गायत्री उपासना की क्रिया-प्रक्रिया

May 1976

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गायत्री उपासना को नित्य कर्म माना गया है। शरीर की भूख बुझाने जीवन-यापन के लिए उपयुक्त शक्ति संग्रह के लिए- आहार करना नित्य कर्म है। मल विसर्जन स्नान आदि की स्वच्छता भी नित्य कर्म है। इसी प्रकार आत्मा को भोजन देने- आत्मबल संचय करके उत्कर्ष की क्षमता प्राप्त करने के लिए उपासना भी नित्य कर्म है। कपड़े धोना, झाडू लगाना, स्नान, दन्तमंजन आदि स्वच्छता कर्मों की तरह ही मनः क्षेत्र पर आये दिन जमने वाले कषाय-कल्मषों का परिशोधन करना भी नित्य उपासना का एक प्रयोजन है। आहार और स्वच्छता की व्यवस्था न करने पर शरीर निर्वाह कठिन हो जाता है उसी प्रकार उपासना न करने पर आत्मा दिन-दिन दुर्बल होता है। आत्मिक क्षेत्र विकृतियों से भरा चला जाता है। अस्तु आजीविका उपार्जन-विश्राम आदि दैनिक कृत्यों की तरह उपासना को भी आध्यात्मिक नित्य कर्म माना गया है।

भारतीय संस्कृति में उपासना के लिए जो नित्य विधान है। उसे सन्ध्या कहते हैं। सन्ध्या, दिन और रात्रि के मिलन काल को कहते हैं। प्रातः काल सूर्योदय से पूर्व का और सायं सूर्यास्त से पीछे का समय सन्ध्या काल माना गया है। इस समय सन्ध्या वन्दन कृत्य आवश्यक हैं। कहीं-कहीं प्रातः मध्याह्न और सायं त्रिकाल सन्ध्या का भी विधान है। अन्यथा दो बार सन्ध्या करने की परम्परा निवाहने पर तो बहुत जोर दिया गया है। इस कृत्य के निर्वाह की प्रशंसा की गई है जो इस दिशा में आलस बरतते हैं, उपेक्षा करते हैं उनकी शास्त्रकारों ने कटु भर्त्सना की है।

सन्ध्या के कई विधान प्रचलित हैं, पर उन सब में गायत्री उपासना अनिवार्य है। गायत्री के बिना किसी भी विधान के अनुसार सन्ध्या कृत्य पूर्ण नहीं हो सकता। जिन्हें अन्य विधान न आते हों वे केवल गायत्री जप करके भी सन्ध्या कृत्य पूर्ण कर सकते हैं।

सन्ध्या कृत्य के साथ गायत्री उपासना का शास्त्रीय निर्देश अनेक स्थानों पर मिलता है। यथा-

एतदक्षरमेतां जपन् व्याहृति पूर्वकाम। सन्ध्ययोर्वेदविद् विप्रो वेद पुण्येन मुच्यते॥

-मनु0 2।78

सन्ध्या करते हुए व्याहृति सहित गायत्री का जप करने से वेदाध्ययन का फल प्राप्त होता है।

आचार्यस्त्वस्य यां जातिं विधिवद् वेद परागः। उत्पादयति सावित्र्या सा सत्या साऽजराऽमरा॥

-मनु0

वेदों का ज्ञाता आचार्य सावित्री का उपदेश देकर जन्म देता है वही जाति सच्ची और अजर, अमर होती है।

पूर्वां सन्ध्यां जपंस्तिष्ठेत् सावित्रीमार्कदर्शनात्। पश्चिमां तु समासीनः सम्यगृक्षविभावनात्॥

-मनु 2।101

सूर्योदय से पूर्व प्रातः कालीन सन्ध्या में खड़े होकर और सायं कालीन सन्ध्या में जब तक सूर्य दीखे तब तक बैठकर जप करने से मन का निग्रह होता है।

संध्यासु चार्य्यदानं च गायत्री जपमेव च। सहस्रत्रितयं कुर्वन्सुरैः पूज्यो भवेन्मुने॥

-वशिष्ठ

“तीनों सन्ध्याओं में अर्घ्य देवे और प्रत्येक सन्ध्या में एक हजार गायत्री जप करे तो हे मुने! वह मनुष्य देवताओं द्वारा भी पूज्य हो जाता है।”

समस्तसप्ततन्तुभ्यो जपयज्ञ परः स्मृतः। हिंसान्ये प्रर्वतन्ते जपयज्ञो न हिंसया॥

ते सर्वे जप यज्ञश्च नाहति षोडशीकलां। जपने देवता नित्यं स्तूयमाना प्रसीदति॥

प्रसन्ना विपुलान् भोगान् दधान्मुक्तिन्च शाश्वतीम्। यक्ष राक्षस वैतालः भूतप्रेत पिशाचकः। जपाश्रयीं द्विजं दृष्टा दूरं ते यान्ति भीतितः॥

-भारद्वाज

जप यज्ञ अधिक श्रेष्ठ है। उसमें हिंसा आदि का दोष नहीं है।

जप द्वारा प्रसन्न हुए देवता प्रचुर योग साधन तथा अक्षय शक्ति प्रदान करते हैं।

जप करने वाले साधक को देखते ही यक्ष, राक्षस, बैताल, भूत-प्रेत, पिशाच आदि डरकर भाग जाते हैं।

जप की श्रेष्ठ साधना को निरन्तर श्रद्धापूर्वक अपनाना चाहिए।

एवं सन्ध्या विधि कृत्वा गायत्रीं च जपेद स्मरेत्। गायेचिष्यान् यत स्त्रायेदभार्यां प्राणांस्तथैव च।

-अग्नि पुराण

“सन्ध्या विधिपूर्ण करने के पश्चात गायत्री का जप और स्मरण करना चाहिये। गायमान होने से अर्थात् उपासना करने से वह गुरु, शिष्य, स्त्री, और प्राणी सब का उद्धार करती है”।

महाभारत में महर्षि मार्कण्डेय और राजा युधिष्ठिर के संवाद रूप गायत्री का विस्तृत माहात्म्य बताया गया है। उसके कुछ श्लोक इस प्रकार हैं-

क्न्तिच्छौचं भवेद्येन विप्रः शुद्धः सदा भवेत्। तदिच्छामि महा प्राज्ञ श्रोतुधर्माभृतांवर॥

हे धर्म धुरीण युधिष्ठिर मैं वह विधान सुनना चाहता हूँ जिस आचरण से ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व परिष्कृत होता है।

युधिष्ठिर ने कहा-

सायं प्रातश्च सन्ध्यां ब्राह्मणोह्युप सेवते। प्रजपन पावनीं देवीं गायत्री वेदमातरम्। स तयापावितो देव्या ब्राह्मणो नष्ट किल्विष्यः। न सीदेत् प्रतिग्रह नो महीमपि सागरात्।

जो ब्राह्मण प्रातः सायं परमपावनी वेद माता गायत्री का जप सन्ध्योपासना सहित करता है। वह पाप प्रवृत्तियों से छुटकारा पाकर परम पवित्र हो जाता है और प्रतिग्रह पाप से बचा रहता है।

ध्यामाच्छान्तो जपेन्मन्त्रं जपाच्छान्तश्च चिन्तयेत्। जपध्यानादियुक्तस्य विष्णुः शीघ्रं प्रसीदति॥

जपिनं नोपसर्पन्ति व्याधयश्चाऽऽधयो ग्रहाः। भुक्तिर्मुंक्तिर्मृत्युजयो जपेन प्राप्नुयात्फलम्॥

-अग्नि पुराण

शाँत चित होकर मन्त्र का जप करना चाहिए। जप और ध्यान दोनों की संयुक्त साधना में भगवान की प्राप्ति जल्दी ही होती है।

जप करने वाले को शारीरिक व्याधियाँ और मानसिक व्यथाएं नहीं सताती। जप करने वाला भक्ति और मुक्ति दोनों ही प्राप्त करता है।

सामान्य उपासना की अपेक्षा अनुष्ठान पुरश्चरणों का विशेष महत्व एवं परिणाम बताया गया है। यह उचित ही है। उपासना में निर्धारित क्रिया-कृत्य कर लेना ही पर्याप्त माना जाता है, पर अनुष्ठान पुरश्चरणों में साधक को कितने ही प्रकार के प्रतिबन्ध उस अवधि में लगाने पड़ते हैं और तपस्वी जैसा जीवन जीना पड़ता है। (1) उपवास (2) ब्रह्मचर्य (3) भूमिशयन (4) अपनी शारीरिक सेवा अपने हाथों करना (5) चमड़े से निर्मित वस्तुओं का त्याग यह पाँच नियम स्थल आचरण में पालन किये जाने के हैं। शारीरिक, मानसिक और आर्थिक पापों से बचना सज्जनोचित रीति, नीति अपना कर उन दिनों उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तृत्व से भरा पूरा जीवन निर्वाह करना पड़ता है।

सामान्य रीति से बारूद जला देने पर थोड़ी सी रोशनी एवं आवाज होती है, पर यदि उसी बारूद को बंदूक की नली में बन्द करके चलाया जाय तो प्रचण्ड शक्ति उत्पन्न होती है। सामान्य प्रतिबन्ध रहित साधना और तपस्वी जीवन क्रम अपनाकर समग्र तादात्म्य की मनःस्थिति में अधिक समय तक की जाने वाली उपासना का निश्चित रूप से अधिक प्रतिफल होता है। आत्मबल संवृद्धि की दिशा में बढ़ने के लिए उपयुक्त प्रकाश प्राप्त करना इन अनुष्ठान पुरश्चरणों का प्रमुख प्रयोजन होता है। साधन की कठिनता के अनुरूप ही उनकी उपलब्धियाँ भी बढ़ी-चढ़ी होती हैं।

लक्ष द्वादश युक्तस्तु पूर्ण ब्राह्मण ईरितः। गायत्र्या लक्ष हीनं तु वेद कार्ये न योजयेत्।1।

चतुर्विंशति लक्षं वा गायत्री जप संयुतः। ब्राह्मणस्तु भवेत्पात्रं सम्पूर्ण फल योगदम्।2।

तस्माद्दानं जपे होमे पूजायां सर्व कर्माणि। दान कर्तुं तथा त्रातु पात्रं तु ब्राह्मणोर्हति।3।

-शिव पुराण

बारह लाख गायत्री जपने पर पूरा ब्राह्मण कहलाता है। जिसने एक लाख भी जप न किया हो उसे वेद कार्यों में सम्मिलित नहीं करना चाहिए।

जिस ब्राह्मण ने 24 लक्ष गायत्री जप कर लिया हो, वही सत्पात्र कहलाता है। उसी के फल की आशा की जा सकती है।

इस लिए दान, जप, होम, पूजा आदि कर्मों में केवल उपरोक्त प्रकार के सत्पात्र को ही लेना चाहिए।

सावित्री मप्यधीपित शुचौ देशे मितासनः। अहिंसो मन्दकोऽजल्यो मुच्यते सर्व किल्विषै।

-महा. शान्ति पर्व 35।37

“जो पवित्र स्थान में मिताहारी हो हिंसा का सर्वथा त्याग करके राग-द्वेष, मान-सम्मान आदि से शून्य हो मौन भाव से गायत्री का जप करता हो वह सब पापों से मुक्त हो जाता है।”

चतुर्विंशति लक्षं वा गायत्री जप संयुतः।

ब्राह्मणस्तु भवेत पात्रं सम्पूर्ण फल योगदम्।

चौबीस लक्ष गायत्री जप करने वाला ब्राह्मण पूजा के योग्य है। उसके द्वारा किये हुए सभी धर्मकृत्य सुफल होते हैं।

लभतेऽभिमतां सिद्धिं चतुर्विंशति लक्षतः। जपतोऽयुतसख्याकैरधवा च सहस्रकैः॥

इस गायत्री महामन्त्र के चौबीस लाख का जप करने से मानव अपनी अभीष्ट सिद्धि को प्राप्त किया करता है। दस हजार की अथवा सहस्र की संख्या वाले जप से भी परम कल्याण का लाभ होता है।

लभतेऽभिमतां सिद्धि चतुर्विंशति लक्षतः। चतुर्विंशति लक्षं तु यज्ञ कल्प यतं यथा॥

-याज्ञवलक्य

24 लक्ष जप करने से सिद्धि प्राप्त होती है और यज्ञ कल्प फल प्राप्त होता है।

दिवा चैव जपं कुर्यात पौरश्चरणिको द्विजः। पत्रा वल्यां पलाशस्य मिताहारी भवेन्निशि॥

-ब्रह्म संहिता

“पुरश्चरण करने वाले साधक को दिन में जप करना चाहिए और सन्ध्या हो जाने पर पलाश की पत्तल में लघु आहार करना चाहिए।”

कुशैर्विनिर्मितायां तु शय्यायां वस्त्रमात्मनः। सद्यः प्रक्षालितं दत्वा एकाकी निर्भयः स्वयेत॥

-ब्रह्म0

“कुश से तैयार की हुई शय्या पर स्वयं ही धोया हुआ स्वच्छ वस्त्र बिछावें और उस पर रात्रि में निर्भय होकर शयन करें।

एवं प्रतिदिनं कुर्यात् संख्या यवन्न पूर्यंते। तदन्ते महतीं पूजां कुर्याद् विप्रांश्च तर्पयेत्॥

-ब्रह्म0

“इस प्रकार प्रतिदिन जप करते हुए चौबीस लाख की संख्या पूरी करनी चाहिए और अन्त में पूजा, होम करके विद्वानों को तृप्त करना चाहिए।”

गायत्र्याश्च पुरश्चर्या सर्व्रकाम प्रदायिनी। कथिता तव देवर्षे महापापविनाशिनी।

आदौ कुर्याद्व्रतं मन्त्री देहशोधनकारकम्। पुरश्चर्या ततः कुर्यात्समस्तफलभाग्भवेत्।

इति ते कथितंगुह्यं पुरश्चर्याविधानकम्।

-देवी भागवत्

गायत्री पुरश्चरण समस्त कामनाएं पूर्ण करने वाला है। इससे समस्त पाप भी दूर होते हैं। पुरश्चरण कर्ता को प्रथम देह शोधन करना चाहिए इसके पश्चात ही फल प्राप्त होता है, पुरश्चरण की सफलता का यही सार है।

अथातः श्रूयतां ब्रह्मन् गायत्र्याः पापनाशनम्। पुरश्चरणकं पुण्यं यथेष्टफलदायकम्॥

पर्वताग्रे नदीतीरे बिल्वमूले जलाशये। गोष्ठे देवालयेऽश्वत्थे उद्याने तुलसीवने॥

पुण्यक्षेत्रेगुरोः पार्श्वे चितैकाग्रयस्थलेऽपि च। पुरश्चरणकृत्मंत्री सिध्यत्येव न संशयः॥

यस्य कस्यापि मंत्रस्य पुरश्चरणमा रभेत्। व्याहृतित्रतसंयुक्तां गायत्रीं चायुतं जपेत॥

नृसिंहार्कवराहाणां ताँत्रिकं वैदिकं तथा। विना जप्त्वा तु गायत्रीं तत्सर्वं निष्फलं भवेत्॥

मंत्रं संशोध्य यत्नेन पुरश्चरणतप्परः। मंत्रशोधनपूर्वांगमात्मशोधनमुत्तमम्॥

आत्मतत्वशोधनाय त्रिलक्ष प्रजपेद्बुधः। अथवा चैकलक्ष तु श्रुतिप्रोक्तेन वर्त्मना॥

आत्मशुद्धिं विना कर्तुर्जपहोमादिकाः क्रिया। निष्फलास्तास्तु विज्ञेयाः कारणं श्रुतिचोदितम्॥

-देवी भागवत (पुरश्चरण प्रकरण)

हे ब्राह्मण! यथेष्ट फल देने वाली, पापी नाशक गायत्री के पुरश्चरण का विधान सुनो।

पर्वतीय प्रदेश में नदी, तीर, विल्व, मूल, जलाशय, गौ, गौष्ठ, देव मन्दिर, पीपल पेड़, उद्यान, तुलसी वन, पवित्र तीर्थ, गुरु के समीप, चित को एकाग्र रखने वाले, स्थान में पुरश्चरण करने से उपासक को निश्चित रूप से सफलता मिलती है।

भले ही नृसिंह, सूर्य, वाराह आदि किसी अन्य ताँत्रिक वैदिक मन्त्र का अनुष्ठान करना हो, पर उससे पूर्व दस सहस्र गायत्री जप तो अवश्य ही कर लें। यदि इतना न करेगा तो कोई भी मन्त्र सफल न होगा।

पुरश्चरण करने वाले को पहले- (1) मन्त्र शोधन (2) आत्म-शोधन करना चाहिए। गायत्री जप से मन्त्रों का शोधन होता है। आत्म शोधन के तीन लाख, न्यूनतम एक लाख गायत्री का जप करे। इसके उपरान्त ही किसी मन्त्र का पुरश्चरण जप, होम, तर्पण सफल हो सकता है।

विना न येन सिद्धः स्यान्मन्त्रो वर्षशतैरपि। तत् पुरश्चरणं नाम मन्त्रसिद्धार्थमात्मनः॥

-अगस्त

केवल मन्त्र जप से दीर्घकाल तक भी सिद्धि नहीं मिलती। सफलता पानी हो तो पुरश्चरण करना चाहिए।

गायत्री के 24 अक्षर हैं। प्रति अक्षर एक लाख के हिसाब से पूरे मन्त्र के 24 लाख जप को एक पूर्ण पुरश्चरण कहते हैं यह 6 घण्टा नित्य समय लगाने पर एक वर्ष में पूरा होता है। कम समय लगाना हो तो वह अवधि उसी अनुपात से आगे बढ़ जायेगी। मध्य अनुष्ठान सवा लाख जप का होता जो 40 दिन में पूरे करने का विधान है। सबसे छोटा 24 हजार जप का होता है जिसे 9 दिन में पूरा करना होता है।

सामान्यतः प्रतिदिन एक हजार जप का नियम बनाया जा सके तो उत्तम है। इसमें प्रायः एक घण्टा लग जाता है। न्यूनतम 10 बार भी हो सकता है यह दस उंगलियों पर गिनकर पूरा हो सकता है। थोड़ी अधिक सुविधा हो तो सौ प्रतिदिन अर्थात्- एक माला का जाप करना चाहिए।

विशेष परिस्थितियों में, विशेष प्रयोजनों के लिए दस हजार जप की विशिष्ट उपासना कर लेने का भी विधान है। इस दस हजार की संकल्पित साधना को अनुष्ठान तो नहीं कह सकते, पर सामान्य जप क्रमशः उनका विशेष महत्व है। इसे न्यूनतम तीन दिन में और अधिकतम दस दिन में पूरा करना चाहिए। उपवास, ब्रह्मचर्य यह दो नियम तो इसमें भी आवश्यक है। उपवास में फलाहार पर रहना कठिन हो तो एक अन्न और एक शाक पर निर्वाह करना भी सामान्य उपवास में गिना जा सकता है। इस सामान्य साधनाओं के सम्बन्ध में निर्देश इस प्रकार मिलते हैं-

सहस्र कृतस्त्वभ्यस्य वहिरेतत् त्रिकं द्विजः। महतोऽप्ये नसोमासात्व चे वाहिर्विमुच्यते॥

“जो द्विज ग्राम या नगर से बाहर जलाशय के समीप ओंकार, व्याहृति तथा गायत्री का जप एक हजार की संख्या में करे वह महा पाप से ऐसे छूट जाता जैसे साँप केंचुली से।”

सहस्रपरमांनित्यंशतमध्यांदशावराम्। सावित्रींवैजपेद्विद्वान्प्रांगमुखः प्रयतःस्थितः॥

एक सहस्र सावित्री का जाप सर्वश्रेष्ठ नैत्यिक जाप है- एक सौ मध्यम श्रेणी का है और कम से कम दस बार ही जाप करना अधम कोटि में आता है। विद्वान पुरुष को इस सावित्री का जाप पूर्वाभिमुख होकर प्रयत समवस्थित रहकर ही करना चाहिए।

सहस्र परमां देवि शत मध्यां दशावराम्। गायत्रीं यो जपोद्विप्रो न स पापेन लिप्यते॥

-अत्रिस्मृति

गायत्री का प्रतिदिन एक सहस्र जप करना अति उत्तम है। शत मन्त्र जप मध्यम है। दस मन्त्र स्वल्प है। अपनी सामर्थ्यानुसार दस, सौ या हजार बार गायत्री जप करना चाहिए। ऐसा करने वाला पापों में लिप्त नहीं होता।

गायत्र्याः शत सहस्रात् पूतो भवति मानवः। जप्त्वा सहस्रं गायत्र्याः शुद्धो ब्रह्मवधाद ऋते॥

-योगि याज्ञवलक्य

गायत्री का सौ या हजार बार जप करते रहने से मनुष्य पवित्र एवं ब्रह्मविद हो जाता है।

न न्यूनं नातिरिक्तं च जपं कुर्याद् दिने दिने। प्रारम्भ दिनमारभ्य समाप्ति दिवसावधि॥

-वशिष्ठ संहिता

“आरम्भ के दिन से लेकर समाप्ति तक गायत्री मन्त्र का एक बराबर जप करना चाहिए। कम या ज्यादा जप करना ठीक नहीं।”

दशसाहस्रमभ्यस्ता गायत्री शोधनी परा।

(लघु अत्रि संहिता)

“गायत्री का दश सहस्र जप अत्यन्त शुद्धि करने वाला होता है।”

सर्वेंषामेव पापानां संकरे समुपस्थिते। दशसाहस्रिकाभ्यासो गायत्र्याः शोधनम्परम्॥

(याज्ञ0 गा0 व्या0)

“ जब बहुत पाप आकर मिल जाये तो गायत्री का दस सहस्र जप करना परमशोधन करने वाला होता है।”

सामान्य गायत्री प्रातः सायं स्नानादि से निवृत्त होकर विधि-विधान के साथ करनी चाहिए। पर जिन्हें अधिक अवकाश है वे सुविधा के समय मानसिक जप कभी भी करते रह सकते हैं। इसी प्रकार अत्यधिक व्यस्त अथवा अव्यवस्थित दिनचर्या वाले व्यक्ति भी जब भी अवकाश मिले तभी उपासना कर सकते हैं। पर ऐसी असमय की अथवा अनियमित उपासना मुँह बन्द रखकर मानसिक जप के रूप में ही चलनी चाहिए। ऐसी उपासना रास्ता चलते-सोते या किसी अन्य काम को करते हुए भी की जा सकती है। मौन जप में किसी प्रकार का विधि विशेष प्रतिबन्ध नहीं है।

अथ हैतदन्तःश्रि। योऽय सन्धायौष्ठा उच्चः स्वरमाश्रावयति श्रीर्वै स्वरोऽन्तरत एव तच्छियन्धते। अत्रादो भवति॥

-शतपथ 11।4।2।11

जो मुँह बन्द करके स्वर साधना करता है उसकी श्री भीतर ही बनी रहती है। स्वर ही श्री है। जो उसे भीतर ही रखता है सो तृप्त हो जाता है- उसके अभाव पूर्ण हो जाते हैं।

यान पात्रे च याने च प्रवाशे राजवेश्मनि। परां सिद्धिमवाप्नोति सावित्रीं ह्युत्तमां पठन्॥

-अनुशासन पर्व 150।68

“जो जहाज में या किसी सवारी में बैठने पर विदेशों में या राजदरबार में जाने पर मन ही मन उत्तम गायत्री का जप करता है, वह परम सिद्धि को प्राप्त होता है।

अशुचिर्वा शुचिर्वापि गच्छन् तिष्ठन् स्वपन्नपि। मंत्रैक्शरणो विद्वान् मन सैव सदाभ्यसेत्। न दोषो मानसे जाप्ये सर्व देशोऽपि सर्वदा।

-शारदा तिलक

पवित्र हो अथवा अपवित्र, चलते-फिरते, बैठते-उठते, सोते-जागते एक ही मन्त्र की शरण लेकर उसका सदा मानसिक जप करता रहे। मानसिक जप में किसी समय या स्थान का दोष नहीं होता।

अशुचिर्वा शुचिर्वापि गच्छन् तिष्ठन् यथा तथा। गायत्री प्रजपेद्धीमान् जपात् पापान्निवर्तते॥

-गायत्री तन्त्र

अपवित्र हो अथवा पवित्र हो, चलता हो अथवा बैठा हो, जिस भी स्थिति में हो बुद्धिमान मनुष्य गायत्री का जप करता रहे। इस जप के द्वारा पापों से छुटकारा हो जाता है।

कुर्वन्नापि त्रुटीर्लोके बालको मातरम् प्रति। यथा भवति कश्चिन्न तस्यां अप्रीति भाजनः।

कुर्वन्नापित्रुटी भक्त कश्चित् गायत्र्युपासने। न तथा फल माप्नोति विपरीत कदाचन्॥

-गायत्री संहिता

जिस प्रकार संसार में माता के प्रति भूल करने पर कोई माता बालक से शत्रुता नहीं करती, उसी प्रकार उपासक से कोई भूल हो जाने पर भी गायत्री माता कुपित नहीं होती।

गायत्री और यज्ञ का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। गायत्री को भारतीय संस्कृति की जननी और यज्ञ को भारतीय धर्म का पिता कहा गया है। दोनों के संयोग से गायत्री यज्ञ का पुनीत धर्मानुष्ठान बनता है। अनुष्ठान पुरश्चरणों के अन्त में गायत्री यज्ञ आवश्यक है। पर्व त्यौहारों, संस्कारों में गायत्री यज्ञ की व्यवस्था करनी चाहिए। विशेष शुभारम्भों- हर्षोत्सवों में गायत्री यज्ञ की व्यवस्था विशेष रूप से रखी जानी चाहिए। गायत्री को सद्ज्ञान और यज्ञ को सत्कर्म का प्रेरक माना गया है। दोनों के समन्वय से अध्यात्म की सर्वांगपूर्ण पृष्ठभूमि बनती है।

होतव्या च यथशक्त्या सर्वकाम समृद्धि दा। सावित्री सारमात्रोऽपि वरं विप्रः सुयंत्रितः॥

अपनी शक्ति के अनुसार इस गायत्री मंत्र का हवन भी करना चाहिए। हवन से यह समस्त समृद्धियों को प्रदान करने वाली होती है। सावित्री के सार मात्र वाला भी विप्र श्रेष्ठ और सुयन्त्रित होता है।

वेदशास्त्रपुराणानामयेव सुनिश्चयः। गायत्र्या जप होमादि विधिः सर्वार्थ साधकाः।

“वेद, शास्त्र, पुराण आदि का यह निश्चित मत है कि गायत्री का जप, हवन आदि सर्वार्थ साधक होता है।”

पूजा होमादिकं चैव यत्कृतं त्वदनुग्रहात्। तेन प्रीताभव त्वं भोः शुद्धे मे मानसं कुरु॥

“हे माता! तुम्हारी कृपा से मैंने जो पूजा, हवन आदि किये हैं, उनसे प्रसन्न होकर आप मेरे मन को शुद्ध करो।”

अहंतां सत्य पैशुन्ये कामंक्रोधं मदम् रुजम। हिसां नास्तिक्यम् अज्ञानम् अदयां दम्भकैतवे॥

ब्रीड़त्वम् अनृजुत्वं च दारिद्रयं शोक मत्सरौ। अक्षमां च अभिताहारं भयं निद्रां सुखेतरम्॥

अधैर्यं दुष्टसंचार नीच संगं त्वविधताम्। आसुरभावं इत्यष्टाविंशत्याहुतिभि र्हुवेत्॥

“अहंकार, असत्य, पिशुनता, काम, क्रोध, मद (घमण्ड), रोग, हिंसा, नास्तिक भाव, अज्ञान, अदया (क्रूरता), दम्भ, कैतव, लज्जा, कुटिलता, दरिद्रता, शोक, मत्सर, क्षमा हीनता, अधिक भोजन, भय, निद्रा, दुःख, अधैर्य, दुष्टता, नीच का संग, अविद्या, आसुरी भाव इन 28 दुर्गुणों की आहुति देनी है।”

गायत्री को अग्नि कहा गया है। अग्नि से ऊष्मा, प्रज्ज्वलनशीलता, सम्पर्क में आने वाले को आत्मवत् बना लेने की क्षमता जैसी अनेकों विशेषताएं है। यही गुण गायत्री में भी है। वह साधक को ब्रह्म तेजस् युक्त बनाती है और उसके कलाष-कल्मषों को जलाकर निर्मल प्रखरता प्रदान करती है। इसे सामान्य आग नहीं ब्रह्माग्नि, यज्ञाग्नि समझा जाना चाहिए।

तस्या अग्निदेव मुखम् यदि हवा अपि वह्विवाग्नावभ्यादधति, सर्व मेव तत्संदहति एवं œ हैवं विद्यद्यपि वह्विव पापं कुरुते सर्वमेव तत्सप्साय शुद्धः पूतोऽजरोऽमृतः सम्भवति।

-शतपथ 8।14।8

गायत्री का अग्नि मुख है। जैसे अग्नि विशाल काष्ट ढेर को जला डालती है उसी प्रकार गायत्री उपासक के पूर्वकृत पापों को नष्ट कर डालती है।

निः सरन्ति महामन्त्रा महाग्ने र्विस्फुलिंग वत्।

अर्थात्- “अग्नि की विशाल राशि से चिनगारियाँ निकलने की तरह समस्त मन्त्र वर्षा गायत्री से आविर्भूत होते हैं।”

गायत्री यज्ञः। गो0 पृ0।4।24

गायत्री यज्ञ रूप हैं।

चिदग्निकुण्ड सम्भूता देवकार्य समुद्यता॥

“ हे महादेवि! तुम देव कार्य की सिद्धि के लिए ज्ञान रूप अग्निकुण्ड से उत्पन्न होती हो।”

यो वा अत्राग्नि गायत्री

-श॰ ।8।2।15

यह दिव्य अग्नि गायत्री ही है।

गायत्री उपासना में निरत साधकों को छोटे या बड़े रूप में- दैनिक अथवा सामयिक यज्ञ आयोजनों के लिए यथासम्भव प्रयत्नशील रहना चाहिए। गायत्री जप और यज्ञ कृत्य के मिलने से सर्वांगपूर्ण साधना का लाभ मिलता है।

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