह अकस्मात जल उठा वैज्ञानिकों के कपड़े इतने गर्म हो उठे कि यदि वे कुछ देर के लिए उस क्षेत्र से अलग नहीं हो जाते और ध्वनि का कम्पन थोड़ा और तीव्र हो जाता तो उनके शरीर के कपड़े भी जलने लगते।

श्रवणातीत ध्वनियों का अमुक स्तर अग्निकाण्ड उत्पन्न कर सकता है। यह एक प्रयोग है। उसे अन्य प्रयोजनों में प्रयुक्त किया जा सकता है। मन्त्र साधना में वाणी से ही सारा कार्य पूरा नहीं कर लिया जाता वरन् भीतरी अवयवों में से प्रत्येक द्वारा एक विशिष्ट ध्वनि प्रवाह उत्पन्न करना पड़ता है। उसकी क्षमता श्रवणातीत ध्वनियों के स्तर की होती है। शरीर के अवयवों से ध्वनि तरंगें निकलती हैं यह तथ्य वैज्ञानिक प्रयोगशाला में प्रमाणित हो चुका है।

न्यूजर्सी की टेलीफोन प्रयोगशाला में एक कमरा इस तरह बनाया गया कि उसमें कोई बाहरी आवाज तनिक भी प्रवेश न कर सके। इसमें प्रवेश करने पर कुछ ही समय में मनुष्य को सीटी बजने, रेल चलने, झरने गिरने, आग जलने, पानी बरसने के समय होने वाली आवाजों जैसी ध्वनियाँ सुनाई पड़ती थीं। इस प्रयोग को कितने ही मनुष्यों ने अनुभव किया, बात यह थी कि शरीर के भीतर जो विविध क्रिया-कलाप होते रहते हैं उनसे ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं। वे इतनी हलकी होती हैं कि बाहर होते रहने वाले ध्वनि प्रवाह में वे एक प्रकार से खो जाती है। नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह यह भीतरी अवयवों की ध्वनियाँ कानों तक नहीं पहुँच पाती, पहुँचती है तो वायुमण्डल में चल रहे शब्द कम्पनों की तुलना में अपनी लघुता के कारण उनका स्वल्प अस्तित्व अनुभव न होता हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं, पर जब बाहर की आवाज रोक दी गई और केवल भीतर की ध्वनियों को मुखरित होने का अवसर मिला तो वे इतनी स्पष्ट सुनाई देने लगीं मानो वे अंग अपनी गतिविधियों की सूचना चिल्ला-चिल्लाकर दे रहे हों। कान जैसा कोई इलेक्ट्रानिक मनुष्य द्वारा बन सकना सम्भव नहीं। क्योंकि कान में ऐसी सम्वेदनशील झिल्ली लगाई गई है जिसकी मोटाई एक इंच का 2500 बिलियन (एक बिलियन बराबर दस लाख) है। इतनी हलकी साथ ही इतनी सम्वेदनशील ध्वनि ग्राहक वस्तु बन सकना मानवीय कर्तृत्व से बाहर की बात है। सुनने के प्रयोजन में कान लगभग 4 लाख प्रकार की आवाज पहचान सकते हैं और उनके भेद-प्रभेद का परिचय पा सकते हैं। सौ वाद्य यन्त्रों के समन्वय से बजने वाला आर्केस्ट्रा सुनकर उनसे निकलने वाली ध्वनियों का विश्लेषण प्रस्तुत करने वाले कान कितने ही संगीतज्ञों के देखे गये हैं। शतावधानी लोग सौ शब्द श्रृंखलाओं के क्रमबद्ध रूप से सुनने और उन्हें मस्तिष्क में धारण कर सकने में समर्थ होते हैं। कहते हैं कि पृथ्वीराज चौहान ने घन्टे पर पड़ी हुई चोट को सुनकर उसकी दूरी की सही स्थिति विदित कर ली थी।

योग-पद्धति में मन्त्र के उच्चारण से उत्पन्न ध्वनि को शब्द शक्ति ही विद्युत प्रदान करती है जबकि मानवीय इच्छा शक्ति उस पर नियन्त्रण करके कोई भी कार्य कर सकने में समर्थ होती है। जप और ध्यान, नाद (शब्द या ध्वनि कम्पन) और बिन्दु साधना का सम्मिलित रूप है उससे सृष्टि के विराट् और अणु से अणु कण का भेदन भी सम्भव हो जाता है।

अब वायुयान, जलयान ही नहीं धरती के भीतर और ऊपर जो कुछ भी है उसे आँखों से देखने की जरूरत नहीं है वह सारी जानकारी ध्वनि कम्पनों के आधार पर ही जानी जा सकती है। पृथ्वी, जल, वायु, आकाश, गर्मी इन सबको अब मात्र जड़ तत्व नहीं समझा जा रहा वरन् उनके साथ चलने वाले ध्वनि प्रवाहों की अभी तो हलचलें हो रही है। इतना ही जाना जा सकता है। यह शोध जैसे-जैसे आगे बढ़ेगी वैसे ही वैसे हर तत्व एक बोलती बात करती ईकाई की तरह अपने इर्द-गिर्द छिपे रहस्यों का उद्घाटन करता दिखाई देगा।

घटनायें ध्वनि का रूप धारण करती हैं। ध्वनि और प्रकाश दो ऐसे आधार हैं जिनके आधार पर स्थूल को सूक्ष्म और सूक्ष्म को स्थूल में परिवर्तित किया जा रहा है। अन्तरिक्ष में विविध स्तर के ध्वनि कम्पन निरन्तर गतिशील रहते हैं यदि किसी को कर्णेन्द्रिय से अधिक उच्च स्तर की श्रवण शक्ति मिल जाय तो वह श्रवणातीत ध्वनियों को सुन समझ सकता है और भूत, तथा वर्तमान में घटित हुए दूरवर्ती अथवा समीपवर्ती घटनाओं को जान समझ सकता है। नादयोग के अभ्यासी इसी शक्ति को जगाते हैं और सूक्ष्म जगत में हो रही हलचलों के आधार पर भूत वर्तमान तथा भविष्य का वह ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं जो सर्व साधारण की पहुँच से बाहर होता है। ध्यान योग से यही प्रयोजन प्रकाश के रूप धारणाओं के माध्यम से पूरा किया जाता है।

जप के लिए जिह्वा से होने वाले शब्दोच्चारण को बैखरी वाणी कहते हैं। यह केवल जानकारी के आदान-प्रदान से प्रयुक्त होती है। इसे भाव सम्पन्न व्यक्ति ही बोलते हैं। जीभ और कान के माध्यम से नहीं वरन् हृदय से हृदय तक यह प्रवाह चलता है। भावनाशील व्यक्ति ही दूसरों की भावनायें उभार सकता है। यह बैखरी और मध्यमा वाणी मनुष्यों के बीच विचारों एवं भावों के बीच आदान-प्रदान का काम करती हैं।

इससे आगे दो और वाणियाँ हैं जिन्हें परा और पश्यन्ति कहते हैं। परा पिण्ड में और पश्यन्ति ब्रह्माण्ड क्षेत्र में काम करती है। आत्म-निर्माण का - अपने भीतर दबी हुई शक्तियों को उभारने का काम ‘परा’ करती है। ईश्वर से - देव शक्तियों से - समस्त विश्व से - लोक-लोकान्तरों से सम्बन्ध, सम्पर्क बनाने में पश्यन्ति वाणियों को दिव्य वाणी एवं देव वाणी कहा गया है। इस दिव्य वाणी को ‘वाक’ कहते हैं। ‘वाक’ शक्ति उत्पन्न करने वाले और उसके साथ मन्त्र साधना करने वाले साधक अपने लक्ष्य में सफल होकर ही रहते हैं।

बैखरी वाणी जब मन्त्र साधन द्वारा सूक्ष्म होती चलती है और ‘वाक’ बनती है तो तीनों लोकों पर उसका अधिकार होता चला जाता है। लोक लोकान्तर में जो कुछ विद्यमान है उससे सम्बन्धित होती है- प्रभावित करती, नियन्त्रण रखती है और संचालन करती है परिष्कृत परावाक्। जिह्वा से उच्चारित बकवास में प्रयुक्त होती रहने वाली प्रक्रिया जब उलट कर मंत्र साधना में लगती है तब वह शक्ति रूप होती है। शक्ति भी ऐसी जिसकी परिधि में वह सब कुछ आ जाता है जिसे अद्भुत एवं महान कह सकते हैं।

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